अदा’ ज़ाफ़री ग़ज़ल
आलम ही और था जो शनासाइयों में था
जो दीप था निगाह की परछाइयों में था
वो बे-पनाह ख़ौफ़ जो तन्हाइयों में था
दिल की तमाम अंजुमन-आराइयों में था
इक लम्हा-ए-फ़ुसूँ ने जलाया था जो दिया
फिर उम्र भर ख़याल की रानाइयों में था
इक ख़्वाब-गूँ सी धूप थी ज़ख़्मों की आँच में
इक साए-बाँ सा दर्द की पुरवाइयों में था
दिल को भी इक जराहत-ए-दिल ने अता किया
ये हौसला के अपने तमाशाइयों में था
कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला
सूरज मेरी निगाह की सच्चाइयों में था
अपनी गली में क्यूँ न किसी को वो मिल सका
जो एतमाद बादिया-पैमाइयों में था
इस अहद-ए-ख़ुद-सिपास का पूछो हो माजरा
मसरूफ़ आप अपनी पज़ीराइयों में था
उस के हुज़ूर शुक्र भी आसाँ नहीं ‘अदा’
वो जो क़रीब-ए-जाँ मेरी तन्हाइयों में था
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अचानक दिल-रुबा | ADA ZAFRI GHAZAL
अचानक दिल-रुबा मौसम का दिल-आज़ार हो जाना
दुआ आसाँ नहीं रहना सुख़न दुश्वार हो जाना
तुम्हें देखें निगाहें और तुम को ही नहीं देखें
मोहब्बत के सभी रिश्तों का यूँ नादार हो जाना
अभी तो बे-नियाज़ी में तख़ातुब की सी ख़ुश-बू थी
हमें अच्छा लगा था दर्द का दिल-दार हो जाना
अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
हमें आता है पत-झड़ के दिनों गुल-बार हो जाना
अभी कुछ अन-कहे अल्फ़ाज़ भी हैं कुँज-ए-मिज़गाँ में
अगर तुम इस तरफ़ आओ सबा रफ़्तार हो जाना
हवा तो हम-सफ़र ठहरी समझ में किस तरह आए
हवाओं का हमारी राह में दीवार हो जाना
अभी तो सिलसिला अपना ज़मीं से आसमाँ तक था
अभी देखा था रातों का सहर आसार हो जाना
हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है
कभी अख़बार पढ़ लेना कभी अख़बार हो जाना.
दीप था या तारा क्या जाने | ADA ZAFRI GHAZAL
दीप था या तारा क्या जाने
दिल में क्यूँ डूबा क्या जाने
गुल पर क्या कुछ बीत गई है
अलबेला झोंका क्या जाने
आस की मैली चादर ओढ़े
वो भी था मुझ सा क्या जाने
रीत भी अपनी रुत भी अपनी
दिल रस्म-ए-दुनिया क्या जाने
उँगली थाम के चलने वाला
नगरी का रस्ता क्या जाने
कितने मोड़ अभी बाक़ी हैं
तुम जानो साया क्या जाने
कौन खिलौना टूट गया है
बालक बे-परवा क्या जाने
ममता ओट दहकते सूरज
आँखों का तारा क्या जाने
घर का रस्ता भी मिला | ADA ZAFRI GHAZAL
घर का रस्ता भी मिला था शायद
राह में संग-ए-वफ़ा था शायद
इस क़दर तेज़ हवा के झोंके
शाख़ पर फूल खिला था शायद
जिस की बातों के फ़साने लिक्खे
उस ने तो कुछ न कहा था शायद
लोग बे-मेहर न होते होंगे
वहम सा दिल को हुआ था शायद
तुझ को भूले तो दुआ तक भूले
और वही वक़्त-ए-दुआ था शायद
ख़ून-ए-दिल में तो डुबोया था क़लम
और फिर कुछ न लिक्खा था शायद
दिल का जो रंग है ये रंग-ए-‘अदा’
पहले आँखों में रचा था शायद
गुलों को छू के शमीम | ADA ZAFRI GHAZAL
गुलों को छू के शमीम-ए-दुआ नहीं आई
खुला हुआ था दरीचा सबा नहीं आई
हवा-ए-दश्त अभी तो जुनूँ का मौसम था
कहाँ थे हम तेरी आवाज़-ए-पा नहीं आई
अभी सहीफ़ा-ए-जाँ पर रक़म भी क्या होगा
अभी तो याद भी बे-साख़्ता नहीं आई
हम इतनी दूर कहाँ थे के फिर पलट न सकें
सवाद-ए-शहर से कोई सदा नहीं आई
सुना है दिल भी नगर था रसा बसा भी था
जला तो आँच भी अहल-ए-वफ़ा नहीं आई
न जाने क़ाफ़िले गुज़रे के है क़याम अभी
अभी चराग़ बुझाने हवा नहीं आई
बस एक बार मनाया था जश्न-ए-महरूमी
फिर उस के बाद कोई इब्तिला नहीं आई
हथेलियों के गुलाबों से ख़ून रिस्ता रहा
मगर वो शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना नहीं आई
ग़ुयूर दिल से न माँगी गई मुराद ‘अदा’
बरसने आप ही काली घटा नहीं आई
गुलों सी गुफ़्तुगू करें | ADA ZAFRI GHAZAL
गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
हम ऐसे लोग अब मिलें हिकायतों के दरमियाँ
लहू-लुहान उँगलियाँ हैं और चुप खड़ी हूँ मैं
गुल ओ समन की बे-पनाह चाहतों के दरमियाँ
हथेलियों की ओट ही चराग़ ले चलूँ अभी
अभी सहर का ज़िक्र है रिवायतों के दरमियाँ
जो दिल में थी निगाह सी निगाह में किरन सी थी
वो दास्ताँ उलझ गई वज़ाहतों के दरमियाँ
सहिफ़ा-ए-हयात में जहाँ जहाँ लिखी गई
लिखी गई हदीस-ए-जाँ जराहतों के दरमियाँ
कोई नगर कोई गली शजर की छाँव ही सही
ये ज़िंदगी न कट सके मुसाफ़तों के दरमियाँ
अब उस के ख़ाल-ओ-ख़द का रंग मुझ से पूछना अबस
निगाह झपक झपक गई इरादतों के दरमियाँ
सबा का हाथ थाम कर ‘अदा’ न चल सकोगी तुम
तमाम उम्र ख़्वाब ख़्वाब साअतों के दरमियाँ
हाल खुलता नहीं जबीनों से | ADA ZAFRI GHAZAL
हाल खुलता नहीं जबीनों से
रंज उठाए हैं जिन क़रीनों से
रात आहिस्ता-गाम उतरी है
दर्द के माहताब ज़ीनों से
हम ने सोचा न उस ने जाना है
दिल भी होते हैं आब-गीनों से
कौन लेगा शरार-ए-जाँ का हिसाब
दस्त-ए-इमरोज़ के दफ़ीनों से
तू ने मिज़गाँ उठा के देखा भी
शहर ख़ाली न था मकीनों से
आश्ना आश्ना पयाम आए
अजनबी अजनबी ज़मीनों से
जी को आराम आ गया है ‘अदा’
कभी तूफ़ान कभी सफ़ीनों से
हर गाम सँभल सँभल रही थी
यादों के भँवर में चल रही थी
साँचे में ख़बर के ढल रही थी
इक ख़्वाब की लौ से जल रही थी
शबनम सी लगी जो देखने मैं
पत्थर की तरह पिघल रही थी
रूदाद सफ़र की पूछते हो
मैं ख़्वाब में जैसे चल रही थी
कैफ़ियत-ए-इंतिज़ार-ए-पैहम
है आज वही जो कल रही थी
थी हर्फ़-ए-दुआ सी याद उस की
ज़ंजीर-ए-फ़िराक़ गल रही थी
कलियों को निशान-ए-रह दिखा कर
महकी हुई रात ढल रही थी
लोगों को पसंद लग़्ज़िश-ए-पा
ऐसे में ‘अदा’ सँभल रही थी
हर इक दरीचा किरन किरन | ADA ZAFRI GHAZAL
हर इक दरीचा किरन किरन है जहाँ से गुज़रे जिधर गए हैं
हम इक दिया आरज़ू का ले कर ब-तर्ज़-ए-शम्स-ओ-क़मर गए हैं
जो मेरी पलकों से थम न पाए वो शबनमीं मेहर-बाँ उजाले
तुम्हारी आँखों में आ गए तो तमाम रस्ते निखर गए हैं
वो दूर कब था हरीम-ए-जाँ से के लफ़्ज़ ओ मानी के नाज़ उठाती
जो हर्फ़ होंटों पे आ न पाए वो बन के ख़ुश-बू बिखर गए हैं
जो दर्द ईसा-नफ़स न होता तो दिल पे क्या ऐतबार आता
कुछ और पैमाँ कुछ और पैकाँ के ज़ख़्म जितने थे भर गए हैं
ख़ज़ीने जान के लुटाने वाले दिलों में बसने की आस ले कर
सुना है कुछ लोग ऐसे गुज़रे जो घर से आए न घर गए हैं
जब इक निगाह से ख़राश आई ज़माने भर से गिला हुआ है
जो दिल दुखा है तो रंज सारे न जाने किस किस के सर गए हैं
शिकस्त-ए-दिल तक न बात पहुँचती मगर ‘अदा’ कह सको तो कहना
के अब के सावन धनक से आँचल के रंग सारे उतर गए हैं
जो चराग़ सारे बुझा चुके | ADA ZAFRI GHAZAL
जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
ये सुकूँ का दौर-ए-शदीद है कोई बे-क़रार कहाँ रहा
जो दुआ को हाथ उठाए भी तो मुराद याद न आ सकी
किसी कारवाँ का जो ज़िक्र था वो पस-ए-ग़ुबार कहाँ रहा
ये तुलू-ए-रोज़-ए-मलाल है सो गिला भी किस से करेंगे हम
कोई दिल-रुबा कोई दिल-शिकन कोई दिल-फ़िगार कहाँ रहा
कोई बात ख़्वाब ओ ख़याल की जो करो तो वक़्त कटेगा अब
हमें मौसमों के मिज़ाज पर कोई ऐतबार कहाँ रहा
हमें कू-ब-कू जो लिए फिरी किसी नक़्श-ए-पा की तलाश थी
कोई आफ़ताब था ज़ौ-फ़गन सर-ए-रह-गुज़ार कहाँ रहा
मगर एक धुन तो लगी रही न ये दिल दुखा न गिला हुआ
के निगाह को रंग-ए-बहार पर कोई इख़्तियार कहाँ रहा
सर-ए-दश्त ही रहा तिश्ना-लब जिसे ज़िंदगी की तलाश थी
जिसे ज़िंदगी की तलाश थी लब-ए-जूएबार कहाँ रहा
कोई संग-ए-रह भी चमक उठा | ADA ZAFRI GHAZAL
कोई संग-ए-रह भी चमक उठा तो सितारा-ए-सहरी कहा
मेरी रात भी तेरे नाम थी उसे किस ने तीरा-शबी कहा
मेरे रोज़ ओ शब भी अजीब थे न शुमार था न हिसाब था
कभी उम्र भर की ख़बर न थी कभी एक पल को सदी कहा
मुझे जानता भी कोई न था मेरे बे-नियाज़ तेरे सिवा
न शिकस्त-ए-दिल न शिकस्त-ए-जाँ के तेरी ख़ुशी को ख़ुशी कहा
कोई याद आ भी गई तो क्या कोई ज़ख़्म खिल भी उठा तो क्या
जो सबा क़रीब से हो चली उसे मिन्नतों की घड़ी कहा
भरी दो-पहर में जो पास थी वो तेरे ख़याल की छाँव थी
कभी शाख़-ए-गुल से मिसाल दी कभी उस को सर्व-ए-समनी कहा
कहीं संग-ए-रह कहीं संग-ए-दर के मैं पत्थरों के नगर में हूँ
ये नहीं के दिल को ख़बर न थी ये बता के मुँह से कभी कहा
मेरे हर्फ़ हर्फ़ के हाथ में सभी आइनों की हैं किरचियाँ
जो ज़बाँ से हो न सका ‘अदा’ ब-हुदूद-ए-बे-सुख़नी कहा