पूर्व बौद्धकालीन चित्रकला | Painting of Pre-Buddhist period

पूर्व बौद्धकाल में चित्रकला का विशेष विकास प्रमाणित नहीं है क्योंकि भगवान बुद्ध ने स्वयं अपने अनुयाइयों को चित्रकला की ओर प्रवृत्त न होने का उपदेश दिया। इस काल की चित्रकला के प्रमाण प्राप्त नहीं हैं और केवल इस काल के बौद्ध साहित्य से ही समाज में चित्रकला के प्रचलन का ज्ञान होता है।

वैदिक तथा पूर्व-बौद्धकालीन साहित्य में चित्रकला का उल्लेख

अनुमानतः जोगीमारा के अतिरिक्त और भी चट्टानें काटकर गुफा मंदिरों का निर्माण किया गया होगा और उनको भित्तिचित्रों से सजाया गया होगा परन्तु भारतवर्ष की अत्यधिक वर्षामय जलवायु के कारण वह नष्ट हो गए होंगे। 

इस समय भवनों या मकानों के निर्माण में कच्ची ईंटों तथा लकड़ी का प्रयोग किया जाता था जिसके कारण यह भवन शीघ्र नष्ट हो गए होंगे। ऐसा अनुमान है कि इन मकानों की दीवारों का धरातल पलास्तर से लेप दिया जाता था और प्रायः चित्रों से भित्तियों को सजाया जाता था, परन्तु इस समय के भवनों में स्थायित्व नहीं था, इस कारण इन भवनों में से किसी के भी अवशेष प्राप्त नहीं हो सके हैं, जिनसे चित्रकला का समुचित ज्ञान प्राप्त हो सके इस समय की जोगीमारा गुफा की चित्रकारी के उदाहरणों से यह अनुमान होता है कि यह प्रागैतिहासिक पाषाण युग की असंयत चित्रकला के समान ही अविकसित रूप में थी। 

दूसरी ओर कुछ ऐसे साहित्यिक प्रसंग प्राप्त होते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि ईसा से कई शताब्दी पूर्व ही भारतवर्ष में चित्रकला खूब विकसित हो चुकी थी। परन्तु रायगढ़ पर्वत की जोगीमारा गुफा की चित्रकला से इन लिखित प्रमाणों की पुष्टि नहीं होती क्योंकि इन चित्रों की कला साहित्य में वर्णित चित्रकला से सर्वथा निम्न कोटि की है। 

यह सम्भव है कि जोगीमारा गुफा के चित्र इस समय के प्राप्त साहित्य में वर्णित उच्च स्तर की चित्रकला की विशेषताओं के निकटवर्ती चिन्ह हो अतः इस समय की चित्रकला का अध्ययन करने के लिए वैदिक साहित्य तथा प्राचीन बौद्ध साहित्य में प्राप्त चित्रकला सम्बन्धी उल्लेखों को देखा जाए। इस समय के ग्रन्थों तथा महाकाव्यों में स्थान-स्थान पर चित्रकला का उल्लेख आया है।

‘चित्रलक्षण’ 

चित्रकला के जन्म के सम्बन्ध में भारतवर्ष में एक सुंदर पौराणिक कथा परम्परागत रूप से प्रचलित है जिसका चित्रलक्षण नामक ग्रंथ में संकलन किया गया है यह ग्रंथ तिब्बत से तंजूर प्रन्यमाला के अन्तर्गत प्रकाशित किया गया है।

” यह ग्रंथ तीन अध्याय तक ही प्राप्त है। इसके अध्ययन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह अपूर्व रचना है। इस ग्रंथ के मंगलाचरण में यह कथा बतायी गई है कि यह ग्रंथ विश्वकर्मा तथा राजा नग्नजित् (गांधार-सीमा प्रान्त के राजा) द्वारा निर्दिष्ट चित्रकला के लक्षणों का संग्रह है। 

इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय से ज्ञात होता है कि राजा नग्नजित् विश्वकर्मा का शिष्य था और ब्रह्मा के समक्ष जब राजा ने चित्रविद्या की दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की तो ब्रह्मा ने उसे विश्वकर्मा के पास भेज दिया। विश्वकर्मा ने उसको चित्रकला में प्रशिक्षित किया।

चित्रकला की उत्पत्ति की कथा

इसी ग्रंथ के प्रथम अध्याय में चित्रकला की उत्पत्ति की कथा आती है-‘पुराकाल में राजा भयजित् के राज्य में अकस्मात् एक ब्राह्मणपुत्र की मृत्यु हो जाती है। 

पुत्र-शोक में व्याकुल ब्राह्मण राजा के पास गया और उसने राजा को यह प्रताड़ना दी कि यदि वह क्षत्रिय है और धर्म तथा ब्राह्मण पर उसको विश्वास है तो वह उसके मृत पुत्र को जीवन दे। 

यह सुनकर धर्मात्मा राजा दुखी हुआ। उसने योगबल से यमराज को प्राप्त किया और मृत ब्राह्मण-पुत्र को जीवित करने की याचना की। | प्रार्थना अस्वीकार होने पर यमराज से राजा का युद्ध हुआ और राजा की पराजय हुई। अन्त में ब्रह्मा स्वयं प्रकट होते हैं और भयजित् से मृत पुत्र का चित्रण अंकित करने का आदेश देते हैं। 

इस चित्र में ब्रह्मा ने जीवन संचार कर दिया और ब्रह्मा ने भयजित् से कहा, ‘तुमने नग्न प्रेतों पर विजय प्राप्त कर ली है अतः आज से तुम्हारा नाम नग्नजित् हुआ। तुम्हारी यह रचना सृष्टि का पहला चित्र है। मृत्यु लोक में इस कला के तुम पहले आचार्य माने जाओगे और तुम्हारी पूजा होगी।’

‘चित्रलक्षण’ नामक ग्रंथ में चित्रकला के तत्वों पर प्रकाश डाला गया है। विभिन्न आकृतियों के अनुपातों तथा रचना विधि की इस ग्रंथ में पर्याप्त चर्चा की गई है।

ऋग्वेद 

ऋग्वेद में चमड़े पर बने अग्नि देवता के चित्र का उल्लेख आया है।” इस चित्र को यज्ञ के समक्ष लटकाया जाता था और यज्ञ की समाप्ति पर लपेट दिया जाता था। इसी ऋग्वेद में भृगु ऋषियों के वंशजों को लकड़ी के काम में दक्ष बताया गया है।

ऋग्वेद में यज्ञशालाओं के चारों ओर की चौखटों पर बनी स्त्री देवियों की आकृतियों का भी उल्लेख आया है। ये देवियाँ उषा तथा रात्रि की प्रतीक थीं।

महाभारत (६०० ई० पू० से ५०० ई० पू०)

महाभारत में उषा अनिरुद्ध की एक सुंदर प्रेम कथा के प्रसंग में चित्रकला का उल्लेख आया है राजकुमारी उषा ने स्वप्न में एक सुंदर युवराज को अपने साथ वाटिका में विहार करते देखा और यह उससे प्रेम करने लगी। 

अतः प्रातः जागकर राजकुमारी उषा उस युवराज की स्मृति में दुखी होकर एकांत में चली गयी। जब उसकी परिचारिका ‘चित्रलेखा’ (चित्रलेखा का अर्थ है एक चित्र) को इस घटना का ज्ञान हुआ तो उसने समस्त देवताओं, महापुरुषों तथा उस समय के युवराजों के छवि-चित्र स्मृति के आधार पर बनाकर उषा के सम्मुख प्रस्तुत कर दिए। 

उषा ने स्वप्न में देखे राजकुमार का चित्र पहचान लिया। यह चित्र कृष्ण के प्रपौत्र अनिरुद्ध का था और इस प्रकार दुखी राजकुमारी यह छविचित्र देखकर प्रसन्न हो उठी। 

इस प्रकार की और भी कथाएँ हैं जिनमें स्मृति से व्यक्ति-चित्र बनाने की चर्चा आई है। लॉफिर (Laufer) का कहना है कि भारतवर्ष में चित्रकला का जन्म राजाओं के दरबारों में हुआ और पुजारियों के प्रभाव-स्वरूप नहीं।”

महाभारत में सत्यवान के द्वारा बाल-काल में एक घोड़े का भित्ति पर चित्र अंकित करने का प्रसंग आता है। पुनः भारत के सभापर्व में धर्मराज युधिष्ठिर की सभा का रोचक वर्णन आया है। इस वर्णन से प्रतीत होता है कि स्थापत्य के साथ चित्रकला का भी विशेष स्थान था। 

इस सभाभवन की दीवारों पर चित्र अंकित थे। इस भवन में एक दीवार पर एक ऐसा चित्र अंकित किया गया था कि जिसमें एक सच्चा रहस्यमय दरवाजा खुला दिखायी पड़ता था। इस अनोखे भवन को मयसुर ने बनाया था।

रामायण (६०० ई० पू० से ५०० ई० पू०)

रामायण काल में चित्र, वास्तु एवं स्थापत्य कलाओं का पूर्ण विकास हो चुका था। महामुनि ने बालकाण्ड के छठे सर्ग में अयोध्या वर्णन के साथ अंगराग, केशसज्जा, स्त्रियों के कपोलों पर पत्रावली का शृंगार, राजमहलों, रथों तथा पशुओं की साज-सज्जा का जो उल्लेख दिया है, उससे समाज में प्रचलित कला के उच्च स्थान और व्यावहारिक रूप की प्रतिष्थापना होती है। 

रामायण में राम को संगीत, वाद्य तथा चित्र विद्या आदि मनोरंजन-साधनों का ज्ञाता बताया गया है। अश्वमेध यज्ञ के समय राम ने अपनी सहधर्मिणी सीता की स्वर्ण प्रतिमा का निर्माण कराया था। 

यह प्रतिमा मय नामक शिल्पी ने बनायी थी। रावण की लंकापुरी में सीता की खोज के समय हनुमान को एक चित्रदीर्घा तथा चित्रित क्रीड़ागृह देखने को मिले थे। 

रानी कैकेयी के चित्रित भवन की चर्चा से भी कला रुचि का ज्ञान होता है। बालि तथा रावण के शवों के लिये जो पालकियाँ बनवायी गई थीं यह चित्रित की गयी थीं रावण के पुष्पक विमान को भी चित्रसज्जा से युक्त बताया गया है। 

इस युग में हाथियों के मस्तकों और सुंदरियों के कपोलों पर चित्रकारी की जाती थी। राम के राजप्रसाद की दीवारों पर भित्ति चित्रों की रचना की गई थी।

अष्टाध्यायी

व्याकरण आचार्य पाणिनि (८०० ई० पू० से ५०० ई० पू०) की रचना अष्टाध्यायी में राज्यों के अंक और लक्षणों के प्रसंग में पशु, पक्षी, पुष्प, वृक्ष, पर्वत आदि के लक्षणों की चर्चा की गई और उनकी अंकन विधि बतायी गई थी।

नाट्यशास्त्र 

आचार्य भरत मुनि (प्रथम शताब्दी ई० पू०) के ‘नाट्यशास्त्र’ में निश्चित ही कलाओं के सम्बन्ध में पर्याप्त चर्चा की गई थी। सर्वप्रथम कला शब्द का प्रयोग इसी ग्रंथ में किया गया और रंगों के मिश्रण सम्बन्धी अनेक विधियों पर प्रकाश डाला गया है। रंगों द्वारा भावाभिव्यक्ति तथा विविध रंगों से मन पर पड़ने वाले प्रभावों की इस ग्रंथ में चर्चा की गई है। इस ग्रंथ में लाल, पीले तथा श्याम रंग को मूल माना गया है-इस नाट्यशास्त्र के अनुसार सफेद रंग के परस्पर योग से अनेक रंग बनते हैं।

मेघदूत तथा रघुवंश 

महाकवि कालिदास (प्रथम शताब्दी ई० पू०) द्वारा रचित ‘मेघदूत’ नामक ग्रंथ में विरहणी यक्षणी द्वारा अपने प्रवासी स्वामी यक्ष का चित्र बनाने की चर्चा आई है। कालिदास की रचनाओं से स्पष्ट है कि उस समय स्त्री तथा पुरुष दोनों चित्रकारी (चित्रकर्म) करते थे उस समय चित्रों के द्वारा प्रेम संदेश भी भेजे जाते थे। 

समाज में देव-चित्र पूजित थे और विवाह सम्बन्धों के अवसर पर उनका विशेष स्थान था। राजाओं के महल तथा नागरिकों के आवास गृह चित्रों से सुसज्जित रहते थे।

रघुवंश में अयोध्या नगरी के चित्रित राजप्रसादों का इस प्रकार उल्लेख आया है वहाँ के प्रासादों में कमल-वन के मध्य क्रीड़ा करते हाथियों तथा हथनियों को चित्रित किया गया था। ये चित्र इतने सजीव थे कि कालरूपी सिंहों ने इनको असली हाथी समझकर अपने नाखूनों से इनके वक्षस्थल विदीर्ण कर डाले।’

विनयपिटक 

पाली भाषा के बौद्ध ग्रंथ ‘विनयपिटक’ (४०० ई० पू० से ३०० ई० पू०) में राजा पसेनिद के चित्रित रंग महलों का वर्णन आया है। इन महलों में बड़े-बड़े चित्रागार भी थे, जो रंगीन आकृतियों तथा आलंकारिक आलेखनों से सुसज्जित थे। उनको देखने के लिये दर्शकों की भीड़ लगी रहती थी।

थेराथेरी गाथा (४०० ई० पू० से ३०० ई० पू० ) 

इस गाथा में राजा विम्बसार (५४३-४१६ ई० पू०) के द्वारा राजा तिस्स को बुद्ध की जीवनी के आधार पर चित्रित एलबम (चित्राधार) भेंट करने का प्रसंग आया है।

बुद्ध के उपदेशों में भी इस प्रकार का उल्लेख आया है कि जब उन्होंने अपने अनुयाइयों को चित्रकला में प्रवृत्त न होने का उपेदश दिया तब उन्होंने चित्र रचना के सम्बन्ध में कुछ सीमाएँ निश्चित कर दी थीं जिनका भिक्षुगण अतिक्रमण न कर सकें। इससे प्रतीत होता है कि युद्ध के छवि चित्र उनके जीवन काल में ही बनाये जाने लगे थे और चित्रकला का अत्यधिक प्रसार हो गया था।

दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व के साहित्य से ज्ञात होता है कि उस समय समाज का चित्रकला से घनिष्ठ सम्बन्ध था। वर या वधु की अनुपस्थिति में उनके चित्र बनाकर विवाह संस्कार सम्पन्न कर दिया जाता था। महाभाष्य में भी कृष्ण लीला के चित्रों का उल्लेख आया है।

उम्मग जातक 

‘उम्मग जातक’ में भी चित्रों का यथोचित वर्णन है। इन चित्रों का उल्लेख सभामंडपों, राजप्रसादों एवं चित्रित सुरंगों या चित्रगारों के सम्बन्ध में आया है। 

उम्मग जातक में एक चित्रागार का वर्णन है जिसमें चतुर चितेरों ने इन्द्र, सुमेरू, चारों महाद्वीप, समुद्र, हिमालय, सूर्य, चारों दिग्पालों, सरोवर तथा सात भुवनों इत्यादि के चित्र बनाये थे, इस कारण यह गुफा देवताओं की सभा सुधर्मा के समान प्रतीत होती थी।

तारानाथ के उल्लेख

सोलहवीं शताब्दी के तिब्बती बौद्ध इतिहासकार लामा तारानाथ ने भारत के कला-कौशल को बहुत प्राचीन माना है और भगवान बुद्ध से पूर्व का बताया है। बुद्ध का जन्म ५५७ ई० पूर्व तथा मृत्यु का समय ४७७ ई० पूर्व माना जाता है। 

इस समय भित्ति चित्रण की कला में विकास हुआ। इस कला को देवताओं की कला माना गया है। ‘यक्ष’ चित्र बनाया करते थे। यक्ष शब्द का साहित्यिक अर्थ है ‘दिव्य व्यक्ति या आत्मा’। यह कलाकार देवी प्रेरणा से प्रेरित थे और इन चित्रकारों को अशोक ने ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व अपने महलों के अलंकरण हेतु नियुक्त किया। 

बाद में २०० ई० पूर्व में नागार्जुन की अध्यक्षता में नागा चित्रकारों ने चित्र बनाये। यक्ष कलाकारों को देवता और नागा कलाकारों को अर्ध-मानव तथा अर्ध-देवता माना गया है। 

आज भी भारतवर्ष के कारीगर (शिल्पी) अपने आप को किसी न किसी देवता का वंशज मानते हैं। अधिकांश उच्च स्तर के शिल्पी अपने लिये विश्वकर्मा की संतान मानते हैं।

वात्स्यायन का कामसूत्र 

जिस समय भारतीय कला का सर्वांगीण विकास हो रहा था। उसी समय चित्रकला के ‘षडंग भेद’ का वात्स्यायन ने अमूल्य ग्रंथ ‘कामसूत्र’ में विवेचन किया। ‘कामसूत्र’ ६००-२०० ई० पू० की रचना है।

इसके तीसरे अध्याय में ६४ कलाओं का उल्लेख किया गया है और आलेख्य या ‘चित्रकला’ के षडंग पर भी प्रकाश डाला गया है। यह ६४ कलाएँ सभी नागरिकों को जानना चाहिए।

इन कलाओं की सूची निम्न प्रकार है

  • (१) संगीत,
  • (२) वाद्य वादन,
  • (३) नृत्य,
  • (४) चित्रकारी,
  • (५) पत्तियों को काटकर आकृतियाँ बनाना या तिलक लगाने के लिये सीधे बनाना,
  • (६) पूजन के लिये जी, पायल तथा पुष्पों को सजाना,
  • (७) कक्षों तथा भवनों को पुष्पों से सजाना,
  • (८) दौत, वस्त्र और शरीर को रंगना,
  • (६) फर्श को मणि-मोतियों से जटित करना,
  • (१०) शैय्या सजाना,
  • (११) पानी में ढोलक जैसी ध्वनि उत्पन्न करना,
  • (१२) पानी की चोट मारना या पिचकारी चलाना,
  • (१३) विचित्र औषधादिकों का प्रयोग,
  • (१४) चढ़ाने तथा पहनाने के लिये पुष्प मालाएँ बनाना,
  • (१५) शेखरक तथा अपीड़ आभूषणों को यथा स्थान धारण करना,
  • (१६) अपने शरीर को पुष्पों तथा अलंकारों से सुज्जित करना,
  • (१७) शंख, हाथी-दाँत के कर्ण आभूषण गढ़ना,
  • (१८) सुगंधित धूप बनाना,
  • (१६) आभूषण तथा अलंकार धारण करने की कला,
  • (२०) इन्द्रजाल,
  • (२१) बल-वीर्य वृद्धि के लिये औषधि आदि बनाना,
  • (२२) हाथ की सफाई दिखाना,
  • (२३) अनोखे भोजन शाक, रस, मिष्ठान आदि बनाना,
  • (२४) नाना प्रकार के पेव रस बनाना,
  • (२५) सुई के कार्य में दक्षता,
  • (२६) सूत कातना,
  • (२७) वीणा डमरू आदि वाद्यों को बजाना,
  • (२८) पहेलियाँ पूछना,
  • (२६) श्लोक पाठन की रीति,
  • (३०) कठिन अर्थ और जटिल उच्चारण वाले वाक्यों का पाठन,
  • (३१) ग्रंथ का वाचन,
  • (३२) नाटकों तथा अख्यायिकायों (कहानियों) में निपुणता,
  • (३३) समस्या पूर्ति,
  • (३४) छोटे उद्योगों में निपुणता,
  • (३५) लकड़ी या धातु आदि की वस्तु बनाना,
  • (३६) बढ़ईगीरी,
  • (३७) वस्तु विद्या,
  • (३८) सिक्कों तथा रत्नों की परख
  • (३६) धातु मिश्रण तथा शोधन कला,
  • (४०) मणि, स्फटिक आदि रंगने की विधि का ज्ञान,
  • (४१) वृक्ष तथा कृषि विद्या,
  • (४२) मेढ़े, मुर्गे तथा तीतरों की लड़ाई कराने की विधि,
  • (४३) शुकसारिका को बोलना सिखाना,
  • (४४) शरीर दबाने का कौशल तथा केश मलना,
  • (४५) अक्षरों को संबद्ध करना और अर्थ निकालना,
  • (४६) सांकेतिक वाक्य रचना,
  • (४७) देश-विदेश की भाषाओं का ज्ञान,
  • (४८) शकुनों का ज्ञान,
  • (४९) पुष्पों की गाड़ी बनाना,
  • (५०) कले बनाना,
  • (५१) स्मृति को प्रखर बनाने की कला,
  • (५२) स्मृति-ध्यान सम्बन्धी कला,
  • (५३) मन से श्लोकों तथा पदों की पूर्ति,
  • (५४) काव्य
  • (५५) कोष तथा छन्द ज्ञान,
  • (५६) काव्य अलंकार का ज्ञान,
  • (५७) रूप और बोली का छल,
  • (५८) वस्त्रों से गुप्तांग को छिपाना,
  • (५६) विशेष जुआ,
  • (६०) पासों का खेल,
  • (६१) बाल क्रीड़ा,
  • (६२) विनयपूर्वक शिष्टाचार प्रदर्शित करना,
  • (६३) विजय की विद्या
  • (६४) व्यायाम, आखेट आदि की विद्याएँ।

कामसूत्र के उपसंहार भाग में एक श्लोक से स्पष्ट है कि वात्स्यायन ने अपने से पूर्व के शास्त्रों का संग्रह करके और शास्त्रोक्त विधाओं के प्रयोग का पालन करके बड़े यत्न से उनको संक्षेप में ‘कामसूत्र’ नामक ग्रंथ में प्रस्तुत किया।

इससे स्पष्ट है कि यह ६४ कलाओं की तालिका तथा चित्र रचना के सिद्धान्त उस समय के समाज में प्रचलित थे, जिन ग्रंथों के आधार पर ‘कामसूत्र’ की रचना की गई, वे सभी आज सुप्त हो चुके हैं।

भारतीय लघु चित्रों की पुस्तकें | Books of Indian Miniature Paintings

1. Birds and Animals: In Mughal Miniature Paintings

Birds and Animals: In Mughal Miniature Paintings

Birds and Animals: In Mughal Miniature Paintings

वनस्पतियों और जीवों का चित्रण भारतीय चित्रकला परंपराओं का एक आंतरिक हिस्सा रहा है। मुगलों ने अपनी आकर्षक पेंटिंग में अपनी पेंटिंग की कला को एक विशेष गुण देने के लिए पक्षी और जानवरों की कल्पना का इस्तेमाल किया। 70 से अधिक दृष्टांतों वाली यह पुस्तक मुगल चित्रों में उपयोग किए जाने वाले पक्षियों और जानवरों का एक सर्वेक्षण है, विशेष रूप से सम्राट अकबर और जहांगीर के शासनकाल के दौरान। ऐतिहासिक विवरणों के साथ, यह दर्शाता है कि विभिन्न प्रकार के पक्षियों और जानवरों के चित्रण ने संदर्भ या आख्यानों की मांगों के अनुरूप महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कलाकारों ने जंगली और घरेलू दोनों तरह के जानवरों को समान क्षमता के साथ चित्रित किया। जहांगीर ने एल्बम चित्रों की शुरुआत की और जीवों के व्यक्तिगत चित्र अध्ययन में रुचि दिखाई। कुल मिलाकर, यह मुगल कला में जीवों के सूक्ष्म चित्रण और इसकी स्थायी सुंदरता को दर्शाता है। इसमें कई कलाकारों के नामों का उल्लेख है। यह पुस्तक इतिहासकारों को विशेष रूप से मध्यकाल के कला इतिहास का अध्ययन करने वालों के लिए रुचिकर लगेगी।

2. Bhartiya Rajasthani Laghu Chitrakala Gaurav / भारतीय राजस्थानी लघु चित्रकला गौरव: Mewad Shaily se Kota Shaily tak

Bhartiya Rajasthani Laghu Chitrakala Gaurav / भारतीय राजस्थानी लघु चित्रकला गौरव: Mewad Shaily se Kota Shaily tak

समय-समय पर पाठकों की रुचि के कई अनेक लेखोन ने भारती राजस्थानी चित्रकला के इतिहास पर पुस्तक लिखी। राजस्थानी चित्रकला के कालखंड के इतिहास का गहन तथा वास्तुनिष्ट अध्ययन करने के लिए संछिप्त विभिन्नात्मक तथा सूक्ष्म तत्त्वों को लिखने की आवशयकता का परिनम ये पुस्तक है।

इतिहास लिखने में भाषा बदल जाती है और नहीं बदलते। तथा केवल तब बदलते हैं, जब नई खोज होती है, अत: सभी उत्थान राजस्थानी पुस्तकों के लेख विद्यावनों के प्रति सदर प्यार व्यक्त करना मेरा परम कार्तव्य है। अत: उन सभी विद्यावनों के प्रति माई सदर कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं। जिन्के लिखे कला साहित्य ने सभी का मार्ग दर्शन किया है।

अत: मेरी आशा है की ये पुस्तक पाठक और कला में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों के लिए अतिंत उपयोगी एवम महात्वपूर्ण सिद्ध होगी।

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