बचपन इतना मासूम इसलिए होता है क्योंकि बचपने को संसार के लोभ, लालच, मोह, माया, गलत, सही का पता नहीं होता। उस बचपने में सिर्फ और सिर्फ इंसानियत होती है।
एक बच्चे को गौर से देखिए, वह एक दस रुपए की चौकलेट या टौफी पाकर भी कितना खुश हो जाता है। निर्जीव खिलौने से खेलते हुए भी कितना खुश रहता है।
एक मासूम बच्चे की इंसानियत देखिए। वह अपने गुड्डे या गुड़िया को कल्पना में भी बीमार मानकर विचलित, चिंतित या दुखी हो जाता है। यह इंसानियत की पराकाष्ठा है। जो बच्चे की मासूमियत में कूट कूट कर भरी होती है।
फिर एक बच्चे की मासूमियत कैसे और क्यों खत्म हो जाती है? यह भी एक महत्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न है।
क्योंकि उम्र बढने के साथ साथ हम समझदार माता पिता बचपने को जिंदगी के कायदे कानून सिखाने लगाते हैं। लोभ, लालच की गलियों में घुमाने लगते हैं। यह बताने लगते हैं कि यह मोह है, यह माया है। यह अपना और वह पराया है।
हम समझदार लोग मिलकर एक बच्चे की मासूमियत को खत्म कर देते हैं। और जैसे ही एक बच्चे की मासूमियत खत्म होती है, उसका बचपना खत्म हो जाता है।
इसके परिणाम क्या होते हैं?
फिर वह बचपना किसी बगीचे के खिले, ताजे, मुस्कराते हुए फूल की तरह नहीं रह जाता। वह रंगहीन, मुरझाए अकड़े फूल की तरह हो जाता है। यह दुखद है।
यदि समाज को शांति पूर्ण और सुंदर बनाना है, तो एक बच्चे के बचपने को, उसकी मासूमियत को जिंदा रखने का प्रयास बहुत जरूरी है।