अब्दुल हमीद अदम ग़ज़ल
हँस के बोला करो बुलाया करो
आप का घर है आया जाया करो
मुस्कुराहट है हुस्न का ज़ेवर
रूप बढ़ता है मुस्कुराया करो
हदसे बढ़कर हसीन लगते हो
झूठी क़स्में ज़रूर खाया करो
हुक्म करना भी एक सख़ावत है
हम को ख़िदमत कोई बताया करो
बात करना भी बादशाहत है
बात करना न भूल जाया करो
ता के दुनिय की दिलकशी न घटे
नित नये पैरहन में आया करो
कितने सादा मिज़ाज हो तुम ‘अदम’
उस गली में बहुत न जाया करो
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आगही में इक ख़ला मौजूद है
इस का मतलब है ख़ुदा मौजूद है
है यक़ीनन कुछ मगर वाज़ेह नहीं
आप की आँखों में क्या मौजूद है
बाँकपन में और कोई शय नहीं
सादगी की इंतिहा मौजूद है
है मुकम्मल बादशाही की दलील
घर में गर इक बोरिया मौजूद है
शौक़िया कोई नहीं होता ग़लत
इस में कुछ तेरी रज़ा मौजूद है
इस लिए तनहा हूँ मैं गर्म-ए-सफ़र
क़ाफ़िले में रह-नुमा मौजूद है
हर मोहब्बत की बिना है चाशनी
हर लगन में मुद्दआ मौजूद है
हर जगह हर शहर हर इक़्लीम में
धूम है उस की जो ना-मौजूद है
जिस से छुपना चाहता हूँ मैं ‘अदम’
वो सितम-गर जा-ब-जा मौजूद है.
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ख़ैरात सिर्फ इतनी मिली है हयात से
पानी की बूँद जैसे अता हो फ़ुरात से
शबनम इसी जुनूँ में अज़ल से है सीना-कूब
ख़ुर्शीद किस मक़ाम पे मिलता है रात से
नागाह इश्क़ वक़्त से आगे निकल गया
अंदाज़ा कर रही है ख़िरद वाक़िआत से
सू-ए-अदब न ठहरे तो दें कोई मशवरा
हम मुतमइन नहीं हैं तेरी काएनात से
साकित रहें तो हम ही ठहरते हैं बा-क़ुसूर
बोलें तो बात बढ़ती है छोटी सी बात से
आसाँ-पसंदियों से इजाज़त तलब करो
रस्ता भरा हुआ है ‘अदम’ मुश्किलात से.
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ख़ुश हूँ के ज़िंदगी ने कोई काम कर दिया
मुझ को सुपुर्द-ए-गर्दिश-ए-अय्याम कर दिया
साक़ी सियाह-ख़ाना-ए-हस्ती में देखना
रौशन चराग़ किस ने सर-ए-शाम कर दिया
पहले मेरे ख़ुलूस को देते रहे फ़रेब
आख़िर मेरे ख़ुलूस को बद-नाम कर दिया
कितनी दुआएँ दूँ तेरी ज़ुल्फ़-ए-दराज़ को
कितना वसी सिलसिला-ए-दाम कर दिया
वो चश्म-ए-मस्त कितनी ख़बर-दार थी ‘अदम’
ख़ुद होश में रही हमें बद-नाम कर दिया.
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कुछ शेर / अब्दुल हमीद ‘अदम’
ऐ दोस्त मोहब्बत के सदमे तन्हा ही उठाने पड़ते हैं
रह-बर तो फ़क़त इस रस्ते में दो गाम सहारा देते हैं.
बढ़ के तूफ़ान को आगोश में ले-ले अपनी
डूबने वाले तेरे हाथ से साहिल तो गया.
देखा है किस निगाह से तू ने सितम-ज़रीफ़
महसूस हो रहा है मैं ग़र्क़-ए-शराब हूँ.
दिल अभी अच्छी तरह टूटा नहीं
दोस्तों की मेहरबानी चाहिए.
दिल ख़ुश हुआ है मस्जिद-ए-वीराँ को देख कर
मेरी तरह ख़ुदा का भी ख़ाना ख़राब है.
गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
तबस्सुम की सज़ा कितनी बड़ी है.
इंसाँ हूँ अदम और ये यजदाँ को ख़बर है
जंनत मेरे असलाफ़ की ठुकराई हुई है.
कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
जा मै-कदे से मेरी जवानी उठा के ला.
लोग कहते हैं के तुम से ही मोहब्बत है मुझे
तुम जो कहते हो के वहशत है तो वहशत होगी.
महशर में इक सवाल किया था करीम ने
मुझ से वहाँ भी आप की तारीफ़ हो गई.
मर ने वाले तो ख़ैर हैं बे-बस
जी ने वाले कमाल करते हैं.
मुझे तौबा का पूरा अज्र मिलता है उसी साअत
कोई ज़ोहरा-जबीं पी ने पे जब मजबूर करता है.
साक़ी मुझे शराब की तोहमत नहीं पसंद
मुझ को तेरी निगाह का इल्ज़ाम चाहिए.
सवाल कर के मैं ख़ुद ही बहुत पशेमाँ हूँ
जवाब दे के मुझे और शर्म-सार न कर.
सिर्फ़ एक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही.
ज़ाहिद शराब पी ने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो.
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
मैं कैसे बिन पिए ले लूँ ख़ुदा का नाम ऐ साक़ी.
ज़रा एक तबस्सुम की तकलीफ़ करना
के गुलज़ार में फूल मुरझा रहें हैं.
ज़िंदगी नाम है रवानी का
क्या थमेगा बहाव पानी का.
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सुना है लोग बड़े दिलनवाज़ ( दोस्त ) होते है
मगर नसीब कहाँ कारसाज़ होते है
सुना है पीरे-मुगां से ये बारहा मैंने
छलक पड़े तो प्यालें भी साज़ होते है
किसी की ज़ुल्फ़ से वाबिस्तागी नहीं अच्छी
ये सिलसिले दिलेनादा दराज़ होते है
वो आईने के मुकाबिल हो जब खुदा बन कर
अदा-ओ-नाज़ सरापा नमाज़ होते है
‘अदम’ ख़ुलूस के बन्दों में एक खामी है
सितम ज़रीफ़ बड़े जल्दबाज़ होते है
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ऐ मैगुसारों सवेरे सवेरे
बड़ी रोशनी बख़्शते हैं नज़र को
ख़राबात के गिर्द फेरे पे फेरे
तेरे गेसूओं के मुक़द्दस अँधेरे
किसी दिन इधर से गुज़र कर तो देखो
बड़ी रौनक़ें हैं फ़क़ीरों के डेरे
ग़म-ए-ज़िन्दगी को ‘अदम’ साथ लेकर
कहाँ जा रहे हो सवेरे सवेरे
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तेरे दर पे वो आ ही जाते हैं
जिनिको पीने की आस हो साक़ी
आज इतनी पिला दे आँखों से
ख़त्म रिंदों की प्यास हो साक़ी
हल्क़ा हल्क़ा सुरूर है साक़ी
बात कोई ज़रूर है साक़ी
तेरी आँखें किसी को क्या देंगी
अपना अपना सुरूर है साक़ी
तेरी आँखों को कर दिया सजदा
मेरा पहला क़ुसूर है साक़ी
तेरे रुख़ पे ये परेशाँ ज़ुल्फ़ें
इक अँधेरे में नूर है साक़ी
तेरी आँखें किसी को क्या देंगी
अपना अपना सुरूर है साक़ी
पीने वालों को भी नहीं मालूम
मैकदा कितनी दूर है साक़ी
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बातें तेरी वो वो फ़साने तेरे
शगुफ़्ता शगुफ़्ता बहाने तेरे
बस एक ज़ख़्म नज़्ज़ारा हिस्सा मेरा
बहारें तेरी आशियाने तेरे
बस एक दाग़-ए-सज्दा मेरी क़ायनात
जबीनें तेरी आस्ताने तेरे
ज़मीर-ए-सदफ़ में किरन का मुक़ाम
अनोखे अनोखे ठिकाने तेरे
फ़क़ीरों का जमघट घड़ी दो घड़ी
शराबें तेरी बादाख़ाने तेरे
बहार-ओ-ख़िज़ाँ कम निगाहों के वहम
बुरे या भले सब ज़माने तेरे
‘अदम’ भी है तेरा हिकायतकदाह
कहाँ तक गये हैं फ़साने तेरे
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आप अगर हमको मिल गये होते
बाग़ में फूल खिल गये होते
आप ने यूँ ही घूर कर देखा
होंठ तो यूँ भी सिल गये होते
काश हम आप इस तरह मिलते
जैसे दो वक़्त मिल गये होते
हमको अहल-ए-ख़िरद मिले ही नहीं
वरना कुछ मुन्फ़ईल गये होते
उसकी आँखें ही कज-नज़र थीं ‘अदम’
दिल के पर्दे तो हिल गये होते
Words Meaning
दिलनवाज़ = दोस्त,कारसाज़ = काम करनेवाला,पीरे-मुगां = शराब देनेवाला बुज़ुर्ग,बारहा = बारबार,दराज़ = लंबे,मुकाबिल = सामने,ज़रीफ़ = चुटकुलेबाज़