जयपुर नरेश जयसिंह प्रथम की सभा के राजपुरोहित पंडित यशोधर ने ग्यारहवीं शताब्दी में ‘कामसूत्र’ की टीका ‘जयमंगला’ नाम से प्रस्तुत की। ‘कामसूत्र’ के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधर ने आलेख्य या शिल्प (चित्रकला) के छ अंग षडंग बताये हैं जो निम्न हैं
शिल्प के षडंग ( Six Limbs of Painting)
- (१) रूपभेद-
- (२)प्रमाण- (ठीक अनुपात, नाप तथा बनावट)
- (३) भाव- ( आकृतियों में दर्शक को चित्रकार के हृदय की भावना दिखाई दे )
- (४) लावण्ययोजना- ( कलात्मकता तथा सौन्दर्य का समावेश)
- (५) सादृश्य- (देखे हुए रूपों की समान आकृति)
- (६) वर्णिकाभंग (दृष्टि का ज्ञान)- (रंगों तथा तुलिका के प्रयोग में कलात्मकता)
कामसूत्र में उपरोक्त छः अंगों को निम्न श्लोक में प्रस्तुत किया गया है
श्लोक
रूपभेदाः प्रमाणानि भाव लावण्ययोजनम् ।
सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्रं षडंगकम् ।। (कामसूत्र)
प्राचीन भारतीय कला में इन छः अंगों का पालन आवश्यक समझा जाता था। अजंता, बाघ आदि की चित्रकारी में चित्रकला के इन छः अंगों या पडंगों का पालन किया गया है। कला सिद्धान्तों के अनुसार षडंगों का ठीक प्रदर्शन किये बिना चित्र निर्जीव रहता है। इन छः अंगों का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है
1. रूपभेद
प्रत्येक आकृति में ऐसी भिन्नता या चारित्रिक विशेषता प्रदर्शित होनी चाहिए कि जिससे अमुक व्यक्ति की आकृति को पहचाना जा सके। जिस विशेषता या गुण के द्वारा आकृति में सत्य की अभिव्यक्ति हो उसी गुण का नाम ‘रूप’ है जैसे माता के रूप से माता और धाया के रूप से धाया का आभास हो तब ही रूप रचना सार्थक और सत्य होगी।
रूप साक्षात्कार आत्मा तथा आँखों दोनों के द्वारा किया जा सकता है। चक्षुओं के द्वारा हम किसी वस्तु की लम्बाई, चौड़ाई, छोटापन, मोटापन, पतलापन, सफेदी या कालेपन का ज्ञान प्राप्त करते हैं किन्तु उस वस्तु में निहित व्यापक सौन्दर्य को हम आत्मा के द्वारा ग्रहण कर सकते हैं।
नेत्रों का सम्बन्ध सर्वप्रथम रूप से होने के पश्चात् ही शनैः शनैः आत्मा का सम्बन्ध स्थापित होता है। भिन्न-भिन्न कलाकार रूप का साक्षात्कार अपनी-अपनी ज्ञान इन्द्रियों की शक्ति के आधार पर भिन्न-भिन्न प्रकार से करते हैं इसीलिये एक ही वस्तु से कई कलाकारों के द्वारा बनाये हुए चित्र भिन्न आकार, प्रकार तथा अनुपात के होंगे।
किसी भी कृति की परख चाहे आँख से करें या मस्तिष्क द्वारा करें, दोनों दशाओं में रुचि का होना आवश्यक है। जब हम किसी वस्तु या आकृति को देखते हैं तो उसके रंग, अनुपात, आकार तथा प्रकार में हमारी रुचि विलीन हो जाती है तभी हम उस वस्तु का वास्तविक आनंद ग्रहण करते हैं।
इस रुचि के आधार पर ही हम रूप को शुभ या अशुभ रूप में ग्रहण करते हैं। किसी भी कलाकृति में रूपरेखा जितनी सरल तथा स्वाभाविक होगी चित्र उतना ही उत्तम होगा। किसी भी कृति में यह गुण समाविष्ट होने पर भिन्न-भिन्न रुचि के मनुष्य आनंद ग्रहण कर सकते हैं।
2. प्रमाण
प्रमाण का अर्थ आकृतियों के अनुपात का ठीक ज्ञान करना है। प्रमाण के अन्तर्गत आकृतियों के माप, लम्बाई-चौड़ाई, सीमा, रचना, कद, कौंड़ा आदि आकृति का विवरण आ जाता है।
प्रमाण के द्वारा मूल वस्तु का ज्ञान चित्र में भरा जा सकता है। अनुपात के लिये उचित ज्ञान को ‘प्रमा’ के नाम से सम्बोधित किया गया है। किसी विशाल पर्वतमाला या सागर तट को किसी दीवार के धरातल पर अंकित करने से पहले पर्वत, आकाश, वृक्ष या सागर, नौका तट आदि के लिये अनुपातानुसार छोटा करके यथा स्थान अनुपात में रखना होगा।
यही हमारी प्रमा शक्ति का कार्य माना गया है। प्रमा इस अनंत सृष्टि या सीमित जगत को मापने, देखने, समझने के लिये हमारे अन्तःकरण का मापदण्ड है। प्रमा से न केवल निकट या दूरी का ज्ञान होता है बल्कि किसी वस्तु का कितना भाग चित्र में प्रस्तुत करें जिससे चित्र आकर्षक लगे इसका भी प्रमा ही निर्धारण करती है।
प्रमा के द्वारा ही हम पुरुष तथा स्त्री अनुपात की विभिन्नता, पशु-पक्षी आदि की भिन्नता तथा भेदों को ग्रहण करते हैं पुरुष तथा स्त्री की लम्बाई-चौड़ाई में भेद, उनके अंगों की रचना किस क्रम में होनी चाहिए अथवा देवताओं, राजाओं और साधारण मनुष्य के चित्रों के कद का क्या अनुपात है ये तत्व प्रमा के द्वारा ही निश्चित किये जाते हैं।
चित्राचायों ने प्रमाण के आधार पर पाँच प्रकार के रूपों का वर्णन दिया है जो इस प्रकार है
- (१) मानव-दस ताल (जैसे पांडव, राम, कृष्ण, शिव आदि),
- (२) भयानक-बारह ताल (जैसे भैरव, वाराह, हयग्रीव),
- (३) राक्षस-सोलह ताल (जैसे कंस, रावण),
- (४) कुमार-आठ ताल (जैसे वामन),
- (५) बाल-पाँच ताल (जैसे बाल गोपाल)। इस नाप-तोल में ताल को एक इकाई माना गया है।
इसी आधार पर विभिन्न आकृतियों के अनेक प्रमाण बताये गए हैं।
(3) भाव
भाव का प्रदर्शन आकृति की भंगिमा से होता है भारतीय काव्यशास्त्र में भाव के लिए काव्य रचना का मूल आधार माना गया है और भावो की महत्ता पर सूक्ष्मता से विचार किया गया है। भाव के उदय से ही शरीर तथा इन्द्रियों में विकार की स्थिति उत्पन्न होती है।
भाव दो प्रकार से प्रकट होता है-
(१) प्रकट
(२) प्रच्छन्न
भाव के प्रकट रूप का दर्शन हम नेत्रों के द्वारा कर सकते हैं परन्तु प्रच्छन्न रूप का अनुभव केवल मन के द्वारा कर सकते हैं।
वर्षाकाल के काले बादलों तथा हरियाली का सौन्दर्य, माथे पर हाथों को रखकर बैठने में, आँखों को दबाकर रोने में, अस्त-व्यस्त केशों के लहराने में, अधरों और नयनों की फड़कन में झुकी झुकी पलकों में, जो भाव प्रकट होते हैं उन्हें हम प्रकट रूप में आँखों से देख सकते हैं।
किन्तु भाव के प्रच्छन्न रूप का आँखों को आभास नहीं होता, इसका ज्ञान अनुभव के द्वारा होता है। चित्र की ये अचित्रित बातें, जो नेत्रों के द्वारा नहीं देखी जातीं व्यंजना के द्वारा पहचानी जा सकती हैं बाहर के रूप को रेखा, रंगों तथा आकारों के द्वारा प्रकट रूप में अंकित किया जा सकता है परन्तु भाव के व्यंग्य पक्ष को या उसके आन्तरिक रूप को कलाकार रूप की ओट में अभिव्यक्त करता है।
आकृति के शरीर की विभिन्न स्थितियों में परिवर्तन के द्वारा कलाकार अपने हृदय के भावों को प्रदर्शित करता आया है। परन्तु मन के अव्यक्त भावों को दिखाना बहुत कठिन होता है।
उदाहरण में मान लीजिये कि हमें किसी भिखारी के कटोरे को दिखाना है तो केवल उसको पुराना दिखाकर ही आशय पूर्ण नहीं होता, इसलिये हमें एक भिखारी जैसे दुर्बल, फटेहाल, हाथ फैलावे भिखारी को भी उसके साथ बनाना होगा, अन्यथा वह कटोरा गरीब, धनवान, संत या कबाड़ी का भी माना जा सकता है।
भाव की ऐसी समस्या का समाधान व्यञ्जना शक्ति (Suggestion) से किया जाता है। ऐसी दशा में कलाकार चित्र की पृष्ठभूमि में ऐसे प्रतीकों या सहायक रूपों को संयोजित कर देता है जिससे अभीष्ट भाव का उदय हो।
(4) लावण्ययोजना
रूप, प्रमाण तथा भाव के साथ चित्र में लावण्य का होना परम आवश्यक है। प्रमाण जिस प्रकार रूप को ठीक दिशा देता है उसी प्रकार लावण्य को उत्कर्ष प्रदान करता है। भाव आन्तरिक सौन्दर्य का बोधक है और लावण्य वाह्य सौन्दर्य का प्रतीक है।
भाव द्वारा कभी-कभी चित्र में कर्कशता का आभास होने लगता है किन्तु लावण्ययोजना से वह आकर्षक बन जाता है। चित्र में रूप और प्रमाण की यथोचित उपयुक्त व्यवस्था होने पर भी लावण्य का समावेश किये बिना चित्र से सौन्दर्य की अभिव्यञ्जना नहीं होती।
दूसरी ओर लावण्य का उदय मुख्यतया रूप, प्रभाण तथा भाव से ही होता है। जिस प्रकार एक कान्ति (लावण्य) रहित मोती की भंगिमा निष्प्रभ है उसी प्रकार रूप प्रमाण तथा भाव से युक्त चित्र भी ‘लावण्य’ के बिना आकर्षण रहित है। लावण्य का ठीक संतुलन भी आवश्यक है।
(5) सादृश्य
मूल पदार्थ या भाव को उसकी प्रतिकृति में मूल जैसी समानता के साथ दर्शित करना ‘सादृश्य’ है। चित्र सत्य पर आधारित हो या कल्पना पर इसमें चित्रित व्यक्ति या आकृति को दर्शक तुरन्त पहचान जाये तो सादृश्य ठीक है।
जिस वस्तु को हम चित्र में अंकित करते हैं, उसके गुण अथवा दोष चित्र में समाविष्ट होना चाहिए। उदाहरणार्थ बुद्ध के चित्र में उनकी दया तथा अहिंसा की वे विशेषताएं होनी चाहिए जो उनमें सारे संसार ने देखीं।
यदि वे विशेषताएं चित्र में नहीं हैं तो चित्र को महावीर स्वामी का भी समझा जा सकता है, क्योंकि दोनों ने ही तपस्या की और दोनों का योगी रूप है। परन्तु इसके लिए बुद्ध को कटे केश, अहिंसा का संदेश देती मुद्रा में तथा हाथ में भिक्षापात्र लिये अंकित करना होगा। महावीर के चित्र में ये विशेषताएँ उपयुक्त नहीं हैं।
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने किसी रूप के भाव को किसी दूसरे रूप में प्रकट कर देने को सादृश्यता उत्पन्न करना माना है। यदि एक वस्तु से दूसरी वस्तु का भाव उत्पन्न होता है-या भिन्नता होते हुए भी यदि दोनों वस्तुओं में समानता है तो उनका अपना-अपना स्वभाव है।
लहरदार आकृति की समानता होने के कारण वेणी से सर्प को सादृश्य किया गया है परन्तु यह दोनों भिन्न हैं क्योंकि सर्प का धर्म है जमीन पर सरकना और वेणी का धर्म है सिर से लटकना । यदि जमीन पर वेणी पड़ी हो तो उसका धर्म सर्प का भय दिखाना नहीं है।
सादृश्य ऐसा सच्चा तभी होगा जब जहाँगीर के चित्र को दर्शक जहाँगीर का ही कहें, औरंगज़ेब का नहीं इस प्रकार चित्र को पहचानने में जब दर्शक भूल नहीं करता तो चित्र की शुद्धता सराहनीय है, जो सादृश्य के द्वारा ही प्राप्त है।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के अन्तर्गत चित्रसूत्र नामक अध्याय में सादृश्य को प्रमुख वस्तु माना गया है। “चित्रे सादृश्यकरणम् प्रधानं परिकीर्तितम्।” (चित्रसूत्र )
(6) वर्णिका भंग
वर्णिका का अर्थ है कलात्मक ढंग से नाना रंगों तथा तूलिका का प्रयोग किस प्रकार के चित्र के लिए किस प्रकार के वर्णों का प्रयोग करना चाहिए तथा किस रंग के साथ कौन सा रंग आना चाहिए ये सभी समस्याएं वर्णिकाभंग के अन्तर्गत आती हैं।
रंग की भिन्नता से वस्तुओं का अस्तित्व ही प्रदर्शित नहीं होता बल्कि उनका अंतर भी अभिव्यक्त होता है। बिना वर्ण साधना के उपरोक्त प्रथम पांच अंगों का कोई दृष्टव्य अस्तित्व नहीं रहता बल्कि उनका स्थान केवल मन तक सीमित रह जाता है।
इस प्रकार उपरोक्त पांच कला अंगों को वर्ग विधि तथा तुलिका ही साकार रूप प्रदान करती है। यद्यपि वर्ण पांच माने गये हैं परन्तु इनके सम्मिश्रण से सैकड़ों सम्मिश्रित वर्ण उत्पन्न होते हैं। पशु, पक्षी, मानवाकृति आदि में किस प्रकार के रंगों का प्रयोग किया जाए चित्रकार के लिए यह जानना परमावश्यक है।
वर्ण ज्ञानं नास्ति किं तस्य जपपूजनेः।
वर्णिका भंग की पूर्णता प्राप्त करने के लिए लघुता, मित्रता और हस्तलाघव और वर्ण के कौशल की आवश्यकता है। यदि किसी पुष्प का चित्र बनाना है तो उससे फूलों का रंग ही नहीं सुगंध की भावना का उदय भी होना चाहिए।
वात्स्यायन ने यह भी उल्लेख किया है कि नागर के आवास कक्ष में पलंग (सेज) के सिरहाने खूंटी पर वीणा तथा चित्र – रचना का सामान टंगा होना चाहिए।
प्रेमिका को वश में करने का एक उपाय बताते हुए यह भी कहा गया है कि जहाँ उसका घूमना-फिरना हो वहाँ उसके चित्रों के साथ नायक का चित्र बनाकर रख देना चाहिए।
चित्रकर्म के जिन छः अंगों का ऊपर विवेचन किया गया, वस्तुतः ये ‘भारतीय शिल्प’ के छः अंग हैं। शिल्प शब्द का अर्थ व्यापक है और चित्रकला भी एक शिल्प है। वाद में ‘शिल्प’ शब्द का अर्थ ‘कला’ से लिया जाने लगा। अन्ततः शिल्प, स्थापत्य और चित्र, ये कला के तीन भेद माने जाने लगे।
भारतीय लघु चित्रों की पुस्तकें | Books of Indian Miniature Paintings
1. Birds and Animals: In Mughal Miniature Paintings

Birds and Animals: In Mughal Miniature Paintings
वनस्पतियों और जीवों का चित्रण भारतीय चित्रकला परंपराओं का एक आंतरिक हिस्सा रहा है। मुगलों ने अपनी आकर्षक पेंटिंग में अपनी पेंटिंग की कला को एक विशेष गुण देने के लिए पक्षी और जानवरों की कल्पना का इस्तेमाल किया। 70 से अधिक दृष्टांतों वाली यह पुस्तक मुगल चित्रों में उपयोग किए जाने वाले पक्षियों और जानवरों का एक सर्वेक्षण है, विशेष रूप से सम्राट अकबर और जहांगीर के शासनकाल के दौरान। ऐतिहासिक विवरणों के साथ, यह दर्शाता है कि विभिन्न प्रकार के पक्षियों और जानवरों के चित्रण ने संदर्भ या आख्यानों की मांगों के अनुरूप महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कलाकारों ने जंगली और घरेलू दोनों तरह के जानवरों को समान क्षमता के साथ चित्रित किया। जहांगीर ने एल्बम चित्रों की शुरुआत की और जीवों के व्यक्तिगत चित्र अध्ययन में रुचि दिखाई। कुल मिलाकर, यह मुगल कला में जीवों के सूक्ष्म चित्रण और इसकी स्थायी सुंदरता को दर्शाता है। इसमें कई कलाकारों के नामों का उल्लेख है। यह पुस्तक इतिहासकारों को विशेष रूप से मध्यकाल के कला इतिहास का अध्ययन करने वालों के लिए रुचिकर लगेगी।
2. Bhartiya Rajasthani Laghu Chitrakala Gaurav / भारतीय राजस्थानी लघु चित्रकला गौरव: Mewad Shaily se Kota Shaily tak

समय-समय पर पाठकों की रुचि के कई अनेक लेखोन ने भारती राजस्थानी चित्रकला के इतिहास पर पुस्तक लिखी। राजस्थानी चित्रकला के कालखंड के इतिहास का गहन तथा वास्तुनिष्ट अध्ययन करने के लिए संछिप्त विभिन्नात्मक तथा सूक्ष्म तत्त्वों को लिखने की आवशयकता का परिनम ये पुस्तक है।
इतिहास लिखने में भाषा बदल जाती है और नहीं बदलते। तथा केवल तब बदलते हैं, जब नई खोज होती है, अत: सभी उत्थान राजस्थानी पुस्तकों के लेख विद्यावनों के प्रति सदर प्यार व्यक्त करना मेरा परम कार्तव्य है। अत: उन सभी विद्यावनों के प्रति माई सदर कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं। जिन्के लिखे कला साहित्य ने सभी का मार्ग दर्शन किया है।
अत: मेरी आशा है की ये पुस्तक पाठक और कला में रुचि रखने वाले विद्यार्थियों के लिए अतिंत उपयोगी एवम महात्वपूर्ण सिद्ध होगी।