बौद्धकाल की चित्रकला | गुफामंदिरों की चित्रकला | बौद्ध कला का प्रचार | अजन्ता, बाघ, बादामी, सित्तन्नवासल की गुफाएँ |Buddhist painting | Cave Temple Paintings | Promotion of Buddhist Art | Caves of Ajanta, Bagh, Badami, and Sittannavasal

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(गुफामंदिरों की चित्रकला) (५० ई० से ७०० ईसवी तक )

ईसवी शताब्दी के उदय के साथ ‘प्राचीन काल’ की भारतीय कला के इतिहास में स्वर्णयुग प्रस्फुटित होता दिखाई पड़ता है। इस समय बौद्ध धर्म अपना प्रभाव स्थापित कर रहा था और दलित, दरिद्र जनता बौद्ध धर्म ग्रहण कर रही थी। 

बौद्ध धर्म की यह उन्नति और व्यापकता सातवीं ईसवी शताब्दी तक भली प्रकार चलती रही। इस समय तक ब्राह्मण धर्म पुनः उन्नति को प्राप्त नहीं कर पाया। इस समय भारत पूर्वी देशों में एक अग्रगण्य और समृद्धशाली देश था और उसके ज्ञान तथा विज्ञान की ज्योति सम्पूर्ण एशिया को प्रकाशित कर रही थी। 

समस्त एशियाई देश धार्मिक प्रेरणा और ज्ञान प्राप्ति हेतु बौद्ध-भारत की ओर दृष्टि लगाये हुए थे। इस समय भारतवर्ष में पवित्र तीर्थ कौशल के दर्शन हेतु दूर-दूर से असंख्य पर्यटक आते थे और भगवान बुद्ध के उपदेश समस्त पूर्वी देशों में अपनाये जा रहे थे। 

बौद्ध धर्म की सहिष्णुता और उदारता के कारण भारत को ख्याति प्राप्त हो रही थी। भारतवर्ष का यह स्वर्ण युग था। इस समय भारतीय संस्कृति को एक नवल चेतना प्राप्त हुई और देश के समस्त भागों में ज्ञान तथा दर्शन का विकास हुआ, किन्तु बौद्ध धर्म का प्रभाव संस्कृति के किसी भी अन्य पक्ष पर उतना ही गहरा नहीं दिखाई पड़ता है जितना चित्रकला पर दिखाई पड़ता है। 

बौद्ध धर्म का पूर्वी देशों जैसे श्रीलंका, जावा, श्याम, ब्रह्मा, नेपाल, खोतन, तिब्बत, जापान और चीन की कला पर प्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ा। इन सब देशों की चित्रकला, मूर्तिकला एवं वास्तुकला के अवशेष इस बात का प्रमाण हैं।

तारानाथ, जो सोलहवीं शताब्दी का तिब्बती इतिहासकार था, ने यह उल्लेख किया है कि जहाँ-जहाँ बौद्ध धर्म फैला वहाँ-वहाँ दक्ष चित्रकार पाये गए। यह बात विशेष रूप से भारतवर्ष की चित्रकला में देखी जा सकती है। 

यद्यपि बहुत सी सुंदर कला कृतियाँ काल के गाल में समा गई है फिर भी बौद्ध, भगवत तथा शैव्य कलाकारों की कुछ समुचित कृतियाँ कलाकारों की निपुणता तथा कारीगरी की दक्षता की गाथा को छिपाये आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में प्राप्त हैं। इन्हीं कलादक्ष शिल्पियों ने चित्रकला की एक विशेष शैली स्थापित की।

इस कला शैली का विकास और जन्म बहुत स्वाभाविक ढंग से हुआ बौद्ध धर्म विशेष रूप में चित्रात्मक है।

आरम्भिक समय में बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा बलवती थी। ‘हीनयान’ (संकरा पंथ या प्राचीन थेरवादी धर्म) बौद्ध धर्म के अन्तर्गत लगभग २०० ई० पू० तक महात्मा बुद्ध की छवियों या मूर्तियों का निर्माण नहीं किया गया, अतः धर्म प्रचार या बुद्ध के अस्तित्व को दर्शित करने के लिये उनके प्रतीक रूप में छत्र, मुकुट, पगड़ी, चरण पादुका, बोद्ध-वृक्ष, धर्म-चक्र या सिंहासन आदि के अंकन की प्रथा प्रचलित हो गई थी किन्तु बुद्ध की छवि अंकित नहीं की गई।

गान्धार शैली

गान्धार शैली में बुद्ध की छवि का प्रचलन

कुषाण राज्य में कनिष्क के सम्राट बनते ही महायान (विस्तीर्ण पंथ या विकासवादी पंथ) बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव हुआ। इसके फलस्वरूप भगवान बुद्ध की छवियाँ मूर्ति या चित्र के रूप में अंकित की जाने लगीं और बुद्ध के अंकन पर कोई धार्मिक प्रतिबंध न रहा। 

कनिष्क काल में बुद्ध की मूर्तियाँ बनवायी गई। इन मूर्तियों की शैली यूनानी अधिक थी। इस प्रकार की मूर्तियाँ पेशावर (पुरूपुर), रावलपिंडी, तक्षशिला आदि क्षेत्रों में बनायी गई। यह क्षेत्र गान्धार राज्य की सीमा के अन्तर्गत थे, अतः इस शैली को गान्धार शैली के नाम से पुकारा गया है। 

इन मूर्तियों का विषय भारतीय बौद्ध हैं परन्तु शैली पर यूनानी तथा रोमन छाप है। इन कलाकारों ने बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित कथाओं तथा जातक कथाओं पर आधारित मूर्तियाँ बनायीं। 

इन मूर्तियों में बुद्ध की मुद्रायें भारतीय हैं जैसे अभय मुद्रा, ज्ञान-मुद्रा, ध्यान-मुद्रा या धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा आदि। किन्तु इन मूर्तियों में वस्त्र वेशभूषा तथा अलंकरण विदेशी हैं। 

बुद्ध ने तपस्या से पूर्व अपने बाल काट दिए थे, परन्तु गान्धार शैली के विदेशी कलाकारों ने तपस्या में लीन बुद्ध की प्रतिमा में भी घुंघराले केश दिखाये हैं। इन मूर्तियों में आध्यात्मिकता की भावना नहीं दिखाई पड़ती है। 

बुद्ध की मुख-मुडायें या तो पर्याप्त कठोर हैं या बहुत अधिक माधुर्ययुक्त हैं। इस कला शैली के माध्यम से उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रदेश में बौद्ध धर्म का व्यापक रूप से प्रचार हुआ। अनेक विद्वानों का मत है कि गान्धार मूर्तिशैली चित्रकला से प्रेरित होकर ही जन्मी । 

तिब्बती अनुवाद के रूप में जो ‘चित्रलक्षण’ नामक ग्रंथ प्राप्त हुआ है (पहले अध्याय में उल्लेख किया जा चुका है) उसका रचयिता गान्धार का राजा भयजित् (नग्नजित्) ही माना जाता है। ‘शतपथ’ तथा ‘महाभारत’ में ऐसे प्रसंग आये हैं, उसको गान्धार – शासक माना गया है। 

श्री गैरोला के अनुसार गान्धार कला के जो लक्षण हैं वह ‘चित्रलक्षण’ के संविधानों पर आधारित हैं। इस शैली का प्रसार मध्य एशिया तक हुआ गुप्तवंश के उदय से भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग का उदय हुआ।

गुप्तवंश (२७५-५२० ई० ) 

गुप्तवंश की स्थापना राजा श्रीगुप्त ने की थी, जिसका काल २७५-३०० ई० के मध्य निश्चित किया गया है। उसके पश्चात् उसका पुत्र घटोत्कच गुप्त और उसके उपरान्त चन्द्रगुप्त प्रथम शासक बने। 

सम्राट चन्द्रगुप्त ने ‘गुप्त सम्वत्’ चलाया जिसका श्रीगणेश २६ फरवरी ३२० ई० में हुआ उसके पश्चात् विजयी सम्राट समुद्रगुप्त एवं रामगुप्त के बाद चन्द्रगुप्त द्वितीय (३७५-४१४ ई०) गुप्तराज्य के शासक बने रहे। 

उसके बाद कुमारगुप्त, पुरुगुप्त, नृसिंहगुप्त, बालादित्य, कुमारगुप्त द्वितीय, बुद्धगुप्त और भानुगुप्त के काल तक लगभग ५१० ई० तक गुप्त शासकों की परम्परा बनी रही। यह शासक हिन्दू धर्म के अनुधाई थे परन्तु बौद्ध धर्म के प्रति उदार थे।

गुप्त सम्राट साहित्य प्रेमी, कला तथा शिल्पानुरागी सम्राट थे तथा वे स्वयं कलाओं में निपुण थे। समुद्रगुप्त स्वयं एक वीणावादक था जिसकी प्रतीक उसके सिक्कों पर अंकित वीणा वादक रूप वाली छवि है। 

वास्तु तथा शिल्प के क्षेत्र में गुप्त युग बहुत महान था। झाँसी के देवगढ़ मंदिर एवं कानपुर के भीतर गांव मंदिरों की मृण्यमूर्तियों इस युग के उन्नत शिल्प का प्रमाण हैं। इस युग की कला शास्त्रीय विधान पर आधारित हैं। अजन्ता की श्रेष्ठ कृतियाँ इस काल में बनायी गई।

बौद्ध कला का प्रचार

बौद्ध धर्म का प्रचार तूलिका की साधना के आधार पर ही अधिक हुआ, लेख या लेखनी का महत्त्व बाद में आया। इस धर्म की मूल परम्पराएँ चित्रात्मक हैं। जैसे-जैसे जनता में बौद्ध धर्म के प्रति जिज्ञासा बढ़ती गई, वैसे-वैसे बौद्ध भ्रमणों ने कला को धर्म प्रचार हेतु अपनाया। 

बौद्ध भिक्षुओं के दल दूर स्थानों में धर्म प्रचार के लिये गए। उन्होंने बुद्ध के उपदेशों का प्रचार किया और चित्रकला को धर्म प्रचार का माध्यम बनाया। 

लम्बे-लम्बे पटचित्रों को जिनमें बुद्ध की जीवनी और उपदेश अंकित रहते थे ओर बोच साधु सुगमता से लम्बी यात्रा में मोड़कर ले जा सकते थे, इस कारण तिब्बत, चीन तथा जापान में गौतम बुद्ध के धर्म, जीवन तथा ज्ञान का प्रसार करने के लिए भिक्षुओं के द्वारा पटचित्र बहुत अधिक प्रयोग किये गए तिब्बत तथा नेपाल के मंदिरों में प्राप्त थानका नामक चित्रित झण्डे पटचित्र का ही एक रूप हैं। 

पटचित्र में साधारण जनता के लिये धर्म ज्ञान सुलभ हो गया जो किसी प्रकार भी लेखन लिपि के द्वारा सुलभ और लोकप्रिय नहीं हो सकता था। कला की सांकेतिक एवं रूपप्रधान भाषा विभिन्न जातियों के लोगों से भावों के आदान-प्रदान का एक स्वाभाविक साधन थी। इस समय और दूसरे प्रचार साधन सम्भव भी नहीं थे।

चीन देश में बौद्ध धर्म के प्रति अत्यधिक श्रद्धा, आस्था, आदर तथा सम्मान की भावना उत्पन्न हुई और ६७ ईसवी के पश्चात् एक भारतीय भिक्षु कश्यप भादुंग चीन. के सम्राट मिंगटी की प्रार्थना पर सुदूर पूर्व तक गया। 

उसके साथ में बहुत सी कलाकृतियाँ थीं जिनमें चित्र भी थे। इस समय से सातवीं शताब्दी तक कलाकार पुजारियों के निरंतर ही अनेक दल एक स्रोत के समान भारत से चीन की ओर पहुँचे जिनसे सम्पूर्ण मध्य एशिया में बौद्ध धर्म तथा कला का विस्तार हुआ। 

ऐसे उल्लेख भी उपलब्ध हैं कि इनमें से कुछ भिक्षु चीन में रहने लगे और उन्होंने वहाँ पर भित्तिचित्रों का निर्माण किया। सुदूर पूर्व के देश जापान पर भी इस आंदोलन का गहरा प्रभाव पड़ा। 

जापान के ‘नारा’ सम्राटों के समय में सातवीं शताब्दी में बौद्ध-भावना का जापान की कला में भव्य रूप उमड़ पड़ा, जापान के इन चित्रों की विशेषताओं को देखकर यह संदिग्ध सा लगता है कि यह कलाकृतियाँ यहाँ के स्थानीय कलाकारों की बनाई हुई हैं। 

यह कृतियाँ चीनी कलाकारों की बनायी हुई प्रतीत होती हैं। इस प्रकार की विशेषताएँ अपने उत्कृष्ट रूप में अजन्ता, बादामी तथा बाघ के भित्तिचित्रों में विद्यमान हैं। होरियॉजी मंदिर के भित्तिचित्र आठवीं ईसवी शताब्दी के हैं बेनियन के अनुसार इन चित्रों की शैली तथा शिल्प में भारतीय चित्रकला की विशेषताएँ हैं। 

भाव-चित्रण की विशेषता तथा प्रवाहपूर्ण सीमा रेखाओं की सशक्त योजना को देखकर अजंता के भव्य चित्रों की याद आ जाती है। यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये चित्र अजंता की परम्परा पर ही बनाये गए हैं क्योंकि उस समय जापान और भारत में स्वतंत्र रूप से सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता था। 

पन्द्रहवीं शताब्दी ईसा पश्चात् के जापान के तोषा स्कूल के चित्रों में इस प्रकार का क्षीण प्रभाव परिलक्षित होता है। इन देशों की कला में भारत की चित्रकला के षडंगों का प्रचलन भी कुछ परिवर्तित अवस्था में प्राप्त होता है।

दूसरी ओर ऐसे उदाहरण प्राप्त हैं जिनसे ज्ञात होता है कि भारतवर्ष का आध्यात्मिक और कलात्मक वातावरण दूसरे देशों के स्नातकों को आकर्षित कर रहा था। ये लोग यहाँ पर भारतीय तथा बौद्ध साहित्य तथा कला को ग्रहण करने के लिये भारत में आते थे। 

पाँचवीं शताब्दी में फाहियान और सातवीं में ह्वेनसांग भारत में पर्यटन करने और बौद्ध धर्म का ज्ञान प्राप्त करने आये। 

इनके अतिरिक्त और भी बहुत से चीनी यात्री भारत आये जिनमें से कुछ कलाकार थे जो भारतवर्ष के चित्रकारों से चित्रकला की दीक्षा ग्रहण करके पुनः स्वदेश (चीन) लोटे भारत का दूसरे देशों से सम्बन्ध इस बात का द्योतक है कि भारत की चित्रकला, जिसका विकास प्रथम शताब्दी ईसवी में हुआ था, का प्रभाव सुदूर पूर्वी तथा उत्तरी देशों पर पड़ रहा था।

समय के क्रूर प्रहारों से अगणित कलाकृतियों की क्षति या हानि हुई, फिर भी भारत में इस समय की भित्तिचित्रकारी के उदाहरण प्राप्त हुए हैं। इन चित्रों में बौद्धकाल की समस्त विशेषताएँ हैं और इस काल को कला का एक रीतिवादी संस्थान माना जा सकता है।

जिस प्रकार भारत बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध की जन्मभूमि है उसी प्रकार यह भी निश्चित है कि भारत बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चित्रकला का भी उद्गम स्थल है। 

बौद्ध मत के अनुयाइयों तथा चैत्यों के प्रबंधकों ने श्रेष्ठ कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। अजन्ता की भव्य चित्रकारी में इस कला शैली की उन्नति तथा विकास की क्रमिक प्रगति स्पष्ट दिखाई पड़ती है। इन चित्रावलियों में इस काल की आरम्भिक और अंतिम दोनों चरणों की कला दिखाई पड़ती है। 

श्रीलंका में सिघिरिया की गुफाओं में भी इस कलाशैली का परिपक्व रूप दिखाई पड़ता है। भारत में बाघ, बादामी तथा सित्तनवासल के चित्रों में भी अजन्ता के ही रेखा चातुर्य का प्रभाव है, यद्यपि इन गुफाओं के चित्रों की तकनीकी आदि कुछ बातों में अजन्ता से अधिक समानता नहीं दिखाई पड़ती है। 

कदाचित स्थानान्तर, भिन्न प्रकार का संरक्षण, जलवायु तथा वातावरण की भिन्नता के कारण प्रविधि की यह असमानता दिखाई पड़ती है। विशेष रूप से अजन्ता की बौद्धकला की सर्वोत्तम चित्रकृतियों की भाव तथा रूप की सुंदरता और विशेषताओं को देखकर दर्शक चकित रह जाते हैं।

अजन्ता की गुफाएँ

सुंदर रूप और कल्पना की मृदु मुस्कान, करुणा और शान्ति के आंचल से आवृत अजन्ता की कलाकृतियाँ अपने अवगुन्ठन में न जाने कितनी सरस भावनाओं और कलाकारों की अन्तर अनुभूतियों की उपलब्धियों छिपाये अपने अस्तित्व से प्राचीन भारतीय कला इतिहास को स्वर्ण पृष्ठिका लगाये हुए अपने मूक रूपों से चिरशान्ति और आत्मा के अमरत्व का संदेश दे रही है। 

अजन्ता महाराष्ट्र (बम्बई राज्य) में औरंगाबाद जिले में स्थित है। अजन्ता तक पहुँचने के लिये जलगाँव से फरदापुर ग्राम होते हुए जाना पड़ता है। यहीं पर अजन्ता से दो मील की दूरी पर ‘अजिण्ठा’ नाम का ग्राम है जिसका मूल उच्चारण ‘अजिस्ठा’ है। इस ग्राम के नाम पर ही गुफाओं का नाम अजन्ता पड़ा है।

ये गुफाएँ सेंट्रल रेलवे के स्टेशन औरंगाबाद से लगभग १०२ कि०मी० पर स्थित हैं। औरंगाबाद से मोटर बसों के द्वारा अजन्ता तक आने-जाने की अच्छी व्यवस्था है। 

सेंट्रल रेलवे के पहूर और जलगाँव स्टेशनों से भी बस द्वारा अजन्ता तक पहुँचा जा सकता है। जलगाँव तथा अजिण्ठा दोनों ही स्थानों पर दर्शनार्थियों के ठहरने के लिए विश्रामगृह बने हुए हैं। 

अब मोटर बस के द्वारा आने जाने की पर्याप्त अच्छी व्यवस्था है। जलगाँव से अजन्ता तक जाने वाले मार्ग पर ही पहूर तथा फरदापुर गाँव भी स्थित हैं।

अजन्ता की गुफाएँ हरिशृंगार वृक्षों से आच्छादित मनोरम एकाकी घाटी में स्थित है। यहाँ पर पक्षियों के वृन्द प्रातः तथा सन्ध्या के समय अपने सुरीले, मधुर कलरव से एक संगीत की लय छेड़ देते हैं। इस घाटी में सतपुड़ा की पहाड़ियों को काटती बघोरा नदी अनेक घुमाव लेती हुई कल-कल निनाद से प्रवाहित होती है। 

इस नदी के घुमावों से घाटी का रूप अर्द्धचन्द्राकार के समान बन गया है और इसके बायीं ओर या उत्तर की ओर एक मोड़ पर लगभग २५० फुट ऊँची एक पहाड़ी सीधी खड़ी है। इस पहाड़ी में एक अर्द्धचन्द्राकार पंक्ति में ये गुफाएँ काटकर बनायी गई हैं। 

इस पहाड़ी के उत्तर की ओर से एक प्रपात निनाद करता प्रवाहित होता है ये तीस गुफाएँ पूर्व 1 से पश्चिम की ओर लगभग ६०० गज की लम्बाई में बनायी गई हैं। वर्षा आगमन के साथ यह सारी घाटी शश्यश्यामल वृक्षों से आच्छादित हो जाती है। 

पुष्पित हरिशृंगार तथा पुष्पों की सुगंध से यह घाटी महक जाती है, तब शाल और सागौन के वृक्ष प्रहरी के समान किसी के आगमन की मौन प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं।

इस शान्ति और निरंजनता के वातावरण को देखकर ही बौद्ध भिक्षुओं ने अपनी कला साधना के लिये यह स्थान उपयुक्त समझा होगा। 

वैसे तो अजन्ता के गुफा मंदिर और उनके मूर्तियों से सुसज्जित प्रवेशद्वार ही पर्याप्त आश्चर्यजनक है, परन्तु इन गुफाओं के आकर्षण का मुख्य कारण इनकी भीतरी दीवारों पर की गई भित्तिचित्रकारी है, जो पर्याप्त नष्ट हो जाने पर भी चमकदार दिखाई पड़ती है। 

अजन्ता की प्रत्येक गुफा में मूर्तियाँ, स्तम्भ तथा द्वार काटकर भित्तियों पर चित्रकारी की गई है। इस प्रकार अजन्ता की गुफायें वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला का उत्तम संगम हैं।

अजन्ता की खोज, प्रतिकृतियाँ तथा प्रचार

मुगलकाल के कुछ ऐसे लेख प्राप्त होते हैं जिनसे पता चलता है कि मुगल सेनाएँ दक्षिण की ओर अजन्ता की घाटी से होकर जाती थीं लेकिन सैकड़ों वर्षों तक जंगलों में छुपी ये अज्ञात गुफाएँ जंगली पशुओं, चमगादड़ों आदि पक्षियों का घर बनी रहीं और १८१६ ईसवी में यूरोप के लोगों को सर्वप्रथम इन गुफाओं का ज्ञान हुआ। 

उनको यह ज्ञान मद्रास रेजीमेंट के कुछ सैनिकों से हुआ जो इस घाटी में विद्रोहियों को दबाने के लिए गये थे। एक सैनिक लोमड़ी का पीछा करते हुए अजन्ता की एक गुफा में पहुँचा और उसने चित्र देखे। 

इन चित्रों की सूचना उसने अपने कमान्डेंट को दी यह सूचना पाकर एक अंग्रेज कम्पनी अधिकारी विलियम एस्किन ने एक लेख तैयार किया और उसे ‘बॉम्बे लिटरेरी सोसाइटी’ में पढ़ा। 

इसके पश्चात् १८२४ ई० में लेफ्टीनेंट जेम्स ई० अलेक्जेंडर ने इन गुफाओं को देखा और उन्होंने रायल सोसाइटी लंदन को इनका विवरण भेजा। 

परन्तु फिर भी १८४३ ईसवी तक इन गुफाओं की ओर किसी का ध्यान नहीं गया। १८४३ ई० में चार वर्ष अजन्ता का निरीक्षण तथा अध्ययन करके मिस्टर जेम्स फरगुसन ने इन गुफाओं का विवरण फिर से कम्पनी को दिया और ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशकों से उन्होंने जनता के व्यय पर इन चित्रों की अनुकृतियाँ तैयार कराने का आग्रह किया। 

तब ईस्ट इंडिया के निवेदन पर इंग्लैंड की सरकार ने एक कुशल चित्रकार मेजर राबर्ट गिल को १८४७ ई० में अजन्ता के चित्रों की अनुकृतियाँ बनाने के लिये भारत भेजा। १८५७ ईसवी के विद्रोह की चिंगारी के भड़कते ही मेजर गिल ने चित्रों की अनुकृतियाँ बनाने का काम छोड़ दिया। 

इस समय तक ३० या अधिक चित्रों की अनुकृतियाँ बनकर तैयार हो चुकी थीं, यह अनुकृति चित्र मेजर गिल ने स्वदेश (इंग्लैंड) भेज दिये जो १८६६ ईसवी की क्रायस्टल पैलेस की प्रदर्शनी में प्रदर्शित किये गए। परन्तु इस भवन (पैलेस में आग लग जाने के कारण यह अनुकृतियाँ जलकर समाप्त हो गई। 

इस प्रकार केवल पांच अनुकृति-चित्र जो मेजर गिल ने बाद में बनाये थे, शेष रह गए मेजर गिल के द्वारा बनाये गए अजंता के सारे अनुकृति चित्र अप्राप्य हैं। इन चित्रों के कुछ छोटे-छोटे इनग्रेविंग्ज प्रिन्ट ‘मिसेज इस्पियर’ की ‘एशियॅट इंडिया’ नामक पुस्तक में प्रकाशित हैं। 

तत्पश्चात् १८७२ ईसवी से १८८५ ईसवी के मध्य बम्बई आर्ट स्कूल के प्रिंसिपल मिस्टर ग्रिफिथ्स तथा उनके शिष्यों ने सुंदर प्रतिकृतियाँ बनायीं जो १८८५ ई० में ‘विक्टोरिया एण्ड अल्वर्ट म्युजियम’- साउथ केसिंग्टन में प्रदर्शित की गई, परन्तु उस भवन में अग्नि लग जाने से जलकर नष्ट हो गई। 

ग्रिफिक्स फिर भारत आये और उन्होंने फिर चित्रों की अनुकृतियाँ बनायीं जो दो जिल्दों में ‘दि पेंटिंग्स ऑफ बुद्धिस्ट केव टेम्पिला ऑफ अजन्ता, खान देश, इंडिया’ शीर्षक से १९९६ में प्रकाशित हो चुकी है। ‘इंडिया आफिस लंदन’ में फोटोग्राफों का एक सुंदर संग्रह भी है जो डॉ० बर्गेस ने तैयार किया था।

इस प्रकार क्रायस्टल पैलेस के अग्निकाण्ड ने ही इन चित्रों की प्रतिलिपियों को नष्ट नहीं किया, बल्कि साउथ केसिंग्टन म्युजियम के अग्निकांड में ग्रिफिथ्स के द्वारा बनायी गई कई प्रतिकृतियाँ जलकर स्वाहा हो गई। 

इस अग्निकांड से बची लगभग एक सौ से अधिक प्रतिकृतियाँ ‘इंडियन सेक्शन ऑफ विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट म्युजियम’ – साउथ केसिंग्टन, में सुरक्षित हैं, परन्तु इनमें से कई चित्र नष्ट हो चुके हैं।

१६०६-१६११ ई० में लेडी हेरिंघम भारत आयीं और उन्होंने स्व० नन्दलाल वसु, स्व० असित कुमार हाल्दर, वेंकटप्पा एवं एस० एन० गुप्ता तथा कु० सार्चर तथा ल्यूक भारतीय कलाकारों के द्वारा पुनः अजंता के चित्रों की अनुकृतियों तैयार करायीं जो १९१५ ई० में लंदन से प्रकाशित हुई। 

उन्होंने हैदराबाद राज्य के निज़ाम से भी सहायता माँगी जिसके परिणामस्वरूप सैयद अहमद वहाँ के अध्यक्ष नियुक्त किये गए। सैयद अहमद ने फिर से चित्रों की प्रतिकृतियों तैयार कराई। 

इन चित्रों की रंगीन फोटो प्रतिकृतियों का एक संग्रह जी० यजवानी ने तैयार किया जिसको निज़ाम सरकार के पुरातत्व विभाग ने चार जिल्दों में प्रकाशित किया। 

स्वतंत्रता के पश्चात् ललित कला अकादमी (दिल्ली) ने यहाँ के चित्रों के रंगीन फोटोग्राफों के प्रिन्ट्स का एक छोटा पोर्टफोलियो तैयार कराया जो कला प्रेमियों तक अजंता के चित्रों की छदि पहुँचाने में सहायक सिद्ध हुआ। 

१६५४ ई० में यूनेस्को के द्वारा भी न्यूयार्क से अजन्ता के रंगीन चित्रों का एक संग्रह “वेटिंग्स ऑफ अजन्ता के’ के नाम से प्रकाशित हुआ।

अजन्ता के चित्रों की सुरक्षा

अजन्ता के चित्रों की प्रख्याति ही अजन्ता के चित्रों के लिये घातक सिद्ध हुई। कुछ समय तक हैदराबाद राज्य के निज़ाम ने अजन्ता की सुरक्षा में रुचि नहीं दिखायी। वास्तव में निज़ाम के निम्न अधिकारियों ने अजन्ता के चित्रों के लिए बहुत क्षति पहुँचायी। 

निजाम द्वारा नियुक्त अजन्ता का संरक्षण पदाधिकारी अजन्ता के प्रख्यात भित्ति चित्रों में से उत्तम आकृतियों के सिर के भाग का पलास्तर खण्ड दीवार से काट-काटकर दर्शकों को धन के लोभ में भेंट कर देता था। यह बात और भी लज्जाजनक है कि डॉ० बर्ड, जो बम्बई के पुरातत्ववेत्ता थे, ने भी यह अपराध इस लोभ से किया कि वह बम्बई संग्रहालय को इस प्रकार लाभान्वित कर सके।’ 

इसके अतिरिक्त दूसरी क्षति धुएँ से हुई तथा पक्षियों के लगातार इन गुफाओं में घोसले बनाकर रहने के कारण हुई। साधु तथा व्यापारीदल यात्रा करते समय मार्ग में इन गुफाओं में विश्राम करते थे और उन्होंने खाना बनाने के लिये आग जलाकर धुओं आदि करके इन गुफाओं को बहुत अधिक धुंधला और काला कर दिया है। 

१६०३ ई० तथा १६०४ ई० में विशेष गुफाओं में चित्रों के सामने जाली लगवा दी गई, जिससे दर्शक चित्रों पर अपना नाम लिखकर नष्ट न कर सकें और यहाँ पर यथोचित सफाई भी करा दी गई।

पुरातत्व विभाग ने अजन्ता के चित्रों के संरक्षण हेतु एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की और इटली से भित्ति चित्रों के विशेषज्ञों को चित्रों की सफाई तथा संरक्षण हेतु गुलाया गया। 

इन विशेषज्ञों ने १६२०- १६२२ ई० तक इन चित्रों को रासायनिक उपचार से साफ किया ओर जहाँ-जहाँ पर पलास्तर में दर्ज पड़ गई थी उनमें पलास्तर ऑफ पेरिस आदि भर दिया, जिससे पलास्तर खण्ड दीवार से न गिर जायें। १६०८ ई० में अजन्ता में एक क्युरेट की नियुति हो गई थी। 

इन चित्रों की ठीक प्रतिलिपियाँ बनायी जा चुकी हैं तथा फोटोग्राफ तैयार किये जा चुके हैं। अजन्ता के चित्र अब बहुत खण्डित हो चुके हैं फिर भी भारतवर्ष की छः सौ वर्ष की कला साधना के अवशेष अजन्ता में अभी चित्रों के रूप में सुरक्षित हैं। १९५३ ई० से भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने इन गुफा-चित्रों के संरक्षण का कार्यभार अपने हाथों में संभाल लिया है।

अजन्ता की गुफाओं का गणना-क्रम तथा सुरक्षित चित्र

इन गुफाओं की गणना पूर्व से पश्चिम की ओर की गई है और सभी विद्वान इस , गणना-क्रम से सहमत हैं। इन गुफाओं में नवीं, दसवीं, उन्नीसवीं, छब्बीसवीं तथा तीसवी गुफाएँ पूजा के स्थान अर्थात् चैत्य-गुफाएँ हैं। 

इनमें से कुछ गुफाएँ कभी पूर्ण नहीं हो सकीं। इन गुफाओं में वास्तुकला का इतना विकसित रूप दिखाई पड़ता है कि इनको गुफा कहकर पुकारना उपयुक्त नहीं, अत इनको गुफामंदिर मानना उचित होगा।

१८७६ ई० में जिन सोलह गुफाओं में चित्र शेष रह गये थे उनमें पहली, दूसरी, चौथी, सातवीं, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं पन्द्रहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं अट्ठारहवीं, उन्नीसवीं, बीसवीं, इक्कीसवीं, बाईसवीं तथा छब्बीसवीं गुफाएँ ही न्यूनाधिक चित्र अवशेषों से अलंकृत थीं । 

१६१० ई० में विशेष महत्त्वपूर्ण चित्रों के अवशेष पहली, दूसरी, नवीं, दसवीं, ग्यारहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं, उन्नीसवीं तथा इक्कीसवीं गुफाओं में शेष रह गये थे। इन नौ गुफाओं में से सत्रहवीं गुफा में ही सबसे अधिक सुरक्षित चित्र प्राप्त हैं।

गुफाओं का निर्माणकाल

अनुमानतः तेरहवीं गुफा का निर्माणकाल २०० ई० पू० है जो सबसे प्राचीन है। इसकी दीवार पर चमकदार मौर्यकालीन पालिश है। प्राचीन गुफाओं में आठवीं, बारहवीं तथा तेरहवीं गुफाओं में चित्र नहीं हैं, आठवीं, नवीं तथा ग्यारहवीं गुफाएँ सम्भवतः २०० ई० पू० से परवर्ती हैं क्योंकि इनमें कुछ मूर्तियाँ भी हैं। 

आठवीं से तेरहवीं गुफा तक की छः गुफाएँ प्रारम्भिक हीनयान बौद्ध धर्म से सम्बन्धित है और अनुमानतः २०० ई० पूर्व तथा १५० ई० से कुछ बाद तक लगभग ३५० वर्षों के काल में अनुमानतः निर्मित की गई हैं। शेष सारी गुफाएँ महायान बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं। 

छठी तथा सातवीं गुफाओं का निर्माण ४५० ई० से ५०० ईसवी के मध्य किया गया है। शेष गुफाएँ अर्थात् पन्द्रहवीं से बाईसवीं, इक्कीसवीं तथा उन्नीसवीं और पहली से पांचवीं तक की गुफाएँ ५०० ई० तक बनायी गई हैं। कई गुफाओं को अधूरा छोड़ दिया गया है। पहली गुफा फर्गुसन के अनुसार सबसे बाद में चित्रित की गई।

भित्तिचित्रों का कालक्रम

इन गुफाओं में बने चित्र उसी समय के नहीं है जिस समय इन गुफाओं का निर्माण हुआ। – सबसे प्राचीन चित्र निश्चित रूप से नवीं तथा दसवीं गुफा में है। 

इन गुफाओं के चित्रों में से कुछ पुनः बाद में ऊपर बनाये गए चित्रों से ढक दिये गए हैं। इन आरंभिक चित्रों की शैली में साँची की प्रस्तर शिल्प-शैली से इतनी समानता है कि उनको निश्चित रूप से इसी समय का माना जा सकता है। ये गुफाएँ दक्षिण के आंध्र राजाओं के संरक्षण में चित्रित की गई। 

यद्यपि यह राजा बौद्ध धर्म के अनुयाई नहीं थे परन्तु वे बौद्ध-धर्म के प्रचार में कोई अवरोध उत्पन्न नहीं करते थे। इसके पश्चात् ऐसा प्रतीत होता है कि कई सौ वर्षों तक अजन्ता में चित्र नहीं बनाये गए।

अजन्ता में अधिकांश चित्र निःसन्देह चालुक्य राजाओं (५५०-६४२ ईसवी) तथा बरार के वाकाटक राजाओं के समय में बनाये गए। सोलहवीं गुफा में एक वाकाटक लेख भी है। 

इसके पश्चात् पल्लव राजाओं के शासन काल में चित्रकारी का कार्य रुक गया, क्योंकि ये राजा शेव थे मालवा राज्य की बाघ गुफाओं के चित्र पाँचवीं शताब्दी में बनाये जा चुके थे। 

अजन्ता की कुछ परवर्तीकाल की मूर्तियों और एलोरा की आरंभिक मूर्तियों में बहुत समानता है चित्रित गुफाओं में से निम्न गुफाओं की चित्रकारी महत्त्वपूर्ण है। इन गुफाओं की चित्रकारी के कालक्रम के सम्बन्ध में सभी विद्वान प्रायः एकमत हैं।

  • गुफा संख्या ६ तथा १०-२०० ई० पू० से ३०० ई० तक। 
  • गुफा संख्या ६ तथा १० के स्तम्भ ३५० ई० से ४०० ई० तक।
  • गुफा संख्या १६ तथा १७-३५० ई० से ५०० ई० तक (गुफा संख्या ४, ६, ११ तथा १५ भी इसी काल में चित्रित हैं)।
  • गुफा संख्या १ तथा २-५०० ई० से ६२८ ई० तक।

आधुनिक समय में भित्तिचित्रण और तत्सम्बन्धी रंग बनाने की विधि ग्रिफिथ्स महोदय के अनुसार अजन्ता तथा अन्य गुफाओं में भित्तिचित्रण की परम्परा वास्तव में टेम्परा तथा फ्रेस्को विधि का सम्मिश्रण है। भारतवर्ष के चूने में सोखने की शक्ति कुछ अधिक है, अतः चूने के पलास्तर को बहुत समय तक पानी में भिगोकर रखा जा सकता है, परन्तु यूरोप के चूने में इतनी अधिक सोखने की शक्ति नहीं है। 

यूरोप में नमी रखने के लिए भीगे कपड़े को पलास्तर पर डालने की पद्धति अपरिचित और अप्रचलित रही। इस प्रकार नमी के कारण रंग पलास्तर में बैठ जाते हैं और अधिक स्थायी हो जाते हैं। 

साथ ही इन पर सीलन का प्रभाव भी कोई हानिकारक प्रभाव नहीं डाल पाता। भित्तिचित्रण की कला भारत में अजन्ता से आरम्भ हुई और आज तक मकानों, मंदिरों, भवनों आदि के अलंकरण में प्रयोग की जाती है।

आजकल भित्तिचित्र बनाने के लिए दीवार पर आधे इंच मोटे चूने के पलास्तर की तह लगा दी जाती है और एक दिन तक उसको उसी अवस्था में छोड़ दिया जाता है। 

यदि दूसरे दिन धरातल अधिक सख्त हो जाता है तो नमी लगा दी जाती है और उसके पश्चात् एक दाँतदार थपनी या तिकोनी लकड़ी से पलस्तर के धरातल को खुरदुरा तथा ठोस बनाने के लिए ठोंका या पीटा जाता है और उसके पश्चात् ऊपर से सफेद पलास्तर (भीगे हुए मुलायम चूने या कलि का लेप) की एक पतली तह कूँची से पोत दी जाती है और उसको दूसरे दिन तक नम रखा जाता है। 

यदि चित्र बहुत चिकना और विवरण युक्त बनाना है। तो धरातल को कन्नी से ओप कर चिकना कर लिया जाता है। इस पर ही सबसे पहले आलेखन की रेखाएँ चरवे के द्वारा या हाथ से बना दी जाती हैं। 

पहले चित्र की सीमारेखा भूरे या काले रंग से बना दी जाती है और फिर सपाट स्थायी रंगों से चित्रों को भर दिया जाता है तदोपरान्त विवरण डाल दिए जाते हैं। यह पद्धति बाघ के कुछ चित्रों में दिखाई पड़ती है, परन्तु चूने के पलास्तर की तह पतली है।

रंगों को चावल के मौड़ या अलसी के पानी में गुड़ के साथ मिलाकर तैयार किया जाता है। इन रंगों को केवल पानी में ही घोलते हैं जब चित्र बनकर पूर्ण हो जाता है तो उसको भीगे तौलिये या कपड़े से नम रखा जाता है फिर चित्र को सुखाकर लगभग एक मास पश्चात् ओपा जाता है।

अजन्ता में भित्तिचित्रण विधि

अजन्ता के चित्रों का धरातल तैयार करने के लिये पहले पलस्तर की पर्त में चूना, खड़िया (छत पर गोबर) बारीक बजरी का गारा या मसाला बनाकर गुफा की खुरदुरी दीवार पर लगा दिया जाता था। 

इस गारे को कई दिन तक अलसी के पानी में भिगोकर फूलने दिया जाता था। इसमें उर्द की दाल का पानी भी डाला जाता था ।। कभी-कभी विशेष रूप से छत के गारे में धान की भूसी भी मिलाई जाती थी। 

पलास्तर की पहली तह पौन इंच से लेकर एक इंच तक मोटी होती थी। इसके ऊपर अंडे के छिलके की मोटाई के बराबर सफेद पलस्तर का लेप चढ़ा दिया जाता था। इस पलस्तर का लेप स्तम्भों, पत्थर पर उरेहे हुए आलेखनों तथा मूर्तियों आदि पर भी कर दिया जाता था। 

परन्तु अधिक बारीकी से कटी हुई मूर्तियों आदि में इस पलस्तर का प्रयोग नहीं है बल्कि मिट्टी के पलस्तर का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार प्रत्येक गुफा पलास्तर से ओपी जाती थी और चित्रित की जाती थी। यह पलास्तर ज्वालामुखी गुफाओं की चट्टानी-दीवारों के छेदों को भली प्रकार भर देता था और उसके छेदों में बैठ जाता था।

इटली के भित्तिचित्रों में अजन्ता की भित्तिचित्रण प्रणाली नहीं दिखाई पड़ती, परन्तु मित्र के भित्तिचित्रों से साम्य प्रतीत होता है क्योंकि वहाँ खड़िया के साथ भूसा भी मिलाकर पहला पलास्तर लगाया जाता था। इस पलास्तर के ऊपर से सफेद पलास्तरको पोत दिया जाता था। 

श्री डेविल का मत है कि अजन्ता में चित्र पूर्ण हो जाने पर जब सूख जाते थे तो चित्र में अत्यधिक प्रकाश को उभारने के लिये टेम्परा (बंधक पदार्थों के साथ मिले रंग) सफेद मिश्रित गाढ़े रंग लगाये जाते थे।”

लेडी हेरिंगम के मतानुसार सफेद पलास्तर पर पूर्ण विवरण सहित लाल रेखांकन करने के पश्चात् एक ही पतले गंदे हरे रंग या टेरावट रंग (गंदा सब्ज़ रंग-एक खनिज रंग) से कहीं-कहीं लाल रंग झलकता छोड़कर बल या तान (टोन) लगा दिये जाते थे और फिर स्थानीय रंग लगाये जाते थे बाद में काले तथा भूरे रंगों से निश्चित सीमा रेखाएँ बना दी जाती थीं परन्तु बाद में आवश्यकता के अनुसार छाया का भी प्रयोग किया जाता था। 

गोलाई लाने के लिये यथार्थ छाया तथा प्रकाश का प्रयोग नहीं किया जाता था, परन्तु विरोधी, स्थानीय रंगों या काले सफेद रंगों के प्रयोग के द्वारा आकृति को निश्चित रूप प्रदान किया जाता था परन्तु ग्रिफिया महोदय ने चित्र के रेखांकन में केवल लाल रंग के प्रयोग के द्वारा रेखांकन करने की पद्धति का ही वर्णन दिया है। 

चित्र में आवश्यकतानुसार छाया का प्रयोग किया जाता था, जैसे ठुड्डी के नीचे गहरे रंग का बहुधा वाश (Wash) लगाकर गोलाई को उभारा जाता था।

अजन्ता के भित्तिचित्रों के रंग

भित्तिचित्रण में गिने-चुने खनिज रंगों का ही प्रयोग किया जाता है, ताकि वे चूने के क्षारात्मक प्रभाव से अपने अस्तित्व को न खो बैठें। अजन्ता तथा बाघ में जिन रंगों का स्वतंत्रता से प्रयोग किया गया है उनमें सफेद, लाल, पीले और विभिन्न भूरे रंग हैं। 

इनके अतिरिक्त एक गंदे हरे (संग सब्ज या टेरावर्ट) और नीले (लेपिसलाजुली) रंगों का प्रयोग है। सफेद रंग प्रायः अपारदर्शी है और चूने या खड़िया से बनाया गया है। लाल तथा भूरे रंग लोहे के खनिज रंग हैं। 

हरा रंग एक स्थानीय पत्थर से बनाया गया है जो ताँबे का खनिज रंग है जिसे टेराबर्ट (संग सब्ज) कहते हैं अजन्ता के परवर्ती चित्रों में लेपिसलाजुली रंग (नीले रंग) का भी प्रयोग है। यह रंग एक बहूमूल्य खनिज पत्थर से बनाया जाता था और इस रंग को फारस तथा बदख्शां से आयात किया जाता था। शेष रंग स्थानीय हैं। 

प्राचीन चित्रों में जैसे जोगीमारा और पाँचवीं शताब्दी के सिगिरिया गुफाओं के चित्रों में नीला रंग बिल्कुल भी प्रयोग नहीं किया गया है। छठी शताब्दी से अजन्ता की दूसरी गुफा में लेपिसलाजुली रंग (नीले रंग) का प्रयोग दिखाई पड़ता है। 

अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी में लाल तथा पीले रंग का अत्यधिक प्रयोग है। अनुमान है कि अजन्ता के चित्रकारों ने संखिया की भस्म से बने पीले रंग का प्रयोग भी किया है।

अजन्ता की गुफाओं के चित्रों का विषय

आलंकारिक आलेखनों को छोड़कर अजन्ता के अधिकांश चित्रों का विषय बोध-धर्म से सम्बन्धित है। 

इन चित्रों में बुद्ध के विभिन्न चित्र और पवित्र धर्म चिन्ह सम्मिलित हैं, साथ ही बुद्ध की जन्म-जन्मांतर की जीवन-कथाएँ तथा जातक कथाएँ इन गुफाओं की चित्रकारी का प्रधान विषय है जातक कथाओं के अन्तर्गत बुद्ध के अनेकों पूर्व जन्मों की कथाएँ हैं, जिनका चित्रकार ने सुंदरता से अंकन किया है। 

यह जातक कथाओं के ही चित्र हैं, यह बात दो आधारों पर ही कही जा सकती है प्रथम इन चित्रों पर जातक कथा का नाम लिखा है परन्तु चित्रों के नष्ट हो जाने से चित्र को पहचानने में असुविधा होती है, दूसरे दसवीं गुफा में पड़दंत हाथी की जातक कथा तथा अन्य जातक कथाओं को उनके घटनाक्रम के अनुसार अंकन एवं उनकी विशेषताओं के कारण पहचाना जा सकता है।

अजन्ता की गुफाओं की चित्रकारी

अजन्ता की गुफाओं में आरम्भिक चित्रकारी के उदाहरण नवीं गुफा तथा दसवीं गुफा में प्राप्त है। इन गुफाओं के चित्र बहुत अधिक सतिग्रस्त हो चुके हैं। यह चित्र साँची तथा भरहूत की प्रस्तर शिल्प-शैली से विशेष समानता रखते हैं। अतः इन चित्रों के समय का अनुमान सरलता से लगाया जा सकता है। 

परसी ब्राउन महोदय ने नवीं तथा दसवीं गुफा के चित्रों को १०० ई० पू० का माना है और इन गुफाओं के स्तम्भों पर बने चित्रों को ३५० ई० का माना है। दसवी गुफा में एक ब्रह्मीलिपि का लेख है जिसके अनुसार विन्सेंट स्मिथ ने नवी तथा दसवीं गुफा के चित्रों को दूसरी शताब्दी ई० पू० से १५० ई० तक का माना है।’ 

इन दोनों गुफाओं के चित्रों की शैलियों में बहुत साम्य है, अतः इन दोनों के चित्रों को समकालीन माना गया है। तत्कालीन वास्तु तथा मूर्तियों से भी इन चित्रों में विशेष समानता है। t

नवीं गुफा के चित्र – इस गुफा में ग्रिफिथ्स महोदय ने एक दीवार से पलस्तर का एक बड़ा खण्ड (पपड़ा) छुड़ाकर उसके नीचे एक चित्र खोजा, जो चट्टान पर पोर्सलीन के समान चमकदार पलस्तर चढ़ाकर उसके ऊपर से बनाया गया था। 

यह नीचे वाला चित्र एक बैठी हुई स्त्री का है। इस गुफा का यह प्राचीन चित्र है, क्योंकि बाद में कई पुराने चित्रों को पतले पलस्तर की तह से ढककर ऊपर से चित्रकारी की गई है। नवीं गुफा में बने कुछ चित्र ‘गुप्तकाल के भी हैं।

इस गुफा में चित्रित स्तूप की ओर जाते पुजारियों के दल में तत्कालीन वास्तु तथा मूर्ति कला से बहुत समानता है। इस चित्र में प्रयुक्त अर्द्धवृत्ताकार स्तूप, तोरण द्वार, पुरुषों के मुरेठे जिनमें लनुमा बड़ा मोती आगे माथे पर निकला है, तत्कालीन प्रस्तर उरेहन में भी प्रचलित थे। 

इस चित्र में पुरुषों के वर्गाकार चेहरे, बड़े-बड़े मोतियों की मालाएँ, भारी आभूषण उस समय की आंध्र प्रदेश की मूर्तियों की याद दिलाते हैं। इन आकृतियों में लटकते हुए कमर-बंद तथा निकले हुए पेट दर्शनीय हैं। गुफा में प्रवेश करते ही बायीं ओर जो लेख हैं, वे अनुमानतः ईसा पूर्व के हैं। 

इन चित्रों की अपनी विशेषताएँ हैं, जो इनको गुप्तकालीन चित्रों से पृथक कर देती हैं। उदाहरणार्थ इन चित्रों में कुल चार रंगों का प्रयोग है। ये रंग, काले, पीले, हरे तथा हरोंजी के लाल रंग हैं। इन आकृतियों के चेहरे तथा मुद्राएँ एक प्रकार की हैं। आँखें भावरहित हैं और आकृतियों की हस्त मुद्राएँ शिथिल हैं। 

नवीं गुफा इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार के वृक्षों तथा फलों का अंकन किया गया है, जिसमें चित्रकार ने अपनी निरीक्षण शक्ति का परिचय दिया है। यहाँ स्तम्भों पर बुद्ध आकृतियाँ चित्रित हैं और भित्तियों पर चरवाहों के दृश्य भी बनाये गए हैं।

दसवीं गुफा के चित्र

इस गुफा की दाहिनी भित्ति पर आज से लगभग अस्सी वर्ष पूर्व तक अधिक चित्र थे ये चित्र प्रारम्भिक शैली के थे। इनमें विशेष रूप से शक्तिशाली स्वतंत्रत रेखाओं से हाथियों का अंकन किया गया था। 

इस चित्रावली में छः दन्त जातक की कथा चित्रित है जिसमें चित्रकार ने घने जंगल का अंकन सुंदरता से किया है और नाना प्रकार के वृक्ष जैसे बरगद, गूलर तथा आम के वृक्ष चित्रित किये गए हैं। इस जंगल के दृश्य में हाथियों को जलक्रीड़ा में मग्न चित्रित किया गया है। 

इनमें छः दन्त हाथी अपनी हथनियों को सूंड से कमल पुष्प देते या कहीं पर अपने लिए अजगर से बचाते चित्रित किया गया है। दूसरी ओर जंगल में व्याघ्र प्रवेश करते हैं और छदन्त हाथी रूपी बोधिसत्व स्वयं उनके आगे समर्पण कर देते हैं। अन्तिम दृश्य में व्याघ्र काशीराज के अन्तःपुर में पहुँचते हैं। 

काशीराज की रानी सुभद्रा पूर्वजन्म में छः दन्त गज की हथनी थी, अतः डाहवश वह छः दन्त गजराज के दाँतों को काटकर लाने की आज्ञा देती है और कटे दाँतों को कहारों के कंधों पर वंडगियों पर लदा देखकर मूर्छित हो जाती है, राजा सहारा देता है-चार दासियों जो पीछे खड़ी है घबराई हुई हैं-एक दासी सहारा देने को बढ़ रही है। 

यह चित्र कलाकार ने बड़ी सुंदरता से अंकित किया है। परन्तु इस चित्र का पर्याप्त भाग दर्शकों ने अपना नाम लिख-लिखकर खुरच डाला है।

बायीं भित्ति पर एक जलूस के दृश्य का चित्रण है इसमें आगे पैदल, सशस्त्र घुड़सवार और पीछे स्त्रियों के दलों को तीव्र गति से आगे बढ़ते हुए अंकित किया गया है, इस चित्र में राजा को आठ स्त्रियों के बीच में चित्रित किया गया है। 

इस चित्र की योजना बहुत सुगठित है, और कुछ आकृतियों को संतोषजनक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है। इस चित्र में हस्त मुद्राओं और भुजाओं का चित्रण स्वाभाविक तथा गोलाई युक्त है।

इस गुफा में ही श्याम जातक का चित्र है। श्याम जातक तीसरी शताब्दी में चित्रित किया गया है। इस चित्र में अंधे माता-पिता की सेवा करने वाले एक काले वर्ण के युवक ‘श्याम’ को काशीराज के द्वारा तीर से मार देने की कथा आती है। कंधे पर घड़ा लिये श्याम की आकृति सुंदर है और माता-पिता की आकृति में वेदना है। भागते हुए हिरणों का अंकन भी मार्मिक है।

इस गुफा के स्तम्भों पर जो बुद्ध चित्र खड़ी मुद्रा में बनाये गए हैं और उनके कपड़ों तथा सिर के पीछे प्रकाश पुंज (तेज मण्डल) दर्शाये गए है उनमें गांधार शैली का प्रभाव है। विन्सेंट स्मिथ के अनुसार ये चित्र अनुमानतः पाँचवीं शताब्दी या बाद के हैं।

सोलहवीं गुफा के चित्र 

इस सम्पूर्ण गुफा के गर्भ में आज से लगभग अस्सी या एक सौ वर्ष पूर्व अधिक चित्र थे, परन्तु अब बहुत से चित्र नष्ट हो चुके हैं। ग्रिफिथ्स महोदय ने इस गुफा के एक मुख्य चित्र ‘बुद्ध-उपदेश’ को प्रकाशित किया है। 

इसी विषय का एक दूसरा चित्र इस गुफा में है। इस चित्र में बुद्ध की मुखाकृति नष्ट हो चुकी है, परन्तु उनके भक्तों की आकृतियों को कम क्षति पहुंची है। भक्तों में एकाग्रचित्ता और भक्तिमय नम्र दृष्टि दिखाने में कलाकार को अत्यधिक सफलता प्राप्त हुई है।

सोलहवीं गुफा की दाहिनी भित्ति पर सुजाता की कहानी चित्रित है। इसमें गायों का चित्रण सुंदर है और भवन में गुप्तकालीन प्रस्तर शिल्प जैसी ज्यामितिक तरह से जालियाँ काटी गई हैं।

इस गुफा की बाँधी भित्ति पर उन चार दृश्यों (वृद्ध, पुरुष, शव, वृषभताड़न तथा वैरागी) का चित्रण है जिन्हें देखकर बुद्ध को वैराग्य उत्पन्न हुआ था। इसी गुफा में एक स्थान पर माया देवी के स्वप्न का दृश्य भी अंकित है। 

इस चित्र की पृष्ठभूमि वाले भाग में हाथी के दो दाँत भी अंकित थे, परन्तु अब इस चित्र में माया देवी की आकृति के केवल पैर ही शेष बचे है। ग्रिफिथ्स महोदय ने जिस समय इस चित्र को देखा था तो उस समय बुद्ध की आकृति को छोड़कर शेष भाग सुरक्षित था। 

इसी चित्र में एक ओर महाराज शुद्धोधन तथा माया देवी स्वप्न की चर्चा करते सोच-विचार में लीन दर्शाये गए हैं। माया देवी के चारों ओर दासियाँ अत्यन्त सुंदर मुद्राओं में बैठी हुई हैं, परन्तु उनकी आँखों के चित्रण में निर्बलता दृष्टिगोचर होती है। 

इस गुफा में ऊपर की ओर बुद्धजन्म से सम्बन्धित कथाओं में बुद्ध के जन्म के पश्चात उनके सात कदम चलने वाली कथा को सात पद चिन्ह बनाकर प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया गया है साथ ही भगवान बुद्ध को भी बालक के रूप में इस कथा में चित्रित किया गया है। 

यहाँ पर बुद्ध के जन्म-स्थान लुम्बनी वाटिका के दृश्य भी सुंदरता से बनाये गए हैं। इन कथाओं के अतिरिक्त बुद्ध की पाठशाला के दृश्य अंकित हैं जिनमें बालकों की मनोरम क्रीड़ाएँ अंकित की गई हैं।

सोलहवीं गुफा में एक सबसे उत्कृष्ट चित्र है जो ‘मरती राजकुमारी’ के नाम से विख्यात है। इस चित्र की डॉ० वर्गीस (Burgess ) तथा श्री फर्गुसन ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इस चित्र में एक कुलीन महिला ऊँचे आसन पर लेटी है और उसके पीछे एक दासी उसको सहारा देकर ऊपर उठाये है। 

पीछे खड़ी एक अन्य दासी अपनी छाती पर हाथ रखे है और एक महिला की ओर देख रही है दूसरी दासी पंखा झल रही है-सफेद टोपी लगाये एक वृद्ध पुरुष दरवाजे पर खड़ा है और दूसरा एक खम्भे के पास बैठा है-सामने की ओर दो स्त्रियों बैठी हैं। 

दूसरे प्रकोष्ठ में दो स्त्रियाँ हैं जिनमें से एक पारसी टोपी पहने है और हाथ में कलश लिए है जिस पर जलपात्र ढका हुआ है। दूसरी युवती के बाल नीग्रो जैसे हैं और वह कुछ माँग रही है। दूसरी ओर दो परिचारिकाएं एक अलग प्रकोष्ठ में बैठी हैं। 

इस मरणासन्न कुलीन महिला का सिर गिर रहा है, आँखें बंद हैं और उसके अंग-अंग मरण- पीड़ा से विक्षिप्त हैं। एक परिचारिका इस महिला की नाड़ी देख रही है, उसके चेहरे पर मृत्यु के आतंक की एक विषादमय छाया है। 

पंखा झलने वाली स्त्री तथा दो पुरुषों की मुखाकृति पर भी दुःख का भाव है। फर्श पर नीचे बैठे हुए सम्बन्धियों ने जैसे जीवन की आशा ही त्याग दी हो और उन्होंने रुदन आरम्भ कर दिया है। इस दल में एक स्त्री अपने हाथों से अपना मुख छिपाए रो रही है।

दिया और करुणा के भाव को उद्दीप्त करने के दृष्टिकोण से यह चित्र एक सफल अभिव्यक्ति है। यूरोप में वेनिस के कलाकारों ने विविध वर्णों का उत्तम विधान प्रस्तुत किया है और फ्लोरेंस के कलाकारों ने कितना ही शक्तिपूर्ण रेखांकन करके चित्र बनाये हों, परन्तु बे फर्ग्युसन के मतानुसार भावों की इतनी मार्मिक और सशक्त अभिव्यक्ति की सफलता को प्राप्त नहीं कर सके हैं।’

सत्रहवीं गुफा के चित्र 

सत्रहवीं गुफा के चित्र सोलहवीं गुफा के चित्रों के बाद के हैं परन्तु ये चित्र पहले से अधिक खराब अवस्था में हैं। डॉ० वर्गीस ने इस गुफा में लगभग ३१ दृश्यों का वर्णन दिया है परन्तु अब बहुत कम चित्र प्राप्त हैं।

इस गुफा में घुसते ही बाहरी बरामदे की दीवार पर सुंदर चित्र थे जो नष्ट हो चुके हैं। द्वार के दोनों ओर किसी समय बोधिसत्व के चित्र बने रहे होंगे परन्तु अब इनके केवल मुकुट मात्र ही रह गए हैं। इस गुफा की छत में सुंदर आलेखन बनाये गए हैं।

इस गुफा के अंदर अनेक सुंदर चित्र है जिसमें नलगिरि नामक हाथी के आक्रमण के भी कई दृश्य हैं, किन्तु इन चित्रों के रंग फीके पड़ गए हैं और कई अंश पलस्तर के साथ गिर गए हैं। यहीं पर एक पडरचक्र का भी आलेखन किया गया है। 

इस चक्र के केन्द्र में अनेक प्रकार की आकृतियाँ हैं। इस चित्र में कई दृश्य, जैसे बाजार, उद्यान, गोष्ठी आदि के दृश्य हैं। इस चक्र को एक व्यक्ति हाथ फैलाकर पकड़े हुए है, सम्भवतः यह कोई दार्शनिक तत्व अंकित किया गया है। इसके किनारे सर्पाकार नदी का बाढ़युक्त जल का प्रवाह अंकित है जिसके भय से लोग भाग रहे हैं। 

अधिकांश विद्वानों ने इसे संसृति का चित्र माना है। इस प्रकार के चित्रों के अंकन की परम्परा तिब्बत में भी दिखाई पड़ती है। इसी गुफा में अनेक महत्त्वपूर्ण जातक कथाओं के चित्र अंकित हैं जिनमें छः दन्त जातक, महाहंस जातक, श्याम जातक, सुसोम जातक, महिष जातक, सिंहलावदान, शिविजातक, मृगजातक आदि हैं। 

इसी गुफा में मातृ-पोषक जातक की कथा भी सुंदरता से अंकित की गई है। मातृपोषक जातक की कथा इस प्रकार है-‘एक बार बुद्ध श्वेत हाथी के रूप में अवतीर्ण हुए थे, उनको पकड़कर काशीराज के पास लाया गया परन्तु यहाँ उन्होंने अपनी माँ के वियोग में दाना-पानी छोड़ दिया, काशीराज को जब यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने श्वेत हाथी को पुनः जंगल भेज दिया।’ 

इस जातक कथा के अंकन में चित्रकार ने हाथी के माँ से पुनः मिलन की दशा को बड़ी मार्मिक दृष्टि से अंकित किया है। इस जातक कथा के अंतिम दृश्य में श्वेत गज अपनी सूंड से अपनी अंधी माँ को सहलाते हुए दिखाया गया है।

इस गुफा में ‘मार- विजय’ का भव्य चित्र अंकित है एक दूसरे चित्र में बुद्ध धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में ध्यानमग्न हैं और चारों ओर एकत्र उनके भक्तजन दर्शाये गए हैं। यह भक्त वस्त्राभूषणों से सुसज्जित हैं और अनुमानतः अभिजात वर्ग के हैं। कुछ व्यक्ति हाथी पर बैठे हैं। 

यहाँ पर बोधिसत्व की पृष्ठभूमि में एक पर्वत के अन्तर्गत दर्पण में सखियों सहित मुख देखती हुई एक स्त्री का चित्रण अपने अनुपम सौन्दर्य के लिए विख्यात है।

यहीं पर वेस्सान्तर जातक की मार्मिक कथा का दृश्य भी चित्रित है। इस चित्र में बोधिसत्व राजा भावपूर्ण हस्तमुद्रा धारण किये आसन पर बैठा चित्रित किया गया है, सामने एक भिक्षुक अपने कुरूप दाँत निकाले कुछ भिक्षा याचना कर रहा है। 

उसकी याचना से सारा राज परिवार चकित है। राजा के पीछे बैठी स्त्रियों चिंतित है। यहाँ भिक्षु राजा की दानशीलता का यश सुनकर एक यज्ञ में बलि देने के लिए उसके राजकुमार पुत्र को भिक्षा में प्राप्त करने आया है राजकुमार तैयार है। 

पीछे एक सेवक पात्र में जल ले आया है जिससे यह प्रतीत होता है कि राजा ने इस महादान का संकल्प कर लिया है। इस चित्र में हस्त मुद्राएँ तथा नेत्रों के भाव उल्लेखनीय हैं। चित्र की रेखाएँ भी सुडौल तथा शक्तिशाली हैं-विशेष रूप से भिक्षु के कुरूप चेहरे, गंजे सिर पोपले मुँह से बाहर निकले दाँत, गालों की उठी हड्डी, भारी ठुड्डी आदि के अंकन में कलाकार ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है।

यहाँ पर एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण चित्र अंकित है जिसमें कई सौ चेहरों का अंकन किया गया है। इस चित्र में सुंदरियों के दलों, सवारियों, राज्याभिषेक, दरवार आदि के पक्षों का सुंदर चित्रण हुआ है। 

इसी चित्र में डॉकिनियों का युद्ध भी विशेष महत्त्व का है। अजन्ता के चित्रकार ने सुंदरता में ही रुचि प्रदर्शित नहीं की है बल्कि कुरूप तथा भयानक रूपों के अंकन में भी पूर्ण सफलता प्राप्त की है।

इस गुफा में ही ‘राहुल-समर्पण’ नामक भव्य चित्र अंकित है इस चित्र में बुद्धत्व प्राप्ति के पश्चात यशोधरा से मिलन दिखाया गया है-बुद्ध ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् कपिलवस्तु पधारते हैं। वे यशोधरा के द्वार पर याचक के रूप में आते हैं, यशोधरा भिक्षा में अपने जीवन आराध्य देव को पुत्र राहुल जैसी एक मात्र निधि से बढ़कर क्या दे सकती थी ? यशोधरा भगवान के सम्मुख राहुल को समर्पित कर देती है। 

यहाँ पर बुद्ध को अन्य आकृतियों से बड़ा बनाया गया है। इसका कारण यह है कि बुद्ध साधारण मानव से महान थे। अतः उन जैसी महान आत्मा को विशाल रूप देकर उनकी महानता को स्थापित किया गया है। 

इसी गुफा में सिंहलावदान की कथा के चित्रण में सिंहल के यात्रियों का समुद्र में पोत टूट जाने पर राक्षस जाति के लोगों से युद्ध का दृश्य सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है। इसमें युद्ध की गति, योद्धाओं की भंगिमाएँ तथा अस्त्र-शस्त्र सुंदर है।

इसी गुफा का एक अन्य चित्र जिसकी कथा ‘महाहंस जातक’ पर आधारित है, अपने अनुपम वर्ण-विधान के कारण अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कर चुका है। 

इस चित्र की कथा इस प्रकार है-‘बुद्ध एक जन्म में स्वर्ग हंस के रूप में अवतीर्ण हुए इसी समय काशीराज की रानी खेम ने स्वप्न में स्वर्ण हंस देखे इस कारण राजाज्ञा से बहेलियों ने स्वर्ण-हंस रूपी बुद्ध और सुमुख हंस को पकड़कर काशीराज की सेवा में ला प्रस्तुत किया। 

काशीराज की सभा में स्वर्ण-हंस राजा को उपदेश देता है और काशीराज बुद्ध को सिंहासन पर बैठाते हैं और उनसे उपदेश ग्रहण करते हैं। काशीराज सुमुख हंस सहित बुद्ध को छोड़ देते हैं। यहाँ से वे चित्रकूट की ओर चल देते हैं।’ बुद्ध ने जातक कथा में बताया कि पूर्वजन्म में बहेलिया यात्रा, रानी खेम, धाया खेम, सुमुख हंस, आनंद और काशीराज सरिपुत्र हुए और स्वर्ण-हंस स्वयं में था।’ 

इस चित्र में राजा सिंहासन पर विराजमान है, पीछे चमरधारी परिचारिकाएँ हैं- एक परिचारिका के हाथ में छत्र है। एक परिचारक का रंग नीम्रो जैसा है, राजा के नीचे पेरों के समीप बहेलिया बैठा हुआ है उसके शरीर का रंग गहरा लाल है। मध्य में हंस एक सिंहासन पर विराजमान है। 

हंसों के ऊपर राजा ने सम्मान सूचक छत्र लगवा दिए हैं। पृष्ठभूमि में आलेखनों से युक्त कनात खड़ी है। चित्र के अग्रभाग में एक झील है। जिसमें गुलाबी कमल, अनेक जल-पुष्प । तथा जल-पक्षी हैं। इस चित्र में अजन्ता की कला का वर्ण विधान सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया है और लाल, सफेद तथा गहरे हरे रंगों का संतुलन उल्लेखनीय है।

उन्नीसवीं गुफा के चित्र 

यह गुफा चैत्य गृह है। इसमें पत्थर को काटकर अधिक अलंकरण कार्य किया गया है। चित्रों में गौतम बुद्ध के चित्र और सामने की ओर बने छत के आलेखन सुंदर हैं।

छठी गुफा के चित्र  

उन्नीसवीं गुफा के समान ही छठी गुफा में भी कुछ चित्र प्राप्त हैं। इनमें केश संस्कार से युक्त एक सुंदरी तथा द्वारपालों के कुछ चित्र किसी कुशल चितेरे के बनाये हुए हैं।

ग्यारहवीं गुफा के चित्र 

यहाँ पर हस्ति जातक की कथा तथा नन्द की कथा और उनकी विरह व्याकुल रानी के सुंदर चित्र हैं। एक चित्र में एक बांध के किनारे कुछ बालक और स्त्रियाँ सरोवर में स्नान कर रही हैं। इस चित्र में एक राक्षस भी है परन्तु इस चित्र की आकृतियों की लिखाई में निर्बलता है।

पहली और दूसरी गुफाओं के चित्र बाद में बनाये गए हैं। दूसरी में अकेली आकृतियाँ सुंदरता से बनायी गई हैं साथ ही कलाकार ने जटिल अंग-भंगिमाओं और मुद्राओं को अंकित करने का प्रयास किया है।

पहली गुफा के चित्र

इस गुफा में कई सुंदर कथाओं के दृश्यों का अंकन मिलता है, छतों पर सुंदर अलंकरण चित्रित किये गए हैं (देखिये रेखाचित्र अलंकरण अभिप्राय) इस गुफा में शिविजातक की कथा, विरहणी, नागराज की सभा का दृश्य, शंखपाल जातक, मारविजय तथा पुलकेशिन की सभा का दृश्य विशेष उल्लेखनीय चित्र हैं। 

शिविजातक की कथा का रूप पौराणिक है। इस चित्र में चित्रित चेहरे लम्बे तथा आलेखन मध्यकालीन हैं। चित्र की लिखाई मोटी-मोटी रेखाओं से की गई है जिससे हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि यह गुफा बाद में चित्रित की गई होगी। यहाँ पर विरह की पीड़ा से विछल एक सुंदरी का चित्र है। 

इस सुंदरी की विरह वेदना की कहानी कई सखियाँ जान गई हैं, और उसकी व्यथा को दूर करने का प्रयत्न कर रही है। इस चित्र में सजीवता है और आकृतियों की हस्त मुवाओं तथा बालों के शृंगार के आलेखनों में कोमलता है किन्तु आकृतियों की शारीरिक रचना में भारीपन है। कटिभाग अति क्षीण है तथा कहीं-कहीं भृकुटियों को एक ही रेखा से बनाया गया है।

अलंकरण अभिप्राय (अजन्ता गुफा-१, छत्त इस गुफा में ही बायीं भित्ति पर नागराज सभा का चित्र अंकित है। इस सभा में नृत्य का अंकन है और दरवारी चहल-पहल एवं राजसी ठाठ-बाठ सुंदरता से दिखाया गया है। राजदम्पति के पीछे चमरधारिणी बड़ी ही मनोरम मुद्रा में अंकित की गई है।

मार विजय के चित्रण में चित्रकार ने अपनी पूर्ण योग्यता का परिचय दिया है। यह चित्र पर्याप्त नष्ट हो चुका है। जब बुद्ध बोधिसत्व प्राप्ति के समीप पहुँच गये थे तो कामदेव ने तप डिगाने के लिये आक्रमण किया इसी घटना को लेकर यह चित्र बनाया गया है। 

इस है दृश्य में अनेक कामुकतापूर्ण, भयंकर एवं क्रूर आकृतियाँ उपस्थित की गई हैं। एक ओर तपस्वी रूप में ध्यान मग्न बैठे हुए बुद्ध को एक लाल बीना आँखें फाड़कर देखते हुए डराने का प्रयत्न कर रहा है, एक भयानक आकृति तलवार चला रही है और इसी प्रकार की नाना आकृतियाँ बुद्ध को आतंकित करके तप से डिगाने का प्रयत्न कर रही हैं।

एक दृश्य में चालुक्य सम्राट पुलकेशिन द्वितीय की राजसभा में आये फारस के बादशाह खुसरो परवेज़ के राजदूत को चित्रित किया गया है। इस चित्र से भारत तथा फारस के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों का ज्ञान होता है। 

इसी गुफा में ‘चम्पेय जातक’ की कथा का अंकन भी है। बुद्ध एक जन्म में नागराज थे। वे पकड़कर काशीराज की सभा में लाये जाते हैं। यहाँ पर वे काशीराज को उपदेश देते हैं। राजा नागराज को सिंहासन पर बिठाता है और महिलाएँ तथा राज परिवार के सदस्य उनको चारों ओर से घेरे खड़े हुए अंकित किये गए हैं।

इसी गुफा में बज्रपाणि तथा पद्मपाणि बोधिसत्व के उत्कृष्ट चित्र अंकित हैं (देखिये रेखाचित्र बोधिसत्व पद्मपाणि तथा बोधिसत्व वज्रपाणि) । असीम दया तथा करुणा के भावों ने इन चित्रों को विश्व-विख्यात कर दिया है। 

पद्मपाणि बुद्ध के चित्र में बुद्ध भगवान की आकृति पांच फुट साढ़े नौ इंच x दो फुट साढ़े पांच इंच के विस्तार में पर्याप्त बड़ी बनायी गई है। चित्र की रेखाओं में प्रवाह और शक्ति है। बुद्ध के दोनों ओर गण बनाये गए हैं और बुद्ध लम्बी मालाओं से सुसज्जित हैं। 

बुद्ध के एक ओर राजकुमारी का चित्र है जिसे काली राजकुमारी के नाम से ही पाश्चात्य लेखकों ने सम्बोधित किया है। परन्तु स्व० रायकृष्ण दास का मत है कि सिंदूर से चित्रांकन होने के कारण आकृति के रंग काले पड़ गए हैं। 

उनके अनुसार चट्टानों में गंधक का अंश रहा होगा जो जल में घुलकर वर्षाकाल में चित्र के ऊपर चट्टानों से वहकर आया होगा और चित्र पर अपना प्रभाव डालता रहा होगा। इस कारण गंधक के प्रभाव से चित्र में सिंदूर का रंग काला पड़ गया है।

इस गुफा में कलाकार ने एक ब्रेकिट के ऊपरी भाग पर सांडों की लड़ाई का सुंदरता से अंकन किया है। इस चित्र में अत्यधिक गति, बल और सुडोलता है। इस चित्र से ज्ञात होता है कि अजन्ता के कलाकार को पशुओं का अच्छा ज्ञान था विन्सेंट स्मिथ के अनुसार इस गुफा की छत के आलेखन सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में बनाये गए थे छत के यह आलेखन पूर्ण विवरण सहित लिखे गए हैं।

दूसरी गुफा के चित्र 

इस गुफा में जातक कथाओं तथा सभाओं के चित्र सुंदर हैं। दाहिनी ओर एक अज्ञात सभा तथा महाहंस जातक का चित्र है। इस गुफा की बायीं भित्ति पर माया का स्वप्न’, ‘तृषित-स्वर्ग’ तथा बुद्धजन्म के चित्र हैं। 

‘माया का स्वप्न’ चित्र में महादेवी माया शयन कक्ष में सो रही हैं। इस चित्र में कलाकार ने सफेद गोल आकार या प्रताप पुंज के प्रतीक से स्वप्न की कथा का चित्र में निरूपण किया है। तृषित स्वर्ग वाले चित्र में बुद्ध को स्वर्ग के सिंहासन पर विराजमान भव्य रूप में अंकित किया गया है। 

उनके मुखमंडल के चारों ओर प्रभापुंज हैं और हाथ धर्म चक्र मुद्रा में हैं, उनके दोनों ओर मकर बने हैं और बुद्ध की दृष्टि चिन्तनपूर्ण है। पास में खड़े देवताओं की आकृतियाँ उनको सम्मान की दृष्टि से देख रही हैं। इस चित्र में आकृतियों की अंग-भंगिमाओं तथा मुद्राओं का अच्छा अंकन है।

बुद्ध जन्म वाले चित्र में ‘महामाया’ तथा शुद्धोधन को स्वप्न की चर्चा करते दिखाया गया है। उनके चारों ओर दास-दासियों खड़े हैं दासियों की अंग-भंगिमाएँ सुंदर है। सामने दो ब्राह्मण हैं, दाहिनी ओर महामाया के समान ही रत्नाभूषणों से सुसज्जित एक स्त्री स्तम्भ के सहारे खड़ी है। 

श्री रामकृष्ण दास ने इस आकृति को राजकुल महिला महाप्रजापति देवी, बुद्ध की विमाता माना है। महाप्रजापति एक कोमल लतिका के समान बायाँ पैर ऊपर उठाये खड़ी हैं उनका पैर स्तम्भ के सहारे टिका है और वे उसी के सहारे खड़ी हैं।

बुद्ध जन्म वाले दृश्य में शाल वृक्ष की डाल पकड़े महामाया उपवन में खड़ी हैं, उपवन के बाहर भिखारी हैं। इस चित्र में इन्द्र चौकोर टोपी लगाये हैं और तीन नेत्रों से युक्त दर्शाया गया है।

इसी गुफा में एक वैराग्य सूचक साधु का चित्र है परन्तु कुछ लेखकों ने इसे सर्वनाशसूचक साधु या राजदूत माना है। यह वृद्ध साधु एक लकड़ी के सहारे खड़ा है और एक हाथ की मुद्रा से ‘सबकुछ मिथ्या है’ के संदेश (भाव) को अभिव्यक्त कर रहा है। उसके नेत्रों तथा चेहरे में भी यही भाव है।

इसी गुफा में ‘विदुर पंडित जातक’ और ‘झूला झूलती राजकुमारी के चित्र हैं। यह झूला झूलती राजकुमारी मदमाते पूर्ण यौवन के प्रतीक झूले पर झूल रही है। यहाँ पर एक और सुंदर चित्र है जिसमें शान्तिवादिन मुनि की कथा का अंकन है। 

एक जन्म में बुद्ध शान्तिवादिन मुनि के रूप में अवतीर्ण हुए और काशीराज के अन्तःपुर की सब स्त्रियाँ उनके उपदेश सुनने गयीं। इस पर राजा ने उनके वध की आज्ञा दे दी। 

इस चित्र में राजा खड़ग लिये सिंहासन पर बैठा है, उसके पैरों पर गिरी कोमलांगी सुंदरियाँ भय से काँप रही हैं, तो कुछ भागना चाहती हैं और कुछ मुँह छिपाये चिन्तामग्न हैं। चित्र में सर्वप्रथम भय का भाव है।

बाघ गुफाएँ

बाघ गुफाओं की स्थिति-वाघ गुफाएँ प्राचीन ग्वालियर रियासत में बिन्ध्याचल पर्वत श्रेणी में स्थित थीं। परन्तु स्वतंत्रता प्राप्त होने के पश्चात् यह गुफाएँ मध्यप्रदेश के अन्तर्गत आ गयी हैं। १८१८ ई० में सर्वप्रथम इन गुफाओं का परिचय तथा विवरण लेफ्टीनेंट डेंजरफील्ड ने बम्बई से प्रकाशित किया। 

इन गुफाओं के चित्रों का १९०० ई० से १६०८ ई० के मध्य में कर्नल सी० ई० लुआर्ड ने निरीक्षण किया और पुनः ये चित्र संसार के समय आये इन गुफाओं तक पहुँचने के लिये पहले महो रेलवे स्टेशन तक रेलगाड़ी से जाना पड़ता है और फिर महो से धारमार्ग के द्वारा बाघ कस्बे तक मोटर गाड़ियों से ८७ मील का मार्ग पार करना पड़ता है। 

यद्यपि बाघ कस्बे में ठहरने के लिये विश्रामगृह हैं, परन्तु शेष सुविधाओं के लिये पर्यटकों को अपनी व्यवस्था करनी पड़ती है। बाघ कस्बे से यह गुफाएँ दो या तीन मील की दूरी पर स्थित है। वर्षा ऋतु में बाघ -ऋतु नदी में बाढ़ के कारण आने-जाने में असुविधा उत्पन्न हो जाती है, वैसे महो से पर्यटकों के लिये टैक्सी तथा मोटर गाड़ियों की सुविधा प्राप्त हो जाती है।

बाघ का परिचय तथा गुफाएँ बाघ की गुफाओं का नाम निकट स्थित गाँव ‘बाघ’ के नाम पर पड़ा है। बाघ गुफाओं को स्थानीय लोग पंच-पांडव गुफाओं के नाम से पुकारते हैं। 

यह गुफाएँ विन्ध्याचल पर्वत के दक्षिणी ढाल पर बाघ नदी के किनारे स्थित हैं जिस क्षेत्र में यह गुफाएँ काटी गई है वह बाघ नदी से १५० फुट ऊँचा है, परन्तु इस क्षेत्र में रेतीली चट्टानें होने के कारण गुफाओं के निर्माण में बहुत असुविधा हुई। 

यहाँ पर कुल नौ गुफाएँ हैं जिनके सम्मुख भाग की लम्बाई ७५० फुट है। पहली गुफा ‘गृह’ है जिसका क्षेत्रफल २३४१४ फुट है। यह गुफा कमरे के समान है, जिसमें चार स्तम्भ हैं। इस गुफा का बाहरी बरामदा गिर चुका है और गुफा की दशा खराब है। दूसरी गुफा ‘पांडवों की गुफा’ है। 

इस गुफा की दशा अच्छी है यद्यपि धुएं तथा चिमगादड़ों के कारण चित्र धूमिल पड़ गए हैं। यह गुफा एक वर्गाकार चैत्य है जिसके तीन ओर छोटी-छोटी कोठरियाँ काटकर बनायी गई हैं। बाहर की ओर स्तम्भों पर आधारित बरामदा है और पीछे एक स्तूपदार चैत्य या गर्भभाग है। 

तीसरी गुफा का स्थानीय नाम ‘हाथी खाना’ या ‘हस्तिखाना’ है। यह भी सम्भवतः आवास के लिये बनायी गई होगी क्योंकि इस गुफा की कोठरियों को टेम्परा चित्रों से सुसज्जित किया गया है। इस गुफा का बाहरी बरामदा गिर चुका है। इस गुफा में दो मंडप (हाल) हैं। 

इस गुफा की दीवारों पर बुद्ध पूजा के चित्र बने हैं जिनसे अनुमान होता है कि यह गुफा चैत्यगृह थी और चौथी गुफा ‘रंगमहल’ है और इसमें अब भी सुंदर चित्रों के अवशेष सुरक्षित हैं। तीसरी और चौथी गुफा के मध्य २५० फुट खुरदुरी चट्टानें हैं परन्तु चौथी गुफा पाँचवीं से तथा पाँचवीं गुफा छठी से भीतर के द्वारों से सम्बन्धित है। चौथी गुफा के मध्य का मण्डप ८४ फुट लम्बा है। 

यहाँ पर दरवाजों पर ब्रेकिटों में जो मूर्तियों हैं, वह साँधी की शैली से समानता रखती हैं। पाँचवीं गुफा ६५४४४ फुट क्षेत्रफल की गुफा है जिसमें दोनों ओर स्तम्भों की पंक्तियाँ हैं। इस गुफा में छतों, स्तम्भों तथा दीवारों पर टेम्परा चित्र बने हैं। छठी गुफा ४६ फुट का एक वर्गाकार मंडप (हाल) है जिसके साथ पाँच कोठरियाँ भी काटी गयी हैं। 

चौथी तथा पाँचवीं गुफा के सम्मुख २२० फुट का बरामदा है जो अब गिर चुका है। इस बरामदे के पीछे की दीवार पर ऊपरी भाग में ही चित्रों के समुचित अवशेष रह गए हैं। सातवीं, आठवीं तथा नवीं तीनों गुफाओं के विषय में बहुत कम ज्ञान हो पाता है क्योंकि इन गुफाओं की छतें गिर चुकी हैं और मिट्टी चट्टानों तथा पत्थरों से दरवाजे बंद हो जाने के कारण भीतर प्रवेश करने का मार्ग अवरुद्ध हो गया है।

गुफाओं का समय-इन गुफाओं में कोई भी ऐसा लेख नहीं मिलता जिनसे इन महत्त्वपूर्ण कला मंदिरों की गौरव गाथा का ज्ञान हो यहाँ की चट्टानें भी इस योग्य नहीं थी कि उन पर लेख उत्कीर्ण किये जाते । प्रस्तर पर उभारन अलंकरण तथा मूर्तियों के निर्माण के लिये भी यह पत्थर की रेतीली चट्टानें उपयुक्त नहीं थीं। 

अतः अलंकरण के अभाव को पूरा करने के लिये चित्रकारी का प्रयोग ही किया गया है। इस प्रकार चित्रित प्रमाण ही लेखों का कार्य करते हैं। परन्तु दुर्भाग्यवश यह प्रमाण भी अधिकांश नष्ट हो गये हैं, केवल एक स्थान पर अक्षर ‘क’ हिरोंजी के रंग में लिखा रह गया है। 

श्री एम० वी० गेरडे के अनुसार प्राचीन लिपि में ‘क’ छठी-सातवीं शताब्दी के प्रसंग में आया है और उनके अनुसार यही इन गुफाओं का समय माना गया है।” 

स्मिथ महोदय ने इन गुफाओं की चित्रकारी का समय ६२६-६२८ ई० माना है और इनको अजन्ता की पहली तथा दूसरी गुफा की चित्रकारी का समकालीन बताया है परन्तु १६२९ ई० में पुरातत्व विभाग की ओर से इन गुफाओं की सफाई तथा जीर्णोद्धार करते समय दूसरी गुफा में महाराज सुबंधु का ताम्रपत्र मिला जिससे इन गुफाओं के निर्माण का ठीक समय निश्चित हो जाता है।

इस ताम्रपत्र पर उत्तीर्ण लेख के अनुसार माहिष्मती के महाराज सुबंधु ने बुद्ध के गन्धधूप, माल्यावाल, सूत्र, पूजा आदि की योजना के लिए भग्न स्फुटित के संस्करण के लिए तथा आर्य भिक्षु संघ के चारों दिशाओं से आकर ठहरने पर उनके चीवर पिन्ड पालग्लान प्रत्यय ‘शय्यासन भैषज्य’ के लिए ‘दासिलकपल्ली’ नामक ग्राम दान में दिया है। 

इस ताम्रपत्र में अंकित लेख की चौथी पाँचवी पंक्ति से यह ज्ञान होता है कि यह दान ‘कलयन’ (बाघ) नामक विहार को दिया गया। ‘दासिलकपल्ली’ ग्राम का अब कोई चिन्ह प्राप्त नहीं है।

इस अभिलेख के अनुसार विद्वानों का अनुमान है कि बाघ की गुफाएँ कलयन या है ‘कलायन’ के नाम से पुकारी जाती थीं। इतिहासकारों ने महाराज सुबंधु का समय ४१६-४६६ ई० के मध्य माना है।

इस प्रकार इस ताम्रपत्र से ऐसा ज्ञात होता है कि ये गुफाएँ महाराज सुबंधु के समय में बनकर तैयार हो गई थीं और इस प्रकार इनका निर्माणकाल चौथी पाँचवीं शताब्दी माना जा सकता है।

गुफाओं की खोज तथा सुरक्षा-आधुनिक समय में इन गुफाओं की खोज १८१८ ई० में लेफ्टीनेंट डेंजर फील्ड नामक वास्तु कला के विद्वान ने की, और फिर कई विद्वानों ने बाघ के सम्बन्ध में लेख लिखे। इनमें डब्ल्यू इरिस्किनी, ई० इम्पे, कर्नल सी० ई० लुआर्ड, स्व० असित कुमार हाल्दर तथा श्री मुकुलचन्द्र डे ने बाथ गुफाओं पर लेख प्रकाशित किए।

अंग्रेजी सरकार ने ग्वालियर राज्य में पुरातत्व विभाग की स्थापना के पश्चात् इन गुफाओं की समुचित सुरक्षा का प्रबंध कर दिया। सुरक्षा के लिए कई खिड़कियों तथा द्वारों को बंद कर दिया गया और गुफाओं की सफाई करायी गई। इन चित्रों की अनुकृतियाँ बनाने के लिए देश के प्रसिद्ध कलाकारों को अनुकृति चित्र बनाने का कार्य सौंपा गया। 

इन कलाकारों में स्व० नन्दलाल बसु, स्व० असित कुमार हाल्दर तथा श्री सुरेन्द्रनाथ कर (कलकत्ता), श्री ए० बी० भोंसले (ग्वालियर) तथा बी० ए० आपटे (बम्बई), श्री एम० एस० भाँड तथा श्री बी० बी० जगतप (ग्वालियर) थे। 

इनकी बनायी बाघ के चित्रों की प्रतिलिपियाँ ग्वालियर दुर्ग के गूजरी महल की एक बारहदरी में सुरक्षित थीं। इसके पश्चात् आरमीनियन चित्रकार सरकिस कचडोरियन ने भी बाघ के चित्रों की अनुकृतियाँ तैयार कीं।

बाघ गुफाओं के चित्र

बाघ गुफाओं के सबसे अच्छे चित्र चौथी और पांचवी गुफा के बाहरी बरामदे की भीतरी दीवार या गुफाओं के सामने की दीवार पर ऊपर के भाग में सुरक्षित थे। परन्तु बरामदे की छत गिर जाने से पर्याप्त चित्र नष्ट हो गए हैं। इसके अतिरिक्त दर्शकों ने नाम लिख-लिखकर भी चित्रों को क्षति पहुंचाई है।

पहला दृश्य  

अधिकांश चित्र चौथी गुफा के सम्मुख भाग में प्राप्त हैं। इन चित्रों का सिंहावलोकन नितान्त दक्षिणी छोर से चौथी गुफा के द्वार से आरम्भ करेंगे। इस द्वार के ऊपर दो दृश्य अंकित हैं। 

पहले दृश्य में दो स्त्रियाँ एक छज्जे पर बैठी हैं जिसमें से एक शोकाकुल हे और अपने दाहिने हाथ में लगे वस्त्र से अपने मुख को छिपाए है उसका बायाँ हाथ किसी बात को व्यक्त करने की मुद्रा में फैला है दूसरी स्त्री सम्वेदना और सहानुभूति में उसकी करुण कहानी सुन रही है। 

इस छज्जे की छत पर नीले रंग से कबूतरों की जोड़ी बनायी गई है जो किसी प्रणय प्रसंग का प्रतीक है। सम्भवतः यह किसी विरहणी का चित्र है। इस विरहाकुल स्त्री के चित्र को कुछ विद्वानों ने बुद्ध के विरह में व्याकुल यशोधरा का चित्र बताया है।

दूसरा दृश्य

दूसरे दृश्य में चार गहरे वर्ण के आभूषणधारी पुरुष किसी गंभीर वार्ता में निमग्न हैं ये सब पुरुष आकृतियाँ पाल्थी बाँधे नीली तथा पीली आसनियों पर विराजमान हैं। इन आकृतियों की पृष्ठभूमि में उद्यान के फीके से चित्रण का आभास होता है।

तीसरा दृश्य

तीसरे दृश्य में स्पष्ट रूप से आकृतियों के दो समूह हैं जो एक के ऊपर एक बनाये गए हैं, परन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि यह एक ही प्रसंग के चित्र हैं या एक ही दृश्य की घटना हैं। 

ऊपर वाले भाग में छः पुरुष आकृतियाँ हैं, ये आकृतियों हवा में उड़ रही हैं और बादलों से आच्छादित है। नीचे वाले भाग में केवल पाँच सिर ही शेष बचे हैं जो स्पष्ट रूप से गायिकाओं के चित्र हैं क्योंकि बीच वाली स्त्री के हाथ में वाद्य यंत्र है इन स्त्रियों के केश जुड़े में बंधे हैं। 

इस चित्र में नीले रंग से जड़ाऊ आभूषण बनाए गये हैं। यह नीला रंग लेपिसलाजुली है जिसका प्रयोग अजन्ता के चित्रों में भी किया गया है। लेपिसलाजुली रंग को उस समय फारस से आयात किया जाता था।

चौथा दृश्य 

चौथे चित्र में स्त्री गायिकाओं के दो दलों को चित्रित किया गया है। यह चित्र बाघ के समस्त चित्रों में अपनी मंडलाकार व्यवस्था, लय तथा सुंदरता के कारण सबसे अधिक प्रसिद्ध हो चुका है। पहले दल में सात स्त्रियाँ एक अन्य आठवीं नर्तकी को चारों ओर से घेरे खड़ी हैं। 

नृत्य करने वाली स्त्री पूरी आस्तीन का चुस्त कुर्ता पहने है जो घुटने तक नीचा है, तीन स्त्रियाँ इंडे बजा रही है, एक मृदंग बजा रही है और शेष तीन मजीरे (ताल) बजा रही हैं। यह स्त्रियाँ उरोजों पर या तो आस्तीनदार चोली पहने है या ऊपरी भाग में अर्धनग्न है।

दूसरे दल में एक नर्तकी को घेरे छः स्त्री गायिकाएँ मंडलाकार रूप में खड़ी हैं, नर्तकी के बाल कंधों पर लहरा रहे हैं। वह चुस्त कुर्ता तथा पतला पजामा पहने है। शेष छः गायिकाओं में से एक मृदंग बजा रही है, दो छोटे-छोटे मंजीरे बजा रही हैं और शेष तीन डण्डे बजा रही हैं। 

इनकी बेश-भूषा पहले वाली गायिकाओं के दल के समान ही है। इस चित्र में कुछ लेख दिया गया था परन्तु अब केवल ‘क’ स्पष्ट है। 

पाँचवां दृश्य 

पाँचवें चित्र में कम से कम सत्रह घुड़सवारों का एक दृश्य अंकित है। यह घुड़सवार बायीं ओर जा रहे हैं। वस्त्रों की तड़क-भड़क, घोड़ों की गति तथा राजकीय चिन्ह इत्यादि के कारण यह किसी राजा की शोभायात्रा या जुलूस का दृश्य प्रतीत होता है। 

घोड़ों का अंकन स्वाभाविकता से किया गया है। इस दल के चित्र में समस्त सवार चुस्त बाने के समान पोशाक पहने दर्शाये गए हैं और उनके सिर के पिछले भाग पर पीली या सफेद रंग की पगड़ी लगी है।

छठा दृश्य

छठे दृश्य में एक हाथियों का जुलूस दिखाया गया है। इस दल में छः हाथी और तीन घुड़सवार हैं, परन्तु घुड़सवारों में से अब केवल एक ही का चित्रण स्पष्ट दिखाई देता है। छठा दृश्य तोरण द्वार के चित्रण से सातवें दृश्य से अलग हो जाता है। इस चित्र में एक व्यक्ति हाथ में कमल पुष्प धारण किये हाथी पर बैठा है, इसके सिर पर छत्र लगा है तथा पीछे एक अंगरक्षक चंवर झल रहा है।

सातवां दृश्य सातवां दृश्य छठे दृश्य के विरोध में दूसरी ओर बनाया गया है। इसमें चार हाथी और तीन घुड़सवार अपने गन्तव्य स्थान तक आ गये हैं। हाथी विश्राम करने के लिए बैठ गए हैं। यहाँ पर दो पैदल आदमी हैं जिनके हाथ में तलवारें और भाले हैं। इन सब का ध्यान सामने के भवन पर केन्द्रित है। 

निकट ही आम के वृक्ष से नीला कपड़ा लटका है और नीचे जलपात्र तथा धर्मचक्र दर्शाये गए हैं। निकट ही एक केले का वृक्ष भी है जिसके नीचे बुद्ध बैठे हुए और एक शिष्य को उपदेश देते हुए अंकित हैं।

चौथी गुफा के उत्तर की ओर भी कुछ चित्रों के अवशेष है जो अधिक स्पष्ट नहीं हैं। छठी गुफा में गौतम बुद्ध के अनेक चित्र हैं, जिनमें ‘उषनिश-बुद्ध’ का सुंदर चित्र अवशेष मात्र रह गया है। इसी प्रकार इस गुफा की पाँचों भीतरी कोठरियाँ भी चित्रों से सजी हुई थीं। 

इन चित्रों की आकृतियाँ, भगिमाएँ, अलंकरण तथा शैली अजन्ता के समान है, अतः इन चित्रों को अजंता शैली का माना गया है। आकृतियों के चुस्त कपड़े तथा श्रृंगार गुप्तकालीन मूर्तियों की याद दिलाते हैं।

बाघ गुफाओं में काले, सफेद तथा हिरौंजी के रंग के प्रयोग से उत्तम आलेखन बनाये गए हैं, जो लय तथा आकारों की पूर्णता में अजंता को मात करते हैं। इन आलेखनों में मनमुग्धकारी पक्षियों- शुक, सारिका, कुक्कुट, हंस, कोयल, मोर, सारस, चकोर तथा बत्तख आदि का कमल, कमलनाल, लताओं तथा पुष्पों के बीच-बीच में अंकन किया गया है। 

रंगीन चित्रों में नीले, लाल और पीले परस्पर विरोधी रंगों का प्रयोग किया गया है। रंगों की यहाँ दो शैलियाँ हैं जो सम्भवतः दो भिन्न-भिन्न कालक्रमों की परिचायक हैं।

बादामी की गुफाएँ

वात्यपिपुरम् नामक स्थान का आधुनिक नाम बादामी है। बादामी की गुफाएँ बीजापुर जिले के अन्तर्गत आईहोल के निकट महाराष्ट्र प्रान्त में स्थित हैं। वात्यपिपुरम् पर्वतों के बीच

सुरक्षित रूप से बसा हुआ था और अपने तालाबों, मंदिरों तथा झीलों के कारण किसी समय एक सुंदर नगर रहा होगा। परन्तु आज यह सभी काल के आघातों से नष्ट हो चुके हैं। बादामी के मध्य में एक पत्थर की शिला पर अभिलेख उत्कीर्ण है जो पल्लव राजा नरसिंह वर्णन का है। 

इस लेख के अनुसार इस पल्लव-वंशीय राजा नरसिंह वर्मन ने महान चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय की राजधानी बादामी को ध्वस्त कर दिया था। बादामी के चार गुफा मंदिरों में शिल्प तथा चित्रकला के उत्तम उदाहरण सुरक्षित हैं।

दक्षिण में वाकाटक वंश के पश्चात् चालुक्य वंश का उदय हुआ था। चालुक्य वंश में पुलकेशिन का पुत्र कीर्तिवर्मन और कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेशिन द्वितीय प्रतापी राजा हुए। मंगलेश राजा कीर्तिवर्मन का छोटा भाई था और पुलकेशिन द्वितीय के पश्चात् चालुक्य साम्राज्य का शासक बना। वह भवन तथा कला प्रेमी शासक था। 

उसके राज्यकाल में बादामी की चौथी गुफा बनकर पूर्ण हुई। बादामी की चौथी गुफा (मुख्य मंडप) शिल्प-सज्जा, चित्रकारी तथा वास्तु के दृष्टिकोण से श्रेष्ठ है। इस गुफा में मंगलेश के शासनकाल के बारहवें वर्ष का एक लेख प्राप्त है, जिसका समय शाका ५०० अर्थात् ५७६-५७६ ई० है इस अभिलेख में बादामी की इस गुफा के निर्माण के सम्बन्ध में पर्याप्त सूचना दी गई है। 

इस लेख के अनुसार- विष्णु की प्रतिमा इस मुख्य मंडप (चौथी गुफा) में स्थापित की गई और मंदिर में पूजा पाठ के लिये अनुदान स्वरूप ‘लन्नीसवाड़ा’ नामक ग्राम की जागीर इस मंदिर के प्रबंधन के लिये बांधी गई थी। इस लेख के अनुसार यह गुफा मंगलेश ने बनवाई थी। 

बराह पैनल के समीप उत्कीर्ण इस लेख में इस प्रकार का संकेत है कि ‘दर्शकों को मंगलेश की कला का रसास्वादन करने के लिये गुफा की छत, दीवारों तथा मूर्तियों की ओर देखना चाहिए।’

अजन्ता में उत्कीर्ण लेखों से स्पष्ट है कि अजन्ता के चित्र वाकाटक राजाओं ने बनवाये। इसी प्रकार बादामी के अलंकरण सम्बन्धी अभिलेखों से स्पष्ट है कि-‘मंगलेश के दरबारी चित्रकारों ने अपने से पूर्व के बाकाटक कलाकारों की शैली को अपनाया।

बादामी के चित्रों की खोज का श्रेय स्टेला मरिश को है। पहले वर्गीज़ तथा बनर्जी ने इस गुफा के बाहरी भाग में चित्रों के धुंधले चिन्ह पाये थे। बादामी गुफा के चित्र ब्राह्मण मंदिरों के सबसे पहले प्राप्त चित्र उदाहरण माने जा सकते हैं। 

बादामी की इस गुफा में जो भव्य शिल्प तथा चित्रकारी के नमूने प्राप्त हैं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मंगलेश ने चित्रकारों को आश्रय दिया। सर्वप्रथम स्टेला क्रेमरिश ने इन चित्रों का अध्ययन किया और उन्होंने चित्रों के विषय को शिवविवाह से सम्बन्धित दृश्य बताया।” 

यह चित्र बहुत खराब अवस्था में है। श्री काल खण्डालावाला ने १६३८ ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘इंडियन स्कल्पचर एण्ड पेंटिंग’ (बम्बई) में बादामी का एक रंगीन चित्र प्रकाशित किया।

बादामी के भित्तिचित्रों की प्रतिकृतियाँ ललित कला अकादमी के निमंत्रण पर भारत के प्रसिद्ध चित्रकार स्व० जे० एन० अहिवासी तथा उनके सहायकों ने तैयार कीं। यह कार्य श्री काल खण्डलावाला तथा श्री के० के० हैब्बर की देख-रेख में किया गया यह प्रतिकृतियाँ राष्ट्रीय संग्रहालय-नई दिल्ली ने ललित कला अकादमी से प्रदर्शन हेतु मंगवायीं और यहाँ वह जनता के लिये प्रदर्शित की गई। 

बादामी के मुख्य मंडप (चौथी गुफा) की छत पर पैनलों में चार दृश्य बनाये गए हैं। इनमें से प्रथम दो ५’५’ आकार के हैं परन्तु दूसरे दो पैनल १, ५-३०४४१, १०” आकार के हैं। प्रथम दृश्य -यह दृश्य शिव विवाह पर आधारित है। इस चित्र में एक विशाल महल के अन्तर्गत इन्द्र की सभा वैजयन्ता या देवताओं की सभा सुधर्मा का अंकन है। 

इस चित्र में इन्द्र की मुख्य आकृति नीलिमायुक्त हरे वर्ण की है और वह अपना एक पैर आसन पर रखे है तथा दूसरा पैर पदपीठा पर रखे आसीन हैं। इस आकृति का सिर नष्ट हो गया है। इसके दाहिने हाथ की उंगलियाँ कत्तकामुख मुद्रा में और बाएं हाथ की उंगलियाँ शिखरहस्त मुद्रा में बनायी गई हैं। 

इस आकृति की गरदन में कम्बुकन्ठा तथा कंधे पर मोतियों की लड़ियों से बना यज्ञोपवीत सुशोभित होता दर्शाया गया है। इस आकृति के बाएं कान का एक पत्राकार कुण्डल शेष रह गया है। इस आसनासीन आकृति के नीचे अनेक आकृतियाँ बैठी हैं। इन्द्र के पीछे पाँच चैवरधारणियों के दल में केवल एक जटाधारी पुरुष आकृति है, शेष सब स्त्रियों हैं। 

इस दल के ऊपर स्तम्भों पर आधारित दीर्घा में देवतागण राजसी ढंग से बैठे हैं। इस मुख्य आकृति से बायीं ओर चित्र में नर्तक-मंडली अंकित की गई है। इनमें दो नृत्य करती हुई आकृतियाँ बड़ी गतिपूर्ण मुद्रा में अंकित की गई हैं। 

इनमें से पुरुष नर्तक का मुख दर्शकों की ओर है यह नर्तक चतुरा मुद्रा में नृत्य कर रहा है और उसका बायाँ हाथ दण्डहस्त मुद्रा में है और दाहिना हाथ कत्तकामुखमुद्रा में उठा चित्रित किया गया है। स्त्री नृतकी, जो नर्तक के सम्मुख है, का दाहिना हाथ दण्डहस्त मुद्रा और वायाँ हाथ कत्तकामुख हस्त मुद्रा में चित्रित है। 

पुरुष नर्तक के बाल जटाजूट आकार के हैं, उसके कानों में पत्र- कुण्डल चित्रित है और उसको प्रचलित आभूषण तथा वस्त्र, माला, अनन्त, कड़े तथा घुटनों तक धोती (आन्ध्रा-धोती पहने दर्शाया गया है। स्त्री नर्तकी का वर्ण गहरा नीलिमायुक्त दर्शाया गया है। 

उसके बाल एक भव्य पगड़ीनुमा जूड़े में बँधे हैं, उसके कानों में पत्रकुंडल, भुजाओं पर अनन्त सुशोभित हैं। इन नर्तकों के समीप बाद्य मंडली अनेक प्रकार के वाद्य यंत्र बजा रही है। इस वाद्य मंडली में सब स्त्रियाँ हैं। इनमें से दो बाँसुरी वादक हैं, एक ढोलक तथा एक अंक्य मृदंग बजाती आकृति है और एक ताल (मंजीरा) बजाती स्त्री की आकृति चित्रित की गई है। 

इस चित्र में अनुमानतः स्त्री नर्तकी उर्वशी अप्सरा है जिसके सम्मुख काली पुरुष आकृति स्वयं ताँडू की आकृति है जो इन्द्र के सम्मुख अप्सरा के नृत्य कौशल का प्रदर्शन कर रहे हैं। कुछ दर्शक इस रंगारंग कार्यक्रम को ऊपर झरोखों में से देख रहे हैं।

दूसरा दृश्य

दूसरा चित्र एक राजमहल के कक्ष का दृश्य है। इस दृश्य में राजसी युगल का अंकन है। राजसी पुरुष महाराजलीला मुद्रा में अपना दाहिना पैर पदपीठा पर तथा बायाँ पैर आसन पर रखे, आसन पर विराजमान अंकित किया गया है। उसका बायाँ हाथ घुटने पर है और दाहिना हाथ त्रिपताका मुद्रा में है। 

उसके सिर पर ऊँचा मुकुट है तथा वह सामान्य आभूषण पहने है। यज्ञोपवीत उसके दाहिने कंधे से लहराकर लटक रहा है। उसके दाहिनी ओर मुकुट धारण किये अनेक युवराज धरती पर बैठे इस भव्य राजसी पुरुष के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे चित्रित किये गए हैं, परन्तु अधिकांश आकृतियाँ अस्पष्ट हैं और नष्ट हो चुकी हैं। 

इन आकृतियों के छोर पर एक स्त्री प्रतिहारी की आकृति है जो नीचे शरीर में टखनों तक अपारदीना जैसा वस्त्र पहने है और हाथ में दण्ड धारण किये हैं। इस राजसी आकृति के बायीं ओर प्रसाधिकाएँ या परिचारिकाएँ रानी की सेवा में खड़ी हैं, रानी के पास ही राजकुमार भी चित्रित है। 

यह रानी एक नीचे आयताकार पीठ वाले आसन पर बैठी चित्रांकित की गई है, इस आसन में तकिये लगे हैं। इस रानी की सेवा में राजा के समान चैवरधारणियाँ खड़ी हैं जिनके केश खुले (धामिला) या जटा रूप में बनाये गए हैं। इनमें से एक के हाथ में दण्ड है। रानी की मुद्रा मनोरम है उसका दाहिना पैर पदपीठा पर है और बायाँ पैर मुड़ा हुआ है और आसन पर रखा चित्रित है। 

उसका दाहिना हाथ आसन पर है, परन्तु बायाँ हाथ सोचिमुद्रा में दर्शाया गया है। उसके कानों से पत्र कुंडल लटक रहे हैं। उसकी भुजाओं में अनन्त तथा भुजबंद हैं और वह ग्रीवा में मालाएं पहने हैं। उसके बाल धामीला प्रकार के हैं और लहराते चिकुर उसके माथे पर बनाये गए हैं। 

वह कमर से नीचे जांघों पर धारीदार अर्धरूका पहने हैं। इस चित्र में लाल रंग का स्वस्थ राजसी पुरुष पल्लव नरेश कीर्तिवर्मन है, जिसको रानी के साथ चित्रित किया गया है। रानी का वर्ण गौर है। इन दोनों के नीचे तीन सेनानायक बैठे हैं जिनमें से एक गौर, एक ताम्र तथा एक हरे वर्ण का है। 

ऐसा विचार किया जाता है कि मंगलेश ने अपने भाई राजा कीर्तिवर्मन, जिसको वह बहुत प्रेम करता था, की स्मृति में यह चित्र बनवाया।” सम्भवतः यह राजा कीर्तिवर्मन के परिवार का चित्र है।

तीसरा तथा चौथा दृश्य

बादामी के इन दो खंडित दृश्यों में युगल विद्याधर बादलों में उड़ते हुए बनाये गए हैं। तीसरे दृश्य में विद्याधर तथा विद्याधरी अपने-अपने हाथ एक-दूसरे के गले में डाले हैं और उनके सिर पर मुकुट हैं। विद्याधरी के बाल धमीला ढंग में बंधे हैं और उसका रंग गहरा है परन्तु विद्याधर का वर्ण गौर दर्शाया गया है।

दूसरे युगल में आकृतियाँ अधिक सुंदर रूप में अंकित हैं। इस चित्र में विद्याधर कानों में कुण्डल पहने हैं परन्तु विद्याधरी के कान में कुण्डल नहीं हैं। विद्याधर का केश विन्यास जटा-ढंग का है और कमल पुष्प से युक्त है। विद्याधरी वीणा बजा रही है। इस दृश्य में पुरुष आकृति गहरे नीलिमायुक्त हरे वर्ण की तथा स्त्री आकृति गौर वर्ण की चित्रित की गई है।

सित्तन्नवासल की गुफा

यह गुफा दक्षिण भारत तमिलनाडु राज्य के अन्तर्गत तंजौर के निकट पहूकोट्टाई से उत्तर-पश्चिम की ओर नौ मील की दूरी पर कृष्णानदी के तट पर सित्तन्नवासल में स्थित है। यह स्थान पल्लव राज्य के मध्य में स्थित था और सम्भवतः इन चित्रों को पल्लव वंश के महान शासक राजा महेन्द्र वर्मा (६०० ई० से ६२५ ई०) ने बनवाया था। 

सित्तन्नवासल की गुफा को सर्वप्रथम टी० ए० गोपीनाथ राव ने देखा और उन्होंने इन चित्रों को उतना ही प्राचीन माना जितनी प्राचीन यह गुफा है।

सित्तन्नावासल के चित्र सित्तन्नवासल गुफा जैन मन्दिर है। यह मंदिर एक चट्टान को काटकर बनाया गया है। पहले यह गुफा मंदिर पूर्णतया चित्रों से अलंकृत था, परन्तु अब चित्र केवल छत में तथा स्तम्भों के ऊपरी भागों में शेष रह गए हैं। यहाँ पर भारी ओसरे ( बरामदे ) की छत में एक कमलवन का आलेखन है। 

इस भित्तिचित्र में एक सरोवर का दृश्य है जिसमें कमल पुष्प खिले हैं। इस सरोवर के बीच में एक मछली, हाथी, हंस, भैंसे तथा तीन दिव्य आकृतियाँ चित्रित हैं। यह तीनों दिव्य व्यक्ति हाथों में कमल धारण किये हैं। इन तीनों आकृतियों में से दो का गहरा लाल रंग है और एक का तेज़ पीला रंग है। इनकी मुद्राएँ और अंग-भंगिमाएँ सुंदर हैं। 

चित्रकार ने रंगों का विधान सुकोमल, सुंदर और सरल लिया है। गोलाई लाने के लिए सुकोमल छाया का प्रयोग भी किया गया है। स्तम्भों पर नृत्य करती हुई बालाओं तथा कमल पुष्पों के आलेखन बने हैं। एक स्थान पर एक कुलीन पुरुष का चित्र है। 

उसके बाएं कंधे के पीछे प्रफुल्ल मुखमुद्रा वाली एक महिला की आकृति बनायी गई है। अनुमानतः यह राजा महेन्द्र और उसकी रानी के चित्र हैं। यहाँ पर ‘अर्द्धनारीश्वर’ का एक उत्कृष्ट चित्र अंकित है। इस चित्र में महादेव को शक्तिशाली रेखाओं के द्वारा अंकित किया गया है और चित्र की शैली अजन्ता तथा बाघ की चित्रशैली के समान है। 

इस चित्र में महादेव जटाओं के मुकुट का जूड़ा लगाये हैं और कानों में पत्र- कुण्डल पहने हैं, उनके नेत्रों में दिव्य ज्योति और शक्ति है।

एक अन्य पुरुष आकृति का चित्र जिसकी ग्रीवा मोटी बनायी गई है अनुमानतः एक गंधर्व का चित्र है। उसके हाथ में कमल है। इस आकृति के नेत्र, अंग-भंगिमाएँ तथा हस्त मुद्राएँ कलाकार की शिल्प कुशलता की घोतक हैं। यहाँ पर नर्तकियों के भी अनेक सुंदर चित्र अंकित हैं। 

स्तम्भ पर बने एक चित्र में नृत्य की लय में मग्न एक नृत्यांगना अप्सरा का चित्रण किया गया है। इस चित्र में नृतकी अप्सरा की गति में और वर्ग सम्बन्धी योजना में कलात्मक दृष्टिकोण दिखायी पड़ता है। इस अप्सरा की ग्रीवा, भुजाओं, कानों आदि में रत्न-जटित सुंदर आभूषण चित्रित हैं। 

सौन्दर्य की अप्सरा (भित्तिचित्र) (सित्तन्नवासल गु सातवीं शताब्दी) साक्षात् मूर्ति के समान इस अप्सरा का पांडु-वर्णी शरीर कांतिवान आभा से जगमगा रहा है। (देखिये रेखाचित्र ‘अप्सरा’ सित्तनबासल)। सित्तन्नवासल गुफाओं के चित्रों की शैली अजन्ता के समान ही है। 

इस प्रकार की चित्र शैली अजन्ता की श्रेष्ठ चित्रकारी के समय में ही दिखायी पड़ती है। अतः इन गुफाओं के चित्रों की शैली को अजन्ता की परिपक्व शैली का रूप माना जाता है।

सिगिरिया की गुफाएँ

भारतीय बौद्ध भिक्षु धर्म के प्रचार हेतु सुदूर पूर्वी तथा दक्षिणी देशों की ओर गए और उनके साथ ही भारतीय चित्रकारी, धर्म तथा दर्शन आदि भी उन देशों में पहुँचा। श्रीलंका में भी इसी प्रकार भारत की अजन्ता शैली की चित्रकला इन्हीं धर्म-प्रचारकों के साथ पहुँची। 

श्रीलंका में सिगिरिया या सिंहगिरिया नामक गुफाओं में अजन्ता की चित्रशैली के दर्शन होते हैं। सिगिरिया गुफाओं का समय अजन्ता और बाघ की गुफाओं को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि यथा समय पर समुचित सुरक्षण की शीघ्र व्यवस्था न होने के कारण उनके चित्र नष्ट हो गए, परन्तु श्रीलंका-द्वीप की सरकार ने सिगिरिया गुफाओं की चित्रकारी की देख-रेख ठीक प्रकार से की और तुरन्त सुरक्षण की व्यवस्था जुटायी। इस प्रकार यह बहुमूल्य चित्र नष्ट होने से बच गए।

ये गुफाएँ कोलम्बो से लगभग १०० मील की दूरी पर स्थित सिंहगिरि कस्बे के समीप जंगल में एक एकाकी छः सौ फुट ऊँची पहाड़ी, जो मीनार के समान खड़ी है, की तलहटी के उथले भाग में हैं। 

यह पहाड़ी खुले सघन जंगली प्रदेश में खड़ी है। इसके समीप में दो चित्रत खोहे हैं। यह चित्र राजा कश्यप के समय के माने जाते हैं। राजा कश्यप का राज्यकाल ४७६ ई० से ४६७ ई० तक माना जाता है। श्रीलंका की सरकार ने १८६५ ई० में श्री एच० सी० पीवेल (पुरातत्व विभाग) के कमिश्नर के निर्देशन में सिगिरिया गुफाओं के जीर्णोद्धार तथा सुरक्षा की व्यवस्था प्रारंभ करायी। 

इस योजना के अधीन चित्रों के ऊपर तार की जाली लगाकर उनको सुरक्षित कर दिया गया। यहाँ पर जो दो असंयत प्राकृतिक खोहे चट्टानों में हैं, अधिकांश चित्र इन्हीं दो गुफाओं में सुरक्षित हैं। 

इन दोनों खोहों में कुल छः गुफाएँ हैं, परन्तु चित्र अवशेष केवल चार गुफाओं में प्राप्त हैं, जिनमें से समुचित और महत्त्वपूर्ण चित्र केवल उपरोक्त दो गुफाओं में शेष रह गए हैं। इन गुफाओं को विन्सेंट स्मिथ ने ‘ए’ तथा ‘बी’ के नाम से सम्बोधित किया है। 

वास्तव में दो प्राकृतिक कक्षों से एक गुफा बन जाती है जो ६७-१/२ फुट लम्बी है और दो भागों में एक टेढ़े-मेढ़े चट्टानी किनारे से विभाजित है। इस प्रकार प्रथम कक्ष ‘ए’ २६-१/४ फुट और द्वितीय कक्ष ‘वी’ ४१-१/४ फुट लम्बा है।

यहाँ पर कुल २१ स्त्रियों के चित्र हैं। यहाँ कुल २२ आकृतियों में से पाँच के चित्र ‘ए’ गुफा में और सत्रह चित्र ‘बी’ गुफा में सुरक्षित हैं। यह चित्र मानवाकार या कुछ छोटे हैं। १८८६ ई० में श्री ए० मरे ने कठिन परिश्रम के द्वारा तेरह आकृतियों की पेस्टिल रंगों तथा रंगीन छाया चित्रों के द्वारा प्रतिलिपियाँ तैयार की जो कोलम्बो संग्रहालय में सुरक्षित हैं।

सन् १६६७ ई० में १४ अक्टूबर की रात को कुछ अवांछनीय तत्वों ने इन चित्राकृतियों को नष्ट किया और बहुत हानि पहुँचायी। एक चित्र तो दीवार पर से उखाड़कर ही नष्ट कर दिया।

चित्रण-विधि तथा शैली

चित्रों की लिखाई सावधानी से तैयार किये गए धरातल पर की गई है। यहाँ धरातल का पलस्तर लगभग ३/४ या १/२ इंच मोटा है और अच्छे चूने से तैयार किया गया है। इस पलास्तर में खड़िया मिट्टी (Kaolin) तथा चावल की भूसी और कदाचित नारियल की जूट को मिलाया गया है। 

श्री बेल का मत है कि यह चित्र सूखे धरातल पर टेम्परा रंगों में बनाये गए हैं, परन्तु अजन्ता की शैली से अधिक भिन्न नहीं हैं। यहाँ पर चित्रकार केवल तीन रंगों लाल, पीले तथा हरे के प्रयोग तक सीमित रहा है। नीले रंग का प्रयोग यहाँ नहीं दिखाई पड़ता है।

सिगिरिया के चित्र  

एक चित्र में एक जुलूस का दृश्य है, जिसमें कुलीन महिलाएँ हाथों में पुष्प लिये परिचारिकाओं सहित बौद्ध मठ की ओर पूजा करने जा रही हैं। सारी स्त्रियों कमर के नीचे वस्त्रों को धारण किये हैं और कुछ स्त्रियों ने ऊपर कोहनी तक आस्तीनवार चोली पहन रखी है। कुछ स्त्रियाँ अर्धनग्न भी चित्रित की गई हैं। 

इन कुलीन महिलाओं का चित्रण पीले या नारंगी रंग से किया गया है। परन्तु दासियों का गहरा वर्ग हरितमा युक्त है। समस्त स्त्रियों आभूषणों तथा अलंकरणों से सुसज्जित है। इन चित्रों के नीचे की ओर बादल बनाये गए हैं, परन्तु श्री बेल का कहना है कि-नीचे के भाग में चट्टानें टेढ़ी-मेढ़ी तथा खुरदुरी हैं, जिन पर चित्रकार आकृतियों के पैर नहीं बना सकता था, इस कारण बादल बनाये गए हैं। 

परन्तु यह बात संगत प्रतीत नहीं होती, वास्तव में इन आकृतियों को दिव्य और भव्य रूप प्रदान करने के लिए इनको बादलों के मध्य बनाकर भव्य रूप प्रदान किया गया है। भारतीय पद्धति के समान ही चित्र की आकृतियों की सीमारेखाएं लाल या काले रंग से बनायी गई है और आकृतियों में सपाट रंग का प्रयोग किया गया है। 

एक अपूर्ण चित्र उदाहरण से ऐसा प्रतीत होता है कि सीमारेखा के आधार पर ही पूर्णतया रंगों का प्रयोग नहीं किया जाता था।

ये कृतियाँ राजा कश्यप की समकालीन हैं, इस कारण इनका समय पाँचवीं शताब्दी ईसवी माना जाता है। अतः ये चित्र अजन्ता के समकालीन ठहरते हैं। अजन्ता की दूसरी गुफा की एक महिला की आकृति जो कमल पुष्प लिये हुए चित्रित है, सिगिरिया के एक महिला चित्र से बहुत मिलती जुलती है।

श्रीलंका द्वीप में भित्तिचित्रों के कई अन्य प्राचीन उदाहरण भी प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार के विशेष उदाहरण अनुरुद्धपुर में प्राप्त हुए हैं। यहाँ के चित्रों की शैली भी अजन्ता पर आधारित है परन्तु यहाँ पर सफेद, लाल, पीले और नीले रंग का प्रयोग भी किया गया है।

अजन्ता तथा अन्य गुफाओं के चित्रों की शैली

अजन्ता के भित्तिचित्रों की शैली बाघ, बादामी सित्तावासल तथा सिगिरिया गुफामंदिरों के चित्रों में अपने भव्य रूप में दिखाई पड़ती है। इस प्रकार यह चित्रण-शैली व्यापक रूप से प्रचलित हुई। 

अनेक विद्वानों ने अजन्ता शैली को भिन्न-भिन्न नामों से पुकारा है। परसी ब्राउन ने अजन्ता शैली को बौद्ध धर्म से अत्यधिक सम्बन्धित होने के कारण बौद्ध कला के नाम से पुकारा है। रायकृष्ण दास ने गुप्त राजाओं के भारी प्रभाव के कारण इस कला-शैली को गुप्तकला या गुप्त शैली के नाम से पुकारा है।

अजन्ता शैली की विशेषताएँ 

अजन्ता की गुफाओं जैसी चित्रकला यद्यपि अनेक गुफाओं से प्राप्त हुई है परन्तु इस शैली का सर्वाधिक परिमार्जित और पूर्ण विकसित रूप अजन्ता की गुफाओं से ही प्राप्त हुआ है अतः अजन्ता के चित्रों को ही इस शैली का प्रतिनिधि रूप मानकर शैलीगत विशेषताओं का अध्ययन करना अधिक उपयुक्त होगा। 

चित्रों का विषय

पद्यपि अजन्ता तथा बाघ के चित्रों में भगवान बुद्ध का अंकन है, परन्तु बादामी तथा सित्तन्नवासल की गुफाओं में क्रमशः ब्राह्मण या जैन धर्म से सम्बन्धित देवी-देवताओं का अंकन किया गया है। 

इस प्रकार यह शैली एक धर्म विशेष तक सीमित नहीं रही बल्कि विभिन्न समुदायों की कला के रूप में व्यापक रूप धारण कर गई। यद्यपि इस शैली के विषय धार्मिक है, परन्तु फिर भी चित्रकार ने जीवन और संसार में रुचि प्रदर्शित की। 

अजन्ता के चित्रों में झूला झूलती युवती, मरती राजकुमारी तथा नृत्य करती बालाओं का अंकन ही नहीं वरन् कई अन्य सांसारिक पक्षों का अंकन हुआ है। इसी प्रकार बादामी तथा सित्तन्नवासल में भी ‘विरहणी’ तथा ‘नर्तकी’ आदि का अंकन है। धार्मिक विषयों के साथ चित्रकार शृंगार तथा जन-जीवन सम्बन्धी विषयों की उपेक्षा नहीं कर सका है और इस आधार पर यह शैली धर्मनिरपेक्ष है। (देखिए रेखाचित्र-‘गंधर्व युगल’)

जातक कथाएँ 

जातक कथाओं का अर्थ है पूर्वजन्म की कथाएँ यह जातक कथाएँ बुद्ध के जन्म-जन्मान्तर की कथाएँ हैं, जिनको उन्होंने स्वयं अपने उपदेशों में सुनाया और बताया कि कई जन्मों से वह इसी प्रकार अनेक रूपों में अवतीर्ण होते आ रहे हैं। 

यद्यपि अजन्ता में जीवन तथा धर्म दोनों से सम्बन्धित चित्र हैं परन्तु फिर भी विशेष रूप से जातक कथाओं या बुद्ध के जीवन की कथाओं का अंकन है। अतः अजन्ता चित्रावली को बुद्ध के प्रति समर्पण मानना उपयुक्त होगा।

चित्रों की विशालता और योजना 

अजन्ता की गुफाओं के चित्रों ने या अन्य गुफाओं के चित्रों ने आज अपनी विशालता और सुंदर योजनाओं के कारण समस्त संसार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया है। अधिकांश चित्र मानवाकार या कुछ छोटे हैं परन्तु चित्र के मुख्य व्यक्ति को कुछ बड़ा बनाया गया है। 

इस प्रकार चित्र का प्रमुख व्यक्ति या चित्र का नायक कुछ बड़े आकार का होने के कारण सरलता से पहचाना जा सकता है। चित्रों की योजना सुंदर और सुव्यवस्थित है। चित्रों के चारों ओर आलेखन बनाकर योजना को अधिक पुष्ट बना दिया गया है। 

प्रमुख घटना को चित्र योजना में ऐसा स्थान दिया गया है कि दर्शक की दृष्टि सर्वप्रथम चित्र योजना के गर्भभाग पर पड़ती है। (देखिए रेखाचित्र संख्या ८) यद्यपि चित्रों की योजनाएँ अलंकारपूर्ण, सरल और ज्यामितिक योजना पर आधारित हैं, फिर भी चित्र के प्रमुख व्यक्ति को ऐसे स्थान पर संजोया गया है कि दर्शक की दृष्टि सर्वप्रथम चित्र के मुख्य व्यक्ति पर ही पड़े। 

इस प्रकार इस शैली में ‘दृष्टि के केन्द्रत्थ’ के सिद्धान्त का सुंदरता से पालन किया गया है। चित्र की गौण कथाओं या पात्रों को उनके प्रसंगानुकूल स्थानों पर रखा गया है। अजन्ता के चित्रकार ने संयोजन सम्बन्धी सिद्धान्तों का कुशलता से पालन किया है और उन्होंने अपने चित्रों की योजनाओं में जीवन डाल दिया है। 

प्रायः महात्मा बुद्ध की विशाल सक्रिय आकृति को केन्द्रविन्दु मानकर उसके चारों ओर सहायक आकृति-समूहों की रचना की गई है।

छतों के आलेखन 

इस समय जब आधुनिक यूरोप के देशों में चित्रकला का विकास भी नहीं हुआ था, हमारे देश में चित्रकला विकास के उच्चतम शिखर पर पहुँच गई थी। भारत में भित्तियों के अलंकरण तक ही चित्रकला सीमित नहीं रही परन्तु छतों पर भी चित्रकारी करने की परम्परा प्रारम्भ हो गई थी। 

यों तो सर्वप्रथम जोगीमारा की छत पर भी चित्रकारी का काम किया गया परन्तु विधिवत रूप से सर्वप्रथम अजन्ता में छतों पर चित्रकारी की गई। चित्रकारों ने छतों पर जलचरों, पक्षियों और कमल लताओं के सुंदर आलेखनों का अंकन किया है। (देखिए रेखाचित्र – अलंकरण अभिप्राय) इन पक्षियों तथा जलचरों के अतिरिक्त गंधर्व तथा विद्याधर युगल भी बादलों के बीच-बीच में बनाये गए हैं। 

छतों पर जिस पलस्तर का प्रयोग किया गया है उसमें धान की भूसी का प्रयोग किया गया है जिससे यह पलास्तर छत्तों पर ठीक प्रकार चिपक गया है। 

अजन्ता में चित्रों के पलस्तर बनाने की विधि का पहले ही उल्लेख किया जा चुका है छतों पर आलेखन बनाना मिति पर चित्र बनाने से अधिक कठिन कार्य था क्योंकि छत्तों पर अलंकरण करने के लिए चित्रकारों को मचान बनाकर, मचान पर पीठ के बल लेटकर काम करना पड़ता था। 

इन आलेखनों में इतनी पूर्णता और सुंदरता है कि चित्रकार की कठिन स्थिति और असहाय अवस्था का ज्ञान तक नहीं होने पाता है।

आलेखन

यदि अजन्ता को आलेखनों की खान कहा जाय तो अनुचित न होगा। अजन्ता के समान बाघ गुफाओं में भी आलेखनों का अत्यधिक महत्त्व है और किसी सीमा तक बाघ के आलेखन अजन्ता को मात कर गए हैं। 

रिक्त स्थानों, वस्त्रों, मकानों, मुकुटों, आभूषणों आदि में आवश्यकतानुसार आलेखन बनाये गए हैं। इन आलेखनों में चित्रकार ने हाथी, बंदर, वृषभ, मीन, मकर, मृग, महिष, हंस, तोता, बत्तख, कमल, कुमुद आदि सुंदर पशु-पक्षियों, पुष्पों तथा लताओं का प्रयोग किया है। 

यह आलेखन, बलवती रेखा के अनन्त प्रवाह, गति संतुलित योजना और छन्दमय अभिप्रायों की लयात्मक पुनरावृत्ति के कारण शक्तिशाली बन गए हैं। आलेखनों के सुंदर उदाहरण अजन्ता की पहली गुफा में प्राप्त हैं। 

इन आलेखनों के चित्रण का समय सातवीं शताब्दी का मध्य माना जा सकता है (देखिये रेखाचित्र – ‘अलंकरण अभिप्राय’) इन आलेखनों को काली तथा लाल ( हिरौंजी की ) पृष्ठभूमि पर पहले सफेद रंग से बनाया गया है, उसके पश्चात पारदर्शी रंगों का प्रयोग किया गया है। बाघ गुफाओं में यह आलेखन काले तथा लाल रंग से ही बनाये गए हैं। 

यह आलेखन आलंकारिक हैं परन्तु इनमें संगीत की लय और मृत्यु की गति विद्यमान है। इन आलेखनों में लम्बी अटूट प्रवाहपूर्ण रेखाओं का प्रयोग है इन आलेखनों में व्यवस्थां सुंदर है और कहीं भी आवश्यकता से अधिक स्थान खाली नहीं छोड़ा गया है और उचित

अन्तराल

व्यवस्था करने के कारण ये आलेखन संतुलनपूर्ण, ठोस और प्रभावशाली हैं। आलंकारिकता पूर्वी देशों की चित्रकला आलंकारिक मानी गई है, जबकि पाश्चात्य देशों ने यथार्थता को अपनी कला का उद्देश्य माना। 

इस प्रकार एशिया की अधिकांश कला आलंकारिक और आध्यात्मिक बन गई। भारतवर्ष में विकसित अजन्ता की कला विशेष रूप से आलंकारिकता और आध्यात्मवाद के कारण सम्पूर्ण एशिया की एक उत्कृष्ट कला बन गई। अजन्ता की चित्रकारी से आलंकारिकता का चरम विकास दिखाई पड़ता है। 

इस आलंकारिकता को प्राप्त करने के लिए चित्रकार ने ज्यामितीय आकारों की सहायता ग्रहण की है। ज्यामितीय आकारों के संयोग से चित्रकार ने पचार्थ को एक आदर्श और काल्पनिक रूप प्रदान किया है। इस प्रकार यथार्थ और ज्यामितीय गोलाई युक्त आकारों के सम्मिश्रण से मौलिक तथा आलंकारिक रूपों का सर्जन करना कलाकारों की एक महान विशेषता है। 

दूसरी ओर अजन्ता के कलाकारों ने आकृतियों को सरलतम रूपों में बाँधने की सफल चेष्टा की है। सरल तथा आलंकारिक आलेखनों में कलाकारों ने अपनी कल्पना तथा भावना की मधुर और शृंगारमय लड़ी को जोड़ दिया है। 

अतएव इस शैली का आलंकारिक पक्ष निर्जीव नहीं होने पाया है, वरन् उसमें भावना, आत्मा और नैसर्गिक कल्पना का सजीव और उज्जवल रूप दिखाई पड़ता है।

रेखा भारतवर्ष तथा अन्य पूर्वी देशों की आलंकारिक चित्रकला ने विशेष रूप में रेखा को ही ग्रहण किया है किन्तु रेखा के सर्वोत्तम उदाहरण अजन्ता की कला में ही प्राप्त होते हैं। चित्रकार ने निपुणता के साथ आवश्यकतानुसार अपनी रेखा को कोमल, कठोर, पतला या मोटा बनाया है। 

इस शैली में गोलाई या डील-डोल को ही रेखा के द्वारा प्राप्त नहीं किया गया है, बल्कि स्थितिजन्य रुधुता, बल, उभार, अलंकरण तथा कई अन्य विशेषताओं को रेखा द्वारा प्राप्त किया गया है। मानव के भिन्न-भिन्न रूपों, चरित्रों तथा भावों को रेखा के द्वारा ही सफलता से अभिव्यक्त किया गया है। 

इस प्रकार की भावाभिव्यंजक रेखा का उदाहरण अजन्ता की पहली गुफा के अवलोकेतेश्वर चित्र में प्राप्त है, इस चित्र में सिद्धार्थ की मुखमुद्रा में दुख, चिंतन तथा शोक का भाव केवल एक रेखा से ही अंकित कर दिय गया है। अजन्ता में लगभग बीस प्रकार की रेखा शैलियाँ मिलती है। 

इसी कारण परमी ब्राउन ने पूर्वी देशों की चित्रकला को विशेष रूप से रेखा की चित्रकला माना है। जबकि पाश्चात्य कला छाया-प्रकाश प्रधान है। इस शैली में अधिकांश रेखाएं अटूट, प्रवाहमय और भावप्रण है। भारतीय रेखा चीन की कोणदार सपाट रेखा से मित्र है। कभी-कभी अजन्ता के कलाकार ने आकृतियों की दोनों भृकुटियों को एक ही अटूट रेखा से बना दिया है। 

सरलता

अजन्ता के चित्र सरल रूपों (आकारों), सपाट रंगों और सरल रेखाओं पर आधारित है। सरल आकारों में गोलाई या डौल लाने का क्षीण प्रयास किया गया है। बाल, कपड़ों की सिलवटें, आभूषण आदि सभी को चित्रकार ने सरलतम रेखाओं में बाँधने की चेष्टा की है। चित्रों की योजना सरल होते हुए भी प्रभावपूर्ण और चित्ताकर्षक है। 

कभी-कभी दोनों भृकुटियों को एक ही सरल रेखा से अंकित किया गया है। जिस प्रकार चेहरे की बाहरी सीमा सरल ढंग से बनायी गई है उसी प्रकार विविध आकृतियों को सरल रूप और सपाट आकार प्रदान किया गया है। ये सीमा रेखाएँ गोलाई युक्त हैं और कम श्रम से बनायी गई हैं। 

हस्तमुद्राएँ तथा अंग-भंगिमाएँ

हस्त मुद्राओं तथा अंग-भंगिमाओं के कौशल से अजन्ता के कलाकार ने चित्रों में अपनी समस्त भावनाएं ऐसे सजीब ढंग से डाल दी हैं। कि ये मूक चित्र भी बोलने से लगे हैं। कलाकार ने समकालीन नृत्यकला की प्रचलित हस्तमुद्राओं का प्रयोग किया है जिनमें अत्यधिक नाटकीयता और लाक्षणिकता है। 

वास्तव में चित्रकार ने बुद्ध तथा अन्य देवी-देवताओं को नैसर्गिक रूप प्रदान करने के लिए नृत्य की मुद्राओं को अधिक उपयुक्त समझा क्योंकि इन मुद्राओं से भव्यता और भावाभिव्यक्ति में अपूर्व शक्ति आ गई है। इसके परिणाम स्वरूप समस्त पात्रों में वह दिव्य रूप प्रतिबिम्बित होने लगा जिसकी आवश्यकता थी। 

साधारण मनुष्य और महान आत्मा के अंतर को व्यक्त करने के लिए भी नृत्य की मुद्राएँ बहुत उपयुक्त थीं। अतः कलाकार ने बुद्ध जैसी महान आत्मा के अंकन में भेद स्थापित करने के लिए संगीतपूर्ण मुद्राओं का आश्रय लिया। (देखिए रेखाचित्र – ‘गायक दल’ तथा ‘अप्सरा’, सित्तन्नवासल)

इस शैली में विभिन्न आकृतियों के निर्माण में स्वाभाविक हस्त मुद्राएँ प्रयोग की गई हैं जिनमें पात्र पकड़े हाथों की मुद्राएँ, शान्ति की हस्त-मुद्रा, धर्मचक्र मुद्रा, शिखर मुद्रा, कत्तकामुख मुद्रा, दण्ड हस्त मुद्रा, नीलकमल धारण किये हुए भगवान बुद्ध की हस्तमुद्रा, वैराग्य सूचक साधु की हस्त मुद्रा सुंदर ही नहीं वरन् भावपूर्ण भी हैं। हस्तमुद्राएँ भाषा के समान समस्त चित्र की कथा को व्यक्त कर देती हैं।

भाव प्रदर्शन की दृष्टि से अंग-भंगिमाओं का चित्र की लिखाई में विशेष महत्व है। अजन्ता के चित्रकारों ने स्त्रियों को सुकोमल लतिका के समान लचकदार भंगिमाओं में अंकित करके अपनी कल्पना ओर छन्दमय वृद्धि का परिचय दिया है। अजन्ता के चित्रों में ‘महाप्रजापति’ की भंगिमा दर्शनीय है, जिसमें वे एक तमाल लतिका के समान स्तम्भ के सहारे अपना बायाँ पैर मोड़े खड़ी हैं। 

मुड़े हुए पैर वाली खड़ी आकृति के त्रिकोण मुड़े हुए पैर से स्तम्भ की लम्बवत् सीधी रेखाओं की नीरसता समाप्त हो गई है। वक्ष की गोलाई के पश्चात् कमर की लिखाई में लचक के साथ भोगिमा पर रहस्य छिपाये अजंता के चित्रकार ने अनेक स्त्री आकृतियों का निर्माण किया है। 

प्रत्येक पात्र या पात्री की भंगिमा में अत्यधिक स्वाभाविकता और सजीवता है भगिमाएँ आकर्षक और प्रभावपूर्ण हैं, जैसे- ‘मरती राजकुमारी’, ‘अवलोकेतेश्वर’, ‘झूला झूलती युवती’ तथा ‘मार- विजय’ में बुद्ध की ध्यान मुद्रा उत्तम है हस्तमुद्राओं और अंग-भंगिमाओं की भव्यता को ठीक अनुपात तथा सरल सौन्दर्य ने और अधिक भावाभिव्यंजक बना दिया है। 

आकृतियों की विभिन्न प्रकार की भंगिमाएँ बनाते समय कलाकार ने मांसिलपेशियों तथा अस्थिपंजरों का पूर्ण ध्यान रखा है। किसी भी आकृति की भंगिमा से उसकी शारीरिक रचना में विकृति नहीं होने पाई है इस कारण आकृतियों में सजीवता और स्वाभाविकता है।

वर्ण विधान

काल के क्रूर आघातों ने प्राचीन चित्रकारी का बहुत कुछ वर्ण सौष्ठव तथा लावण्य छीन लिया है, फिर भी आज तक अजन्ता के चित्रों की आभा फीकी नहीं पड़ी है। अजन्ता के चित्रों में सुंदर वर्ण छटा पत्र-तत्र बिखरी दिखाई पड़ती है। यद्यपि इन चित्रों की चमक पर्याप्त धूमिल पड़ चुकी है तथापि रंग जानदार प्रतीत होते हैं। 

चमकदार नीले हरे और बैंगनी रंग अपनी पूर्ण आभा में आज भी जगमगाते हैं। शरीर तथा कपड़ों का रंग लावण्ययुक्त और संगत है। अजन्ता के कुछ आरम्भिक चित्रों को छोड़कर सोलहवीं तथा सत्रहवीं गुफा में अजन्ता के चित्रकारों ने गहरी पृष्ठभूमि पर हल्के वर्ग विधान में आकृतियाँ बनाने की प्रवृत्ति दिखाई है, परन्तु दूसरी ओर हल्की पृष्ठभूमि पर गहरी आकृतियों के बनाने की प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती है जो यूरोप की बेनिस-चित्रकला शैली (संस्थान) के समान है। 

चित्रकार दर्शक के ध्यान को चित्र की ओर आकृष्ट करने के लिये बहुत जागरूक रहा, इस कारण उसने मानवाकृतियों के बालों में काले रंग का प्रयोग किया है, जिससे रूप और लावण्य की वृद्धि हुई है और इच्छित प्रभाव उत्पन्न हो गया है।

अजन्ता के चित्रकार की वर्ण विधान सम्बन्धी शिल्प कुशलता का एक सुंदर उदाहरण सत्रहवीं गुफा के एक चित्र ‘महाहंस जातक’ में देखा जा सकता है। यह चित्र अपने वर्ण विधान के कारण बहुत विख्यात हो चुका है और रंग की योजना के आधार पर इसको अजन्ता का सर्वश्रेष्ठ चित्र माना जाता है। 

इस चित्र में कलाकार ने पूर्णतः स्वतंत्र रूप से रंगों का चयन किया है। इस चित्र में राजा एक ऊँचे सिंहासन पर बैठा है और चारों ओर अनुचर खड़े हैं। इसमें से एक अनुचर राजसी छत्र तथा दूसरा चँवर धारण किये है और तीसरा अपने रंग के कारण हब्शी जैसा प्रतीत हो रहा है। 

यह हब्शी राजा के नीचे पैरों पर बैठा है उसका वर्ण गहरा लाल है, जो निश्चित रूप से राजसी बहेलिया है, प आलेखनों से सुसज्जित कनात खड़ी है। चित्र की अग्रभूमि में एक तालाब है जिसमें कमलपुष्प है तथा जल के पक्षी जल-विहार कर रहे हैं। 

इस चित्र में श्वेत रंग के शीतल प्रयोग से चित्रकार ने चित्र को एक उत्तम संतुलन प्रदान किया है। इस चित्र में विभिन्न आकृतियों के शरीर में गुलाबी, भूरा, गहरा लाल तथा टेरावर्ट (गहरा गंदा हरा) रंग लगाया गया है। इस चित्र में गहरी पृष्ठभूमि पर जो लगभग काली है, हल्के रंग की आकृतियाँ बनायी गई हैं। 

इस गहरे रंग की पृष्ठभूमि पर विभिन्न बलों और रंगों में विभिन्न वस्तुएँ बनायी गई हैं जिससे चित्र में कठोरता नहीं आने पाई है। चित्र के निचले भाग में संगत हरे रंगों का सफेद और लाल रंगों के साथ प्रयोग है। 

इस चित्र में अजन्ता के कलाकार ने नाटकीयता के प्रभाव को भी रोचक वर्ण-विधान के द्वारा प्रदर्शित किया है। कपड़ों, आभूषणों तथा अन्य साज-सज्जा में उपयुक्त तथा रोचक वर्णविधान है।

भित्तिचित्रण में गिने चुने प्राकृतिक खनिज रंगों का प्रयोग ही होता है ताकि वे चूने के क्षारात्मक प्रभाव से सुरक्षित रह सकें। इस शैली के चित्रों में जिन रंगों का स्वतंत्रता से प्रयोग किया गया, उनमें सफेद, लाल, भूरे से बने विभिन्न हल्के तथा गहरे रंग हैं। स्थानीय हरे रंग का प्रयोग किया गया है जो तनिक गंदा रंग है। 

अजन्ता तथा बाघ में विशेष रूप से नीले रंग का प्रयोग है। सफेद रंग प्रायः अपारदर्शी है और उसको चूने या खड़िया से बनाया गया है। लाल तथा भूरे लौह (अयस्क) से प्राप्त खनिज रंग हैं। 

हरा रंग एक स्थानीय अयस्क (खनिज) से बनाया गया है जो टेरावर्ट (Terreverte) है। नीला रंग फारस से आयात किये हुए लेपिसलाजुली (Lapis-Lazuli) एक बहुमूल्य पत्थर को घिसकर बनाया गया है। शेष रंगों में पीला (रामरज), गहरा लाल ( हिरौंजी तथा गेरुआ खनिज) स्थानीय हैं। 

चमकदार पीले रंग के प्रयोग के लिए अनुमानतः प्राकृतिक रूप में संखिया से उपलब्ध पीले रंग का प्रयोग है (Natural arsenic sulphide)। रंगों को चावल के माँड़ तथा वज्रलेप (सरेस) में मिलाया जाता था।

परिप्रेक्ष्य | Perspective

(Perspective) परिप्रेक्ष्य या अंग्रेजी शब्द पर्सपेक्टिव के दो पक्ष माने गये हैं, जिसमें प्रथम दृष्टि सम्बन्धी (Visual Perspective) और द्वितीय मानसिक परिप्रेक्ष्य (Mental perspective) है। अजन्ता के चित्रकारों ने भावना और कल्पना के महत्त्व को स्थापित करने के लिए मानसिक परिप्रेक्ष्य को ही उपयुक्त समझा। 

अधिकांश पाश्चात्य कला पारखियों ने साधारण दृष्टि-ज्ञान या दृष्टिक्रम (Visual perspective) अभाव में इन चित्रों की आलोचना की है जो उनकी भारी भूल है, क्योंकि आज यूरोप में के इसी भावनात्मक या मानसिक परिप्रेक्ष्य की ओर बल दिया जा रहा है। 

कलाकार ने इसी मानसिक परिप्रेक्ष्य से अपनी भावनाओं जैसे श्रद्धा, घृणा, क्रोध आदि भावों को साधारण दृष्टा तक पहुँचाने में पूर्ण सफलता प्राप्त की है। कलाकारों ने चित्र में प्रयुक्त अनेक आकृतियों को सामान्य अनुपात से अधिक बड़ा या छोटा बनाकर उनके पद, महत्त्व तथा आध्यात्मिक उत्थान को व्यक्त किया है। 

इस प्रकार का उत्तम उदाहरण अजन्ता का ‘राहुल ‘समर्पण’ नामक चित्र है, जिसमें कमल पर खड़े भगवान बुद्ध की आकृति यशोधरा की आकृति से अनुपात में बहुत बड़ी बनाई गई है और यह आकृति भवन के बराबर है। 

भवन आदि के परिप्रेक्ष्य में चित्रकार ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है और दृष्टिक्रम या परिप्रेक्ष्य से आलेखनों की सुंदरता और रूप को नष्ट नहीं होने दिया है। चित्रकार योगी के समान एक ही स्थान पर बैठे-बैठे ध्यान या समाधि के द्वारा समस्त संसार या सृष्टि का अवलोकन कर लेता था और चित्रांकित कर देता था।

मुकुट, आभूषण तथा अलंकरण-अजन्ता तथा सभी अन्य गुफाओं के चित्रों में मुकुटों, आभूषणों तथा वस्त्रों को सुंदरता से अंकित किया गया है। राजा और रानी के मुकुटाकारों में ऊँचाई का विशेष अंतर है देवताओं तथा महापुरुषों के मुकुट शिखर के समान ऊँचे और भव्य हैं। 

परन्तु सित्तन्नवासल के चित्रों में महादेव का ऊँचा मुकुट उनकी अनोखी जटाजूट से बनाया गया है। वैसे अजन्ता में मुकुटों के सबसे सुंदर उदाहरण प्राप्त हैं। इन उदाहरणों में नागराज का मुकुट जिसके पीछे पाँच फन का नाग बना है तथा ‘गृहत्याग’ नामक चित्र में बुद्ध का मुकुट उल्लेखनीय हैं, (देखिए रेखाचित्र – ‘पद्मपाणि’, ‘वज्रपाणि’ तथा ‘गंधर्व युगल’) मुकुट की बनावट तथा आकार से ही व्यक्ति का पद, चरित्र या महत्त्व समझ में आ जाता है। 

आभूषणों में वक्षस्थल पर बहुमूल्य रत्नों से जड़ित मोतियों की लड़ियोंदार लम्बी मालाओं तथा गरदन में बड़े-बड़े मोतियों की मालाओं तथा कम्बुकन्ठों का इस शैली में प्रयोग किया गया है। मोतियों की मालाएँ मुकुटों से माथे पर लटकती तथा गरदन से वक्षस्थल पर गंगा तथा यमुना या किसी लता के समान लहराती सी प्रतीत होती हैं। 

अन्य आभूषणों में कानों के पत्र कुण्डल, मीनाकार कुण्डल, मकराकार कुण्डल, भुजाओं में अनन्त तथा कमर में मोतियों या कड़ियों से युक्त करधनियाँ चित्रित की गई हैं। (देखिए रेखाचित्र – ‘वज्रपाणि’, ‘गायकदल’, ‘अप्सरा’ तथा ‘राजकुमारी’) हाथों में सुंदर गोल सुडोल कड़ों को पहने लम्बे हाथों वाली स्त्रियाँ मनोहारी बन गई है। 

कपड़ों, परदों, कालीनों, कनातों तथा वस्त्रों आदि को सजाने के लिये सुदर आलेखन बनाये गए हैं जिनमें पशु-पक्षियों तथा जलचरों का अंकन है।

केश विन्यास 

अजन्ता की चित्रकारी अति प्राचीन है परन्तु आज भी केश शृंगार की रीतियों में आधुनिक स्त्री-जगत अजन्ता की केश विन्यास प्रणाली से प्रेरणा लेता है। 

स्त्रियों की लम्बी लहराती नागिन जैसी वेणियों में बंधे बाल, कंधों पर लुढ़कते घुंघराले, धमीला ढंग के बाल, जटा या जूटटसर (गुंथे हुए) बाल, माथे पर लटकते चिकुर, हवा में उड़ते तरंग केश, खुले एवं छिटके हुए कुन्तल केश, जुड़ों में बंधे बाल आदि अनेक प्रकार के केश विन्यास को अनोखा रूप दिया गया है। 

यदि अजन्ता को केश विन्यास या केश-सज्जा की खान माना जाए तो अनुचित न होगा। सुंदर, सुकोमल केशों के अतिरिक्त क्रूर और धूलधूसरित या सिंह केसर (राक्षसों के बाल) आदि अनेक प्रकार के बालों के अंकन में भी चित्रकार पीछे नहीं रहा। (देखिए रेखाचित्र – ‘गायकदल’, ‘गंधर्व युगल’ ‘केश-कलाप’ तथा ‘राजकुमारी’)

स्त्रियों का स्थान  

अजन्ता में स्त्रियों को बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त हुआ है। उनको कहीं भी शील से गिरा हुआ नहीं दिखाया गया है। अधिकांश शरीर के नीचे वाले भाग में स्त्रियाँ साड़ी या अपारदीना (प्रतिहारी आदि) और शरीर के ऊपरी भाग में चोली पहने है। कहीं-कहीं उरोज नग्न भी हैं परन्तु स्त्रियों में प्रकृति, शक्ति और माँ का रूप झलकता है। 

स्त्रियाँ आभूषणों से युक्त यशोधरा के रूप में नारी की त्यागमूर्ति कितनी भव्य और महान है, जबकि वह अपना सर्वस्व एकमात्र पुत्र ‘राहुल’ बुद्धदेव के चरणों में समर्पित कर देती है। चित्रकार ने स्त्री के नाना रूप जैसे- सुंदरी युवती, विरहणी, संयोगनी, मी, वृद्धा आदि सब ही का अंकन किया है। 

परन्तु उसके प्रत्येक रूप में शालीनता और नारी की महान त्याग मूर्ति प्रतिबिम्बित होती है। स्त्री को सौन्दर्य, कोमलता और शक्ति का अवतार माना गया है।

आध्यात्मिकता और सहानुभूति की भावना अजन्ता के चित्रकार को जड़ तथा चेतन से समान सहानुभूति और संवेदना थी। पशु तथा पक्षियों के चित्रण में आत्मा का यही विकास दिखायी पड़ता है जो मानव आकृति के चित्रण में है। 

जीव-प्रेम और सहानुभूति के उत्तम चित्र उदाहरणों में अजन्ता के ‘महाहंस जातक’, ‘मृग जातक’, ‘गज जातक’ आदि चित्रों से सुस्पष्ट है कि कलाकार ने इन पशुओं तथा पक्षियों में अपनी जैसी आत्मा का अनुभव किया है और जीव को मानव के समान माना है बौद्ध धर्म की अहिंसा और बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाओं, जिनमें वह कभी बोधिसत्व पशु तथा कभी पक्षी के रूप में अवतीर्ण हुए, के कारण भी बौद्ध दर्शन में जीव के प्रति आदर, दया और सहानुभूति आयी। 

अतएव पशु-पक्षियों की आत्मा का भी अत्यधिक विकसित और उज्ज्वल रूप दिखाया गया है। बुद्ध ने स्वयं भी जीव-हिंसा और बलि का विरोध किया और अहिंसा तथा दया की शिक्षा दी। इन सभी परिस्थितियों का कला पर गहरा प्रभाव पड़ा और कलाकार ने जीव को समादर, सहानुभूति और संवेदना से देखा इस कारण प्रत्येक आकृति में मानव आत्मा का साक्षात्कार होता है।

भाव तथा रूप

अजन्ता के चित्रकारों ने विभिन्न भावों को रूप की ओट में अपनी भूमिका की सरल रेखाओं से अंकित किया है। भाव-प्रदर्शन के लिए चित्रकार ने हस्तमुद्राओं तथा अंग-भंगिमाओं का सहारा लिया है और इनके द्वारा मूक चित्राकृति को कलाकार ने वाणी प्रदान की है। 

भय, शान्ति, हर्ष, शृंगार, रौद्र तथा उत्साह आदि भावों को चित्रकार ने चित्र आकृतियों की मुखाकृति पर विधिवत लिख दिया है। भाव की दृष्टि से ‘राजा के चरणों पर नर्तकी’, ‘बेस्सांतर जातक’ तथा ‘मार विजय उत्तम चित्र उदाहरण हैं। 

भय तथा आतंक, याचना तथा ग्लानि, शान्ति तथा आनंद आदि भावों का इन चित्रों में पूर्ण रूपेण अंकन हुआ है। भाव के अनुकूल ही चित्रकार ने असंख्य रूपों का निर्माण किया है। रूप आकृति की आत्मा तथा जीवन का प्रतीक है। प्रत्येक आकृति के रूप में अजन्ता के कलाकार ने कर दिया है। 

राजा, रानी, साधु, सेवक, दासी, साधु के वेश में धूर्त, वीर-सिपाही, योद्धा, , वैरागी, भिक्षु, तपस्वी, कामनी तथा माँ प्रत्येक रूप में अपना व्यक्ति वैशिष्ट्य है। प्रत्येक आकृति की शारीरिक रचना, मुखाकृति तथा मुद्रा में विशेष अंतर है। 

मुखाकृति में आँखों की लास्य, भौंह की लचक या सीधापन, जिससे कोमलता या चिन्तन का भाव दिखाया गया है, अजन्ता के चित्रों की अपनी विशेषता है शरीर का गहरा या हल्का वर्ण स्वयं बोल उठता है कि मैं कौन हूँ। 

उदाहरणार्थ ‘पडदन्तजातक’ कथा के चित्र में बैगी पर हाथी के दील लाते कहारों और ‘महाहंस जातक कथा के चित्र में बहेलिये अपने रूप, छोटे शारीरिक अनुपात (प्रमा) तथा गहरे वर्ग से ही अपना परिचय देते हैं राजा रानी, तथा महान पुरुषों के रूप और लावण्य ही उनका परिचय दे देते हैं, उनको ऊँचे आसनों पर बैठा बनाया गया है। इस प्रकार रूप से ही कुलीन तथा दास वर्ग का परिचय हो जाता है।

युद्ध-दृश्य

चित्रकार ने जहाँ एक ओर बुद्ध के प्रति भक्ति, श्रद्धा और अहिंसा की भावना अभिव्यक्त की है, वहीं दूसरी ओर उसने सफलता से युद्ध चित्रों तथा भयानक दृश्यों का निर्माण भी किया है ‘डांकनियों का युद्ध’, ‘युवतियों का वध करने को उच्चत ‘राजा’ जो नग्न खडग् लिये बैठा है तथा ‘विदुर पंडित जातक’ चित्र में तेजी से बढ़ते हुए अश्वारोहियों का दल इस प्रकार की प्रभावशाली कृतियाँ हैं। 

अजन्ता के कलाकार ने यदि एक ओर कोमल-कमनीय रूपों का निर्माण किया है तो दूसरी ओर भयपूर्ण, भयानक, राक्षसी, हिंस्र रूपों का भी सफलता से निर्माण किया। ‘मार विजय’ चित्र में ऐसे अनेक भयंकर राक्षस भगवान बुद्ध पर चढ़ाई करते बनाये गए हैं।

वस्त्र तथा भवन

अजन्ता के चित्रों में गुप्तकालीन भवन तथा वास्तु का प्रयोग है, वैसे वाकाटक, शुंग सातवाहन संस्कृतियाँ भी अजन्ता की कला में बोलती हैं। विशेष रूप से कक्ष, बीथिकाएँ, स्तम्भ, चैत्य तथा स्तूप आदि सुंदरता से बनाये गए हैं। इन चित्रों में गुप्तकालीन भव्य पहनावे का विशेष प्रभाव है। 

पुरुषों को अधिकांश अधोभाग में धोती पहने या शरीर के ऊपरी भाग में चुस्त वाना या ढीला कुर्ता पहने बनाया गया है। स्त्रियों का पहनावा सामान्य रूप से कोहनी तथा आस्तीन की चोली है तथा नीचे के भाग में धोती या आँचल चित्रित है। 

नर्तकियों आदि को विशेष प्रकार का चुस्त कुर्ता तथा तंग पायजामा पहने बनाया गया है। कभी-कभी स्त्रियों के उरोज नग्न हैं, ऊँचे मुकुट तथा लम्बी-लम्बी मालाएँ गुप्त संस्कृति का प्रभाव है।

आकार, छन्द तथा लय-कलाकारों ने अपने आकारों को अत्यधिक संगीतमय और आकर्षक बनाने की चेष्टा की है। प्रत्येक वस्तु को एक लयपूर्ण आकार प्रदान करके कलाकार ने अमर सौन्दर्य की रचना की है। प्रत्येक आकृति में सुकोमल कान्टूर है, जिनसे छन्द, लय तथा संगीत उत्पन्न होता है और प्रत्येक आकार की सीमारेखा एक मधुर ध्वनि से झूमती चलती है।

षडंग तथा चित्रण विधि

अजन्ता के चित्रों की चित्रण विधि, धरातल तथा रंग आदि के विषय में पहले ही पर्याप्त मात्रा में प्रकाश डाला जा चुका है, परन्तु यह बताना आवश्यक है कि बाध के चित्रों में धरातल बनाने की विधि में कुछ अन्तर है जो सम्भवतः बाघ की रेतीली चट्टानों के कारण है। बाघ की चट्टानों में खड़िया तथा रेतीली मिट्टी थी। 

बाघ के चित्रों में चूने का पलस्तर (कच तथा कलि) पतला है और कभी-कभी चित्रों को दीवार पर चूना पोतकर (कलि लगाकर) ही चित्र बनाया गया है। सामान्यतः अधिकांश गुफाओं में अजन्ता की विधि से ही धरातल तैयार किया गया है।

अजन्ता शैली के समस्त चित्रों और उनकी विशेषताओं को ध्यान में रखा जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि कलाकार ने वात्स्यायन के ‘षडंग भेद’ या चित्रकला के छः अंगों का पालन किया है। फिर भी अजन्ता का चित्रकार किसी निश्चित सिद्धान्त श्रृंखला में बंधकर संकुचित नहीं हुआ और चित्रकार ने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोपरि महत्त्व प्रदान किया है। 

इसी कारण यह कलाकृतियाँ आज भी अपनी उत्तम विशेषताओं के कारण कला जगत के लिए एक उज्ज्वल कला का उदाहरण बनी हुई हैं। अजन्ता की चित्रकला का आज भी संसार की चित्रकला में उच्च स्थान है। आधुनिक यूरोप में इस प्रकार की चित्रकला का विकास दसवीं शताब्दी के पश्चात् हुआ जबकि भारत में अजन्ता आदि गुफाओं की श्रेष्ठ चित्रकारी सातवीं शताब्दी तक की जा चुकी थी।

सजीवता

कलाकार ने अपनी चित्राकृतियों में अपनी सजीव आत्मा को ऐसे ढंग से डाल दिया है कि उसके मूक चित्र भी जीवन शक्ति से ओत-प्रोत होकर बोल उठते हैं। चित्र की प्रत्येक आकृति में जीवन स्पन्दन सा करता प्रतीत होता है। आलंकारिकता के साथ सजीवता रहने के कारण चित्र दर्शक की भावना और नेत्र दोनों को आकृष्ट कर लेते हैं। यह सजीवता चित्रकार की रेखांकन कुशलता और उसकी सूक्ष्म दृष्टि की परिचायक है, क्योंकि यही चित्र-परम्परा आगे चलकर निर्बल कलाकारों के हाथों में पड़कर नितान्त निर्जीव हो गई।

बौद्धकाल की चित्रकला के अन्य प्रमाण

गुप्त राजाओं की शक्ति और साम्राज्य के विस्तार के साथ साहित्य और कला का भी विकास हुआ। गुप्त राजाओं ने बौद्ध धर्म के लिये किसी प्रकार की रोक नहीं लगाई, परन्तु कालान्तर में बौद्ध धर्म के महायान और हीनयान सम्प्रदायों के आपसी झगड़ों के कारण बौद्ध धर्म को बहुत हानि पहुँची। 

गुप्तकाल में बौद्ध धर्म सबल रूप में पुनः उत्थान को प्राप्त हो रहा था। गुप्त शासनकाल में शान्ति रही और इस कारण प्रत्येक प्रकार की कला की प्रगति हुई। इसी समय में विभिन्न गुफाओं की भित्तियों पर चित्र बनाये गए और इस कला का पूर्ण विकास हुआ। फाहियान तथा डेनसांग चीनी पर्यटकों ने भारतवर्ष का भली-भाँति भ्रमण किया। 

फाहियान (३६६-४१३ ईसवी के मध्य) और डेनसांग (६२६-६४५ ईसवी के मध्य भारत आए। इन दोनों ने दूर-दूर पर विशाल भवनों का विवरण दिया है। ये भवन अपने भित्तिचित्रों के कारण अनोखे थे। फाहियान ने पवित्र तीर्थ स्थान कपिलवस्तु का वर्णन दिया है। 

उसके अनुसार- “कपिलवस्तु में एक स्थान पर एक पवित्र धारण का अंकन था जिसमें बुद्ध एक श्वेत गज की पीठ पर बैठे अपनी माँ के गर्भ में प्रवेश करते अंकित किये गए थे।” इसी प्रकार ह्वेनसांग ने भी उत्तरी भारत के एक चैत्य मंदिर का वर्णन किया है, जिसकी खिड़कियों द्वारों तथा दीवारों का धरातल चित्रित काष्ठ-फलकों तथा पटचित्रों से सुसज्जित था। 

आज ये प्रमाण मुसलमानों के आक्रमणों से उत्पन्न बरबादी के कारण पूर्णतया नष्ट हो गये हैं। केवल अजन्ता और बाघ राजनीति और हलचल के क्षेत्र से दूर रहने के कारण इस विध्वंस से बच गए। दूसरी बात यह है कि ये चित्र कठोर चट्टानों के ऊपर बने थे जो नष्ट नहीं हो सकती थीं। 

इसी प्रकार के कुछ चित्र जो काष्ठ, मिट्टी, ईंट आदि कम स्थायी सामग्री से बने भवनों के द्वारों आदि पर बने थे नष्ट हो गये। अजन्ता के कुछ चित्रों में लकड़ी के चौखटे की चौहद्दी बनाकर उसको पलस्तर से भरकर धरातल तैयार करके भी चित्र बनाये गए। इस प्रकार की प्रथा अन्य स्थानों पर भी प्रचलित रही होगी परन्तु लकड़ी के नष्ट हो जाने से चित्र नष्ट हो गए होंगे।

तारानाथ के अनुसार बौद्धकालीन शैलियों-सोलहवीं शताब्दी में तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ ने इस विषय पर पर्याप्त मात्रा में प्रकाश डाला है परन्तु उसके उल्लेख भ्रमपूर्ण हैं। तारानाथ ने आरम्भिक बौद्धकाल की तीन शैलियाँ मानी हैं-

  • (१) देव
  • (२) यक्ष
  • (३) नाग

देव शैली मगध राज्य (आधुनिक बिहार प्रान्त) में प्रचलित थी। यह शैली गौतमबुद्ध के पश्चात् प्रारम्भ हुई, अनुमानतः छठी शताब्दी ईसा पूर्व से ही प्रचलित थी। यह शैली तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक प्रचलित रही। तारानाथ ने लिखा है कि-“आरम्भ में मनुष्य कलाकार, जो दिव्य शक्ति से सम्पन्न थे, अपूर्व कलाकृतियों का सर्जन करते थे।” 

विनय-आगम तथा अन्य ग्रंथों में ऐसे वर्णन प्राप्त होते हैं कि इन भित्तिचितेरों के चित्र प्राकृतिक वस्तु से समानता दर्शाने के कारण दृष्टा को धोखा देते थे।

यक्ष शैली का प्रचलन लगभग तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से प्रारम्भ हुआ। तारानाथ ने यक्ष शैली का सम्बन्ध सम्राट अशोक के काल से माना है। तारानाथ ने यक्ष जाति को दिव्य माना है और इसकी कला को अनोखा बताया है।

नाग कला का प्रचलन नागार्जुन नाम के दार्शनिक तथा लेखक के समय में हुआ। अनुमानतः नागार्जुन का जन्म तीसरी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुआ था। नाग जाति के चिन्ह भारतवर्ष में आज भी मद्रास से कश्मीर तक मिलते हैं। कृष्णा नदी के तट पर स्थित अमरावती स्तुप में दूसरी शताब्दी की नाग कला के चिन्ह स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। 

इन उदाहरणों से प्रतीत होता है कि नागा-कलाकार अच्छे भवन विशेषज्ञ और कलाकार थे। तारानाथ के लेखों से प्रतीत होता है कि ये शैलियाँ यथार्थ थीं, क्योंकि उसने लिखा है कि देव, यक्ष तथा नागा-कलाकारों की कृतियों ने अपनी यथार्थता के कारण कई वर्ष तक दर्शकों को धोखा दिया।

तारानाथ ने लिखा है कि-“तीसरी शताब्दी के पश्चात कला का पतन हो गया। ऐसा प्रतीत होता है कि समाज से कला का ज्ञान समाप्त हो गया।” तारानाथ ने ऐसा माना है कि बाद में कलाओं का पुनरुत्थान हुआ। 

तारानाथ ने उस समय की कला- शैलियों का वर्णन किया है, जिनमें तीन कला शैलियों या संस्थाओं का उसने उल्लेख किया है इसमें मध्य देश की शैली, पश्चिमी तथा पूर्वी शैलियाँ मुख्य थीं। उस समय के भूगोल के अनुसार मध्य-देश आधुनिक उत्तर प्रदेश था। मध्य देश का संस्थान एक महान चित्रकार तथा मूर्तिकार बिम्बसार ने स्थापित किया। विम्बसार का जन्म मगध में राजा बुद्धपक्ष के शासनकाल में हुआ। 

राजा बुद्धपक्ष का शासनकाल अनुमानतः पाँचवीं या छठी शताब्दी था। इस शैली के बहुत से चित्रकार थे। इसकी कला शैली प्राचीन काल की देव शैली से मिलती-जुलती थी, इस कारण विम्बसार को प्राचीन कला शैली का पुनरुद्धारक कहा जा सकता है। 

पश्चिमी कला संस्थान राजस्थान में प्रफुल्लित हुआ होगा और इस शैली का मुख्य कलाकार श्रींगधर (श्री रंगधर या श्रृंगधारी) था, जिसका जन्म मेवाड़ में राजा शिला (शील) के शासन काल में हुआ। कदाचित यह राजा उदयपुर का शासक शिलादित्य गुहिला था। शिलादित्य का समय सातवीं शताब्दी माना जाता है। 

इस संस्थान के चित्र यक्ष शैली से मिलते-जुलते थे। पूर्वी कला संस्थान वरेन्द्र (बंगाल) में राजा धर्मपाल और देवपाल के संरक्षण तथा नवीं शताब्दी में फुला-फला। यह नाग शैली थी। इस शैली के निपुण कलाकार धिमान और उसका पुत्र वित्तपाल प्रसिद्ध थे। ये दोनों चित्रकला, मूर्तिकला तथा धनुकला में निपुण थे।

इसके अतिरिक्त अन्य नयी कला-शैलियाँ छठी और दसवीं शताब्दी के मध्य कश्मीर, नेपाल, भूटान, ब्रह्मा और दक्षिणी भारत में प्रचलित थीं। परन्तु तारानाथ क मतानुसार ये शैलियाँ मुख्य रूप से ऊपर वर्णित तीन शैलियों (स्कूलों) की कृतियों से प्रभावित थीं। 

कश्मीर में कालान्तर में हंसुराजा नामक कलाकार ने वहाँ चित्रकला तथा मूर्तिकला की नवीन शैलियों की स्थापना की इसी शैली को कश्मीर शैली के नाम से पुकारा जाता है।

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