(नारी सुषमा) (१७०० ई० से १६०० ईसवी तक )
बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में पंजाब और हिमालय की सुरम्य घाटियों से एक परम्परागत और उन्नतशील भारतीय कला-शैली के चित्र उदाहरण प्राप्त हुए, जिनसे कला जगत की विचारधारा और आलंकारिक रुचि पर एक परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ा। इन चित्रों के प्राप्त होने से भारतीय कला के प्रति विचारधारा ही बदल गई।
न चित्रों की कला शैली मुगल शैली से सर्वथा भिन्न और भावनापूर्ण थी और इन कृतियों में पहाड़ी आत्मा का सौन्दर्य, सौकुमार्य, वैभव और यौवन मुखरित हो उठा। यह पहाड़ी चित्र शैलियाँ पहाड़ी क्षेत्रों के ठाकुर राजाओं की ठाकुराइयों में विकसित हुई।
सर्वप्रथम १६१६ ई० में डॉ० आनन्द कुमारस्वामी ने पहाड़ी चित्रों का दो भागों में वर्गीकरण किया और उन्होंने प्रथम वर्ग के चित्रों को उत्तरी-चित्रमाला तथा द्वितीय वर्ग के चित्रों को दक्षिणी – चित्रमाला के नाम से पुकारा।
उत्तरी चित्रमाला से उनका अभिप्राय कांगड़ा स्कूल के चित्रों से था और दक्षिणी चित्रमाला से उनका अर्थ डोगरा जम्मू स्कूल के चित्रों से था। इस वर्गीकरण में उन्होंने बसोहली स्कूल के चित्रों को भी सम्मिलित कर लिया।
इस प्रकार जिन चित्रों को उन्होंने जम्मू-स्कूल का माना वे वास्तव में बसोहली, नूरपुर, गुलेर तथा कुल्लू में प्राप्त हुए थे। उन्होंने जम्मू स्कूल का वर्णन इन शब्दों में किया है- ‘चित्रों का एक संग्रह या भाग, जो राजस्थानी चित्रों से कुछ भिन्न शैली का था, पंजाब-हिमालय क्षेत्र और विशेष रूप से डोगरा पहाड़ी राज्यों से प्राप्त होता हुआ दिखाई देता है।
इनमें जम्मू सबसे अधिक धनवान एवं शक्तिशाली राज्य था और ये चित्र उदाहरण विशेष रूप से सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भिक भाग के हैं। इनमें से कई चित्र अपनी शैली के अतिरिक्त (जो अमृतसर के चित्र विक्रेताओं को सामान्यता ‘तिब्बती’ चित्रों के नाम से मालूम हैं) अपनी टाकरी लिपि के लेखों के कारण पहचाने जा सकते हैं।’
श्री अजीत घोष ने नूरपुर तथा बसोहली स्कूल के आरम्भिक चित्र सत्रहवीं शताब्दी के माने हैं जिनका जम्मू स्कूल से कोई सम्बन्ध नहीं है। उन्होंने बसोहली स्कूल की कृतियों को मुगल स्कूल से पूर्व का माना और यह बताया कि बसोहली जम्मू राज्य में था और पंजाब में नहीं।
वास्तव में इस प्रकार के चित्र जम्मू में प्राप्त नहीं हुए हैं और जम्मू का महत्त्व केवल इस कारण है कि वह एक शक्तिशाली और सबसे अधिक धनवान राज्य था।
उन्नीसवीं शताब्दी में ही जम्मू में एक विकसित चित्रकला शैली (संस्थान) का उदय हुआ। इस समय जम्मू राज्य पहाड़ी राज्यों में सबसे बड़ा और शक्ति सम्पन्न राज्य हो गया था। जम्मू के अधीन बहुत सी छोटी-छोटी ठाकुराइयाँ या रियासतें आ जाने से जम्मू का पहाड़ी राज्यों पर प्रभुत्व जमने लगा था।
इसी कारण बहुत से कलाकार कांगड़ा छोड़कर जम्मू राजदरबार में आश्रय पा गए। इन चित्रकारों के वंशजों को जम्मू में अच्छा संरक्षण प्राप्त हुआ और लगभग पचास वर्ष तक उच्चकला संस्थान चलता रहा। जम्मू में अपनी कोई भी चित्रकला शैली पहले से विकसित नहीं थी।
१६३० ईसवी में जब श्री जे०सी० फ्रेंच ने पंजाब की पहाड़ियों का भ्रमण किया तो उनको इसी प्रकार बसोहली शैली के चित्र उदाहरण चम्बा, मी तथा सुकेत नामक नगरों में प्राप्त हुए।’
उन्होंने इन चित्रों का विवरण इस प्रकार दिया है-
‘इस चम्बा संग्रहालय में कई राजाओं के व्यक्ति चित्र हैं जो कांगड़ा स्कूल के नहीं माने जाते हैं, बल्कि स्थानीय कलाकारों ने बनाये हैं। इन चित्रों की शैली बसोहली के चित्रों की शैली के समान है।’
इस प्रकार यह अनुमान किया जा सकता है कि यहाँ बसोहली से सम्बन्धित एक शैली का विकास हुआ या बसोहली में चम्बा कला की शाखा पहुँची। श्री फ्रेंच को इस शैली के चित्र मण्डी, सुकेत तथा कांगड़ा क्षेत्र से प्राप्त हुए थे।
बसोहली शैली के चित्र पंजाब के विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। बसोहली शैली के कई चित्र हरिपुरगुलेर के राजा बलदेव सिंह, लम्बाग्राम (Lambagram) के राजा ध्रुवदेवचन्द तथा नादौन के मियाँ देवीचंद के संग्रह में सुरक्षित हैं।
इनके अतिरिक्त इस शैली के कुछ चित्र वज़ीर कर्तारसिंह-वासा वज़ीरान-नूरपुर, राजा रघुवीरसिंह – सांगरी (Shangri) – (कुल्लूघाटी), राजा राजेन्द्रसिंह – अर्को, तथा कुंवर ब्रजमोहनसिंह-नालागढ़ के संग्रह में सुरक्षित हैं।
कांगड़ा शैली की परिपक्व अवस्था से पूर्व सम्भवतः यह शैली सम्पूर्ण पंजाब तथा जम्मू की पहाड़ियों में प्रचलित थी और फिर पर्याप्त समय तक दोनों शैलियाँ साथ-साथ विकसित होती रहीं।
कालान्तर में कुछ वर्षों तक इन दोनों शैलियों के कलाकारों की विशेष रूप से नूरपुर, चम्बा, मण्डी, गुलेर, तीरासुजानपुर तथा नादौन में होड़ सी लगी रही।
सत्रहवीं शताब्दी में नेपाल में एक मिश्रित राजपूत शैली के चित्र बनाये गए. जिनमें लाल तथा पीले रंगों की प्रधानता थी और यह शैली नेपाल में अट्ठारहवीं शताब्दी तक चलती रही नेपाल में चित्रित इस शैली के धार्मिक चित्रों की पत्रियों प्राप्त हुई हैं।
डॉ० मोती चन्द्र ने नेपाल से प्राप्त एक लम्बी चित्रित पत्री (पट्टी) का वर्णन प्रकाशित किया है जिसका समय उन्होंने १७२८ ईसवी माना है। इस पत्री के चित्रों तथा बसोहली स्कूल के चित्रों की रंग योजना, पुरुषों के वस्त्रों तथा स्त्री रूपों में अत्यधिक समानता है।
यद्यपि ये दो राज्य भौगोलिक स्थिति से बहुत दूर हैं और नेपाल के गोरखाओं और बसोहली के राजाओं में कोई सम्बन्ध भी नहीं था। इस कारण इन दोनों स्कूलों के समान विकास और समानता का मूल कारण यह हो सकता है कि इन दोनों कला- शैलियों का उद्गम स्रोत एक ही था।
आर्चर महोदय के अनुसार सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पश्चिमी हिमालय के क्षेत्र में किसी प्रकार की चित्रकला विकसित नहीं हुई थी। १६७८ ई० में राजा कृपालपाल एक छोटी ठाकुराई या रियासत बसोहली का शासक बना और उसके साथ ही एक नवीन कलात्मक जिज्ञासा और कला रुचि जाग्रत हुई।
उसके समय में ऐसे चित्र बनाये गए जिनकी तीस वर्ष पूर्व के उदयपुर स्कूल की कृतियों से तुलना की जा सकती है। इस समय में बसोहली में एक भावनापूर्ण शैली का जन्म हुआ। इस नवीन चित्र शैली में सपाट चमकदार, हरे, भूरे, लाल, नीले और नारंगी धरातल तथा जंगलीपन लिए एकचश्म चेहरे, जिनमें बड़ी-बड़ी आँखें थीं, चित्रित किये गए।
ये चित्र उदयपुर के १६५०- १६६० ई० के मध्य बने चित्रों से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं परन्तु अभी तक ऐसे ऐतिहासिक प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं जिनसे कि उदयपुर तथा बसोहली के सम्बन्ध में विषय में निश्चय किया जा सके। यह सम्भव हो सकता है कि उदयपुर के राणा राजसिंह के समय में कुछ उदयपुरी चित्रकारों को बसोहली जाकर बसने को बाध्य किया गया हो।
यह विदित ही है कि पंजाब के पहाड़ी राज्यों के ठाकुर राजाओं के पूर्वज प्रायः वैवाहिक सूत्र से राजस्थान के राजपूत वंशों से सम्बन्धित थे। इस कारण यह भी सम्भव हो सकता है कि यदि राजा कृपालपाल ने उदयपुर का भ्रमण किया हो तो उसी अवसर पर उसने उदयपुर में अपनी चित्रशाला के लिए चित्रकारों की नियुक्ति की हो परन्तु न तो उदयपुर के राजाओं का बसोहली के राजाओं से कोई सम्बन्ध था और न ही राजा कृपालपाल ने उदयपुर का भ्रमण किया।
इस कारण प्रारम्भिक मेवाड़ शैली और बसोहली शैली की समानता का जो संतोषजनक कारण हो सकता है वह यह है कि जो कलाकार दिल्ली से उदयपुर तथा बसोहली गये वे मुगल दरबार के थे।
परन्तु मेरी (लेखक की समझ से हिन्दू धर्म की सनातन एकता और तीर्थ स्थानों के प्रति हिन्दू जगत की श्रद्धा और तीर्थ यात्रा के प्रति रुचि तथा मठों में धार्मिक सचित्र पोथियों के वितरण की पद्धति से भी सम्भवतः शैली की यह एकात्मकता दृष्टिगोचर होती है।
श्रीनाथद्वारा राजस्थान में एक महान तीर्थकेन्द्र था और यहाँ पर असंख्य यात्री तथा धर्म-श्रद्धालू दर्शन हेतु भारत के प्रत्येक भाग से आते थे और प्रसाद स्वरूप सचित्र पोथियाँ या श्रीनाथ जी के चित्र ले जाते थे। इस प्रकार राजस्थान के पवित्र नगरों उदयपुर या श्रीनाथद्वारा की मेवाड़ी शैली तथा उनके चित्र इधर-उधर अवश्य पहुँचे होंगे।
बसोहली शैली के जन्मस्थान का वर्णन करते हुए डॉ० आनन्द कुमारस्वामी ने १६२६ ईसवी में इस प्रकार लिखा- “यह कहा जा चुका है कि तथाकथित तिब्बती चित्रों (अमृतसर के चित्र विक्रेताओं को जो नाम ज्ञात हैं, यहाँ पर इन चित्रों को जामवाल (जम्मू) नाम के वर्गीकरण में रखा गया है, जिन पर सामान्यता टाकरी ढंग के लेख मिलते हैं)’ को बलौरी या बसोहली नाम से पुकारना चाहिए और जामूली (जम्मू का नहीं।” परन्तु जो कुछ भी हो, इन चित्रों में अनोखी और प्राचीन पहाड़ी कला शैली दिखाई पड़ती है।
यह सम्भव हो सकता है कि तारानाथ की तथाकथित कश्मीर शैली (स्कूल) के साथ ही पहाड़ी चित्रकला भी प्राचीन पश्चिम भारतीय कलाशैली से बहुत आरम्भिक काल में ही पृथक हो गई और उसका उदय तथा विकास पाल तथा जैन लघु चित्रशैली के रिक्थ पर हुआ हो।
परन्तु इस अवस्था के पश्चात स्पष्ट रूप से मुगल दरबार का प्रभाव आने लगा, इस प्रकार चित्रों में एक मिश्रित मौलिक शैली दिखाई पड़ने लगी।
बसोहली शैली से पूर्व गुजराती चित्रकला का पहाड़ी ठाकुराइयों की कला से कोई सम्बन्ध था या नहीं यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, यद्यपि गुजराती-शैली की ‘चौरा – पंचशिखा’ चित्रमाला (१५७० ई०) तथा बसोहली शैली के चित्रों में आकृतियों के बड़े-बड़े नेत्र तथा पारदर्शी आँचल समान रूप में बनाये गए हैं।
तारानाथ (१०६८ ई०) ने पश्चिमी भारत शैली, जिसकी स्थापना मेरू (मारवाड़) के श्री रंगधर ने की थी, के विषय में लिखा है कि-कश्मीर में भी प्राचीन समय में पश्चिमी भारत शैली के अनुयायी थे।’ परन्तु ठीक प्रमाण और उदाहरण प्राप्त न होने के कारण पहाड़ी राज्यों में मुगलों से पूर्व किसी भी प्रकार की जैन अपभ्रंश या गुजराती चित्रकला का प्रचलन प्रमाणित नहीं होता।
इस प्रकार गुजराती चित्रकला और प्राचीन पहाड़ी चित्रकला का सम्बन्ध स्थापित करना केवल एक बौद्धिक प्रयास मात्र है।
सत्रहवीं शताब्दी के मध्य पंजाव तथा जम्मू की पहाड़ियों में बसोहली शैली जैसी विशेषताओं से युक्त एक लोक-कला प्रचलित रही हो यह सम्भव हो सकता है। श्री गोएट्ज ने ब्रह्ममौर (भरमोर स्थानीय भाषा में प्रचलित नाम) स्थित चम्बा के राजाओं के महल के कपादों पर लकड़ी में उभारकर काटी गई आकृतियों का वर्णन दिया है।
ब्रह्ममौर का यह महल चम्बा के राजा पृथ्वीसिंह ने १६५०-६० ई० के मध्य बनवाया था। उपरोक्त लकड़ी की किवाड़ों पर काटी गई आकृतियों के लिए श्री रन्धावा ने प्राचीन बसोहली शैली का माना है जो निराधार है।
ये आकृतियों मुगल-चम्बा शैली की परिचायक हैं और इन आकृतियों में चम्बा के राजा पृथ्वीसिंह तथा मुगल युवराज मुरादबख्श की आकृतियाँ काटी गई हैं (चम्बा संग्रहालय)। राजा पृथ्वीसिंह का राज्यकाल १६४१ – १६६४ ई० माना जाता है।
उसने अपने राज्यकाल में चम्बा राज्य में कागज़ का प्रयोग आरम्भ कराया और उसके समय में सम्भवतः प्रस्तर तथा काष्ठ उरेहन की कला प्रचलित थी। चम्बा राज्य में भरमौर स्थित लखना देवी के काष्ठ मंदिर (तेरहवीं शताब्दी) के द्वारों तथा चौखटों पर मिथुन के काष्ठ उभारन चित्र बनाये गए थे जो आज भी सुरक्षित है।
चम्बा के राजा पृथ्वीसिंह का विवाह सोहली के राजा संग्रामपाल की पुत्री राजकुमारी से हुआ था। इस प्रकार बसोहली की कला चम्बा या चम्बा की कला बसोहली पहुंची होगी। श्री गोएट्न ने लकड़ी पर काटी गई चम्बा महल के कपाट की इन उभारन आकृतियों का समय १६६४-७० ई० के बीच माना है।
ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन बसोहली या चम्बा शैली या कोई पहाड़ी शैली या क्षेत्रीय लोकशैलियाँ लोककला के रूप में सम्पूर्ण पंजाब की पहाड़ियों में प्रचलित थीं। यदि क्षेत्र के दृष्टिकोण से देखा जाय तो ऐसा प्रतीत होता है कि यह कला एक विशाल क्षेत्र में विकसित हुई जिसके लिए बहुत समय की आवश्यकता थी इस कारण यह चित्रकला प्राचीन लोककला जैसी कला रही होगी जो लखना देवी मंदिर के काष्ठ-उरेहण के कार्य में प्रचलित थी।
बसोहली की विकसित कला का जन्म मुगल और पहाड़ी लोककला के सम्मिश्रण और सम्बन्ध से हुआ क्योंकि स्त्रियों का पारदर्शी आंचल और पुरुषों का पहनावा मुगल ढंग का है, जबकि मुखाकृति चित्रण का ढंग स्थानीय शैली का है, जिसका मूल रूप पहाड़ी लोककला या क्षेत्रीय लोककला से विकसित हुआ जान पड़ता है।
यद्यपि बसोहली शैली के चित्रों में पुरुष पहनावा जामा तथा पाजामा है परन्तु स्त्रियों के पहनावे में विविधता है और उनको कुचों पर चुश्त चोली या पेशवाज़ तथा आँचल (ओढ़नी) पहने चित्रित किया गया है। इस प्रकार पहनावे की विविधता से अनुमान होता है कि बसोहली शैली केवल दिल्ली शैली का आयत रूप नहीं है बल्कि उसमें स्थानीय लोककला का भी पूर्ण संयोग है।
१६०५ १७०७ ई० तक दिल्ली में सम्राट औरंगजेब की चित्रकला के प्रति उदासीनता और धार्मिक कट्टरता के कारण चित्रकला तथा अन्य कलाओं का दिल्ली दरबार में तिरस्कार होने लगा और कलाकार आश्रय की खोज में राजस्थानी युवराजों तथा पंजाब और जम्मू की पहाड़ियों के ठाकुर राजाओं की शरण में लगभग १६६० ईसवी तक जा बसे बसोहली के राजा संग्रामपाल तथा उसके उत्तराधिकारी हिन्दालपाल के छवि चित्र प्राप्त हैं।
इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि कुछ चित्रकार राजा कृपालपाल से पूर्व ही बसोहली में चित्र बना रहे थे। इस आधार पर ही श्री रंधावा ने इन चित्रों को राजा संग्रामपाल के शासनकाल के अंतिम वर्षों अर्थात् १६६१-७३ ई० का माना है।
उनके अनुसार इस शैली के चित्र केवल बसोहली में ही नहीं अपितु चम्बा, नूरपुर, नालागढ़, अर्की तथा जम्मू में भी बनाये गए। परन्तु वास्तव में इन चित्रों का बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता है क्योंकि चम्बा के चित्र मुगल संविधान पर आधारित हैं और अधिक प्राचीन हैं।
यह सम्भव है कि इन स्थानों के चित्रों में शैली का प्रारम्भिक रूप न हो। परन्तु यह विचारणीय है कि यदि मुगल दरवार से चित्रकार आये तो उनकी शैली इतनी शीघ्र कैसे बदल गई, इस कारण वह सोचना ठीक है कि पहाड़ी राज्यों में क्षेत्रीय लोककलाएँ प्रचलित थीं जिनका इस समय से विकास हुआ अन्यथा इतनी शीघ्र एक शैली सुंदर शबीहों के उदाहरण प्रस्तुत नहीं कर सकती थीं।
(बसोहली शैली- १६६४ ई०)
पहाड़ी राज्यों की स्थापना सातवीं और आठवीं शताब्दी में राजपूत युवराजों ने अपने बाहुबल से मुसलमानों के आगमन से पूर्व प्रारम्भ की और इन्होंने यहाँ पर छोटे-छोटे ठाकुराई राज्य स्थापित किये।
मैदानी क्षेत्र में अफगानों तथा मुगलों का मुसलमान साम्राज्य स्थापित हो गया था, अतः सत्रहवीं शताब्दी में वैष्णव धर्म का विकास पहाड़ी राज्यों में हुआ और यहाँ हिन्दू धर्म की सुरक्षा भी हुई।
वैष्णव सम्प्रदाय ने बसोहली को भावात्मकता प्रदान की। राजा संग्रामपाल के छोटे से बसोहली राज्य में चम्बा के समान सर्वप्रथम बाहर से आये चित्रकारों को आश्रय प्राप्त हुआ। दिल्ली के निराश्रित चित्रकारों का पहला दल जम्मू और पंजाब के पहाड़ी राज्यों में जाकर बसा।
अनुमानतः इन चित्रकारों ने चम्बा तथा बसोहली शैली को जन्म दिया और वैष्णव सम्प्रदाय की अभिव्यक्ति चित्रों के रूप में होने लगी। इस शैली के चित्र पहले बसोहली में और फिर अन्य राज्यों में बनाये गए। १७४५ ईसवी के पश्चात बसोहली शैली का स्थान स्थानीय राज्यों की निजी शैलियाँ ग्रहण करने लगीं।
१७३६ ई० में नादिरशाह के आक्रमण तथा १७४७ ई० में अहमदशाह दुर्रानी (अब्दाली) के आक्रमण के पश्चात सिक्खों और मराठों के आक्रमणों से दिल्ली राज्य का जब विध्वंस हो गया, तो हिन्दू एवं मुसलमान चित्रकार दिल्ली छोड़कर पुनः पहाड़ी राज्यों की ओर गये। चित्रकारों की यह दूसरी धारा कांगड़ा में पहुँची जिससे कांगड़ा शैली का विकास हुआ।
बसोहली की चित्रकला (बसोहली शैली)
बसोहली की स्थिति
बसोहली राज्य के अन्तर्गत ७४ ग्राम थे जो आज जसरौटा जिले की बसोहली तहसील के अन्तर्गत आते हैं। जसरीटा जिला जम्मू की सीमा में है। अतः बसोहली आज जम्मू तथा कश्मीर राज्य के अन्तर्गत है। बसोहली क्षेत्र की दृष्टि से एक नगण्य, छोटा सा राज्य था परन्तु उसका सांस्कृतिक क्षेत्र में विशेष योगदान होने के कारण उसका अपना महत्त्व है।
बसोहली के कला संरक्षक राजा-बसोहली का राजवंश अपने लिए पांडवों की संतान मानता था। बसोहली राज्य का संस्थापक राजा भोगपाल (७६५ ई०) था। वह कुल्लू राजवंश का था और उसने दिल्ली के राजा की शक्ति को समाप्त करके बेलोर राज्य और बेलोर या बालापुर राजधानी की स्थापना की ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सोलहवीं शताब्दी तक बसोहली के राजाओं का विशेष महत्त्व नहीं है।
बसोहली का राजा कृष्णपाल सर्वप्रथम अकबर के समय में १५६० ई० में मुगल दरबार में बहुमूल्य भेंटों सहित उपस्थित हुआ। इस समय पहाड़ी क्षेत्रों के छोटे-छोटे ठाकुर शासक आपस में राज्य विस्तार तथा सत्ता के लिए लड़ते रहते थे।
कृष्णपाल के पश्चात् उसका पोत्र भूपतपाल (१५६४-१६५५ ई०) राजा हुआ परन्तु उसका समकालीन नूरपुर का राजा जगतसिंह उससे ईर्ष्या करने लगा। उसने मुगल सम्राट जहाँगीर को भूफ्तपाल के विरुद्ध भड़का दिया, जिसके फलस्वरूप भूपतपाल को मुगल कारागार में बंद कर दिया गया और नूरपुर के राजा जगतसिंह की सेना ने बसोहली पर अधिकार कर लिया।
परन्तु भूपतपाल मुगल कारागार से निकल भागा और उसने अपने सामंतों की सहायता से पुनः नूरपुर की सेना को पराजित कर १६२७ ईसवी में राज्य प्राप्त कर लिया। उसने ही आधुनिक नगर बसोहली की स्थापना की और वह शाहजहाँ के दरबार में उपस्थित हुआ।
शाहजहाँ का सम्मान करते हुए भूपतपाल को एक चित्र में दर्शाया गया है जो डोगरा आर्ट गैलरी (जम्मू) में सुरक्षित है। भूपतपाल का बसोहली शैली में बना एक चित्र प्राप्त है परन्तु वह समसामयिक चित्र नहीं है।
भूपतपाल के पश्चात् १६३५ ईसवी में उसका पुत्र संग्रामपाल १२ वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा। वह इतना सुंदर तथा सुकुमार युवराज था कि जब वह शाहजहाँ के दरबार में सम्मानित हुआ तो शाहजहाँ के पुत्र दाराशिकोह की बेगमों ने उसको देखने की इच्छा प्रकट की।
इस कारण उसको अन्तःपुर में ले जाया गया जहाँ उसके सौन्दर्य पर विमुग्ध बेगमों ने उसको अनेक उपहार भेंट किये। इस समय ही संग्रामपाल का मुगल दरबार के चित्रकारों से परिचय हुआ होगा और सम्भवतः उसने ही इन मुगल चित्रकारों से वसोहली चलने के लिए कहा हो।
संग्रामपाल के पश्चात् उसका छोटा भाई हिन्दालपाल (१६७३-१६७८ ई०) राजा बना। उसका एक व्यक्ति-चित्र पंजाब संग्रहालय, पटियाला में प्राप्त है हिन्दालपाल के पश्चात् कृपालपाल (जन्म १६५० ई०) गद्दी पर बैठा। उसकी दो रानियाँ थीं। इनमें से एक रानी बन्द्राल की राजकुमारी थी और दूसरी जो उसकी प्रिय रानी थी, मनकोट की राजकुमारी थी ।
कृपालपाल विद्वान था तथा कला-प्रेमी राजा था उसके शासनकाल में बसोहली कला का सर्वोत्तम विकास हुआ और उसने कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। राजा कृपालपाल का राज्यकाल (१६७८ ई० से १६६३ ई०) तक पन्द्रह वर्ष माना जाता है।
कृपालपाल के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र धीरजपाल (१६६३-१७२५ ई०) गद्दी पर बैठा। वह अपने पिता के समान कला अनुरागी राजा था परन्तु चम्बा के राजा उजागर सिंह के साथ युद्ध करता हुआ रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुआ।
धीरजपाल के पुत्र मेदनीपाल (१७२५-१७३६ ई०) ने चित्रकारों को प्रोत्साहन प्रदान किया और उसने उजागर सिंह को भी पराजित कर पीछे हटा दिया। उसके समय में बसोहली के चित्रों का सुचारु रूप से निर्माण हुआ।
मेदनीपाल के पश्चात् जितपाल (१७३६ – १७५७ ई०) बसोहली की गद्दी पर बैठा। इसके समय में जम्मू के राजाओं की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई और महाराजा ध्रुवदेव का जम्मू के पहाड़ी राज्यों में बहुत अधिक प्रभुत्व स्थापित हो गया।
१७५७ ई० में अमृतपाल बसोहली का राजा बना। उसने जम्मू के महाराजा रंजीतदेव की पुत्री से १७५६ ई० में विवाह किया और बसोहली पर जम्मू की शक्ति स्थापित होने लगी। इसी समय पंजाब क्षेत्र में अहमदशाह दुर्रानी और सिक्खों के आक्रमणों के कारण कश्मीर और भारत का व्यापार मार्ग बदल गया और नवीन मार्ग बसोहली की ओर से बन गया जिससे बसोहली. राज्य की समृद्धि बढ़ गई।
अमृतपाल एक सुयोग्य शासक था। इस समय बसोहली नगर चित्रकला का केन्द्र बन गया और इसी राजा के राज्यकाल में बसोहली में भी कांगड़ा शैली ने बसोहली शैली का स्थान ग्रहण कर लिया। विजयपाल (१७७६-१८०६ ई०) तेरह वर्ष की आयु में बसोहली का राजा बना और इसी समय में चम्बा के राजा राजसिंह ने सिखों की सहायता से बसोहली पर विजय प्राप्त कर ली।
१८०६ ई० में समस्त पहाड़ी राज्य महाराजा रणजीतसिंह के अधीन आ गए। बसोहली का राजा महेन्द्रपाल (१८०६-१८१३ ई०) कलाप्रेमी शासक था। उसने जसरोटा की राजकुमारी से विवाह किया।
जब वह महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में १८१३ ई० लाहौर में उपस्थित हुआ तो वह बीमार पड़ गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् भूपेन्द्रपाल (१८१३-१८३४ ई०) गद्दी पर बैठा और पिता के समान ही उसकी भी शीघ्र मृत्यु हो गई।
१८४५ ई० में बालक कल्यानपाल राजा बना और इसी समय रणजीतसिंह ने बसोहली राज्य को जम्मू की जागीर बनाकर जम्मू के राजा हीरासिंह को सौंप दिया। इस प्रकार बसोहली की कलानिधियाँ जिनमें चित्र भी थे, ब्राह्मण वंशों के हाथ आ गई।
१८४५ ई० में बेलोरिया राजपूतों ने सिक्खों को बसोहली से बाहर निकालकर, ग्यारह वर्षीय कल्यानपाल को पुनः बसोहली का राजा बनाया। परन्तु १८४६ ई० से जम्मू तथा कश्मीर राज्य महाराजा गुलाबसिंह के हाथ में आ गए और कल्यानपाल के लिए अनुवृति मिल गई।
कल्यानपाल ने सिरमौर तथा सालंगरी की राजकुमारियों से विवाह किया, जिससे यह नगर भी कालान्तर में बसोहली कला के केन्द्र बन गए। १८५७ ई० में सन्तानहीन राजा कल्यानपाल की मृत्यु के पश्चात बसोहली राजवंश समाप्त हो गया।
रावी नदी के दाहिने तट पर स्थित बसोहली नगर जो किसी समय जम्मू की सात आश्चर्य की वस्तुओं में से एक था, आज अपनी पुरातनगाथाओं को अपने वैभवहीन राजप्रसादों तथा अट्टालिकाओं के अवशेषों में छुपाए मौन खड़ा है। यह राजप्रसाद आज चमगादड़ों और पक्षियों का आवास स्थल बन चुका है।
आधुनिक बसोहली नगर की स्थापना राजा भूपतपाल ने १६३५ ईसवी में की थी। इस नवीन राजधानी में उसने तथा उसके उत्तराधिकारियों ने विभिन्न राजमहलों का निर्माण कराया।
मेदनीपाल ने रंगमहल और शीशमहल बनवाये जो नायिका भेद आदि विषयों पर आधारित भित्तिचित्रों से सुसज्जित थे, परन्तु आज ये चित्र नष्ट हो गए हैं। बसोहली राज्य के अतिरिक्त यह शैली अनेक पहाड़ी राज्यों में भी विकसित हुई।
बसोहली शैली के चित्रों का विषय
समकालीन सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति का कला पर सदैव प्रभाव पड़ा है और प्रत्येक कला समकालीन साहित्य, दर्शन तथा लोकभावना से प्रभावित हुई है। वास्तव में ग्यारहवीं शताब्दी में जो वैष्णव धर्म आरम्भ हुआ, उसका पूर्ण विकास उत्तरी भारत में सोलहवीं शताब्दी में हुआ।
पन्द्रहवीं शताब्दी में श्री वल्लभाचार्य ने ब्रज को अपना केन्द्र बनाया और यहाँ से ही बल्लभाचार्य ने वैष्णव धर्म के उपदेश दिये। उनके अनुयायियों में कविवर सूरदास, मीरा, केशवदास तथा बिहारी के नाम प्रमुख हैं जिनकी रचनाओं को उत्तरी भारत में बहुत लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त हुआ।
इन कवियों ने भगवान को जीवन में खोजने की चेष्टा की और उन्होंने विष्णु के विभिन्न रूपों में विशेषतया श्रीकृष्ण और श्रीराम को अपना आराध्य देव माना।
धार्मिक चित्र
कृष्ण का जीवन भारत के सरल, साधारण लोकजीवन से सन्निकट है। इसी कारण कृष्ण भारतवर्ष में बहुत प्रिय देवता माने गए हैं। वास्तव में कृष्ण का उद्दन्डतापूर्ण बाल्यकाल और यौवन का जीवन कृषकों, जंगलों, ग्वालों, गोपियों, पशुओं और पक्षियों से सम्बन्धित था और गरीब जनता से बहुत मिलता-जुलता था।
वैष्णव धर्म राजस्थान तथा उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्र तक ही सीमित न रहा बल्कि पहाड़ी क्षेत्रों में भी पहुँच गया और पहाड़ी चित्रकार की प्रेरणा का मुख्य आधार बना बसोहली शैली के चित्रों में वैष्णव धर्म की विचारधारा और भक्ति भावना दिखाई पड़ती है। इस शैली में विष्णु तथा उनके दस अवतारों के चित्र प्राप्त हैं।
इस शैली में चित्रित रामायण की दो प्रतियाँ भी प्राप्त हैं, जिनमें से एक प्रति बसोहली में चित्रित की गई है और दूसरी कुल्लू में चित्रित की गई है। रामायण तथा भागवतपुराण वैष्णव सम्प्रदाय के कारण इन चित्रकारों का प्रमुख चित्र विषय बने ।
काव्य तथा रागमाला
चौदहवीं शताब्दी में रचित भानुदत्त की ‘रसमंजरी’ बसोहली के राजा कृपालपाल का प्रिय काव्य ग्रंथ था। इस ग्रंथ में नायक-नायिका भेद, रसों तथा श्रृंगार का सुंदर वर्णन है, परन्तु कृष्ण का वर्णन नहीं है।
सम्भवतः राजा कृपालपाल ने ही अपने चित्रकारों से रसमंजरी के चित्रों में कृष्ण को आदर्श प्रेमी का रूप दिलाया हो। इस प्रकार विभिन्न प्रकार की नायिकाएँ जैसे उत्का तथा अभिसारिका आदि भी आरम्भिक चित्रकारों का चित्रणविषय बनीं। 1
रसमंजरी के अतिरिक्त बारहवीं शताब्दी की जयदेवकृत गीतगोविंद काव्य रचना पर भी सुंदर चित्र बनाये गए। परवर्ती चित्रकारों ने बारह मासा’ चित्रावलियों के निर्माण में विशेष रुचि प्रदर्शित की इन विषयों के अतिरिक्त बसोहली शैली में ‘रागमाला’ पर आधारित चित्र भी प्राप्त होते हैं, जिनके उदाहरण ‘भारत कलाभवन’ काशी में प्राप्त हैं। इन रागमाला चित्रों तथा बारहमासा चित्रों में कृष्ण और राधा को नायक तथा नायिका का रूप प्रदान किया गया है।
व्यक्ति चित्र
चित्रकार प्रायः दरबार का एक सदस्य होता था और इस कारण उसका प्रमुख उद्देश्य राजाओं, दरबारियों तथा दरबार के अन्य सम्मानित सदस्यों जैसे विद्वानों, संगीतज्ञों, संतों आदि के चित्र बनाना था। इस प्रकार बसोहली में चित्रकार ने समसामयिक इतिहास को अमर बना दिया है।
मानव आत्मा
चित्रकार ने राधा और कृष्ण के प्रेम में मनुष्य की हृदयगत भावनाओं को बड़े मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। जिस प्रकार कृष्ण के विरह में गोपियाँ व्याकुल हैं उसी प्रकार मनुष्य की आत्मा भी परमात्मा (कृष्ण) के संयोग के लिए व्याकुल है। इस प्रकार बसोहली शैली के चित्रों में रहस्यात्मकता का मधुर संयोग है।
बसोहली शैली के चित्रों की विशेषताएँ
बसोहली शैली के चित्रों की कुछ अपनी विशेषताएं हैं जिनके कारण इस शैली के चित्रों को राजस्थानी शैलियों तथा कांगड़ा शैली के चित्रों से पृथक किया जा सकता है। यद्यपि बसोहली शैली में कांगड़ा शैली जैसा सौकुमार्य, कोमलता और परिमार्जन नहीं है तो भी उसमें सरलता, सरसता, शक्ति और चमकदार रंगों की अपूर्व संवेगात्मक तीक्ष्णता है जो इस कला को एक महान स्तर पर पहुँचा देती है।
बसोहली के चित्रों में प्रत्येक विवरण को स्पष्टता के साथ सरल और शक्तिशाली ढंग से व्यक्त किया गया है। काव्यमय भावनाओं को कलाकारों ने मधुरता, सरलता और सरसता के साथ अभिव्यक्त किया है।
बसोहली शैली के चित्रकार ने कम से कम परिश्रम के द्वारा अधिक से अधिक भावाभिव्यक्ति की है, यद्यपि इन चित्रों में आध्यात्मिकता के स्थान पर वासना की अधिक झलक है।
बसोहली शैली के कुछ चित्र नितान्त सरल है और उनमें तनिक भी रहस्यात्मकता, व्यंग्य या ध्वनि नहीं है, परन्तु प्रत्येक शैली का मूल्यांकन उसकी उत्कृष्ट कलाकृतियों के आधार पर किया जाता है। बसोहली शैली के चित्रों में अभिव्यक्ति का ठेठपन, स्पष्टता, शक्ति, आकर्षक रंगों की चमक और भावों की मधुरता है जो अन्यत्र प्राप्त होना दुर्लभ है।
चित्रों के हाशिये तथा लेख-बसोहली शैली के चित्रों के हाशिये अधिकांश गहरे लाल रंग की पट्टी से बनाये गए हैं, तथापि कुछ चित्रों के हाशिये में गहरी लाल रंग की पट्टी के स्थान पर गहरी पीले रंग की पट्टी का प्रयोग किया गया है। ये हाशिये सादा सपाट रंग की
पड़ियों से बनाये गए जो मुगल चित्रों के अलंकृत हाशियों से सर्वथा भिन्न प्रकार के हैं। रसमंजरी तथा गीतगोविंद पर आधारित चित्रों की पृष्ठिका पर संस्कृत में छन्द लिखे हैं, परन्तु लाल हाशियों पर सफेद रंग से टाकरी लिपि में लेख लिखे गए हैं।
रंग
कांगड़ा के उत्तम चित्रों के सौन्दर्य का रहस्य उनकी छन्दमय योजना है, जबकि बसोहली शैली के चित्रों के आकर्षण का मुख्य कारण, उनके चटक चुल-चुहाते रंगों की पवित्रता और प्राथमिक विरोधी रंगों का प्रयोग है। बसोहली शैली के चित्रों के रंगों में अन्तर्भेदनी आकर्षण है।
चमकदार और अमिश्रित लाल तथा पीले रंग, जिनका कलाकार ने स्वतंत्रता से प्रयोग किया है, दर्शक के नेत्रों में गहरे बैठ जाते हैं और उसके हृदय को उद्वेलित कर देते हैं। बसोहली के चित्रकारों ने रंगों का प्रयोग प्रतीकात्मक आधार पर किया है।
पीला रंग वसंत तथा सूर्य के ताप या प्रकाश का प्रतीक होता है। साथ ही पीला रंग ताप और प्रेमियों के प्रेम-ज्वर का प्रतीक भी है। बसोहली के चित्रकारों ने रिक्थ और बड़े-बड़े धरातल खण्डों में स्वतंत्रता से सूर्य प्रकाश दिखाने के लिए पीले रंग का प्रयोग किया है।
नीला रंग “कृष्ण तथा वर्षा के बादलों का प्रतीक है लाल रंग प्रेम के देवता का प्रतीक है और बसोहली शैली के शृंगारिक चित्रों में इस रंग के प्रयोग से चार चाँद लग गए हैं।
बसोहली शैली के चित्रों में पीले, लाल तथा नीले रंग का प्राथमिक विरोधी प्रयोग आनन्ददायक और सुंदर है। चित्रों में रंग इतनी कुशलता और सतर्कता से लगाये गए हैं कि वह मीने के समान चमकदार दिखाई पड़ते हैं। विशेष रूप से ‘गीत-गोविंद’ के चित्रों में लाल, पीले, ग्रे, नीले, हरे रंगों का प्रयोग सुंदरता से किया गया है।
बसोहली शैली के चित्रों में सोने तथा चाँदी के रंगों का प्रयोग कपड़ों की कसीदाकारी तथा अन्य साज-सामान के अलंकरण में किया गया है परन्तु चाँदी के रंगों प्रयोग खिड़कियों, स्तम्भों, छज्जों, जालियों तथा कपड़ों में अधिक किया गया है।
मोतियों की मालाएं बनाने के लिए कभी-कभी मोटे उभारदार रंग का प्रयोग किया गया है, जिससे मोतियों की गोलाई के साथ उनमें उभार का आभास होता है।
प्रकृति
बसोहली शैली के चित्रों में आलांकारिक ढंग से दृश्य-चित्रण किया गया है और अधिकांश चित्रों में क्षितिज रेखा को बहुत ऊपर रखा गया है। वृक्षों की पंक्तियों अलग-अलग आलंकारिक योजना में गहरी पृष्ठभूमि पर सफेद मिश्रित रंग से बनायी गई हैं। अधिकांश मंजनूं, आम, अखरोट तथा मोरपंखी के वृक्ष बनाये गए हैं।
वर्षा तथा बादल
बसोहली शैली की कृतियों में बादलों को झीना-झीना वक्राकार अभिप्रायों के द्वारा बनाया गया है। रसमंजरी के चित्रों में गहरे बादल बनाये गए हैं और इन बादलों में नागिन के समान चमकती हुई दामिनी की चमक दिखायी गई है। दामिनी की चमक को सोने के रंगों से दिखाया गया है।
हल्की वर्षा के चित्रण के लिए चित्रकार ने छोटी-छोटी मोती जैसी झिलमिल विन्दियों का प्रयोग किया है, परन्तु मूसलाधार वर्षा के लिए सीधी रेखाओं से जल-वृष्टि अंकित की गई है। नदी, झील या तालाब में पानी की लहरें बनाने के लए कुंडलाकार रेखाओं के अभिप्रायों का प्रयोग किया गया है।
जल में कमल पुष्पों का अंकन किया गया है और कभी-कभी बगुले भी बनाये गए हैं जिससे जल का किनारा और अधिक सुंदर बन गया है।
पशु-बसोहली शैली के चित्रों में ढोरों का अंकन निजी ढंग से किया गया है। बसोहली के चित्रों में पशुओं को दुबला, पतला, भूखा, पिचके पेट वाला तथा लम्बे कान और मुड़े हुए सींगों वाला बनाया गया है।
यह पशु जम्मू की स्थानीय जाति या वृंदावन की गौ- जाति के प्रतीक है, परन्तु कांगड़ा शैली के चित्रों में छोरों को हृष्ट-पुष्ट और मोटा-ताज़ा बनाकर हरियाणा जाति के पशुओं का ही अंकन किया गया है।
पहनावा
बसोहली शैली के चित्रों में पुरुष तथा स्त्रियों का पहनावा विशेष प्रकार का है। पुरुषों को घेरवार जागा (औरंगजेवकालीन मुगल ढंग का) तथा पीछे झुकी पगड़ी पहने दिखाया गया है। स्त्रियों को प्रायः सूथन चोली और ऊपर से पेशवाज़ या ढीला लम्बा घेरदार चोंगा पहने बनाया गया है, जो रेशमी या पारदर्शी है।
स्त्रियों को कभी-कभी छींटदार घाघरा, चोली और पारदर्शी दुपट्टा ओढ़े दिखाया गया है। कृष्ण को पीताम्बर तथा पीली धोती पहने ही बनाया गया है और सिर पर मुकुट तथा मोरपंख चित्रित किया गया है।
आकृतियाँ तथा शारीरिक सौन्दर्य-बसोहली के चित्रकारों ने रंग का मौलिक और सजीव प्रयोग ही नहीं किया है अपितु स्त्री तथा पुरुष मुखाकृति को नवीन रूप प्रदान किया है।
बसोहली शैली के चित्रों में मानव आकृतियों के चेहरों की बनावट विशेष प्रकार की है, जिसमें ढलवा माथा तथा ऊँची नाक को एक ही प्रवाहपूर्ण, अटूट रेखा से बनाया गया है। नेत्रों को कमलाकार रूप प्रदान किया गया है और नेत्रों की विशालता मनमोहक तथा अबोधतापूर्ण है बादामी वर्ण के शरीर वाली नायिका बसोहली के चित्रकार को प्रिय थी।
स्त्रियों को सुकोमल और सुंदर अंग-भंगिमाओं में अंकित किया गया है जिससे उनके रूप और लावण्य की शोभा और भी मनोहारी हो गई है।
आभूषण
बसोहली शैली के चित्रों में आकृतियों को आभूषणों से सुसज्जित बनाया गया है, और राक्षसों को भी आभूषणों से युक्त बनाया गया है। रत्नों से जड़े मुकुट, हार, कुंडल, भुजबंद सुंदरता के साथ बनाये गए हैं। इन आभूषणों में विभिन्न हीरे तथा रत्न खचित हैं।
भवन
बसोहली शैली के भवनों की भी अपनी विशेषता है। आलेखनों से युक्त कपाट तथा द्वार, जालीदार खिड़कियाँ, नक्काशीदार लकड़ी या पत्थर के स्तम्भों से युक्त भवन बहुत कुछ अकबरकालीन भवनों से मिलते-जुलते हैं। भवन के कक्षों की दीवारों को सुंदर लाखों या आलों से सजाया गया है।
इन ताखों में गुलाबपाश, इत्रदान, पुष्पपात्र तथा फूलों से भरी तश्तरियों को रखा दिखाया गया है। प्रायः इन सुसज्जित कक्षों में ही नायक और नायिकाओं को चित्रित किया गया है। अधिकांश चित्रों में कक्षों के साथ पिंजड़े में बंद सारिका या अन्य पक्षियों को अंकित किया गया है। विशेष रूप से इन पिंजड़ों में बंद या स्वतंत्र पक्षियों का प्रयोग नायिका भेद के चित्रों में प्रतीकात्मक आधार पर किया गया है।
बसोहली के चित्रों में रूप और लावण्य, यौवन और श्रृंगार से सजी नारी, वर्षा और तुफान की अंधेरी रात में भयानक जंगल को पार करती, अपनी बड़ी-बड़ी लजीली आँखों में प्रेम और अतृप्त वासना तथा जन्म-जन्म से अपनी आन्तरिक व्यथा को छुपाए पुरुष के प्रति अधीर दिखाई पड़ती है।
स्त्री मानव-प्रेम की प्रतीक है। यही प्रेम प्रकृति और महापुरुष आत्मा और परमात्मा का प्रतीक है। जन्म-जन्मान्तर से व्यथित नारीरूपी आत्मा पुरुषरूपी परमात्मा या प्रियतम में विलीन होने के लए विह्वल है, इस प्रकार बसोहली के चित्रकार का प्रेम सांसारिक पक्ष की वासना प्रस्तुत करता हुआ लोकोत्तर या पारलौकिक है और प्रेमाश्रयी आध्यात्मवाद का एक महान रूप है।
चम्बा की चित्रकला (चम्बा शैली)
चम्बा की स्थिति
चम्बा राज्य की स्थापना लगभग दसवीं शताब्दी में हुई और १९३० ई० तक का यहाँ पर राजपूत चम्बियाल वंश के राजा राज्य करते रहे। अब यह राज्य हिमाचल प्रदेश के अन्तर्गत है। चम्बा अब एक जिला है परन्तु पहले पाँच वजरातों (राज्यों) का एक विशाल राज्य था।
चम्बा राज्य हिमाच्छादित उतुंग पर्वत शिखरों के मध्य स्थित है। बीसवीं शताब्दी तक चम्बा पहुँचने के लिए पर्यटक या यात्री नूरपुर तथा कांगड़ा के मार्ग से होकर जाते थे। परन्तु अब चम्बा तक पहुँचने के लिए हिमाचल सरकार की राजकीय परिवहन व्यवस्था है। यह स्थान सड़क मार्ग के द्वारा पठानकोट से ७७ मील की दूरी पर स्थित है।
पठानकोट से चम्बा तक जाने के लिए राजकीय मोटर बसों की अच्छी परिवहन व्यवस्था है। यह राज्य पर्वतों से घिरा रहने के कारण अन्य पहाड़ी राज्यों से अलग रहा और अपनी परम्पराओं को रूढ़िवादी ढंग से आधुनिक काल तक चलाए रहा। चम्बा की सांस्कृतिक थाती बहुत प्राचीन है।
चम्बा के श्री हरिहरनाथ मंदिर तथा श्री लक्ष्मी नारायण मंदिर बहुत प्राचीन हैं और इनका प्रस्तर शिल्प उत्तर गुप्तकालीन शैली पालशैली का है। लक्ष्मी नारायण मंदिरों का निर्माण काल दसवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक माना जाता है। चम्बा के बाहर, देवीकोठी, ब्रह्ममोर (भरमौर), घनेड़, हिदम्बा
आदि स्थानों में अनेक प्रस्तर तथा काष्ठ मंदिरों का निर्माण मध्यकाल में प्रचलित था जिनमें चम्बा की रूढ़िवादी कला परम्परा दिखाई पड़ती है।
चम्बा के राजा
चम्बा का ऐतिहासिक महत्त्व गणेश वर्मन (१५१२-१५५९ ई०) से आरम्भ हो जाता है। चम्बा राज्य में इस समय मुगल प्रभाव भवनशैली के रूप में पड़ा ।
इस शासक के पश्चात् प्रतापसिंह वर्मन (१५५६-१५८६ ई०), वीरभान (१५८६ – १५८६ ई०), पृथ्वीसिंह (१६४१–१६६४ ई०), छत्तरसिंह (१६६४ – १६६० ई०), उदयसिंह (१६६०-१७२० ई०), उग्रसिंह (१७२०-१७३५ ई०), दलालसिंह (१७३५-१७४८ ई०) उमेद सिंह (१७४८-१७६४ ई०), राजसिंह (१७६४-१७६४ ई०), जीतसिंह (१७६५-१८०६ ई०), चड़तसिंह (१८०८-१८४४ ई०) तथा श्रीसिंह (१८४४-१८७० ई०) तक चम्बा के राजा कलानुरागी सिद्ध हुए।
चम्बा में कला विकास
राजा पृथ्वीसिंह के समय में चम्बा में चित्रकार कार्य करने लगे थे और इसी शासक ने बसोहली की राजकुमारी से विवाह किया था। इस प्रकार चम्बा की कला बसोहली पहुँची होगी ऐसा माना जाता रहा है।
पृथ्वीसिंह तथा उसके उत्तराधिकारी राजाओं छत्तरसिंह, उजागरसिंह और उमेदसिंह, इन सभी राजाओं के व्यक्ति-चित्र श्री भूरीसिंह संग्रहालय, चम्बा तथा राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है जिन्हें श्री काल खण्डनावाला ने परवर्ती बसोहली शैली का मानकर बहुत परवर्ती माना है। परन्तु वास्तव में चम्बा के इन व्यक्ति-चित्रों के सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता है।
ये व्यक्ति-चित्र शैली में जहाँगीर तथा शाहजहाँकालीन मुगल शैली की कृतियों जैसे हैं और इनका बसोहली शैली से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार चम्बा में राजा पृथ्वीसिंह के काल में और बसोहली से पूर्व ही चित्र प्राप्त होने लगते हैं।
चम्बा में राजा उमेदसिंह बड़ा कलाप्रेमी शासक हुआ है। उसने रंगमहल का निर्माण कराया और रंगमहल में चित्र बनवाने की परम्परा चलाई उसके समय में लघु तथा भित्तिचित्र बनाये जा रहे थे उसने अखंड चण्डी महल की चम्बा में आधारशिला रखी। रंगमहल में चित्रकारी का कार्य उमेदसिंह के उत्तराधिकारी राजा राजसिंह, जीतसिंह, चड़तसिंह तथा श्रीसिंह के काल तक उपवाहपूर्वक चलता रहा।
राजसिंह कांगड़ा के राजा संसार चंद से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ और उसके पश्चात चम्बा कला पर कांगड़ा शैली का गहरा प्रभाव पड़ा। राजसिंह के समय में निक्का चित्रकार गुलेर से चम्बा आकर बस गया। संसार चंद के पतन के पश्चात् कांगड़ा के कलाकार निश्चित रूप से चम्बा आये।
रंगमहल के चित्रों को दीवार से उतारकर अब सुरक्षा हेतु राष्ट्रीय संग्रहालय में पुनः उसी पुरानी अवस्था में प्रदर्शित किया गया है। १७३५ ई० के युद्ध और अग्निकांड में चम्बा की बहुत सी कृतियाँ अनुमानतः नष्ट हो गई हैं, इस कारण चम्बा शैली के इतिहास को प्रशस्त करने में कठिनाई उत्पन्न होती है।
चम्बा में दो चित्रकारवंश राज-संरक्षण में विशेष कार्य करते रहे। इन चित्रकारों का एक वंश वंशीधर का था और दूसरा कृष्ण का था। वंशीधर के वंश में ईश्वर, रामदयाल मगनू, दुर्गा, जवाहर, सोनू, मोतीराम (पोड़िया), होशियारलाल तथा हीरालाल चित्रकारी का कार्य करते रहे।
कृष्ण के वंश में लावे, गंगाराम, विल्लू या बिल्लोराम (मिस्त्री) तथा प्रेमलाल ने चम्बा में चित्र बनाये। इन चित्रकारों के अतिरिक्त लहरू, मियाँ तारासिंह, ध्यानसिंह, धिन्दीवास, जमील तथा निक्का के पौत्र अत्तरा आदि ने भी चम्बा में चित्र बनाये।
चम्बा में अन्तःपुर या रनिवास सम्बन्धी चित्र, व्यक्ति-चित्र तथा काव्य पर आधारित धार्मिक चित्र बनाये गए। चम्बा के चित्रों में ‘भागवतपुराण’, ‘रामायण’, ‘दुर्गासप्तसती’ तथा ‘रुकमिणी मंगल का विशेष स्थान था।
चम्बा शैली के चित्रों की विशेषताएँ
रेखा
चम्बा शैली के चित्रों में बारीक और कोमल रेखाओं का प्रयोग है। इन रेखाओं में जहाँगीरकालीन मुगल शैली की विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं। रेखाएँ लाल या काले रंग से बनायी गई हैं।
रंग
चम्बा शैली के चित्रों में बसोहली की तुलना में अधिक संगत और शीतल रंगों का प्रयोग है परन्तु आकृतियों को उत्कर्ष प्रदान करने के लिए उनके वस्त्र चटक विरोधी रंगों से भी बनाये गए हैं। चम्बा के चित्रकारों में नीले रंग के प्रति आकर्षण भी दिखाई पड़ता है अन्यथा लाल तथा पीले रंग का प्रयोग सामान्य है।
मानवाकृतियाँ
चम्बा की चित्रकारी में स्त्री तथा पुरुष का सौन्दर्य विशिष्ट है। चम्बा में मानवाकृतियाँ लम्बी और हृष्ट-पुष्ट बनायी गई हैं। सामान्यतः मानवाकृतियाँ खड़ी हुई मुद्रा में बनायी गई हैं। चम्बा के चित्रकार ने भावाभिव्यक्ति के लिए हस्तमुद्याओं तथा अंग-भंगिमाओं को नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया है।
मानवाकृतियों के माथे ऊँचे तथा चिबुक बड़ी और भारी बनायी गई, जिससे चम्बा शैली की आकृतियाँ अन्य शैलियों की मानवाकृतियों से पृथकत्व प्राप्त कर लेती हैं स्त्रियों के नेत्र बड़े और प्रायः कर्णस्पर्शी बनाये गए हैं, परन्तु प्रीया सुडोल और लम्बी है।
वेशभूषा
चम्बा के चित्रों में प्रायः पुरुष आकृतियों का पहनावा धोती तथा उत्तरीय है जो कश्मीरी शैली के संविधान पर आधारित है, परन्तु सामान्य रूप से जहाँगीरकालीन मुगल पहनावा अपनाया गया है। स्त्रियों के पहनावे में लहंगा, पारदर्शी आँचल तथा कंचुकी का प्रयोग सामान्य दिखाई पड़ता है।
प्रकृति
चम्बा के चित्रों में ऊँचे नोकदार पर्वतों सरिताओं, काले मेघों नीले आकाश, वन उपवनों, उद्यानों तथा बाटिकाओं का मनोहारी अंकन है। वृक्षों में मोरपंख, मंजनूं, आम, केला, बरगद, कदम्ब, पीपल, आंवला आदि का सजीव अंकन है। इन वृक्षों के पत्तों को कलाकार ने अधिकांश हल्की पृष्ठभूमि पर गहरी रेखाओं से आलंकारिक ढंग से बनाया है पुष्पित वृक्षों को भी बनाया गया है।
पशु-पक्षी
चम्बा के चित्रों में अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों का अंकन है, परन्तु गाय जम्मू तथा हरियाणा जाति के बीच की जाति (नस्ल की है। गोलाई- चम्बा के चित्रों में अंकित मानव आकृतियों में गठनशीलता लाने का सतत्
प्रयास दिखाई पड़ता है जो बसोहली के चित्रों में नहीं दिखाई पड़ता है। भवन – चम्बा शैली के चित्रों में मुगल शैली के भवन बनाये गए हैं। इन भवनों को बसोहली शैली के द्विअयामी भवनों के असमान अधिकांश त्रिआयामी ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
गुलेर की चित्रकला | गुलेर शैली
गुलेर का परिचय
जिन कलाकारों के पहुँचने पर कांगड़ा में चित्रकला का जन्म हुआ वे वास्तव में एक छोटे राज्य गुलेर ( हरिपुर गुलेर) से सम्बन्धित थे। गुलेर राज्य की स्थापना कुछ आकस्मिक घटनाओं के कारण १४०५ ई० में कांगड़ा राज्य की एक शाखा के रूप में हुई। कांगड़ा का राजा हरिचन्द एक बार आखेट के लिए गया।
वह अपने साथियों से बिछड़ जाने के कारण जंगल में राह से भटक गया और एक कुएं में गिर पड़ा। वह कई दिन तक अपने राज्य में वापस नहीं आया, अतः उसकी रानी सती हो गई। परन्तु एक साथी ने उसको कुएं से निकाल लिया और वह अपने राज्य पहुँचा, परन्तु कांगड़ा की गद्दी पर उसका छोटा भाई राजा बन चुका था।
अतः उसने गुलेर आकर अपना नवीन राज्य हरिपुर गुलेर स्थापित किया। लगभग २०० वर्ष के पश्चात् उस राज्य की सत्रहवीं शताब्दी में प्रतिष्ठा हुई। यहाँ की राजधानी हरिपुर गुलेर अनेक वर्षों तक कला का केन्द्र रही।
गुलेर की स्थिति गुलेर की भौगोलिक स्थिति के कारण गुलेर की महत्ता शीघ्र स्थापित हो गई। यह राज्य कांगड़ा के दक्षिण में पंजाब के मैदानी भाग के सन्निकट था। इस राज्य को मुगल संरक्षण भी प्राप्त हुआ।
गुलेर के राजा
गुलेर के राजा रूपचंद (१६१०- १६३५ ई०) को शाहजहाँ का समर्थन मिला। उसके पश्चात् मानसिंह (१६३५-१६६१ ई०) तथा विक्रमसिंह (१६६१-१६७५ ई०) ने राज्य की शक्ति को बढ़ाया।
गुलेर राज्य में राजा दलीपसिंह (१६६५-१७४४ ई०) के समय से सांस्कृतिक जागरण होता दिखाई देता है। यह सांस्कृतिक जागरण गुलेर के राजा गोवर्धनसिंह (१७४४-१७७३ ई०) के समय में उच्च विकास को प्राप्त हुआ।
गुलेर के राजा तथा चित्र
गुलेर का प्रथम राजा हरिचंद पहले कांगड़ा का शासक रह चुका था और इस कटोच राजवंश के परिवार का वरिष्ठ सदस्य था और वह कांगड़ा के राजा का बड़ा भाई था। इस कारण कांगड़ा राज्य सदैव ही गुलेर को सम्मान की दृष्टि से देखता रहा और गुलेर राज्य के पश्चात् ही कांगड़ा में सांस्कृतिक विकास हुआ।
गुलेर कांगड़ा घाटी के नितान्त निचले क्षेत्र में स्थित था, इस कारण पंजाब तथा गुलेर के यातायात साधन सुगम थे। पहले बताया जा चुका है कि बसोहली के राजा कृपालपाल (१६७८-१६६३ ई०) तक बसोहली शैली पंजाब की पहाड़ियों में प्रचलित हो चुकी थी।
इस समय में चम्बा शैली का भी प्रसार हो रहा था। परन्तु १७०० ई० के पश्चात् बसोडली शैली के चित्रकार शनैः शनैः अदृश्य होने लगे जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न पड़ोसी राज्यों की कला पर एक परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ा। यहाँ पर यह अधिक महत्त्व की बात है कि सुदूर दक्षिण में स्थित गुलेर राज्य में यह परिवर्तन सबसे पहले दृष्टिगोचर हुआ।
गुलेर के चित्रकार
गुलेर के राजा गोवर्धन सिंह (गोवर्धनचन्द) के समय में निश्चित रूप में चित्र बनने लगे। लगभग १७४० ई० में मैदानी प्रदेश से आए एक मुगल कलाकार ने गुलेर के राजदरबार में संरक्षण प्राप्त कर लिया।
इस कलाकार की शैली में अत्यधिक नवीनता और स्वच्छता (औरंगज़ेबकालीन मुगल शैली थी इस चित्रकार की कार्य पद्धति गुलेर के एक अन्य कलाकार नैनसुख की शैली से अत्यधिक मिलती-जुलती है।
नैनसुख ने कुछ समय के पश्चात् जम्मू के राजा बलवंतसिंह के राज परिवार के लिए भी चित्र बनाये हैं। इन दोनों चित्रकारों की शैली इतनी समान प्रतीत होती है कि जिससे सिद्ध होता है कि नैनसुख ने गुलेर में चित्र बनाये हैं। अब यह प्रमाणित भी हो चुका है कि नैनसुख तथा उसके परिवार के चित्रकारों ने गुलेर में चित्र बनाये हैं।
दूर-दूर के स्थानों से यात्री हरिद्वार अपने परिवार के मृतकों के पुष्प गंगा में प्रवाहित करने या हरिद्वार में गंगा स्नान करने आते हैं, यहाँ पर ये यात्री पंडों की बही में अपना नाम तथा वंशावली, पता इत्यादि सूची के रूप में लिखाते या लिखते हैं।
इस प्रकार की गुलेर से सम्बन्धित पुरानी बहियाँ सरदार पंडित रामरखा तथा पंडित प्यारेलाल के पास सुरक्षित हैं। इस वही में पंडे अपनी धर्मशाला में ठहरने वाले तीर्थ यात्रियों का ब्योरेवार विवरण लिखते हैं इन वहियों से चम्बा, कांगड़ा, गुलेर तथा अन्य पहाड़ी राज्यों के चित्रकारों की हरिद्वार यात्राएँ प्रमाणित है जिनसे उनके स्थान, वंश आदि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। सरदार रामरखा की वही के एक पृष्ठ पर नैनसुख नामक चित्रकार का एक लेख प्राप्त है, जो इस प्रकार है।
गोत्र सांडल
लिखित नेणा तरखान चत्रेहरा गोलेरदा वासी बेटा सेऊए था पोत्रा हसनुएदा ” पड़पौत्रा भारथुए दा । विद्ध पड़पौत्रा दाते दा नानका पख लिख्या प्रोहत हरीराम मन्या । नाना दास पडनाना चूहड्डू। विधिपड़नाना हरिया। जे भाईए माणके दा लिख्या जे दुए प्रोहते कंछ निकलें ता सेहे लिष्या दा प्रमाण। एह तकरार करी लिखी दत्ता । संमत १८२० जेष्ठ प्र० १ लिख्या ।
उपरोक्त लेख से स्पष्ट है कि नैणा (नैनसुख) गुलेर का निवासी था। वह सेऊ का बेटा हसनू का पोता, भरथुए का पड़पोता तथा दाते का विद्धपोता था।
नैनसुख के वंशजों ने समय-समय पर अनेक राज्यों से आकर हरिद्वार की इसी बही में अनेक लेख दिए हैं जिससे इस वंश की पूर्ण जानकारी प्राप्त हो जाती है और यह भी प्रमाणित हो जाता है कि इस वंश के लोग अनेक पहाड़ी राज्यों में राजाओं का संरक्षण प्राप्त कर जा बसे थे इस वंश के चित्रकार १६ पहाड़ी राज्यों में जाकर बसे, यह दूसरे प्रमाणों से भी सिद्ध हो चुका है।
इसी वंश के निक्का के वंशज रजौल निवासी श्री भूपेन्द्रप्रकाश तथा श्री चन्दूलाल रायना के पास सियालकोटी कागज़ पर बना एक आरेख चित्र सुरक्षित है जिससे स्पष्ट है कि इस वंश के कलाकारों ने अनेक राज्यों की कला को प्रभावित किया।
इस आरेख में एक योगनी के समान कला देवी की आकृति बनायी गई है जो एक पैर पर खड़ी है और अपनी १५ भुजाएँ मकड़ी के जाले के समान फैलाए हैं। इन भुजाओं के पास फीकी स्याही में निम्न १६ पहाड़ी राज्यों के नाम अंकित हैं:
- १. श्री गुलेर
- ३. किला कांगड़ा
- ५. सुकेत
- ७. कांगड़ा नादौन
- ६. शीवा
- २. चम्बा
- ४. मण्डी
- ६. कहलूर जसवान
- १०. दातारपुर
- ११. श्री गुरुबख्श सिंह
- १२. रामगढ़िया जासा सिंह
- १४. मनकोट
- १३. सुजानपुर
- १६. शाहपुर
- १८. नूरपुर
- १५. जम्मू
- १७. श्री जयसिंह
- १६. बसोहली
इन नामों से स्पष्ट है कि इस वंश के चित्रकार इन पहाड़ी राज्यों में चित्र बना रहे थे। नैनसुख दो भाई थे उसके बड़े भाई का नाम मानक (मानक) था और नेणा या नैनसुख छोटा था।
मागकू की वंशावली में आगे मानक के पुत्र फातू तथा कुशाल फिर पोत्रों में माधो, मोलक, काशीराम के नाम प्राप्त होते हैं नैनसुख की वंशावली में आगे उसके चार पुत्रों में रांझा, काम, गोलू तथा निक्का के नाम प्राप्त होते हैं। गौडू तथा निक्का के पुत्रों में सुखिया (सुखनू), सुलतानू तथा हरषू (हरख), गोकुल, छज्जू के नाम प्राप्त होते हैं। रांझा हरिद्वार आया था। काम का पुत्र लालसिंह था। आगे चलकर इनके वंश के अनेक चित्रकारों के नाम भी प्राप्त हैं।
राजा गोवर्द्धन सिंह (१७३०-७३ ई०) एक कुशल शासक था और उसने सामंतीय ख्याति प्राप्त की। उसे घुड़सवारी का बड़ा शौक था। उसके अनेकों ऐसे चित्र प्राप्त हैं जिनमें राजा को घुड़सवारी करते चित्रांकित किया गया है गुलेर शैली के लगभग चौदह ऐसे चित्र प्राप्त है जो रामायण पर आधारित हैं और राजा दिलीपसिंहकालीन हैं।
गुलेर शैली की विशेषता
गुलेर में १७४० ई० से १७७० ई० के मध्य में दो शैलियों में चित्र बनाये जा रहे थे जिनमें एक चम्बा या बसोहली शैली थी और दूसरी बाहर से आये मुगल कलाकारों की शैली थी। इन दोनों शैलियों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया परन्तु फिर भी दोनों की विशेषताएँ पहचानी जा सकती हैं।
मुगलशैली के चित्रों में राजा और उसके दरबार का चित्रण अधिक प्राप्त होता है और धार्मिक चित्र कम प्राप्त होते हैं। इन चित्रों में भंगिमाएँ तथा मुद्राएँ सुंदर हैं। प्रत्येक आकृति की कुछ अपनी व्यक्तिगत विशेषता और छवि है। इन चित्रों में रेखा बहुत ही कोमल, महीन (बारीक) और प्रवाहपूर्ण है।
इन चित्रों में प्रकृति की यथार्थ छटा बिखरी हुई है, परन्तु बसोहली शैली में बने चित्रों की सीमा रेखाएँ शिथिल, सुनिश्चित आलंकारिक योजनाबद्ध हैं तथा सपाट लाल धरातल का अधिक प्रयोग है। इन चित्रों में लाल, पीले, नीले तथा सफेद रंगों पर आधारित रंगयोजना में ली गई है।
इन चित्रों में स्त्रियों के चित्रण में भौतिकवादी दृष्टिकोण दिखाई पड़ता है और चित्रकार ने स्त्रियों के छन्दमय शारीरिक सौन्दर्य तथा यौन प्रतीकों का स्वतंत्रता से प्रयोग किया है, जिनमें काव्यात्मकता और परिमार्जित भावना दृष्टिगोचर होती है।
१७७३ ईसवी में राजा गोवर्द्धन सिंह की मृत्यु के समय गुलेर में अनेक चित्रकार इन शैलियों में चित्र बना रहे थे और एक निश्चित शैली स्थापित नहीं हो पाई थी। यद्यपि इस समय तक अभिव्यंजना के सिद्धान्तों, प्रतीकों आदि में एक नवीनता आ गई थी और किसी नवीन उत्तम शैली के विकास के लिए एक पृष्ठभूमि पूर्ण रूप से बनकर तैयार हो गई थी।
गुलेर शैली के चित्रों का विषय
गुलेर शैली के चित्रों के विषय सामान्यता चार वर्गों में रखे जा सकते हैं जो निम्न हैं
(१) रामायण तथा महाभारत
गुलेर शैली के अधिकांश चित्रों का विषय रामायण तथा महाभारत की प्रमुख घटनाएँ हैं। गुलेर शैली की रामायण तथा महाभारत की चित्रावलियाँ प्राप्त हैं।
(२) दरबारी चित्र
इस शैली में राजदरबार या अन्तःपुर के चित्र भी बनाये गए हैं। इन चित्रों में राजा गोवर्द्धनसिंह के घोड़े की सवारी के चित्र तथा नाच आदि के चित्र विशेष उल्लेखनीय हैं।
(३) नायिका चित्र
नायिका भेद सम्बन्धी चित्र इस शैली की एक विशेषता हैं। अनेक प्रकार की नायिकाएँ कांगड़ा शैली के समकक्ष गुलेर में पहले ही बनाई जाने लगी थीं। इन नायिकाओं में कृष्णपक्ष अभिसारिका, उत्त्का तथा प्रोषितपतिका नायिका का गुलेर शैली में बहुत भावपूर्ण चित्रण है।
(४) व्यक्ति-चित्र
गुलेर शैली में अनेक राजाओं के व्यक्ति-चित्र प्राप्त हैं जिनमें पर्याप्त सजीवता है।
कांगड़ा की चित्रकला (कांगड़ा शैली)
अट्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में पंजाब की पहाड़ियों में स्थित कांगड़ा राज्य भारतीय चित्रकला का एक महान केन्द्र बन गया। यहाँ चित्रकारों की लगभग एक सौ पचास वर्ष की साधना के परिणामस्वरूप इस शैली में सर्वोपरि भावना और कोशल का लालित्य एक बार दीप की उस अंतिम लौ के समान जगमगा उठा जिसकी लौ अत्यधिक प्रकाशित हो फिर अंधकार में सदैव के लिए विलीन हो जाती है।
इस शैली में मुगल और परम्परागत प्राचीन भारतीय कला एवं राजस्थानी हिन्दू कला और भावना का अपूर्व सम्मिश्रण है। अप्रत्यक्ष रूप से इस शैली पर पाश्चात्य प्रभाव भी पड़ा जिससे चित्रों की सुंदरता और कोमलता में श्रीवृद्धि हुई है।
संसारचंद
कांगड़ा शैली की कृतियों के सृजन का समय लगभग १७८० ई० से आरम्भ होता प्रतीत होता है। १७५१ ईसवी से १७७४ ईसवी तक कांगड़ा में कटोचवंशी राजपूत राजा घमंडचंद का राज्य था।
राजा घमंडचंद को अत्यधिक सामन्तीय ख्याति प्राप्त हुई परन्तु वह चित्रकला के प्रति उदासीन ही रहा और उसके चार व्यक्ति चित्र ही केवल प्राप्त हैं जो सिक्ख शैली के हैं और भद्दे हैं।
लगभग १७७५ ई० में कांगड़ा के राजा संसारचंद ने चित्रकला के प्रति अत्यधिक प्रेम प्रदर्शित किया। वह स्वयं एक चित्रप्रेमी, साहित्यप्रेमी और संगीत मर्मज्ञ शासक था। उसे लगभग बारह या तेरह वर्ष की आयु पर ही चित्र संग्रह में बहुत रुचि थी।
इसी समय सन्निकट सम्बन्धी रियासत गुलेर में अच्छे चित्रकार काम कर रहे थे और इस समय तक गुलेर शैली सुनिश्चित रूप धारण कर चुकी थी। राजा संसार चंद जैसे कला संरक्षक के कला-प्रेम के कारण और पड़ोसी गुलेर राज्य में उच्च कला विकास हो जाने के कारण कांगड़ा में भी चित्रकला का उदय आरम्भ हुआ।
राजा संसारचंद का कला-प्रेम
जिस समय गुलेर की चित्रकला एक निश्चित पृष्ठभूमि तैयार कर चुकी थी उसी समय कांगड़ा के राजसिंहासन पर राजा संसारचंद (१७७५-१८२३ ई०) ने दस वर्ष की आयु में पदार्पण किया। १७८६ ई० तक राजा संसारचंद का प्रभुत्व पहाड़ी राज्यों पर स्थापित हो गया। राजा संसारचंद को ललित कलाओं से अत्यधिक प्रेम था।
बाल्यकाल में राजा संसारचंद की चित्रों में विशेष रुचि होने का परिचय प्राप्त होता है। लगभग बारह या तेरह वर्ष की आयु पर उसने चित्रों का संग्रह किया और उसके द्वारा चित्रों के निरीक्षण किए जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं। राजा का यह चित्र प्रेम जीवन में सदैव बना रहा।
राजा का यह कला-प्रेम १८२० ई० तक निश्चित रूप से चलता रहा क्योंकि अंग्रेजी यात्री मूरक्राफ्ट ने लिखा है कि- “राजा संसारचंद के दरबार में इस समय भी कई चित्रकार काम कर रहे थे।
राजा को चित्रकला से बहुत प्रेम था और उसके पास चित्रों का एक विशाल संग्रह था। (१८२० ई०) राजा संसारचंद वैष्णव धर्म का अनुयायी था और कृष्ण का भक्त था। वैष्णव धर्म का उसके राज्य में भी ज़ोर था।
राजपूत परम्पराओं के अनुसार यौन सम्बन्ध, वधू या किसी रखेल तक सीमित था इस कारण दबी हुई यौन सम्बन्धी इच्छाएँ और भावनाएं चित्र की कल्पना में स्वच्छन्द हो उठीं और काव्यमय रूप धारण करने लगीं। कृष्ण भक्ति सम्प्रदाय के रूप में इन भावनाओं को एक साधन प्राप्त हो गया।
इसी कारण स्त्री के प्रति प्रेम का रूप राधा ने ग्रहण कर लिया और राधा के रूप में स्त्री के प्रति पुरुष का प्रेम प्रस्फुटित होने लगा। कांगड़ा शैली के चित्रकारों के प्रमुख केन्द्र गुलेर, नूरपुर, तीरासुजानपुर तथा नादौन थे।
गुलेर शैली का कांगड़ा में प्रवेश
जिस समय राजा संसारचंद कांगड़ा का राजा हुआ तो उसको कृष्ण की भक्ति और चित्रकला ने आकर्षित किया। यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय के कुशल पहाड़ी चित्रकारों को उसने अपने दरवार की ओर कैसे आकृष्ट किया।
सम्भवतः राजा संसारचंद का कला-प्रेम और १७७० ई० में गुलेर के कला संरक्षक राजा गोवर्द्धन सिंह की मृत्यु भी कलाकारों के कांगड़ा दरबार में आने का कारण हो सकती है।
निश्चित रूप से गुलेर का एक चित्रकार निक्का लगभग १७०० ई० में चम्बा पहुँचा और कुछ अन्य चित्रकार गुलेर छोड़कर गढ़वाल चले गये। गोवर्द्धन सिंह की मृत्यु के पश्चात् गुलेर संकटग्रस्त रहा और ऐसी परिस्थिति में जब १७८० ई० तक राजा संसारचंद की कला संरक्षक के रूप में ख्याति हो चुकी थी, तो उस समय तक अनुमानतः गुलेर के कई कलाकारों ने इस राजा की सेवाएँ ग्रहण कर ली होंगी।
इस प्रकार इन कलाकारों के नवीन प्राश्रय प्राप्त करने के पश्चात् ही गुलेर की कला ने कांगड़ा में अपनी परिपक्व अवस्था को प्राप्त किया।
कांगड़ा की चित्रकला कांगड़ा शैली के चित्रकारों के नाम अभी तक बहुत कम प्राप्त हैं और जो नाम प्राप्त हैं उनमें फातू, पुरखू तथा कुशनलाल के नाम प्रमुख हैं। कार्ल खण्डालावाला ने कुशनलाल को कुशला, नैनसुख के भतीजे के रूप में माना है जो ठीक है जैसा पहले बताया जा चुका है।
कांगड़ा की १७७० ई० से १८०६ ई० के मध्य की कृतियों से ऐसा प्रतीत होता है कि कम से कम दो महान कलाकार जो गुलेर में मुगल ढंग में चित्र बना रहे थे, अब कांगड़ा दरबार में आ गए।
इन चित्रकारों के साथ अनेक साधारण कोटि के चित्रकार भी कांगड़ा दरवार में नियुक्त किये गए इन दो चित्रकारों में से एक ने ‘भागवतपुराण’ का चित्रण किया है जिसमें मुगल प्रभाव है और चित्रों की शैली गुलेर के चित्रों से सम्बन्धित है।
इन चित्रों की पृष्ठभूमि में प्रकृति का अंकन स्वच्छ आकाश तथा वातावरण गुलेर के चित्रों जैसा है, परन्तु रेखा अधिक कोमल हो गई है, जिससे ये चित्र गुलेर शैली से पृथकत्व स्थापित कर लेते हैं। इन चित्रों में रेखा के किनारे डौल होने के कारण एक अद्भुत चमक तथा उभार आ गया है।
दूसरे चित्रकार की शैली का परिचय ‘बिहारी सतसई’ चित्रावली में प्राप्त होता है। इन चित्रों में सीमारेखा डोलपूर्ण नहीं है और दृश्य चित्रों में भव्यता है। इन चित्रों में गुलेर शैली जैसी निश्चित पृष्ठभूमि नहीं है और मानव आकृतियों की बनावट उत्तम है।
इन चित्रों में हल्की गोलाई का आकृतियों में प्रयोग किया गया है, जिससे मानव आकृतियों का सौन्दर्य निखर आया है। अधिकांश चित्रों में पशु-पक्षियों, नदियों, वृक्षों, लताओं तथा पुष्पों का प्रयोग भी प्रेमियों के मनोवेगों के उदीपन हेतु किया गया है।
आनंद कुमारस्वामी के शब्दों में- ‘यह शैली एक ऐसी कला है जिसमें भावना का पूर्ण त्याग भौतिक तथ्य के संसर्ग पर आधारित है।’ (The complete avoidance of sentimentality is founded on the constant reference to the physical fact.) जिस प्रकार इन दोनों चित्रकारों की शैली के स्पष्ट उदाहरण कांगड़ा में प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार अन्य कलाकारों की शैली के उदाहरण भी प्राप्त होते हैं।
१७७० ई० में गुलेर शैली में स्त्रियों के चेहरे के चित्रण की तीन शैलियों प्रचलित थीं, जिनमें से दो समाप्त हो गई और तीसरी शैली को कांगड़ा में उच्चस्तर प्राप्त हुआ। कांगड़ा शैली में स्त्रियों की मुद्राओं में भी विशेष अंतर आया। गुलेर शैली में बैठी हुई या खड़ी हुई नायिकाएँ बनायी गई थीं, परन्तु कांगड़ा की नायिकाएँ सुकोमल, सौन्दर्यपूर्ण, गतिवान, खड़ी मुद्रा में, लज्जा से लतिका के समान नत मस्तक अपने पटों को फहराती अंकित की गई हैं।
आरम्भिक गुलेर शैली के कांगड़ा में प्रवेश करने के पश्चात् चित्रों में प्रतीकात्मक रंगों के प्रयोग और प्रचलित परम्परागत आकारों के स्थान पर यथार्थवादी प्रभाव अधिक आने लगा। स्त्री-आकारों की रचना में ज्यामितीय सिद्धान्त का अभी भी पालन होता रहा, परन्तु आकृतियों को अब कोणोत्तर रूप प्रदान नहीं किया जाता था, बल्कि कोणदार आकारों का स्थान गोसाई युक्त रूप लेने लगे।
भवन की उदग्र (खड़ी रेखाएं कुछ कठोर रखी आती थीं जिससे आकृतियों के शरीर की कोमलता उभर गई है। शृंगार रस की अभिव्यक्ति के लिए परम्परागत काव्य में प्रचलित पृष्ठभूमि का सहारा लिया जाता था और इस प्रकार के समस्त चित्रों के लिए कृष्ण सम्बन्धी वैष्णव सम्प्रदाय एक शक्तिशाली प्रेरणा बना हुआ था।
वास्तव में राजा संसारचंद की वैष्णव धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा और वैष्णव-काव्य के कारण ही इन कलाकारों ने स्त्री-सौन्दर्य पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। कृष्ण को दिव्य प्रेमी माना गया और श्रृंगारिक विषयों पर अधिकांश चित्र बनाये गए।
कृष्ण का जीवन स्वतः ही प्रेमपूर्ण और श्रृंगारिक है, इस कारण कृष्ण के साथ कृष्ण की प्रिय और इच्छित वस्तुओं को प्रधानता प्राप्त हुई है। स्त्री-सौन्दर्य में कोमलता, मधुरता, यौवन, लज्जा तथा चंचलता की भावना दिखाई पड़ती है, जो कांगड़ा शैली के चित्रों का प्रिय और महत्त्वपूर्ण विषय बन गई है।
लगभग पच्चीस वर्ष तक राजा संसारचंद के दरबार में चित्रकारों को आदर्श संरक्षण और सर्वोत्तम प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, परन्तु १८०६ ई० में कांगड़ा पर संकट आया नेपाल से गोरखा आक्रमणकारियों की घटा उमड़ी और इन आक्रमणकारियों ने कांगड़ा पर अधिकार जमा लिया और राजा संसारचंद को शताब्दियों से प्रसिद्ध अजेय कांगड़ा दुर्ग में पराजय देखनी पड़ी।
नेपालियों का यह घेरा लगभग तीन वर्ष तक चलता रहा और गोरखों ने चारो ओर मार-काट लूट-पाट और विध्वंस किया। राजा संसारचंद को १८०६ ई० में दुर्ग से निकलकर जंगलों की शरण लेनी पड़ी।
इसी समय में राजा संसारचंद ने सिखों के राजा रणजीतसिंह से सैन्य सहायता प्राप्त कर ली और परिणामस्वरूप यह नेपाली घेरा उठ गया। यह घेरा तो १८११ ई० में उठ गया, परन्तु राजा की शक्ति समाप्त हो गई। कांगड़ा दुर्ग तथा राज्य सिक्खों के अधीन हो गया और राजा संसारचंद को महाराजा रणजीत सिंह के दरवार में जाना पड़ा।
इस दुखद परिस्थिति का कांगड़ा की कला पर गहरा प्रभाव पड़ा, क्योंकि इसी समय में एक चित्रकार सजनूं ने कांगड़ा दरबार छोड़ दिया और उसने १८१० ई० में पड़ोसी राज्य मण्डी के शासक राजा ईश्वरी सेन को ‘हमीरहठ’ नामक राजपूत कथा पर आधारित एक चित्रावली भेंट की निश्चित रूप से इस संकटकाल में कांगड़ा के चित्रकारों की कलात्मक क्षमता और शिल्प पर भी गहरा प्रभाव पड़ा होगा।
वैसे इस समय तक (१८०६ ई०) राजा संसारचंद की आयु इक्तालिस वर्ष की थी और इस कारण सम्भवतः उसके उत्साह और रुचि में अवश्य ही अंतर आ गया होगा।
इस समय की राजनैतिक अव्यवस्था तथा राजा की चिंता और अरुचि ने चित्रकला पर अत्यधिक प्रभाव डाला होगा अतः इस समय की कलाकृतियों में वह कोमलता और सौन्दर्य न रहा।
कांगड़ा की चित्रकला के पतन का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि गोरखा युद्ध में कांगड़ा के उत्तम चित्रकार समाप्त हो गए हो, और यदि ऐसा न हुआ हो तो कदाचित वह अपनी वृद्धावस्था के कारण स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त हो गए हो।
कम से कम दो महान चित्रकार, जो कांगड़ा में १७७० ई० में आये थे लगभग अपनी दस या बीस वर्ष की सेवाएँ प्रदान करके मृत्यु को प्राप्त हो गए हो। यह सम्भव है कि हरिद्वार के सरदार रामरखा पंडित की वही से नैनसुख की अस्थियों के प्रवाह की तिथि १७७८ ई० प्रमाणित है।
इस प्रकार १८०६ ई० के पश्चात् कांगड़ा की कला की विशेषताएँ लुप्त होने लगीं यद्यपि अनेक चित्रकार चित्रकृतियाँ बनाते रहे परन्तु उनकी रेखा में निर्जीवता तथा रंग और आकृतियों में भद्दापन तथा विकृति आने लगी।
कांगड़ा शैली का पतन
१८२३ ई० में राजा संसारचंद की मृत्यु से कांगड़ा कला की उत्साहपूर्ण धारा मंद ही नहीं पड़ गई बल्कि उसका अस्तित्व ही समाप्त हो गया। राजा की मृत्यु के छः वर्ष पश्चात् उसका उत्तराधिकारी राजा अनिरुद्धचंद गही पर बैठा परन्तु उसको कांगड़ा छोड़कर सतलज पार कर अंग्रेजी राज्य में टेहरी गढ़वाल भागना पड़ा, क्योंकि रणजीतसिंह उसकी दो बहनों का जम्मू के राजा ध्यानचंद से विवाह कराना चाहता था।
एक अंग्रेज यात्री विजने (Vigne) ने लिखा है कि-“राजा अनिरुवचंद ने अपनी समस्त बहुमूल्य वस्तुएँ सतलज की ओर भेज दीं।” यद्यपि उसने चित्रों के विषय में नहीं लिखा है परन्तु यह सोचना संगत है कि उसकी इन बहुमूल्य निधियों में चित्र-संग्रह भी थे राजा ने अपनी बहनों का विवाह गढ़वाल के राजा सुदर्शनशाह (१८१५-५२ ई०) से कर दिया और इस प्रकार कांगड़ा शैली के बहुत से चित्र जो कांगड़ा से राजा साथ ले आया था, राजा ने दहेज के रूप में सुदर्शनशाह को भेंट कर दिए। इस प्रकार कांगड़ा के उत्तम चित्र-संग्रह टेहरी गढ़वाल में पहुँच गए।
अनुमान किया जाता है कि इसी समय राजा के साथ अनेक कलाकार हरिद्वार तथा गढ़वाल आये और टेहरी में बस गए। इसी कारण गढ़वाल में बने १८३० ई० से १८६० ई० के मध्य के चित्रों में कांगड़ा शैली का पूर्ण रिक्थ विद्यमान है।
अपनी बहनों का विवाह गढ़वाल के राजा के साथ करके कुछ समय अनिरुद्धचंद कनखल (हरिद्वार) में महल बनवाकर तीर्थाटन की दृष्टि से रहा। उसका यह महल चित्रित था जिसके आज भग्नावशेष मात्र रह गए हैं। विवाह के पश्चात् यह स्थायी रूप से शिमला के निकट अर्को में रहने लगा जहाँ उसकी मृत्यु हो गई।
अर्को भी इस प्रकार कांगड़ा शैली का केन्द्र बन गया उसके दो पुत्रों रणवीरचंद और प्रवृद्धचंद को १८३३ ई० में ब्रिटिश सरकार ने ५०,००० रुपये की जागीर अनुदान में दे दी।
अनिरुद्धचंद के कांगड़ा से भागने के पश्चात् कांग में बहुत अशांति रही। पहले सिक्ख शासकों के समय में कांगड़ा में अशांतिपूर्ण वातावरण रहा फिर राजा जोधवीरचंद के समय में यही स्थिति चलती रही और १८४६ ई० में सिक्खों की पराजय के पश्चात् कांगड़ा में ब्रिटिश साम्राज्य स्थापित हो गया परन्तु चित्रकार चित्रों का न्यूनाधिक निर्माण करते रहे।
१८०५ ई० में कांगड़ा में भूकम्प आया जससे कलाकारों के जीवन और कलाकृतियों दोनों को हानि पहुँची और इस प्रकार कांगड़ा कला समाप्त हो गई। १८५० ई० की कांगड़ा शैली की एक चित्रमाला ब्रिटिश संग्रह में प्राप्त है। इस चित्रमाला के चित्रों में भद्दे रंग हैं और चित्रों में कठोरता है।
कांगड़ा शैली के चित्रों में इस प्रकार निर्बलता और निर्जीवता आ गई। १६२६ ई० में जब श्री जे० सी० फ्रेंच ने कांगड़ा का भ्रमण किया तो उन्होंने कांगड़ा के चार चित्रकारों १ नं २. हज़ारी, ३. गुलावराम तथा ४. लक्ष्मन को चित्रकारी का व्यवसाय करते हुए पाया था।’
कांगड़ा शैली के चित्रकारों की संतति अब चित्र निर्माण नहीं करती परन्तु अभी भी कुछ ऐसे परिवार है जिनके पास चरबी तथा चित्रों का संग्रह है और समय-समय पर वह व्यावसायिक चित्रकारी आदि का कार्य करते रहते हैं। यह चित्रकार चरवों की सहायता से चित्र रचना भी कर लेते हैं परन्तु ऐसे चित्रकार भी एक या दो ही है।
सिक्खों के उदय के साथ ही सिक्खों के दरबारों में भी चित्रकार नियुक्त किये गए और बहुत से कांगड़ा शैली के चित्रकार सिक्ख दृष्टिकोण को अपनाकर चित्र बनाने लगे और १८१० ई० से कांगड़ा-शैली का एक मित्र रूप सिक्ख चित्रों में दिखाई पड़ने लगा।
कांगड़ा के चित्रकार
कुछ वर्ष पूर्व समलोटी ग्राम जिला कांगड़ा के एक चित्रकार गुलाबराम (गुलाबू) ने अपने पूर्वजों की प्राचीन वंशावली प्रस्तुत की है। उसके पूर्वज राजा संसारचंद के दरबार में चित्रकारी करते थे उसके पड़दादा धूमन की वंशावली आगे प्रस्तुत की जा रही है।
पुरखू के पिता धूमन को गुलेर का मूल निवासी बताया जाता है। जो कालान्तर में गुलेर छोड़कर कांगड़ा के समलोटी गांव में जाकर बस गया था।
कांगड़ा के चित्रकारों में फत्तू, कुशनलाल या कुशला के नाम महत्त्वपूर्ण हैं। उपरोक्त दो कलाकारों के अतिरिक्त कांगड़ा के अन्य कलाकारों की हस्ताक्षर सहित कोई भी कृति प्राप्त नहीं हुई है। कांगड़ा के दो चित्रकारों बसिया और धूमन के पुत्र पुरखू का इतिहासकारों ने उल्लेख दिया है।
राजा संसारचंद के दरबार में आश्रित बसिया चित्रकार के प्रपौत्र लक्ष्मणदास से फ्रेंच महोदय ने समलोटी में भेंट की थी। इनके अतिरिक्त पदनू और दोखू को भी कांगड़ा के राजा संसारचंद के दरवार का चित्रकार बताया जाता है।
(धूमन की वंशावली)
धूमन
पुरण
फत्त
गरभू
लदू
चन्दनू
रामकिशन
रामदयाल
किरापा
बेली
बिहारी
भगत
गुलाबू
रेंझू
मलहू
(निःसंतान)
भगतराम
चुन्नीलाल
इसी प्रकार कश्मीर के पण्डित शिव (शिवराम) चित्रकार का परिचार भी गुलेर होता हुआ कांगड़ा पहुंचा। कांगड़ा में नैनसुख तथा उसके परिवार के चित्रकारों का विशेष योगदान है जिनका पहले उल्लेख किया जा चुका है।
कांगड़ा शैली के चित्रों का विषय
कांगड़ा के राजा संसारचंद की वैष्णव सम्प्रदाय की ओर विशेष रुचि होने के कारण भक्ति काव्य और रीति-काव्य की धारा को दरवारी संरक्षण प्राप्त हुआ है।
धार्मिक चित्र
कृष्ण के प्रेम और शृंगार की भावना कलाकारों के लिए एक मुख्य प्रेरणा थी कृष्ण को प्रतीक मानकर नाना सांसारिक तथा शृंगारिक लीलाओं को अंकित किया गया।
अधिकांश धार्मिक महाकाव्यों पर आधारित प्रेम-कथाओं को चित्रों में प्रधानतः चित्रित किया गया जिसमें रामायण, महाभारत, हमीरहठ, नलदमयन्ती, शिव तथा पार्वती की पौराणिक कथाओं को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ है।
इन महाकाव्यों को एक नवीन चित्रमय जीवन प्राप्त हुआ और बिहारी तथा महाकवि केशवदास की रचनाओं को भी चित्रबद्ध किया गया।
नायिका भेद
जिस प्रकार मध्यकालीन काव्य में शृंगार की सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रवृत्ति का विवेचन किया गया है उसी प्रकार कांगड़ा शैली के चित्रकारों ने श्रृंगार की मनोरंजक और भावपूर्ण दशा की सजीव चित्रमय झांकियाँ प्रस्तुत की हैं।
कांगड़ा शैली के चित्रकारों ने तीनों प्रकार की नायिकाओं (१) स्वकीया (स्वयं की), (२) परकीय (दूसरे की) तथा (३) सामान्य (किसी की भी) का अंकन किया है। इन नायिकाओं की आठ अवस्थाएँ (अष्ठ नायिकाएँ) मानी गई हैं जो इस प्रकार हैं (नायिका के ये आठों रूप कांगड़ा शैली के चित्रों में उपलब्ध हैं)
- १. स्वाधीनपतिका ।
- २. उत्का या उत्कंठिता (या विरहोत्कण्ठिता)।
- ३. वासकास्या या वासक सज्जा ।
- ४. अभिसन्धिता (या कलहान्तरिता)।
- ५. खण्डिता ।
- ६. प्रेसितापतिका या प्रेसिता प्रेयसी ।
- ७. विप्रलब्धा ।
- ८. अभिसारिका
स्वाधीनपतिका वह नायिका है जिसे उसका योग्य स्वामी प्रेम करता है और उससे प्रेम करने के लिए बाध्य है और उसका जीवन साथी है। इस प्रकार की नायिका कांगड़ा शैली के चित्रों में राधा के रूप में अंकित की गई है अनेक चित्र उदाहरणों में राधा एक चौकी पर बैठी है और कृष्ण उसके पैर धो रहे हैं या कुंज में बैठे राधा की चोटी गूंथ रहे हैं या राधा के चरण दबा रहे हैं या महावर लगा रहे हैं। इन चित्रों में राधा को आत्म अभिमान और आत्मविश्वास से पूर्ण दिखाया गया है।
उत्का- वह नायिका है जिसके प्रेमी ने निमंत्रण के निश्चित समय पर न आकर अपने विश्वास को खोया है। ऐसी नायिकाओं को नदी के किनारे, वृक्ष के नीचे, धरती पर पत्तों के ऊपर चमेली के पुष्पों की बिछी सेज (चादर) पर खड़ा या बैठा अंकित किया गया है। वृक्ष पर एक पक्षियों के जोड़े को बैठा बनाया गया है। आकाश के काले बादलों की घुमड़ और चंचल-चपला में नायिका उत्कंठा से प्रतीक्षा कर रही है। कभी-कभी मृग भी जल पीते या विचरण करते साथ में बनाये गए हैं।
वासकास्या
वह नायिका है जो अपने प्रेमी या स्वामी के आगमन की वाट द्वार की सीढ़ियों पर जोहती है। उसका सफेद चंदन के समान शरीर दीपक के समान जलता है और उसके नीले वस्त्र कल्पलता के समान कोमल शरीर के चारों ओर फहराते हैं। वह धीरे वोलकर अपनी व्यथा व्यक्त करती है जैसे कि वह अपना जादू चला रही हो। यह नायिका कांगड़ा के चित्रों में अपने शयनकक्ष के द्वार पर प्रियतम के आगमन की प्रतीक्षा में उत्सुक, आशा लगाए खड़ी हुई अंकित की गई है। घर में नायक के स्वागत हेतु तैयारी की जा रही है, प्रेमी एक सुंदर नौका में नदी के दूसरी ओर एक सारस के जोड़े के पास बैठा दिखाया जाता है।
अभिसन्धिता
यह नायिका है जो अपने प्रियतम के प्रेम पर विश्वास नहीं करती परन्तु प्रेमी के विरह या उसकी अनुपस्थिति में दुखी रहती है। इस प्रकार की नायिकाओं के उदाहरण के लिए कृष्ण और राधिका का झगड़ा लिया गया है। कृष्ण राधा के क्रोध को शान्त करने का प्रयत्न करते हैं, राधा और अधिक क्रोधित होती हैं, परन्तु जब कृष्ण लौटकर जाने लगते हैं तो राधा आवेश में कहे अपने शब्दों पर दुखी होती हैं।
खण्डिता यह नायिका है जिसका प्रेमी रात्रि को निश्चित समय निमंत्रण पर पहुँचने में असफल रहता है और रात्रि को किसी दूसरी युवती के साथ सहवास करके दूसरे प्रातः आता है और नायिका उसके नेत्रों की लाली देखकर अन्य युवती के साथ उसके रात्रि सहवास को सिद्ध कर देती है।
प्रेसित पतिका वह नायिका है जिसका पति सदैव समय-समय पर व्यापार प्रस्त रहता है। गुलेर-शैली के एक चित्र में यह नायिका इस प्रकार दिखायी गई है-आकाश में बादल, सारस और बगुले देखकर उत्सुक नायिका छज्जे पर आती है। इस चित्र में प्रेमी की अनुपस्थिति का प्रतीक एक मोर भी अंकित है और वर्षा आरम्भ होने वाली है। अतः नायिका बिल होकर सर ऊपर उठाए भगवान से अपने प्रियतम के सकुशल लौट आने की प्रार्थना करती चित्रित की गई है।
विप्रलब्धा
यह नायिका है जो व्यर्थ ही रात्रिभर अपने प्रेमी के आगमन की प्रतीक्षा करती है! इस नायिका को एक वृक्ष के नीचे पत्तियों की सेज के एक कोने पर अंकित किया जाता है। वह दुखी होकर आवेश में अपने आभूषण आदि उतारकर पृथ्वी पर फेंक रही है। पृष्ठभूमि में रिक्त स्थान उसके एकाकीपन तथा दुख का सूचक होता है।
अभिसारिका
यह नायिका है जो अपने प्रेमी से मिलने के लिए रात्रि में बाहर जाती है। यह नायिका कांगड़ा के चित्रकार का प्रिय विषय रही है। कृष्ण अभिसारिका और शुक्ल अभिसारिका कांगड़ा शैली के चित्रों में क्रमशः अंधेरी रात्रि और चाँदनी रात्रि में प्रेमी से मिलने के लिए जाती हुई अंकित की गई है। कांगड़ा शैली के चित्रों में कृष्ण अभिसारिका नीला आँचल डाले अपने प्रेमी को ढूंढने जा रही है, अंधेरी रात्रि में काले बादलों में दामिनी चमक रही है। जंगल में सर्प और चुड़ैल है परन्तु ऐसे भयानक वातावरण में भी निर्भीक नायिका (आत्मा), अपने प्रेम की तृप्ति के लिए प्रेमी (परमात्मा) को खोजने निकलती है।
प्रेम की अवस्थाएँ
प्रेमियों की विभिन्न स्थितियों के अनुसार प्रेम के दो पक्ष हैं जिनमें प्रथम पक्ष वियोग और द्वितीय पक्ष संयोग है वियोग पक्ष के तीन प्रकार माने गए हैं-प्रथम पूर्वराग अर्थात् प्रेम का आरम्भ, द्वितीय मान अर्थात् प्रेमियों के मिथ्या अभिमान से उत्पन्न वियोग, तृतीय प्रवास अर्थात् प्रेमी के विदेश गमन से उत्पन्न विरह या वियोग कांगड़ा शैली के चित्रों में विरह की ये तीनों दशाएँ चित्रकार का मार्मिक विषय बन गई हैं। पूर्वराग का एक सुंदर चित्र उदाहरण मिर्जा साहिबान पर आधारित चित्र है, जिसमें एक प्यासा राजकुमार एक गाँव के कुएं पर पहुंचता है और एक युवती उसको पानी पिलाती है जब राजकुमार अपनी अंजुल से पानी पीता है तो उसके नेत्र युवती के मुख पर लगे रहते हैं। इसी प्रकार राधा और कृष्ण के चित्र – उदाहरण प्राप्त हैं जिसमें राधा या तो रसोई में काम कर रही है या बाल गूंथ रही है या स्नान कर रही है और कृष्ण उसको एक छज्जे (दीर्घा) से देख रहे हैं।
भाव
प्रेमियों की संयोग अवस्था में उत्पन्न बाह्य भावों को कायिक भाव या हाव कहा जाता है। हाव बारह प्रकार के माने जाते हैं। प्रेम में लीन प्रेमियों के आलिंगन और चुम्बन से उत्पन्न आनंद की अवस्था को ‘सीला हाथ’ कहा जाता है। ‘विलास हाव’ में प्रेम आनंद में लीन प्रेमियों के अंग फड़कते हैं और नायिका के नेत्र आनंद से चमकते हैं।
जब नायक की भव्य वेशभूषा और अलंकरण के प्रति नायिका में आकर्षण दिखाई पड़ता है तो उसको ‘ललित हाव’ कहा जाता है। जब नायिका अपने सौन्दर्य से निश्चित हो स्वल्प अलंकरण और साधारण वस्त्र पहनती है तो ‘वैचित्र हाव’ कहा जाता है।
जब नायिका प्रेमी के आगमन से प्रेम प्रफुल्लित होकर गलत स्थानों पर आभूषण धारण कर लेती है तो उसको ‘विवर्या भाव’ कहते हैं। कभी-कभी जब क्रोध, आनंद तथा भय के भाव एक साथ नायिका में जाग्रत होते हैं और आनंद मूर्छा होती है तो ‘क्लिकिन्सिता हाव’ कहते हैं।
कभी-कभी नायिका अपने प्रेमी की बात में अपनी प्रशंसा सुनकर जमहाई या अंगड़ाई लेती है तो यह प्रेम की अभिव्यक्ति ‘मीत्राइत्या- हाव’ कहलाती है। जब नायिका प्रेमी के आगमन में अरुचि या बहाना दिखाती है और क्रोध और आवेश भरे शब्दों का प्रयोग करती हुई भी हृदय में प्रेमी के प्रति प्रेम भरे रहती है तो यह भावों का दिखावा ‘वियोक-हाद’ कहलाता है।
जब नायिका प्रेम के उन्माद में आकर अपनी सौम्यता भूल जाती है तो उसकी उत्तरोत्तर बढ़ती इच्छा ‘हेल हाय’ कहलाती है। जब नायक नायिका के लिए अपने भाव किसी चिन्ह से व्यक्त करता है तो ‘बोध भाव’ कहलाता है जैसे यदि प्रेमी प्रेमिका को अपने दुखी या मुरझाये हृदय की अवस्था को दिखाने के लिए मुरछाया कमल पुष्प भेंट करता है।
रस पारिपाक के लिए कांगड़ा के चित्रकार ने विभाव के आत्मवल तथा उद्दीपन दोनों पक्षों का सहारा लिया है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति उद्दीपन से होती है आकर्षक उदीपनों में चाँदनी, बादल, पुष्प सुगंध (सौरभ ), लाल तथा पीले रंग, संगीत, कोयल की कूक, पपीडे का स्वर, मधुमक्खियों का गुंजन आदि हैं जिससे आनंद उत्पन्न होता है।
मुद्रा या गति एक ऐसी हिलोर उत्पन्न करती है जिसे अनुभाव कहते हैं, इनमें शरीर की लचक, भृकुटियों के भाव के साथ कटाक्ष प्रमुख हैं।
गुलेर तथा कांगड़ा शैली के चित्रों में संयोग की विभिन्न स्थितियों को सुंदरता से चित्रित किया गया है। गुलेर शैली के एक चित्र में चाँदनी रात में कचनार के पुष्पित वृक्ष तथा केले के पीछे आधा चाँद निकला हुआ है और राजा दीवार पर बैठा हुआ रानी को ऊपर चढ़ा रहा है रानी बैठी हुई दासी या दूती के सिर पर पैर रखकर ऊपर पड़ रही है और छज्जे पर दूसरी रानी अर्द्धनग्न अपने बिस्तर पर बैठी है।
भवन के दूसरे खण्ड में सेविका राजा का विस्तर लगा रही है। इसी प्रकार अन्य चित्रों में राजा-रानी बाग में तकिये के सहारे बैठे आराम करते, मधुपान करते, केलि क्रीड़ा करते आदि संयोग की विभिन्न स्थितियों में दिखाये गए हैं। 1 अन्तःपुर की झाँकियौ कांगड़ा चित्रों की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
बारहमासा
नायिका भेद के अतिरिक्त चित्रकार ने ‘बारहमासा’ का अंकन सूक्ष्म दृष्टि से किया है। इसी प्रकार पडऋतुओं की पृष्ठभूमि में नायिकाओं का भावोद्दीपन अधिक सरल, सुलभ और सजीव हो गया है कलाकार की दृष्टि उल्लासपूर्ण फाल्गुन तथा क्षेत्र मास की पुष्पित तथा पल्लवित प्रकृति की बसंत शोभा में केन्द्रित हो गई है।
कचनार, सेमल, टेलू, ढाक, शीशम तथा पलाश आदि के पुष्पित वृक्षों, सरसों के खेत मंजरी से लदे रसाल (आम) वृक्ष, आदि चित्रकार ने बड़ी सुंदरता से अपने चित्रों में अंकित किए हैं।
इसी वसंत ऋतु में प्रेमियों की क्रीड़ा के लिए होली उत्सव भी आता है अनेक चित्रों में होली के उत्सव का अंकन किया गया है जिसमें अधिकांश ग्वाल-बालाओं को कृष्ण के ऊपर टेसू के रंग की वर्षा करते दिखाया गया है, साथ ही अबीर और गुलाल की वर्षा से गुलाली बादलों से वातावरण आच्छादित है।
बसंत के पश्चात् वैशाख, ज्येष्ठ तथा आषाढ़ मास के अन्तर्गत ग्रीष्म ऋतु आती है। इस ऋतु में गुलमोहर के वृक्ष पुष्पित होते हैं और उनमें लाल रंग प्रस्फुटित होता है। ताप के कारण गजराज (हाथी) तालाबों पर जल पीने के लिए निकल पड़ते हैं और तालाबों में अनेक जल क्रीड़ाएँ करते हैं।
प्रीष्म के तापमान के कारण सिंह अपनी कंदराओं में चले जाते हैं और सर्प आदि विवरों से बाहर निकल आते हैं। इस समय नायिका वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर अपने प्रेमी से प्रेमवार्ता करती है और इस संयोग अवस्था की नायिका के नीले वस्त्र पीले पुष्पों से आच्छादित अमलताश वृक्षों से विरोधी रंग स्थापित कर लेते हैं।
श्रावण तथा भाद्रपद (भावों) मास में वर्षा ऋतु की अनुपम प्राकृतिक छटा चित्रों में दृष्टिगोचर होती है श्याम घनों की घनघोर गर्जना, चपला की चमक तथा कृष्ण पक्ष की अंधकारपूर्ण रात्रि भयानक बन जाती है।
विरहणी नायिकाएँ अपने प्रियतम के वियोग में तड़पती हैं परन्तु यही वर्षा प्रेमियों की संयोगावस्था में एक आनंद बन जाती है। काले-काले बादलों में बगुलों की धवल पंक्तियाँ उड़ती दिखाई पड़ती हैं।
शरद ऋतु में आश्विन (क्वार) तथा कार्तिक मासों में ठण्डक हो जाती है तथा आकाश स्वच्छ हो जाता है। कार्तिक की रात्रि अपनी चाँदनी रात के लिए प्रसिद्ध है, इसी समय में नायिकाएँ अपने प्रियतम की खोज में बाहर निकलती है। इस ऋतु में सूर्यास्त का समय सुंदर होता है और आकाश संध्या के समय स्वर्णिम लालिमा से जगमगा उठता है।
हेमंत ऋतु का आगमन अग्रहायण (मागसर) मास में होता है। इस समय में ठण्डक बढ़ जाती है। शिशिर ऋतु पौष तथा माघ में होती है। इस समय में शीत की अधिकता हो जाती है, खेतों में पाला पड़ने लगता है।
इस ऋतु में हिमालय के उत्तुंग शिखरों पर हिमपात आरम्भ हो जाता है। इन छः ऋतुओं को मुख्य रूप से चार भार्गो-वसंत, ग्रीष्म, पतझड़ तथा शरद में बाँटा जा सकता है और इन चार भागों को तापमान के अनुसार दिन के चार प्रहरों-प्रातः, दोपहर, सूर्यास्त तथा रात्रि से तुलना की जा सकती है। कांगड़ा शैली के चित्रों में पडऋतु या बारहमासा पर आधारित चित्रों के अनेक सुंदर उदाहरण उपलब्ध हैं।
राग-रागनी चित्र
कांगड़ा शैली के चित्रकारों का विषेय क्षेत्र व्यापक है। नायक-नायिका भेद या वारहमासा ही चित्रकार की सीमा नहीं थे, बल्कि चित्रकार ने राग-रागनियों पर भी चित्र बनाये हैं। इस प्रकार के चित्र आज बहुत कम प्राप्त हैं। कांगड़ा शैली के चित्रों में ‘बिरड रागनी’ तथा ‘बसंत – राग’ के चित्र सुंदर हैं।
दरबारी तथा व्यक्ति चित्र
कांगड़ा का चित्रकार राजदरवार का एक सदस्य था अतः उसके चित्रों का प्रधान विषय दरबार के दृश्य तथा दरबारियों के व्यक्ति चित्र होना अनिवार्य था। इस प्रकार के दरबारी चित्रों में राजा संसारचंद के सुंदर चित्र प्राप्त हैं जिनमें राजा को चाँदनी रात्रि में गवैयों का गाना सुनते या दरबारियों के साथ बैठा दिखाया गया है। इन चित्रों के अतिरिक्त अनेक व्यक्ति चित्र और मुखाकृति चित्र भी बनाये गए।
यद्यपि चित्रकार का कांगड़ा राजदरबार से सम्बन्ध था परन्तु फिर भी उसकी सरल दृष्टि सामाजिक जीवन और जनसाधारण के जीवन की ओर से न हटी।
चित्रकार ने विभिन्न उत्सवों जैसे होली, गोवर्धन पूजा इत्यादि पर अनेकों चित्र प्रस्तुत किए हैं। इन चित्रों में चित्रकार ने लोक-भावना और सामाजिक जीवन का एक जीता-जागता रूप प्रस्तुत किया है।
चित्रकार ने लोक जीवन को कृष्ण के सामान्य लोक जीवन की ओट में प्रस्तुत किया है। कृष्ण का जीवन कृषक तथा ग्वालों के जीवन से सम्बद्ध है और इसी प्रकार चित्रकार ने साधारण लोक जीवन को कृष्ण की जीवन लीलाओं के द्वारा अभिव्यक्त किया है। इस प्रकार लोकपक्ष की झांकियां बहुत ही सरस और कोमल अभिव्यंजना बन गई हैं।
कांगड़ा शैली के चित्रों की विशेषताएँ
कांगड़ा शैली के चित्र लघु आकार के बनाये गए हैं। इन चित्रों की योजना, सपुञ्जन, भावात्मकता, सुंदरता, सरसता, कोमलता, छन्द और गति दर्शक को एक साथ ही मंत्रमुग्ध कर लेती है।
चित्रों की बारीक कारीगरी, स्वच्छता और मीने के समान चमकदार रंग तथा आकृतियों की गोलाई और डौल इस शैली को भारतवर्ष की सर्वोत्कृष्ट लघु चित्र शैली के स्तर पर पहुँचा देती है।
ये चित्र छोटे आकार में बने हैं और कागज़ पर बनाये गए हैं। कागज तथा हाशिया सियालकोटी कागज़ की अनेक तह चिपकाकर कागज़ को मोटा और चित्रण के लिए उपयुक्त बना लिया गया है।
कभी-कभी चित्रों के चारों ओर पतला हाशिया बनाया गया है, जिसमें सरल आलेखन भी बनाये गए हैं। कुछ चित्र उदाहरणों में बसोहली शैली के समान लाल पट्टियों का भी हाशिये के रूप में प्रयोग किया गया है, फिर भी अधिकांश चित्रों में पतले हाशिये बनाये गए हैं।
रूप तथा आकार
कांगड़ा शैली के चित्रों में वक्रीय आकारों को अपनाया गया है। और स्त्री तथा पुरुष दोनों के ही अंगों में यथोचित गोलाई तथा सुडौलता है। स्त्रियों के चेहरे, अंग-भंगिमाओं तथा हस्त मुद्राओं के बनाने में चित्रकार ने कमाल कर दिया है।
यौवन तथा लज्जा से पूर्ण नारी का गुलाबी चेहरा और उसके स्वस्थ अंग कलाकार ने स्मृति, कल्पना तथा नियमों की जकड़ के रहते हुए भी यथार्थ ढंग से अंकित किये हैं।
प्रायः मानवाकृतियों के नेत्रों को कमलाकार बनाया गया है और चिबुक गोल, पतले, गुलाबी अधर तथा लम्बी-सीधी नासिका बनायी गई है। चेहरे में गोलाई लाने के लिए। गरदन के पास तथा आँख के पास सुकोमल छाया का प्रयोग किया गया है।
कांगड़ा के चित्रकारों ने नेत्रों को भावपूर्ण और उल्लासपूर्ण बनाया है जिससे जीवन की सजीवता परिलक्षित होती है। स्त्रियों के सुकोमल, लहराते हुए श्याम केश कन्धों पर नागिन के समान लहराते पारदर्शी दुपट्टों में चमकते हुए दिखाये गए हैं। अधिकांश चित्रों के चेहरों को एकचश्म बनाया गया है तथापि डेढ़ चश्म चेहरों का प्रयोग भी किया गया है परन्तु उनमें रेखांकन की कुशलता और परिमार्जन नहीं है।
वस्त्र तथा आभूषण
कांगड़ा शैली के चित्रों में स्त्रियों को लहंगा, कांचुकी ( जिसमें कोहनी तक आस्तीनें हैं और सम्मुख भाग दो तनियों से बंधा है जिससे कुछ भाग खुला रहता है) पहने तथा पारदर्शी दुपट्टा या रेशमी आँचल ओढ़े हुए बनाया गया है।
स्त्रियों को कानों में कर्णफूल, कुण्डल, नाक में वेसरि, ग्रीवा में हार, कलाइयों में चूड़ियाँ, कड़े आदि, उंगलियों में अंगूठियाँ, माथे पर बेंदी, पैरों में पायल और भुजाओं पर भुजबंद पहने बनाया गया है कभी-कभी स्त्रियों को पेशवाज और रेशम का दुपट्टा पहने भी बनाया गया है।
पुरुषों का पहनावा सिर पर कलगीदार पगड़ी, शरीर पर जामा तथा नीचे चुस्त पाजामा (चूड़ीदार पाजामा) है। पुरुषों के कन्धे पर लटकता पटका और कमर में पेंची बनायी गई है जो मुगल परिधान के समान है। अनेक चित्रावलियों में कृष्ण को भी इसी मुगल वेशभूषा में बनाया गया है।
वास्तव में पहाड़ी राजाओं का मुगल दरबार से सम्बन्ध होने के कारण ही यह परिधान पहाड़ी राज्यों में प्रचलित हो गया था। परन्तु फिर भी कृष्ण को अनेक चित्र- उदाहरणों में पीली धोती पहने और सिर पर मयूरपंख युक्त सोने का मुकुट धारण किये हुए भी पूर्णतया भारतीय लोक परिधान में चित्रित किया गया है।
कृष्ण के गले में मोतियों की मालाएँ और भुजाओं में भुजबंद भी चित्रित किये गए हैं। ग्वाल-बाल तथा ग्रामीणजनों को प्रायः लंगोटी लगाये या छोटे जांधियों के समान वस्त्र पहने और सिर पर गोल टोपी लगाये अंकित किया गया है। कभी-कभी वर्षा के चित्रों में ग्रामीण तथा ग्वालों को काले कम्बल भी सिर से लटकाये बनाया गया है।
कपड़ों में सुंदर आलेखन भी बनाये गए हैं, विशेष रूप से कपड़ों के किनारों पर सुनहरी किनारी बनायी गई है। कांगड़ा शैली के चित्रों में कपड़ों की शिकनें, फहरन तथा मोड़ों को बहुत यथार्थता और कोमलता से बनाया गया है।
स्त्रियों के लहंगों के नीचे के किनारे लहरदार बने हैं और यह लहर पलटकर एक के ऊपर एक चढ़ी हुई बनायी गई है।
पशु तथा पक्षी कांगड़ा शैली के चित्र चाहे नायक-नायिका भेद पर आधारित हो या बारहमासा चित्रावली हो या राग-रागनी चित्र हों या कृष्ण जीवन से सम्बन्धित चित्र डों, सभी में चित्रकार ने पशु तथा पक्षियों को मानव-भावना के अनुकूल अंकित किया है।
वर्षा में बगुला, विरह में सारस या मोर, विरह-रागनी चित्र में मृग (काला हिरन ), नायिका को प्रेमी के आगमन का संदेश सुनाते हुए कौवे बत्तखों के जोड़े बहुत सजीव, यथार्थपूर्ण तथा भावपूर्ण हैं। कृष्ण के साथ अधिकांश चित्रों में गायों का अंकन किया गया है।
इन पशु-पक्षियों के चित्रण में मेवाड़ शैली जैसी चित्रण की निर्बलता नहीं है, बल्कि चित्रकार ने पशुओं को अनेक स्थितियों और आंगिक गतियों तथा शारीरिक रचनाओं में प्रस्तुत किया है। पैरों आदि के अंकन में चित्रकार ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है। पशुओं के चित्रण में सजीवता और गति सर्वत्र दिखाई पड़ती है।
गार्यो को अनेक स्थितियों जैसे दौड़ते हुए, कृष्ण की मुरली की ध्वनि की ओर गरदन उठाये विमोहित होते हुए और विश्राम करते हुए आदि अनेक अवस्थाओं में चित्रित किया गया है।
कांगड़ा शैली के चित्रों में गायें हरियाना जाति की हैं और इसी कारण गाय को इष्ट-पुष्ट और विशालकाय (बड़ी काठी वाला) बनाया गया है। गाय के अतिरिक्त चित्रकार ने हाथी के चित्रण में भी अपूर्व कुशलता का परिचय दिया है।
पशु-चित्रण में सबसे बड़ी बात यह है कि चित्रकार ने पशुओं में भी मानव जैसी भावना फेंक दी है और इसी कारण शोक में पशु तथा पक्षी विषादपूर्ण और आनंद में उल्लासपूर्ण अंकित किये गए हैं। विरहणी के पास मोर की जोड़ी उद्दीपन ही नहीं वरन् संयोग का भी एक सुंदर उदाहरण बन जाती है।
वनस्पति तथा प्रकृति
कांगड़ा के चित्रों में प्रकृति के प्रति एक गहन प्रेम प्रदर्शित किया गया है। प्रायः चित्रों की पृष्ठभूमि को मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से सजाया गया है। जिसमें व्यास नदी के क्षेत्र की भव्य वनस्पति और प्राकृतिक छटा विद्यमान है।
पहले बताया जा चुका है कि विभिन्न ऋतुओं का अंकन इन दृश्यों में किया गया है, जिनमें अनेक पुष्पित वृक्ष, झाड़ियाँ तथा घास के शस्य श्यामल मैदान अंकित किये गए हैं।
अधिकांश वृक्षों में पत्तियाँ बनाने के लिए गहरी रेखा का प्रयोग किया गया है जिनमें मुगल पद्धति का अनुसरण है, तथापि कभी-कभी राजपूत शैली के समान ही सफेद रंग के मिश्रण से बने हल्के रंग से गहरी पृष्ठभूमि के ऊपर पुष्प और पत्तियों को सुंदर आलेखनों की योजना में बद्ध किया गया है।
प्रायः पीपल, वट, बाँस, आम, जामुन, मंजनूं, केला, कचनार, अमलताश, गुलमोहर, शीशम, ढाक तथा पलाश आदि वृक्षों को बनाया गया है। प्रेमी और प्रेमिकाओं की संयोगावस्था में वृक्ष से लिपटी पुष्पित लतिकाओं को संयोग के प्रतीक स्वरूप अंकित किया गया है।
तालाबों को कमल तथा कुमुद पुष्पों से युक्त अंकित किया गया है। नदी में जल का प्रवाह प्रदर्शित करने के लिए लहरदार या चक्रीय रेखाओं को बारीकी तथा कोमलता से बनाया गया है।
भवन
कांगड़ा शैली के चित्रों में भवनों का अंकन बहुत भव्य और कलापूर्ण है। विशेष रूप से भवनों की शैली अकबर और जहाँगीरकालीन मुगल भवन शैली है। भवनों को सफेद रंग से बनाया गया है जिनके स्तम्भ सुंदर आलेखनों से पूर्ण हैं। मीनारों पर प्रायः गुम्बद और छज्जों में जालियाँ बनायी गई है।
बरामदों को मेहरावदार और सीधे घनाकार ठोस पत्थर की शिला (बीम) या लकड़ी के बीम के प्रयोग से बनाया गया है। दीवारों में प्रायः ताख या आले बनाये गए हैं। दरवाजों तथा बरामदों में लटकते हुए कामदार पर्दे और फर्श पर बिछे हुए सुंदर कालीन बनाये गए हैं।
रंग तथा परिप्रेक्ष्य
कांगडा शैली के चित्रों में दाष्टिक परिप्रेक्ष्य नहीं है। चित्रकार ने अपने आलेखन और चित्रयोजना को कल्पना के आधार पर बनाया है और उसने परिप्रेक्ष्य के प्रयोग से इनकी विकृति नहीं होने दी है, परन्तु इस कमी को उसने चमकदार रंग और कोमल रेखांकन से पूरा कर दिया है।
कांगड़ा के चित्रकार ने अमिश्रित रंग जैसे लाल, पीले तथा नीले रंगों का प्रयोग किया है, जो आज भी उसी प्रकार चमकदार बने हुए मिश्रित तथा हल्के रंगों में चित्रकार ने गुलाबी, बैंगनी, हरा फाखतई तथा हल्के नीले रंग का प्रयोग किया है। हल्के रंगों के अधिक प्रयोग से चित्रों में ओज और कोमलता की अत्यधिक वृद्धि हो गई है।
भवनों के सफेद रंग में अधिकांश अभ्रकी सफेद रंग का प्रयोग किया गया है। स्त्रियों के परिधान में अल्जेरियन क्रमजन का प्रयोग किया गया है जो अन्यत्र चित्रों में प्रयोग नहीं किया गया है।
बहुत से अपूर्ण रेखाचित्र या चरवे चित्रकारों के संग्रह में नवीन चित्रों के निर्माण के लिए सुरक्षित रखे रहते थे इन अपूर्ण चित्रों पर रंगों के नाम भी अंकित रहते थे। इस प्रकार के अनेक अपूर्ण चित्रों के उदाहरण प्राप्त हैं जिनसे चित्रों में प्रयुक्त रंगों के नाम ज्ञात हो सकते हैं। हैं।
रेखांकन
कांगड़ा शैली के चित्रों को भूरे सियालकोटी कागज़ पर बनाया गया है। चित्रकार ने भूरे सियालकोटी कागज़ पर हल्के लाल रंग से तुलिका के द्वारा पहले रेखांकन किया है। इन रेखाचित्रों को ऊपर से सफेद रंग से सपाट और पारदर्शी ढंग से पोत दिया गया है।
इस सफेद रंग के सपाट प्रयोग के पश्चात् कागज़ को घोटकर चिकना कर लिया जाता था और तब पुनः चित्र की सीमा रेखाओं को भूरे या काले रंग से उभार दिया जाता था।
तत्पश्चात् पृष्ठभूमि और आकृतियों में रंग डाल दिये जाते थे। इन रंगों के पश्चात् पुनः रेखाओं को उभार दिया जाता था। प्रायः उस्ताद या गुरु चित्रकार के रेखांकन कर देने के पश्चात् अभ्यासी चित्रकार (शिष्य) या साधारण चित्रकार भी चित्र में रंग लगा देते थे।
रेखा
कांगड़ा शैली के चित्रों की शैली की प्रमुख विशेषता रेखा की कोमलता, रंगों की चमक तथा आलंकारिक विवरणों की सूक्ष्मता है। अजन्ता की कला के समान कांगड़ा की कला भी विशेष रूप से रेखा की कला है।
आनंद कुमारस्वामी ने कांगड़ा शैली में शक्तिशाली वक्रीय सीमारेखा को चित्र की भाषा का आधार माना है। वास्तव में रेखा की कोमलता प्राप्त करने के लिए कलाकार ने गिलहरी के बालों की बनी तूलिका का प्रयोग किया है। ये तुलिकाएँ बकरी तथा नेवले के बालों से भी बनायी जाती थीं।
छन्द
कांगड़ शैली के चित्रकार का प्रधान विषय प्रेम है और प्रेम के विभिन्न भावों का इस शैली में छन्दमय, काव्यमय और चित्रात्मक रूप से अंकन किया गया है। चित्रण की कोमलता से चित्रों में और भी अधिक रोचकता आ गई है।
आनन्द कुमारस्वामी के शब्दों में- “चीनी कला ने दृश्य चित्रण में छन्द की जो उपलब्धियों की है वह यहाँ पर मानव प्रेम में है।”
सोने तथा चाँदी के रंग
कांगड़ा शैली के चित्रों में सोने और चाँदी के रंगों के प्रयोग से चित्र में अधिक ओज बढ़ गया है। आभूषणों, कपड़ों के किनारे, वस्त्रों की बेल-बूटियाँ, भवन का साज-सामान जैसे हुक्का, गडुआ, सिल्फची, तश्तरियाँ और गुलाबपाश (गुलाब जल छिड़कने का पात्र) आदि सोने के रंग से बनाये गए हैं और प्रकोष्ठों के आलों या फर्श पर यह साज-सामान संजोया गया है।
कभी-कभी चाँदनी रात्रि या दामिनी के प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए सोने या चाँदी के रंग का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार जल का प्रभाव उत्पन्न करने के लिए भी चाँदी के रंग की पृष्ठभूमि तैयार की गई है। अनेक चित्रों में रात्रि का प्रकाश चाँदी के रंग से दिखाया गया है।
रात्रि दृश्यों में चित्रकार ने दो प्रकार के प्रकाश-जैसे चाँदनी और अग्नि के प्रकाश को बड़ी सफलता से दिखाया है। वाद्य यंत्र- कांगड़ा के चित्रों में कृष्ण की बांसुरी के अतिरिक्त तम्बूर, ढोलक, मृदंग, मंजीरा, वीणा तथा सितार आदि अनेक वाद्य यंत्र बनाये गए मानव आत्मा-कांगड़ा के इन शृंगारिक चित्रों में भावना की अत्यधिक तीव्रता है। हिमालय की तराई के बीहड़ भयानक जंगलों में निरंतर युद्ध के कारण ही नहीं बल्कि हैं।
भयानक पशु और विषाक्त जीवों के कारण भी जीवन संकटमय और भयपूर्ण था और सदेव मृत्यु का भय बना रहता था। ऐसी परिस्थिति में जब पुरुष कुशलतापूर्वक घर वापस आ जाते थे तो स्त्रियों को असीम आहलाद होता था और मार्ग में मृत्यु की आशंका रहते उनका मिलन और भी उन्मादक होता था। यह मानवी उन्माद आत्मा और परमात्मा के प्रेम का प्रतीक बन गया है।
कांगड़ा के चित्र कलाकार की तूलिका से रेखा की कोमलता, लयात्मकता और प्रवाह, रंगों की मीनाकारी जैसी चमक, विवरणों की सूक्ष्मता और मानव प्रेम की गहनता तथा स्निग्ध कल्पना निर्झरणी को प्राप्त कर एक पवित्र और उज्ज्वल कलाकृति बन गए हैं।
कुल्लू की चित्रकला | कुल्लू शैली
कुल्लू के कला संरक्षक राजा-सर्वप्रथम कुल्लू की कला का उल्लेख जे० सी० फ्रेंच ने अपनी पुस्तक ‘हिमालयन आर्ट’ में दिया। कुल्लू में बसोहली शैली शीघ्र पहुँच गई, परन्तु स्थानीय प्रभाव के कारण अपनी निजी विशेषताएँ लेकर कालान्तर में प्रस्फुटित हुई। कुल्लू शैली के अनेक चित्र पंजाब संग्रहालय पटियाला में सुरक्षित हैं।
सम्भवतः राजा मानसिंह (१६८८-१७१८ ई०) के राज्यकाल में बसोहली से चित्रकार कुल्लू आकर बसे। वास्तव में कुल्लू का राजा जगतसिंह वैष्णव सम्प्रदाय का अनुयायी था और उसने वैष्णव धर्म को कुल्लू में प्रोत्साहन दिया। उसके पश्चात् राजा जयसिंह ( १७३१-१७४२ ई०) तथा राजा टेडीसिंह (१७४२-१७६७ ई०) के समय में यह शैली सुचारु रूप से चलती रही।
१७५० ई० से १७६० ईसवी के बीच जबकि समस्त पहाड़ी राज्यों ने कांगड़ा शैली अपनाली थी तो भी कुल्लू में बसोहली शैली उसी प्रकार चलती रही और राजा प्रीतमसिंह (१७६७-१८०६ ई०) के समय में ही कांगड़ा शैली का कुल्लू में प्रवेश हुआ।
कुल्लू की राजधानी सुल्तानपुर के अपने महल में राजा प्रीतमसिंह ने भित्तचित्र बनवाये जिनमें रामायण आदि विषयों पर भी चित्र बनाये गए थे। इस महल में राजा प्रीतमसिंह के पुत्र युवराज विक्रमसिंह (१८०६ – १८१६ ई०) का भी व्यक्ति-चित्र बनाया गया था। ललित कला अकादमी ने इस महल के भित्तिचित्रों की प्रतिलिपियाँ तैयार कर ली हैं।
कुल्लू का प्राचीन नाम कुलाटा था इस शैली का प्रारम्भ १७५० ई० के लगभग हुआ। कुल्लू की राजधानी सुल्तानपुर में राजा प्रीतमसिंह (१७६७-१८०६ ई०) के राज्यकाल में कुल्लू में चित्रकला का एक प्रगतिशील केन्द्र बन चुका था और अनेक पहाड़ी राज्यों के चित्रकार इस समय में कुल्लू पहुंचे इन चित्रकारों ने कुल्लू में लघुचित्र बनाये और सुल्तानपुर के महल में चित्रकारी का कार्य भी किया।
चित्रों का विषय
कुल्लू के चित्रों के विषय सामान्यता अन्य पहाड़ी राज्यों के समान धार्मिक हैं या व्यक्ति-चित्रों का निर्माण किया गया। कुल्लू के चित्र तीन वर्गों के अन्तर्गत रखे जा सकते हैं जो इस प्रकार हैं
- (१) कुल्लू के दरबारी संरक्षण में बने चित्र
- (२) कुल्लू के लोकचित्र
- (३) कुल्लू के भित्तिचित्र
कुल्लू के चित्रों की विशेषताएँ
कुल्लू शैली के चित्रों की आकृतियों का भारी चेहरा और पुष्ट या भारी चिबुक, विशाल नेत्र तथा आकृतियों में अबोधता की भावना के कारण ये चित्र सरलता से पहचाने जा सकते हैं। कुल्लू शैली की कुछ विशेषताएँ प्रमुख है जो निम्न हैं
- (१) इन चित्रों में स्त्रियों की चोली कमर तक बनायी गई है। इस चोली में झालर का भी प्रयोग है और आगे की ओर कोणाकार झालर बनायी गई है। गई हैं।
- (२) स्त्रियों की वक्षस्थली (उरस्थली या छाती) सपाट और भारी बनायी
- (३) पुरुषों के धड़ सिर की तुलना में बड़े और अत्यधिक हृष्ट-पुष्ट बनाये गए हैं।
- (4) स्त्रियों के सिर छोटे पतले और अण्डाकार बनाये गए हैं।
- (५) स्त्रियों को अधिकांश पेशवाज़ पहने अंकित किया गया है।
- (६) कुल्लू शैली के चित्रों में मंजनूं (Billow) के वृक्ष का प्रयोग अधिक है।
- (७) चित्रों के हाशिए लाल, पीली या मटवाले रंग की पट्टी से बनाये गए हैं।
मण्डी की चित्रकला(मण्डी शैली)
कुल्लू के समीप स्थित मण्डी राज्य में सत्रहवीं शताब्दी के चित्र प्राप्त हुए हैं। जे०सी० फ्रेंच ने ‘हिमालयन आर्ट’ में मण्डी के राजा सिद्धसेन का चित्र प्रकाशित किया है। सिद्धसेन (१६८६-१७२२ ई०) का चित्र बसोहली शैली का है। इस चित्र में सिद्धसेन को अधेड़ावस्था में भीमकाय शरीर वाला दर्शाया गया है जिससे यह चित्र १६६० ई० के पश्चात् ही बना होगा।
मण्डी में बसोहली शैली का प्रभाव शीघ्र आ गया था। कालान्तर में राजा ईश्वरीसेन (१७८८-१८२६ ई०) के समय में कांगड़ा शैली का प्रभाव मण्डी की चित्रकला पर पड़ा। कांगड़ा का चित्रकार सजनू, जिसके बारे में पहले बताया जा चुका है, मण्डी के राजा ईश्वरीसेन की सेवा में लगभग १८०६-१८१० ई० के बीच में आ गया था।
उसने इस राजा को हमीरहठ पर आधारित एक चित्रमाला भेंट की थी। मण्डी शैली की सचित्र रामायण की एक प्रति राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है जो कपूरगिरि नामक चित्रकार के द्वारा चित्रित की गई है।
१८२६ ई० में मण्डी के राजा जालिमसेन ने जाल्पा और टेरना में काली के मंदिरों में भित्तिचित्रों का निर्माण करवाया। बीसवीं शताब्दी के आरम्भ तक मण्डी में धार्मिक चित्र बनाये गए। १८४६ ई० में मण्डी पूर्णरूपेण अंग्रेजी शासन में आ गया और पाश्चात्य ढंग पर चित्र बनाये जाने लगे, यद्यपि भित्तिचित्रों में मण्डी की परम्परागत चित्रकला चलती रही।
राजा बलवीरसेन के समय में मुहम्मदी (मुहम्मदबख्श) चित्रकार प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। दौलत तथा मुहम्मदी ने वजीर के महल में भित्तिचित्र बनाये जो आज भी सुरक्षित हैं।
जम्मू की चित्रकला (जम्मू शैली)
जम्मू की स्थिति तथा महत्त्व
जम्मू राज्य गुलेर से १०० मील उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित था। यहाँ की कला का अध्ययन करना एक जटिल समस्या है। जम्मू राज्य की स्थापना मध्यकाल में हुई और पन्द्रहवीं शताब्दी तक यह राज्य शक्ति सम्पन्न हो गया। जम्मू राज्य सोलहवीं शताब्दी में उत्तरी पहाड़ियों में सबसे बड़ा राज्य बन गया था।
अट्ठारहवीं शताब्दी में जम्मू के राजा ध्रुवदेवासिंह (१७०३-१७३५ ई०) ने राज्य विस्तार किया और उसके उत्तराधिकारी राजा रनजीतदेव (१७३५-१७६१ ई०) ने भी राज्य विस्तार की नीति को सफलतापूर्वक अपनाया और १७५० ई० तक राज्य की सीमा चिनाव और रावी के बीच विस्तीर्ण क्षेत्र पर स्थापित हो चुकी थी और जम्मू की राजसत्ता का प्रभाव खिस्तवाड़, भाद्रवाह, मनकोट, बन्धलता, बसोहली तथा जसरौटा आदि राज्यों पर स्थापित हो गया था।
इस राज्य ने मुगलों के विरुद्ध अफगानों से मिलकर १७४८ ई० में अपनी स्वतंत्रता सुरक्षित रखी और १७५२ ई० में मुगलों की शक्ति समाप्त होने तक रनजीतदेव नाममात्र को ही दिल्ली से सम्बन्ध बनाए रहा।
इस समय में मैदानी भागों में अनेक विप्लव तथा युद्ध हुए, और इस संकटकालीन स्थिति में जम्मू नगर की समृद्धि और अधिक बढ़ गई क्योंकि मुगलों ने ही नहीं वरन् धनी वणिकों ने भी सुरक्षा हेतु जम्मू में शरण प्राप्त की।
सिक्खों की शक्ति के उदय से जम्मू को पर्याप्त धक्का लगा और राजा रनजीतदेव को सिक्ख शक्ति के सम्मुख झुकना पड़ा और उसने जम्मू राज्य से सिक्खों को कर देना स्वीकार कर लिया।
राजा रनजीतदेव के पुत्र राजा ब्रजराजदेव ने सिक्खों के विरुद्ध विद्रोह भी किया और इस समय तक जम्मू राज्य की महत्ता बनी रही, परन्तु ब्रजराजदेव के उत्तराधिकारी के साथ ही यह यश धूमिल पड़ने लगा।
जम्मू शैली तथा चित्र
जम्मू की राजनीतिक परिस्थितियों के आधार पर यह सोचना संगत प्रतीत होता है कि अट्ठारहवीं शताब्दी में जम्मू में चित्रण की कोई शैली अवश्य वर्तमान थी या चित्राकृतियों का निर्माण हो रहा था। जम्मू राज्य का मैदानी क्षेत्र से सम्बन्ध तथा उसकी आर्थिक स्थिति में समृद्धि आने के कारण यह सम्भव प्रतीत होता है कि यदि जम्मू के स्थानीय चित्रकारों का उदय नहीं हुआ था तो अनेक बाहरी राज्यों के चित्रकार जम्मू राज्य के वैभव से आकर्षित होकर आश्रय तथा संरक्षण प्राप्त करने के दृष्टिकोण से जम्मू आये होंगे।
डब्ल्यू० जी० आर्चर के अनुसार- “जम्मू में जो आरम्भिक चित्र प्राप्त हुए हैं वह सब बसोहली शैली के हैं अतः जम्मू के चित्रों के विषय में जानना आवश्यक है। अभी तक लिखित प्रमाणों सहित जम्मू शैली की कोई कलाकृति प्रकाशित नहीं हुई है और जो चित्र आनन्द कुमारस्वामी ने जम्मू के बताए हैं वे बसोहली के माने गए हैं।”
जम्मू के आरम्भिक चित्रों में कुछ अन्तःपुर के दृश्यों के चित्र उदाहरण प्राप्त होते हैं और चित्रों में एक ही व्यक्ति कई कार्यक्रमों में व्यस्त दिखाया गया है। इस प्रकार के चार चित्र उदाहरण जो राजा ध्रुवदेव के चतुर्थ पुत्र राजा बलवंतदेव (बलवंतसिंह) से सम्बन्धित हैं।
आर्चर महोदय ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन पेंटिंग इन दी पंजाब हिल्स’ (चित्र फलक ३६, ३७, ३८, ३६) में प्रकाशित किये हैं। इनमें से प्रथम चित्र में राजा बलवंतदेव को दरबारियों के मध्य बैठा हुक्का पीते दिखाया गया है। इस चित्र में एक घोड़ा भी बनाया गया है जो राजा बलवंतदेव के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है। द्वितीय चित्र में इसी राजा को प्रार्थना करते अंकित किया गया है।
तृतीय चित्र में एक चित्रकार राजा को एक चित्र भेंट करते हुए अंकित किया गया है। इस चित्र की पीठिका पर ‘राजा बलवंतदेव’ लिखा है। चतुर्थ चित्र में स्पष्ट रूप से दो कागज़ों के टुकड़ों को चिपकाया गया है इस चित्र के बाएँ भाग में शामियाने में राजा क्षेत्र के नीचे अपने सिंहासन पर विराजमान है और दाएँ भाग में लड़कों तथा पुरुषों का एक दल राजा के सम्मुख कत्थक नृत्य कर रहा है। इस दल के पीछे बैठे गवैये भी अंकित किये गए हैं।
इन चारों चित्रों में चित्रण शैली एक ही है और किसी में भी देवनागरी लिपि के लेख नहीं हैं। अनुमानतः ये चित्र किसी दरबारी चित्रकार ने बनाए हैं जो दरवार तथा अन्तःपुर से सुपरिचित था। इन चित्रों में राजा शब्द का प्रयोग भी मिलता है जिससे यह निश्चित किया जा सकता है कि अट्ठारहवीं शताब्दी में जम्मू में इस प्रकार के चित्रों की शैली वर्तमान थी।
इन चित्रों के अतिरिक्त एक अन्य चित्र में टाकरी लिपि में लेख प्राप्त होता है। इस लेख के अनुसार इस चित्र की रचना १७४८ ई० (विक्रम सम्वत् १८०५) में हुई (चित्र संख्या ३५- इंडियन पेंटिंग इन दी पंजाब हिल्सले डब्ल्यू० जी० आर्चर में प्रकाशित) । इस लेख के आधार पर इस चित्र को ‘महाराजा श्री बलवंतसिंह’ का चित्र बताया गया है।
लेख से ऐसा प्रतीत होता है कि नैनसुख ने इस चित्र को तीन दिन में तैयार किया था। इस चित्र में राजा को संगीतकारों के दल के साथ अंकित किया गया है और इस चित्र की शैली भी उपरोक्त चार चित्रों जैसी ही है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह चार चित्र भी नेनसुख नामक चित्रकार की कृतियाँ हैं और नैनसुख ने जम्मू के दरबार में रहकर चित्र बनाए।
इसी प्रकार के दो अन्य चित्र प्राप्त हैं जिनमें से एक ‘दी आर्ट ऑफ इंडिया एण्ड पाकिस्तान’ ले० बेसिल (फलक ११७ में प्रकाशित हुआ है।) इस चित्र की शैली भी उपरोक्त चित्रों से मिलती-जुलती है। दूसरे चित्र में एक पहाड़ी राजा खुले मैदान में शिकार के लिए जा रहा है।
इस चित्र की शैली भी पहले चित्र के समान ही है। एक अन्य चित्र जिसमें मियाँ मुकुन्ददेव का अंकन किया गया है, प्राप्त है। यह चित्र सम्भवतः किसी अन्य राजा या कला प्रेमी के लिए बनाया गया है। इस चित्र की शैली सर्वथा भिन्न है, परन्तु केवल कुछ पीछे खड़े सेवकों में नैनसुख के चित्र की आकृतियों से कुछ समानता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि नैनसुख की आरम्भिक शैली अपनी निजी विशेषता ग्रहण करने लगती है। आर्चर महोदय ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन पेंटिंग इन दी पंजाब हिल्स’ में लगभग सोलह ऐसे चित्र प्रकाशित किए हैं जो जम्मू में बनाये गए हैं और इनकी शैली पूर्णतया जम्मू की अपनी निजी अर्जित शैली है।
इस विकसित शैली में गुलेर तथा कांगड़ा शैली या बसोहली शैली से कोई भी समानता प्रतीत नहीं होती है परन्तु फिर भी इसमें बसोहली की सपाट रंग योजना और गुलेर की प्रवाहपूर्ण रेखा की गति अवश्य दिखाई पड़ती है। निश्चित रूप से नैनसुख के पश्चात् जम्मू शैली का एक अपना कला संस्थान स्थापित हो गया।
इस शैली .. के चित्रों की आकृतियों, मुद्राओं, रेखांकन तथा लम्बे जामों में नैनसुख की शैली का रिक्थ विद्यमान है परन्तु दूसरी ओर चित्रों की आकृतियों में गोलाई, बारीकी और कोमलता कम हो जाती है और सपाट चटक, चमकदार विरोधी रंग, सशक्त रेखा प्रवाह तथा सपाट पृष्ठभूमि दिखाई पड़ने लगती है।
इस प्रकार की शैली के अनेक चित्र प्राप्त हैं जिनमें ब्रजराज देव (जम्मू), मियाँ टिढ़ीमिघालू बोटिया (जम्मू), मियाँ कैलाशवती बन्दाल (जम्मू), मियों व्रजदेव दरबारियों और नर्तकियों के साथ चम्बा के राजा उजागरसिंह का परिचारिकाओं के साथ तथा बच्चों के साथ चित्र तथा वहादुरसिंह आदि के चित्र प्राप्त हैं।
इस प्रकार की जम्मू की एक निश्चित शैली १७५० ई० तक निश्चित रूप से विकसित हो गई थी और १७५० ई० से ही गुलेर के समान इस शैली में अनेक रोमानी या शृंगारिक विषयों का भी प्रचलन होने लगा था। इस प्रकार के उदाहरणों में ‘विरहणी मृग के साथ’, ‘राधा-कृष्ण’, तथा ‘स्त्री भजन सुनाते हुए’ आदि चित्र प्राप्त हैं।
जम्मू के चित्रकारों ने अन्य राज्यों के राजाओं के व्यक्ति चित्र भी बनाये, जिनमें राजा घमंडचंद (कांगड़ा) तथा राजा संसारचंद (कांगड़ा) के अनेक चित्र उपलब्ध हैं।
राजा संसारचंद को सिक्खों के साथ चित्रित किया गया है, जिससे अनुमान होता है कि राजा को चित्रकारों ने रनजीतसिंह के दरबार में देखा होगा परन्तु शीघ्र ही इन चित्रों में सिक्ख प्रभाव आने लगा और चित्रों की लिखाई में विकृति झलकने लगी।
इस समय तक सिक्ख शासकों के दरबारी चित्रकार कांगड़ा शैली अपना चुके थे और इसी समय कांगड़ा शैली का जम्मू की कला पर भी प्रभाव पड़ा।
जम्मू शैली के चित्रों की विशेषताएँ
जम्मू शैली के वास्तविक चित्र नैनसुख के पश्चात् के मानना चाहिए क्योंकि नैनसुख की शैली मुगल है। अतः नैनसुख से परवर्ती चित्रों के आधार पर चित्रों की विशेषताओं का सूक्ष्म अवलोकन करना उचित होगा।
मानव आकृतियाँ
जम्मू शैली के चित्रों की मानव आकृतियाँ बसोहली शैली या चम्बा शैली की आकृतियों से मिलती-जुलती है, परन्तु उनमें बसोहली शैली जैसा नुकीलापन लिये कोणोत्तर आकारों को ग्रहण नहीं किया गया है और चित्रकार ने आकारों की गोलाई को महत्त्व प्रदान किया है। सेवकों को राजा से आकार में छोटा बनाया गया है और सामान्यता आकृतियाँ हृष्ट-पुष्ट हैं।
इन चित्रों की मानव आकृतियों में गठनशीलता, उभार और गोलाई को दिखाने के लिये छाया का प्रयोग नहीं किया गया है बल्कि सपाट रंगों से ही आकृतियों को संजोया गया है। प्रायः चित्रों की पृष्ठभूमि भी सपाट रंग से बनायी गई है।
रंग तथा रेखा
जम्मू शैली के चित्रों में बसोहली के समान सपाट और विरोधी रंगों का प्रयोग चित्रों की एक विशेषता है। वृक्षों तथा पशु-पक्षियों का अंकन भी बसोहली जैसा ही है। चित्रों की सीमारेखा प्रवाहपूर्ण, बलवती और छन्दमय है।
वेशभूषा – पुरुष आकृतियों को टखनों तक लम्बा जामा तथा पगड़ी लगाए बनाया गया है, स्त्रियों का पहनाया लहंगा, पोली और पारदर्शी ओढ़नी है कपड़ों इत्यादि में सुंदर आलेखन बनाये गए हैं परन्तु भवन मुगल शैली के हैं।
पुञ्छ की चित्रकला (पुच्छ शैली)
पृष्ठ की स्थिति तथा इतिहास-पूञ्छ एक छोटा सा राज्य था जो जम्मू से सुदूर उत्तर-पश्चिम में स्थित था। इस राज्य का पड़ोसी राज्य कश्मीर था। सत्रहवीं शताब्दी में मुगल सम्राटों का दरबार जब कश्मीर में लगता था तो मुगलों के शाही काफिले इसी छोटे राज्य के मार्ग से होकर अपनी यात्रा करते थे।
पूज्छ में अन्य पहाड़ी राज्यों के विपरीत पन्द्रहवीं शताब्दी में ही शासक परिवार मुसलमान था, क्योंकि इस राज्य के एक हिन्दू शासक ने, जो जोधपुर के राठौरवंश का राजपूत था, इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। सिक्ख शक्ति के उदय के साथ ही उथल-पुथल आरम्भ हो गई और सिक्खों ने १८१३ ईसवी में पूज्छ राज्य को छीन लिया और इस प्रकार पुनः हिन्दू राज व्यवस्था स्थापित हुई।
लगभग १८४४ ईसवी तक सिक्ख राजा गुलाबसिंह पूञ्छ में न रह सका और सिक्ख शासकों में सर्वप्रथम मोतीसिंह (१८८६-१८६७ ई०) ने ही पूञ्छ को महत्त्व प्रदान किया। इसी प्रकार मुसलमान राज्य का स्थान पुनः हिन्दू राज्य ने ग्रहण कर लिया परन्तु इस समय तक पूञ्छ के अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में इस्लाम धर्म का प्रचार हो चुका था और जनता मुसलमान धर्म ग्रहण कर चुकी थी जबकि शासक वर्ग हिन्दू आ गया।
पूछ के चित्र जे० सी० फ्रेंच ने १६२२ ई० में पूञ्छ यात्रा के समय कुछ भित्तिचित्र राजा के अन्तःपुर के महल की दीवारों पर कांगड़ा शैली में बने पाये थे, जो राधा तथा कृष्ण के प्रेम-विषयों पर आधारित थे। इन चित्रों की शैली विशिष्ट थी। उनके विचारानुसार ‘ये चित्र १८२० के बाद के हैं।
परन्तु फ्रेंच महोदय इन चित्रों के छाया चित्र नहीं ले सके अतः अब इन चित्रों का अनुमान लगाना कठिन है और इन चित्रों की विशेषताओं का उल्लेख नहीं किया जा सकता। परन्तु फिर भी फ्रेंच महोदय की सूक्ष्म दृष्टि के आधार पर यह निश्चय किया जा सकता है कि उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भ में इस पिछड़े हुए क्षेत्र में दक्षिणी पहाड़ी राज्यों से कला पहुँची।
पूछ की चित्रकला के आरम्भिक चित्र
उदाहरणों में से प्राप्त चार सेंट्रल म्युजियम लाहोर (पाकिस्तान) में हैं ये चित्र पूज्छ में प्राप्त हुए थे इन चित्रों में १७५५ ई० की गुलेर शैली से अधिक समानता है।
गुलेर के चित्रकार कांगड़ा और चम्बा राज्य में लगभग १७७५-१७८० ई० के मध्य राजाश्रय प्राप्त करने के लिए पहुँचे, परन्तु सम्भवतः कुछ चित्रकार इससे पूर्व ही लगभग १७७० ई० के समय में सुदूर उत्तर-पश्चिम की ओर गये और इसी समय कुछ चित्रकार चम्बा में पहुँचे।
परन्तु पूञ्छ में प्राप्त चित्र
उदाहरणों से प्रतीत होता है कि लगभग १७६० ई० के पश्चात् गुलेर शैली का एक चित्रकार पूञ्छ में बस गया था और उसने यहाँ की स्थानीय चित्रशैली को प्रभावित किया।”
पूञ्छ शैली पर गुलेर का प्रभाव
गुलेर शैली का प्रभाव लाहौर संग्रह के तीन अन्य चित्रों में भी दिखाई पड़ता है। आर्चर महोदय ने इसी प्रकार की शैली विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट म्युजियम के चित्रों में पाई।” इन चित्रों में शृंगारिक विषय, शारीरिक सौन्दर्य, भवन, प्रकृति और चित्र – विधान में गुलेर शैली से समानता हैं। परन्तु पूञ्छ के चित्रों में भृकुटियाँ अधिक वक्रीय आकार लिये हैं, नाक-नक्शा अधिक सुंदर और नाक लम्बी है। स्त्री आकृतियाँ लम्बी होते हुए भी गुलेर शैली के समान है।
विक्टोरिया एण्ड अल्बर्ट म्युजियम के चित्रों में आकाश कालापन लिये भूरे रंग से बनाया गया है तथा मैदानी और पहाड़ी प्रदेशों के बनाने में चमकदार सफेद और समूर रंग का प्रयोग किया गया है। यद्यपि पूञ्छ के चित्रों में गुलेर शैली का प्रभाव दिखाई पड़ता है परन्तु फिर भी पूञ्छ में प्रचलित स्थानीय शैली की कुछ अपनी विशेषताएं भी चित्रों में बनी रहीं।
पुञ्छ की स्थानीयता
पूञ्छ शैली की स्थानीय विशेषताएँ यत्र-तत्र चित्रों में बिखरी दिखाई पड़ती हैं। एक प्रमुख विशेषता यह है कि कुछ चित्रों में स्त्री सेविकाओं को एक ऊँची टोपी लगाये हुए अंकित किया गया है, जिससे ये चित्र मुसलमान परम्परा के द्योतक प्रतीत होते हैं।
एक चित्र में मुसलमान चित्रकार का फारसी भाषा में लेख ‘जमील मुसव्विर’ अंकित है। इस प्रकार के मुसलमान चित्रकारों के लेख अन्य पहाड़ी राज्यों के चित्रों में प्राप्त नहीं होते।
सम्भवतः पूञ्छ में मुसलमान राज्य होने के कारण यहाँ पर चित्रों में इस प्रकार के लेख दिखाई पड़ते हैं परन्तु इन चित्रों से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पूञ्छ राज्य में १७७५ ई० तक अवश्य ही एक उन्नत शैली में चित्र बन रहे थे और पूञ्छ राज्य की शैली पूर्णतया अपना निजी रूप ग्रहण कर चुकी थी।
श्री आर्चर ने इस शैली के कई चित्र प्रकाशित किये हैं जो १७५० ई० और १७८१ ई० के मध्य के हैं और निश्चित रूप से पूछ शैली के हैं। इन चित्रों में दरबार, नाच और देवियों, संतों तथा नायिका भेद पर आधारित विषयों का चयन किया गया है।
पूञ्छ की चित्रकला के उदाहरण अभी तक किसी संग्रह में नहीं पहुँच सके हैं और अधिकांश चित्र स्थानीय महलों, दफ्तरों आदि में ही हैं, इस कारण पूञ्छ की कला का ज्ञान अभी अपूर्ण है।
पूञ्छ की चित्रकला की विशेषताएँ
पूञ्छ चित्रकला को कांगड़ा या गुलेर शैली की ‘उत्तराधिकारणी मानना अधिक संगत न होगा क्योंकि स्पष्ट रूप से उसकी अपनी विशेषताएं चित्रों में परिलक्षित होती है।
पूछ शैली के चित्रों में स्त्रियों को लम्बा तथा छरहरे शरीर वाला बनाया गया था और उनके सिर गोल तथा मस्तक ऊँचे हैं। स्त्री आकृतियों की नाक लम्बी तथा पतली है।
मुद्राएँ और भंगिमाएँ ओजपूर्ण हैं, नेत्रों को दपलाकार और उल्लासपूर्ण तथा चमकदार बनाया गया है स्त्रियों के घाघरे नोकदार बनाये गए हैं, और चित्रों की रंगयोजना पूर्णरूप से स्थानीय प्रभाव लिये है। झील के अंकन में कालापन लिये पीले, जोगिया, हरे या गहरा लालपन लिये भूरे रंग का प्रयोग है। कपड़ों में गुलेर तथा कांगड़ा की रंग-योजना के अतिरिक्त गहरा बैंगनी तथा गहरा हरा रंग भी लगाया गया है।
पर्वतों के अंकन में सुनहरीपन लिये ग्रे तथा कालापन लिये भूरे रंग का भी प्रयोग किया गया है। इन चित्रों में सबसे अधिक विचारणीय बात यह है कि ये चित्र सपाट रंग के प्रयोग से बनाये गए हैं। ये सपाट रंग के प्रयोग की परम्परा पहाड़ी राज्यों की चित्रकला के आरम्भिक चित्र- उदाहरणों में ही दिखाई पड़ती है।
परन्तु शीघ्र ही मुगल प्रभाव लाने के लिए छाया का प्रयोग किया जाने लगा। इस सपाट रंग के प्रयोग के कारण पूञ्छ के चित्रों की आकृतियों, झीलों, तालाबों तथा मैदानों आदि में गहराई या त्रिआयामी प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता है।
पूञ्छ के चित्रों में जम्मू शैली के चित्रों के समान ही भवन में फाख़तई रंग का प्रयोग किया गया है, परन्तु पूञ्छ के चित्रों में भवन को बहुत भव्य बनाया गया है।
टेहरी गढ़वाल की चित्रकला (गढ़वाल शैली)
गढ़वाल की स्थिति
हिमालय के ऊँचे शिखरों के मध्य उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित छोटी सी गढ़वाल रियासत की धार्मिक दृष्टिकोण से अत्यधिक महिमा रही है।
इस हिमाच्छादित पर्वतों वाले क्षेत्र से जमनोत्री तथा भागीरथी के पावन स्रोत प्रवाहित होते हैं और इसी प्रदेश में बबीनाथ तथा केदारनाथ के तीर्थधाम स्थित हैं।
प्रत्येक वर्ष असंख्य पर्यटक इन तीर्थधामों की धूलि को मस्तक से लगाने और निर्मल सरित प्रवाहों में स्नान कर आत्म-विशुद्धि करने के लिए श्रद्धा और भक्ति से पर्वतों की टेड़ी-मेढ़ी, ऊँची-नीची दुर्गम पहाड़ियों पर पैदल भी चढ़ते दिखाई पड़ते हैं। गढ़वाल राज्य पंजाब के उत्तरी भाग से मिला हुआ है।
ऐतिहासिक महत्त्व
गढ़वाल एक प्राचीन ठाकुराई राज्य या रियासत थी। इस राज्य का ऐतिहासिक महत्त्व १६८५ ईसवी से प्रारम्भ होता है, जबकि दाराशिकोह के सुंदर और उत्साही पुत्र सुलेमान शिकोह ने ओरंगज़ेब से बचने के लिए गढ़वाल के राजा पृथ्वीशाह (पिरथीपतशाह) की शरण ली।
मुगल सम्राट औरंगज़ेब ने अपने पिता सम्राट शाहजहाँ को आगरा के दुर्ग में बंदी बनाकर अपने अग्रज युवराज दारा का अधिकार हस्तगत कर लिया। उस समय दारा लाहौर में था और उसका पुत्र युवराज सुलेमान शिकोह इलाहाबाद में था।
सुलेमान शिकोह ने मैदानी क्षेत्रों में फैली औरंगज़ेब की सेना से बच निकलकर पहाड़ी मार्गों से यात्रा करके अपने पिता से मिलने की योजना बनाई। उसने नगीना पहुँचकर गढ़वाल नरेश पृथ्वीशाह (१६४६ – १६६०) को लिखा है कि वह उसको श्रीनगर (गढ़वाल की राजधानी) में शरण प्रदान करें।
पृथ्वीशाह ने युवराज को निमंत्रण भेज दिया परन्तु साथ ही यह सूचना भेज दी कि गढ़वाल राज्य में अन्न तथा अन्य खाद्य पदार्थ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, अतः आप कम व्यक्ति लायें तो में आपका स्वागत करूंगा शहजादा सुलेमान शिकोह अपने अतिरिक्त साथियों को नगीना छोड़कर केवल सत्रह मुसाहियों और सेवकों सहित गढ़वाल पहुँचा।
मुगल युवराज का यह काफिला १६५० ई० के अगस्त मास में गढ़वाल पहुंचा था। गढ़वाल नरेश पृथ्वीशाह ने युवराज का स्वागत किया और उसने अपने पूर्वजों का महल ठीक कराकर युवराज के लिए आवास की व्यवस्था कर दी। राजा ने इस युवराज का इतना अधिक सत्कार किया कि यह भी कहा जाता है कि राजा इस युवराज को अपनी राजकुमारी भी देने के लिए तैयार हो गया।
युवराज सुलेमान शिकोह के इस सत्रह आदमियों के दल में विख्यात चित्रकार मोलाराम या मौलाराम के पूर्वज श्यामदास और उसका पुत्र हरदास चित्रकार भी थे। ये दोनों व्यक्ति दिल्ली के चित्रकार थे। इसी वर्ष के अंतिम भाग में औरंगज़ेब समस्त झगड़ों से निपट चुका था अतः उसका ध्यान सुलेमान शिकोह की गतिविधि की ओर गया और उसने राजा जयसिंह के पुत्र कुंवर रामसिंह को सेना सहित सुलेमान शिकोह को पकड़ने भेजा।
गढ़वाल का बूढ़ा राजा अपने पुत्र मेदनीशाह की शक्ति के कारण दब चुका था मेदनीशाह के खर्च अधिक बढ़ चुके थे मेदनीशाह (१६६०-१६८६ ई०) के इन खचों को मुगल सम्राट बढ़ावा दिये हुए था, अतः मेदनीशाह के अत्यधिक प्रभुत्व तथा दबाव के कारण राजपूत परम्परा के विरुद्ध वृद्ध राजा को विवश हो शरणार्थी रक्षा के निश्चय से हटना पड़ा।
कुंवर रामसिंह के नेतृत्व में औरंगजेब की मुगल सेना ने पहाड़ी प्रदेश के नीचे रामगंगा के तट पर पाटलीण में अपना पड़ाव डाल दिया था। इसी समय कुंवर रामसिंह ने सुलेमान शिकोह को मुगल सेना के हाथों सौंपने का संदेश गढ़वाल नरेश के पास भेज दिया।
बूढ़ा राजा इस विशाल सेना का सामना नहीं कर सकता था। गढ़वाल नरेश ने औरंगज़ेब की सेना से युद्ध करने का बहाना बनाकर सुलेमान शिकोह को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त कर गढ़वाली सैनिकों के साथ पाटलीदूण भेज दिया।”
इस प्रकार छल से राजा ने सुलेमान शिकोह को कुंवर रामसिंह के हाथों सौंप दिया, परन्तु उसके साथ आये हिन्दू चित्रकार श्यामदास तथा हरदास, गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर, जो गंगा के बाएं तट पर स्थित है, में बस गए।
बाद में अनेक रुहेला चित्रकार बरेली से १७७४ ई० में रुहेला पराजय के पश्चात् गढ़वाल आये और यहाँ बस गए। गढ़वाल नरेशों में पृथ्वीशाह के बाद दलीपशाह तथा प्रदीपशाह के पश्चात् फतेहशाह (१६८४-१७१४ ई०) यशस्वी चित्रप्रेमी शासक हुआ।
गढ़वाल की चित्रकला
इस प्रकार मुगल युवराज के साथ सर्वप्रथम ये दो हिन्दू चित्रकार श्यामदास तथा हरदास गढ़वाल में आये। सम्भवतः इन चित्रकारों की शैली राजस्थानी थी क्योंकि इनके वंशज मोलाराम के बनाये चित्र राजस्थानी शैली के हैं। ये चित्रकार सुनार जाति के थे और संभवतः सुनारगीरी का कार्य भी करते थे।
गढ़वाल राज्य में हरदास के पुत्र हीरानंद ने सर्वप्रथम चित्रकारी का कार्य आरम्भ किया। इसी चित्रकार वंश में हीरानंद के पुत्र मंगतराम तथा पड़पौत्र मोलाराम ने गढ़वाल के चित्रकारों में अत्यधिक ख्याति प्राप्त की। मोलाराम का जन्म १७४३ ई० में हुआ। मोलाराम के छः भाई और थे परन्तु उनके विषय में ज्ञात नहीं मोलाराम चित्रकार की अपेक्षा एक अच्छा कवि था और उसके द्वारा रचित चित्र तथा काव्य दोनों के उदाहरण प्राप्त हैं।
मोलाराम मोलाराम (१७४३-१८३३ ई०) चित्रकार का सबसे पहला संरक्षक राजा गढ़वाल का राजा जयकीर्तिशाह था। राजा जयकीर्तिशाह ने मोलाराम के लिए साठ ग्राम की जागीर प्रदान की और यह मोलाराम को पाँच रुपये दैनिक वेतन के रूप में देता था। मोलाराम अपने चित्रों पर विवरण, नाम तथा समय आदि अंकित कर देता था। मोलाराम ने नायिकाओं के अनेक चित्र बनाये हैं।
संकटकाल
राजा जयकीर्तिशाह बहुत उदार तथा निर्बल शासक था अतः उसके पिता ने १७७२ ई० में कुमायूँ का राज्य उसके छोटे भाई प्रद्युम्नचन्द (प्रद्युम्न शाह) के हाथ में पूरक शासक के रूप में सौंप दिया। परन्तु गढ़वाल पर एक भयानक विपत्ति आई और १८०३ ई० में नेपाल से गोरखा आक्रमणकारियों की एक घटा टिड्डीदल के समान उमड़ पड़ी गढ़वाल नरेश ने रक्षा हेतु युद्ध आरम्भ कर दिया और देहरादून से बारह मील की दूरी पर स्थित खारवार नामक स्थान पर गुरखाओं से लड़ते हुए जनवरी मास १८०४ ई० में प्रद्युम्नचंद (प्रद्युम्न शाह) वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध के पश्चात गढ़वाल गुरखाओं के हाथ में आ गया।
गुरखाओं ने गढ़वाल पर ग्यारह वर्ष तक लौहदण्ड से शासन किया। गुरखाओं ने अनेक विध्वंश किये और सम्भवतः गढ़वाल के राज-संग्रह के चित्र आदि भी नष्ट हो गए। इस समय गढ़वाल की आबादी लगभग तीन लाख थी जिसमें से दो लाख व्यक्तियों को दास बनाकर बेच दिया गया।
१८०३ ई० में गोरखा आक्रमण के कारण गढ़वाल के राज परिवार ने श्रीनगर को छोड़ दिया था। १८१५ ई० में अंग्रेजों की सैन्य सहायता से राजा सुदर्शनशाह ने गोरखाओं को परास्त कर आधा टेहरी गढ़वाल पुनः प्राप्त कर श्रीनगर से लगभग तीन मील की दूरी पर भागीरथी तथा भिलंगना संगम पर टेहरी में अपनी नवीन राजधानी स्थापित कर ली।
राजा सुदर्शनशाह (१८१५-१८५६ ई०) के चाचा प्रीतमशाह का चित्र-प्रेम प्रगाढ़ था और श्रीनगर के मोलाराम की चित्रशाला में अभ्यास हेतु आया करते थे। प्रीतमशाह के पश्चात गढ़वाल राजवंश के राजा केशरसिंह, चित्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह आदि अपने मनोरंजन के लिए मोलाराम तथा अन्य चित्रकारों से चित्र बनवाते रहे परन्तु यह चित्र गढ़वाल शैली की विशेषताओं को न प्राप्त कर सके और इन चित्रों की शैली निम्न कोटि की थी।
मोलाराम के चित्रों में १. मोर प्रिया, २. नायिका तथा चकोर, ३. राजा ललितशाह और मोलाराम, ४. राधा-कृष्ण, ५. नृसिंह, ६. वासक-सज्जा, ७. प्रद्युम्नशाह भाई के साथ, ८. खडिता ६. घोड़े पर सवार जयदेव वजीर, १० मयूर मुखी तथा ११. गोपी आदि हैं।
गढ़वाल के चित्रकार तथा मोलाराम के चित्र
सुदर्शनशाह (१८१५- १८५६ ई०) पवित्र और धार्मिक विचार का व्यक्ति था और उसको कला तथा साहित्य में अनन्य रुचि थी। वह स्वयं एक लेखक था और उसने अपनी स्मृतियाँ भी लिखी हैं उसने मोलाराम और उसके साथी मानक तथा चैतू को भी संरक्षण प्रदान किया।
इन चित्रकारों ने हिन्दू ग्रंथों और पुराणों आदि पर चित्र बनाये, परन्तु मोलाराम के विषय में आनंद कुमारस्वामी ने लिखा है। कि- “उसको झूठी ख्याति प्राप्त हुई मोलाराम को यह ख्याति इस कारण भी प्राप्त हुई कि उस समय परिचित पहाड़ी चित्रकारों में केवल वह ही जीवित रह गया था।
अट्ठारहवीं शताब्दी के अंतिम चरण तथा उन्नीसवीं शताब्दी के बहुत से रेखाचित्र तथा रंगीन चित्र जो पहाड़ी शैली के हैं त्रुटि से मोलाराम के नाम से जोड़ दिये गए हैं।” अतः चित्रों के पुनः अध्ययन की आवश्यकता है।
१६१०-११ ई० में आयोजित इलाहाबाद की प्रदर्शनी में डॉ० आनंद कुमारस्वामी ने मोलाराम के छः चित्र खरीदे वैरिस्टर मुकुन्दी लाल के अनुसार मोलाराम के संग्रह में उसके पिता मंगतराम, पितामह हीरानंद और पड़पितामह श्यामदास तथा उसके अपने पुत्र ज्वालाराम, प्रपौत्र हरीराम तथा शिष्य ज्वालाराम तथा चैतू के बनाये हुए सहस्त्रों चित्र थे।
यह निश्चित है कि मोलाराम के पास अनेक चित्रकारों के चित्रों का खासा संग्रह था। वह सम्भवतः इन चित्रों पर अपना नाम डाल देता था क्योंकि मोलाराम के प्रपौत्र बालकराम ने लखनऊ में आयोजित आल इंडिया एक्जीबिशन में १६२५ ई० के जनवरी मास में मोलाराम के जो रंगीन रेखाचित्र प्रदर्शित किये वे नितान्त भद्दे और बेकार थे और उसके पितामह के नाम से जोड़ने योग्य नहीं थे मुकुन्दीलाल बैरिस्टर ने मोलाराम के कुछ चित्रों की प्रशंसा की है, परन्तु जिन चित्रों को उन्होंने मोलाराम का माना है उनमें से कुछ सम्भवतः मोलाराम के बनाये नहीं हैं।
मानकू तथा चैतू की कृतियों को देखने से यह स्प्ष्ट प्रतीत होता है कि वह मोलाराम के शिष्य नहीं थे बल्कि मानकू नैनसुख का पुत्र था। मानकू, गुलेर का चित्रकार था और उसके बनाये चित्र राजा अनिरुद्धचंद के समय में गढ़वाल आ गये थे अथवा वह स्वयं भी गढ़वाल आया।
चैतू नामक चित्रकार को नैनसुख के पुत्र कुशला के पौत्र गुरुदास का पुत्र माना गया है। परन्तु यह भी हो सकता है कि ये दोनों गढ़वाल के चित्रकार ही हो क्योंकि मानकू तथा चेतु नाम बहुत प्रचलित नाम थे।
एन० सी० मेहता ने गढ़वाल के राजा नरेन्द्रशाह से प्राप्त एक चित्राधार (एलबम ) का अध्ययन करते समय मानकू नामक चित्रकार का नाम ‘राधा-कृष्ण’ के एक भद्दे चित्र पर संस्कृत के छन्द में अंकित पाया। मानकू को कार्ल खण्डालावाला ने कांगड़ा का चित्रकार माना है और उनका मत है कि उसने गढ़वाल में चित्र बनाये, जो भ्रामक हैं।
उसका नाम एक अन्य चित्र- ‘आँख मिचौनी’ की पृष्ठिका पर लिखा मिलता है। यह चित्र रेखांकन, रंग संयोजन तथा वातावरण की दृष्टि से उत्तम है और उन्होंने गुलेर शैली का माना है।
इस चित्र में चाँदनी रात्रि में कृष्ण तथा ग्वाल बालक ‘आँख मिचौनी’ का खेल खेलते दिखाये गए हैं। एक ग्वाल-बालक ने कृष्ण की आँखों को हाथ से ढक रखा है और छुपने के लिए पीछे देख रहा है। कृष्ण उसका हाथ हटाकर सब देख रहे हैं। यह चित्र भी वातावरण तथा रचना की दृष्टि से गुलेर कांगड़ा शैली का नहीं है।
मानकू के समान चैतु के विषय में भी अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हो पाई है। उसका नाम एन० सी० मेहता संग्रह के एक चित्र ‘यादव-स्त्रियों का अपहरण पर अंकित है। इस चित्र का रेखांकन उत्तम है और चित्र में एक आकृति के डेढ़ चश्म चेहरे को छोड़कर सब आकृतियों के चेहरे सवाचश्म बनाये गए हैं।
चैतु के बनाये हुए कुछ चित्र श्री पी०सी० मनक संग्रह तथा ‘भारत कला भवन’, काशी के संग्रह में सुरक्षित हैं उसके चित्र रेखा, शैली तथा वर्ण विधान के कारण पहचाने जा सकते हैं। यदि यह नैनसुख का वंशज था तो मानकू से पर्याप्त छोटा और परवर्ती होना चाहिए और मोलाराम से भी परवर्ती होना चाहिए।
चैतु के कुछ भद्दे चित्र उपलब्ध है जो पौराणिक कथा रुकमिणी प्रणय पर आधारित है। एन० सी० मेहता के अनुसार ये चित्र चेतु की आरम्भिक रचनाएँ हैं जो भ्रामक विचार है। अनुमानतः ये चित्र उसने गढ़वाल के राजघराने के लिए नहीं बल्कि किसी साधारण कलाप्रेमी के लिए बनाए और वह गढ़वाल का चैतू था।
इन चित्रों का कागज़, रंग तथा जिल्द, जिसमें ये चित्र बँधे है, बहुत निम्न कोटि के हैं और गढ़वाल के हैं उसके दो उत्तम चित्र ‘सती का तप’ और ‘महादेव की सभा’ क्रमशः श्री मनक और ‘भारत कला भवन’ संग्रह में सुरक्षित हैं। ये चित्र शैली की दृष्टि से रुकमिणी प्रणय कथा के चित्रों में बहुत उत्तम हैं और इनमें चैतू की कला शैली की समस्त विशेषताओं का पूर्ण रूप से विकास दिखाई पड़ता है।
चैतू ने अपने चित्रों में प्राकृतिक दृश्यों को अधिक महत्त्व नहीं दिया है उसकी आकृतियों में सरल रंग और रेखांकन में छन्दमय गोलाई है। उसको रेखा पर पूर्ण अधिकार था और उसने शक्तिशाली रेखा का प्रयोग किया है। ये सारी विशेषताएँ गुलेर शैली के प्रतिकूल हैं।
उसने अपने चित्रों में अलंकरण की अपेक्षा विषय को प्रमुखता प्रदान की है। उसने महान पुरुषों की आकृतियों को अनुपात में बड़ा आकार प्रदान किया है। उसका एक अन्य चित्र, जिसमें राम और लक्ष्मण राजधानी अयोध्या को छोड़कर वन जा रहे हैं, सुंदर है।
एन० सी० मेहता ने इस चित्र का विवरण देते समय उसके सरल रंग विधान की ओर संकेत किया है। इस चित्र में सफेद, पीले तथा लाल रंग प्रमुख हैं, जो राजस्थानी शैली के द्योतक है।
चैतू ने स्त्रियों के कपड़ों की फहरन बड़ी सुंदरता के साथ दिखाई है। चैतू ने गीत-गोविंद, बिहारी तथा मतिराम की काव्य रचना पर आधारित चित्र भी बनाये। उसके चित्र गुलेर शैली की अपेक्षा बहुत सशक्त और सरल हैं।
जैसा पहले बताया जा चुका है कि गढ़वाल में कांगड़ा के राजा अनिरुध्दचंद के आने से (लगभग १८३० ई० में) कांगड़ा की कला और कलाकार भी सम्भवतः गढ़वाल आ गए।
इस प्रकार कांगड़ा के चित्रों का संग्रह भी गढ़वाल में आ गया। गढ़वाल की पर्वतीय कला पर कांगड़ा कला का गहरा प्रभाव पड़ा और राजा सुदर्शनशाह के काल में स्थानीय कला प्रतिभा की जागृति हुई।
मोलाराम के पश्चात् उसके वंश में चित्रकला का व्यवसाय चलता रहा और मोलाराम के पुत्र ज्वालाराम (१७८८-१८०८ ई०), पड़पौत्र तुलसीराम, हरीराम तथा बालकराम तक इस परिवार में वंश परम्परागतरूप से चित्रकला का व्यवसाय चलता रहा।
तुलसीराम की मृत्यु १६५० ई० में हुई और साथ ही चित्रकला भी इस वंश से लोप हो गई। अनुमानतः गढ़वाल शैली के चित्रों का अच्छा संग्रह गढ़वाल के स्व० नरेश नरेन्द्रशाह के उत्तराधिकारी महाराजा मानवेन्द्रशाह के पास सुरक्षित है, वैसे कुछ चित्र स्व० बैरिस्टर मुकुन्दीलाल के निजी संग्रह में भी थे जो उन्होंने गढ़वाल विश्वविद्यालय को दे दिए।”
गढ़वाल शैली के कुछ चित्र ‘भारत कला भवन’ काशी में सुरक्षित है देहरादून निवासी कैप्टेन सुरबीर सिंह के पास भी गढ़वाल शैली की कृतियाँ बतायी जाती थी।
१७७४ ई० में रुहेला सरदार हाफिज़ रहमत खां के पतन के पश्चात बरेली, रामपुर, धामपुर, नजीबाबाद के रुहेला चित्रकार भी गढ़वाल में जा बसे थे जिनसे रुहेला प्रभाव भी इस शैली में व्याप्त हो गया था और रुहेला चित्र भी गढ़वाल आ गए जो शैली तथा विधान में सर्वथा भिन्न हैं और सरलता से पहचाने जा सकते हैं।
टेहरी गढ़वाल शैली की विशेषताएँ
गढ़वाल के चित्र भी कांगड़ा के समान ही लघुचित्र हैं और पहली दृष्टि में कांगड़ा और गढ़वाल के चित्रों को पृथक करना कठिन है, परन्तु फिर भी गढ़वाल की स्थानीय वनस्पति, घरेलू वातावरण और रेखा की विशिष्टता ने गढ़वाल शैली में एक निजत्व स्थापित कर दिया है।
गढ़वाल शैली में सरल विधान और शक्तिशाली शिथिल रेखा से अंकित आकृतियों या काली रेखा से अंकित आकृतियाँ उसको कांगड़ा शैली से स्पष्ट रूप से पृथक कर देती हैं।
रेखा तथा मानव आकृतियाँ
गढ़वाल शैली के चित्रों में आकृतियों को कांगड़ा शैली की अपेक्षा सरल और सपाट बनाया गया है और रेखा भी उतनी कोमल, गोलाईयुक्त और डौलपूर्ण नहीं है। गढ़वाल शैली के चित्रों में रेखा अधिक बलवती और प्रवाहपूर्ण है। गढ़वाल शैली की आकृतियों में अधिकांश वक्रीय आकृतियों को अपनाया गया है स्त्रियों को सुंदर और भावपूर्ण मुद्रा में बनाया गया है।
बड़े-बड़े कमल नेत्र, लम्बी सीधी नाक, गोल चिबुक, भावाभिव्यंजक हस्तमुद्राएँ तथा अंग-भंगिमाएँ गढ़वाल शैली की स्त्री-आकृतियों की विशिष्टता हैं। कुछ चित्रों में काली स्याही से चित्र की आकृतियों की खुलाई की गई है जो रुहेला प्रभाव है।
वस्त्र तथा आभूषण
स्त्रियों को कोहनी तक आस्तीनदार चोली, लहंगा तथा पारदर्शी दुपट्टा ओढ़े बनाया गया है। कपड़ों की शिकनों तथा मोड़ों को अंकित करने में चित्रकार ने कुशलता का परिचय दिया है। पुरुषों के पहनावे में विशेषतया लम्बा जामा, चुस्त पाजामा और पगड़ी, पटका आदि चित्रित किये गए हैं।
भवन तथा घरेलू दृश्य
गढ़वाल शैली के अधिकांश चित्रों में प्रकृति को विशेष महत्त्व दिया गया है परन्तु किसी-किसी चित्र उदाहरण में रुहेला नक्काशीदार द्वारों का भवन में प्रयोग है। पर्वतों का पृष्ठभूमि में चित्रण किया गया है जिनमें स्थानीयता है।
गढ़वाल के चित्रों में घरेलू दृश्य जैसे शयनकक्ष स्नान, शृंगार तथा रसोई आदि से सम्बन्धित दृश्य प्राप्त होते हैं। एक चित्र उदाहरण में यशोदा कृष्ण के लिए भोजन पका रही हैं।
इस चित्र में रसोई का वातावरण सुंदरता से दिखाया गया है। इसी प्रकार एक अन्य चित्र में प्रातःकाल की पूजा का दृश्य अंकित किया गया है जिनमें एक पुजारी को पूजा-उपासना में लीन अंकित किया गया है।
प्रकृति तथा वनस्पति
गढ़वाल के चित्रकार ने स्थानीय प्रकृति की सुरम्य छवि को अपने चित्रों में बड़ी कुशलता से संयोजित किया है। चित्रकार ने यमुना नदी को मैदान के समतल धरातल पर प्रवाहित सरिता के समान नहीं बनाया है, बल्कि पहाड़ी सरिता यमुना को ऊँचे-नीचे गढ़वाली धरातल के क्षेत्र से प्रवाहित होते दिखाया गया है।
चित्रकार ने गहरे रंग की सरिता के दोनों किनारों पर मैदानी भाग न दिखाकर ऊँचे-ऊँचे, टेढ़े-मेढ़े गहरे रंग के टीले बनाये हैं, जो वृक्षों से आच्छादित हैं। गढ़वाल के चित्रों में ऊँची पर्वत चोटियों को बनाया गया है।
गढ़वाल शैली के चित्रों में पृष्ठभूमि में दृश्य चित्रण की पद्धति बहुत कुछ मुगल शैली से प्रभावित है। दृश्यों में अधिकांश आम, गुलमोहर, केला, अमलताश, वट आदि वृक्षों का अंकन किया गया है।
हाशिये गढ़वाल शैली के चित्रों में कभी-कभी हाशियों को भी बनाया गया है और इन हाशियों में आलेखन बनाये गए हैं जिनमें सोने चाँदी के रंगों का प्रयोग किया गया है।
कुछ चित्रों में संगरफी (लाल) तथा सब्ज़ (हरे) रंग की पट्टियों से हाशिए बनाये गए हैं जो रुहेला चित्र हैं। इन चित्रों में मानवाकृतियों का वर्ण सफेद है और चित्र की सीमारेखाएँ और खुलाई का काम काली स्याही से किया गया है।
गढ़वाल शैली की इन विशेषताओं के अतिरिक्त अधिकांश प्रविधि कांगड़ा शैली के समान है।
विषय
गढ़वाल के चित्रकारों का चित्रण विषय धार्मिक है और भागवत पुराण, रामायण, बिहारी सतसई, मतिराम तथा रागमाला पर आधारित चित्र बनाये गए हैं।
इन विषयों के अतिरिक्त चित्रकार ने अनेक देवी-देवताओं के चित्रों का निर्माण किया है। यहाँ रुकमिणी-मंगल, नल-दमयन्ती, गीत-गोविंद, नायिकाभेद, दशावतार, अष्टदुर्गा, कामसूत्र. शिवपुराण आदि पर भी चित्र बनाये गए हैं।
टेहरी गढ़वाल के चित्रकारों ने कांगड़ा के चित्रकारों के समान ही राधाकृष्ण का प्रेम-सम्बन्ध लेकर श्रृंगार के अनेक पक्षों पर मनोहारी चित्र बनाए हैं। अतः गढ़वाल की कला को धर्मिक-कला माना जा सकता है।
कश्मीर की चित्रकला | कश्मीर शैली
कश्मीर को धरती का स्वर्ग माना गया है। इसका कारण वहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य है। कश्मीर के हिमाच्छादित पर्वत शिखर तथा झीलें लेखकों, कलाकारों तथा शासकों को सदा आकर्षित करती रही हैं। कश्मीर की कला तथा साहित्य के विकास में वहाँ के राजाओं ने भी विशेष सहयोग प्रदान किया है। संस्कृत साहित्य की अनेक काव्य रचनाएँ कश्मीर में ही हुई हैं।
कश्मीर की चित्रकला का क्रमबद्ध इतिहास उपलब्ध न होने के कारण कश्मीर की चित्रकला का स्वतंत्र इतिहास प्राप्त नहीं होता। कश्मीर में सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में बनाये गए चित्र उदाहरण ही प्राप्त हैं।
कश्मीर शैली अपने स्वतंत्र रूप में अधिक विकसित नहीं हुई किन्तु उसने राजस्थानी, पहाड़ी तथा मुगल शैलियों के उत्थान तथा विकास में विशेष योगदान दिया।
सोलहवीं शताब्दी के तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ ने कश्मीर के हंसराज ( हंसराज) चित्रकार का उल्लेख किया है जो एक महान मूर्तिकार तथा चित्रकार था। उसी ने कश्मीर शैली को एक नवीन दिशा प्रदान की।
विन्सेट स्मिथ के अनुसार कश्मीर के महाराजा ललितादित्य ने ७४० ई० में कन्नौज पर विजय प्राप्त की थी। यह कलानुरागी शासक था। अतः उसने मध्य देश (कन्नौज) के कुछ चित्रकारों को अपने साथ कश्मीर निमंत्रित किया।
परन्तु रायकृष्ण दास महोदय के अनुसार भारत में राजनीति, धर्म और संस्कृति सदा से ही स्वछन्द रूप से हर जगह पहुंची है, अतः स्वाभाविक है कि मध्यदेशीय कला भी कश्मीर पहुँची होगी।
वास्तव में हिन्दू धर्म की सनातन एकता तथा हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म में उदारता के साथ धर्म सम्बन्धी प्रचार सामग्री के वितरण किये जाने के फलस्वरूप मध्यदेशीय कला का कश्मीर पर प्रभाव मानना अधिक संगत है!
अकबरकालीन हम्जानामा चित्रावली तथा मुगलकला पर कश्मीर शैली का पर्याप्त प्रभाव है। रामकृष्ण दास महोदय ने राजस्थानी शैली का जन्म कश्मीर शैली से ही माना है। पहाड़ी चित्रों में पुरुषों का पहनावा धोती तथा उत्तरीय कश्मीर शैली पर ही आधारित है। चम्बा तथा गढ़वाल शैली के चित्रों में यह वेशभूषा दिखाई पड़ती है।
विषय
कश्मीर शैली में रामायण तथा कृष्ण लीलाओं के स्फुट चित्र प्राप्त हैं। इन चित्रों के साथ संस्कृत के श्लोक भी लिखे गए हैं। केशवदास के द्वारा रचित रसिक-प्रिया पर भी चवालीस चित्र प्राप्त हैं, जिनको रायकृष्ण दास ने कश्मीर शैली का माना है।
कश्मीर शैली के रागमाला पर आधारित कुछ चित्र बोडलियन लायब्रेरी, आक्सफोर्ड में सुरक्षित है। ‘शील भद्र चरित्र’ नामक जैन पोथी के चित्र भी कश्मीर में ही बनाये गए हैं। इन चित्रों को कश्मीर के चित्रकार उस्ताद शालिवाहन (जहाँगीर का दरबारी चित्रकार) ने १६२५ ई० में बनाया था।
कश्मीर शैली की विशेषताएँ
कश्मीर शैली के चित्रों में अधिकांश पीले, लाल या सिन्दूरी रंग का प्रयोग है। पुरुषों की आकृतियों में यथोचित पुरुषत्व की भावना है और स्त्रियों की आकृतियाँ ओजपूर्ण, शारीरिक गठनशीलता लिए हुए सुंदर हैं जहाँ भी पुरुषों का चित्रण किया गया है उनको धोती तथा उत्तरीय पहने बनाया गया है और उनके बादामी शरीर पर विभिन्न आभूषण बनाये गए हैं। कश्मीर शैली का रूप विधान सरल है कश्मीर शैली में लघु चित्रों के अतिरिक्त पट चित्र भी बनाये गए हैं।