जिस तरह पूर्व पाषाणकालीन गुफावासियों की कला ‘आदिम कला’ कहलाती है, उसी तरह समकालीन या किसी अन्य काल खण्ड की आदिम मानव जातियों की कला को भी ‘आदिम कला’ के अन्तर्गत मानते हैं, क्योंकि सबके पीछे मानव की मूलभूत आदिम प्रवृत्तियाँ सर्जन प्रेरणा के रूप में समान तरीकों से कार्य करती हैं।
अफ्रीका, अमेरिका तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के द्वीप समूह के मूल निवासियों को ‘आदिम मानव’ माना जाता है। आदि मानव की ऐसी परिभाषा निश्चित करना कठिन है जिससे उसको सभ्य मानव से अलग एवं पृथक रूप से पहचाना जाये।
नैतिक कल्पना, वैज्ञानिक ज्ञान या व्यावसायिक कौशल के आधारों पर सभ्य मानव व आदिम मानव के बीच मूलभूत अन्तर दिखाने के प्रयत्न हुए हैं, किन्तु उनमें कुछ स्पष्ट त्रुटियाँ हैं।
कई आदिम जातियाँ अपने नैतिक नियमों का कट्टरता से पालन करते हुए दिखाई देती हैं एवं उनमें नियमों के उल्लंघन पर कठोर दण्ड के विधान की व्यवस्था भी है।
पोलिनेशिया के आदिवासी जलयात्रा करते थे व उनको खगोलशास्त्र का अच्छा ज्ञान था जो उन्होंने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से निरीक्षण करके ही प्राप्त किया होगा।
जिस कठिनतम परिस्थिति में एस्किमो जाति के लोग सफलतापूर्वक अपना जीवनयापन कर रहे हैं उसको देखते हुए हम यह नहीं कह सकते कि वे व्यवहार कौशल की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं।
कई आदिवासी जातियों की समाज व्यवस्था, कानून व दण्ड विधान उनकी कुशाग्र बुद्धि के परिचायक हैं।
केवल धर्म ही ऐसा क्षेत्र है जिसमें आदि मानव का व्यवहार बहुत ही अंधविश्वासी व तर्कहीन प्रतीत होता है। किन्तु इस प्रकार की तर्कहीनता या अन्धविश्वास सुसभ्य मानवों के व्यवहारों में भी अक्सर देखने को मिलता है।
अतः ऐतिहासिक अध्ययन के विचार से साधारणतया यूरोपीय व एशियाई सभ्यताओं के बाहर ही मानव जातियों को आदिम जातियाँ माना गया है।
पूर्व पाषाणकालीन मानवों व समकालीन आदिवासी जातियों के सांस्कृतिक विकास के स्तरों को समतुल्य नहीं मान सकते, यद्यपि दोनों में काफी समानताएँ देखने को मिलती हैं।
लिओनार्ड अॅडम के मतानुसार, 'आदिम कला' एक व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत भिन्न काल खण्डों में विद्यमान भिन्न असभ्य जातियों की कला निर्मिति समाविष्ट है जो विविध मनोवृत्तियों, स्वाभाविक प्रवृत्तियों, ऐतिहासिक घटनाओं एवं वातावरण के प्रभावों की सूचक हैं।
प्रत्येक आदिम जाति अपनी कला को किसी विशेष शैली में विकसित करते हुए दिखायी देती है, जिसमें कुछ खास निर्धारित आकारों, वस्तुओं, अलंकरणों, रचनाओं एवं रंगांकन विधियों को महत्त्व दिया जाता है।
सुसभ्य मानव जातियों के समान उनमें भी लोकाचार का महत्त्वपूर्ण स्थान है, जिससे कभी कला शैली में परिवर्तन आ जाता है, किन्तु रूढिप्रियता व परम्परानिष्ठता से उसको विरोध भी होता है।
देवता, पिशाच या वीरों से सम्बन्धित उनके नृत्यों व त्योहारों में प्राचीन पोशाक, आभूषण व परम्परानिष्ठा अब तक प्रचलित रहे हैं एवं प्राचीन काल में प्रयोग में लाये गये, किन्तु अब अप्रयुक्त शस्त्रों का भी ऐसे प्रसंगों पर दिखावा होता है।
धर्म व परम्परा की निष्ठा के कारण ही आदिम कला में नये सर्जन से भी परम्परागत कलाकृतियों की प्रतिकृतियाँ बनाने की प्रवृत्ति आमतौर पर अधिक प्रबल होती है।
इसके साथ ईसाई तथा बौद्ध कला के समान कलाकारों को अपनी स्वतंत्र प्रतिभा एवं सर्जन शक्ति के अनुसार नयी रूप कल्पना की निर्मिति करने के अवसर भी प्राप्त होते हैं।
ऐसे शायद ही कुछ कलातत्त्व होंगे जो सभी आदिम कला- शैलियों में समान रूप से प्रकट हुए होते हैं। विकसित सभ्यताओं की कला शैलियों का पृथक वर्ग बन गया है सभ्य दर्शकों पर आदिम कलाकृति का अनोखा व अकल्पित प्रभाव पड़ता है।
उसके अनोखेपन मात्र से ही दर्शकों को एक निराली सौन्दर्यानुभूति का लाभ होता है। अपरिचितता के कारण दर्शक पर इसके विपरीत परिणाम होकर वह उसको घृणित भी मान सकता है।
हमारे लिये विजातीय आदिम कलाकृति अलौकिक व रहस्य आवरण के पीछे प्रछन्न रहती है, यद्यपि उसके अनूठे रूप व निराली रंगसंगति से हम आकर्षित हुए बिना नहीं रह सकते।
कलाकृति का यथातथ्य रसास्वादन तभी सम्भव है जब उसकी निर्मिति हमारे कलात्मक सौन्दर्य के आदर्शों के अनुकूल होती है या उनसे कम से कम बाहरी तौर पर कुछ सम्बन्ध रखती है।
कला के मूल तत्त्वों से अपिरिचित सामान्य दर्शक आदिम कलाकृति को अपरिपक्व व रससंगति, लयबद्धता, अवकाश स्थापन आदि कलात्मक गुणों के विचार से निम्न स्तर की कृति मानता है।
वह समझता है कि आदिम मानव की यह कृति कला न होकर कला के निर्माण में कुशलताहीन आदिम मानव के आरम्भिक प्रयत्न मात्र हैं।
किन्तु कलामर्मज्ञों के मतानुसार कला के मूल तत्त्वों का व अंकन कौशल का विचार करते हुए, आदिम मानव की कला न केवल हमारी श्रेष्ठ कला के समतुल्य है बल्कि उसके सर्जन के पीछे सच्ची प्रतिभा एवं स्वाभाविक सरल प्रत्यक्षीकरण के तत्त्व विद्यमान हैं।
कला गतिमान चिन्मय तत्त्व की सृष्टि है। अतः कलाशैली स्थायी रूपों में बंधी नहीं रह सकती। यह इतिहास द्वारा प्रमाणित सत्य है कि कला के रूप में समय एवं सांस्कृतिक भिन्नता के साथ परिवर्तन होता रहता है।
अतः आदिम कला के यथातथ्य अध्ययन एवं मौलिक सौन्दर्य के लिए आवश्यक हैं कि उसके प्रति हम अपने पूर्वाग्रह दूषित दृष्टिकोण को त्यागें ।
हमारे कलाकारों के समान आदिम कलाकारों ने पत्थर, हाथीदांत, हड्डियाँ, लकड़ी, मिट्टी आदि विभिन्न सामग्री को लेकर जो श्रेष्ठ दर्जे की कलानिर्मिति की है वह उसके स्वाभाविक कौशल व बुद्धिमत्ता की परिचायक है।
रंगांकन में भी उन्होंने खनिज, वनस्पतिज व कहीं प्राणिज रंगों का प्रयोग किया है। उसके माध्यम का चुनाव उसकी आवश्यकता व आसपास के वातावरण पर निर्भर करता है।
आदिम कलाकार अपनी कला को हस्तकौशल के रूप में स्वीकारता है व सर्जन तथा अंकन विधि की सभी प्रक्रियाओं में शुरू से अंत तक कड़े परिश्रम के साथ अकेला ही कार्य करता है, यद्यपि कुछ टोलियों में कई कलाकारों द्वारा सहकारिता के तत्त्वों पर कलाकृतियों के निर्माण करने की प्रथा है।
साधन सामग्री को जुटाना, रंगों तथा अन्य माध्यमों को तैयार करके कला कार्य के लिए उपयुक्त बनाना आदि चरणों की सफलता के लिए वह स्वयंमेव उत्तरदायी होता है।
इस दृष्टि से उसका कार्य अधिक कठिन है व उसमें असाधारण व्यावसायिक कौशल अपेक्षित है। आदिम कला में अनुपात, परिप्रेक्ष्य, शरीर रचना शास्त्र, छाया प्रकाश वगैरह कला के वैज्ञानिक पहलुओं की प्रायः उपेक्षा की जाती है, यद्यपि पूर्व पाषाणकालीन कला व बुशमैनों की कला में स्थितिजन्य लघुता, रेखात्मक परिप्रेक्ष्य व छाया प्रकाश के विचार से असाधारण स्तर की कला निर्मिति की गयी है।
आदिम कला की ही कुछ शैलियों में उत्कृष्ट दर्जे का व्यक्ति चित्रण भी उपलब्ध है। बुशमैन चित्रकारों ने जानवरों का काफी यथार्थवादी ढंग से चित्रण किया है जो आसानी से समझ में आ जाता है।
आदिम कला भी हमारी कला की भाँति आदिम मानव के बाह्य तथा अंतरंग जीवन व विचारों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है।
सच यह है कि अधिकतर आदिम कला की निर्मिति स्मृति व कल्पना के समन्वित आधारों पर की गयी है जैसे कि देवता, पिशाच एवं काल्पनिक प्राणियों की मूर्तियाँ व चित्र किन्तु अफ्रीका, अमेरिका व दक्षिणी महासागरीय द्वीप समूहों के आदिवासियों द्वारा निर्मित ऐसी कई मूर्तियाँ व चित्र प्राप्त हैं जो इतने नैसर्गिक रूप व व्यक्तित्व से प्रभावी हैं कि निश्चय ही वे वास्तविकता का निरीक्षण करके बनाये गये होंगे।
आलंकारिक चित्रण, सजावट तथा वस्त्रों, टोकरियों व बर्तनों पर रचायी परिकल्पनाओं में ज्यामितीय आकारों की भरमार है। व उसकी विविधता का कोई अन्त नहीं है।
कुछ परिकल्पनाओं में मानव प्राणी, वनस्पति या किसी अन्य वस्तु को अभिप्राय के रूप में लेकर आलंकारिक आकृतियों की योजना की है।
इस तरह का अभिप्रायों का कलाकारों द्वारा चयन या तो सोच-समझकर किया जाता है या आकृति को बनाते समय उसमें संयोगवश दिखायी देने वाले सादृश्य से प्रेरणा पाकर आकृति को किसी अभिप्राय की ओर विकसित करने से हो जाता है।
किसी भी कलाकृति के बारे में यह कहा गया है कि उसमें यथोचित रसास्वादन के लिए आवश्यक है कि उसका निर्माण जिस प्रयोजन से एवं जिस कार्य व वातावरण के लिए हुआ हो उनको समझ कर उस वातावरण के अन्तर्गत प्रयुक्त स्थिति में उसको देखना होगा।
पूर्णतया भिन्न व अनोखे सांस्कृतिक वातावरण में निर्माण की गई आदिम कलाकृति को यह विधान अत्यधिक यथार्थ रूप से लागू होता है। अफ्रीका के भयानक घने जंगल में अवस्थापित मंदिर के लिए निर्मित आदिम देवता की मूर्ति का यथार्थ प्रभाव उसको संग्रहालय में या सजावट के उद्देश्य से रखे गये सभ्य मानव के घर की बैठक में देखने से नहीं हो सकता।
प्रायः यह मत व्यक्त किया जाता है कि आदिम कला यूरोपीय कला से इस विचार से भिन्न है कि वह सर्वश्रेष्ठ उपयुक्ततावादी कला है।
आदिम कला के संदर्भ में ‘कला के लिए कला’ व ‘प्रयुक्त कला’ ऐसा विरोध या अन्तर दिखायी नहीं देता।
आदिम कला आदिम मानव के जीवन के भिन्न उद्देश्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। कला के लिए कला का समुचित उदाहरण प्रकृति-चित्रण है जिसका आदिम कला में अभाव है।
आरम्भकालीन कला व धर्म के अविच्छेद्य सम्बन्ध की सार्वत्रिक्ता को नकारा नहीं जा सकता। ईसाई कला, बौद्ध कला एवं मिस्र, बेबिलोनिया, असिरिया, ग्रीस आदि अति प्राचीन सभ्यताओं की कलाओं से इस बात का समर्थन होता है।
समस्त आदिम कला जो प्राचीनतम पूर्वपाषाणकालीन कला के समकक्ष है, भी इसका अपवाद नहीं है। तथापि इस बात को ध्यान में रखना होगा कि आदिम मानव के धर्म का स्वरूप, विकसित संस्कृतियों के एकेश्वरवादी या निर्गुणवादी धर्मों के स्वरूपों से बिल्कुल भिन्न होता है।
सबसे प्राचीन धर्म जादू-टोने के स्वरूप का था जिसमें मानव के भावी जीवन का निर्धारण करने वाली अलौकिक शक्तियों का विश्वास किया जाता था व उसको सन्तुष्ट करने के लिए मंत्र-तंत्र विधि, कर्मकाण्ड व बलिदान प्रचलित थे।
इन सब विधियों में उपयुक्त एवं परिणामकारक साधन के रूप में कला को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। आदिम धर्म पूर्वज पूजा के रूप में भी विश्व के कई प्रदेशों में प्रचलित हुआ।
परिणामतः पश्चिमी अफ्रीका, न्यूगिनि, मेलानेशिया व उत्तर-पश्चिमी अमेरिका के आदिवासियों में पूर्वजों की मूर्तियाँ बनाने की कला काफी विकसित हुई। टोटमवाद के उद्भव के सम्बन्ध में कोई सुनिश्चित जानकारी प्राप्त नहीं है व मानव वंश शास्त्रज्ञों तथा समाजशास्त्रों के सम्मुख वह एक जटिल प्रश्न है।
तथापि टोटमवाद के कारण आदिम कला में नकाब निर्माण, गोदना, जाति नृत्य व नृत्यनाट्य का विशेष प्रसार हुआ। प्रत्यक्ष भौतिक घटनाओं को काल्पनिक कारणों से सम्बन्धित करने के आदिम मानव मनोविज्ञान में ही सम्पूर्ण आदिम कला का जन्म हुआ है।
अधिकतर आदिम कला का जन्म धर्म में ही हुआ है व अलंकरण या सम्प्रेषण के उद्देश्य से निर्मित आदिम कलाकृतियों की संख्या कम है। अतः आदिम कला का केवल सौन्दर्यात्मक या रूपप्रद गुणों का विचार करके किया हुआ अध्ययन अपर्याप्त होगा।
सर माइकेल सैंडलर का निश्चित मत है कि आदिम कला के यथोचित सौन्दर्य रसास्वादन के लिये आदिम धर्म का ज्ञान अनिवार्य है।
किन्तु जे. जे. स्वीनी व कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि धार्मिक, मानवजाति विज्ञान सम्बन्धी या ऐतिहासिक विचारों को कला के अध्ययन में सम्मिलित करने से कलाकृति के सच्चे सौन्दर्य की उपेक्षा करने की प्रवृत्ति मात्र बढ़ती है जो अत्यन्त हानिकारक है क्योंकि सौन्दर्यानुभूति ही कला के अध्ययन का प्रधान उद्देश्य है।
नीग्रो कला के सौन्दर्यात्मक अध्ययन से पिकासो व ब्राक ने प्रेरित होकर घनवाद को जन्म दिया। समकालीन आदिम मानवों की कला में अफ्रीका व ओशियानिया द्वीप समूह की कला अधिक विकसित व प्रसिद्ध है।
अफ्रीका के आदिम लोगों में पूर्व पाषाणकालीन एवं नव पाषाणकालीन कला के समरूप चित्रण का एक साथ अस्तित्व दिखायी देता है जिसके बुशमैन व पश्चिमी अफ्रीका के नीग्रो लोगों की कला उदाहरण है।
अफ्रीका के बुशमैन अब तक अपने प्राचीन काल से चले आ रहे भ्रमणकारी जीवन क्रम को बनाये रखे हैं। जहाँ खाद्यान्न मिलना सम्भव हैं वे चले जाते हैं व उनमें स्थायी सामाजिक जीवन के विचार का प्रादुर्भाव नहीं हुआ है।
अफ्रीका में पूर्वपाषाणकालीन बुशमैनों की कला के अलावा विद्यमान बुशमैनों की भी तत्सम शैली की कला उपलब्ध है।
पश्चिमी अफ्रीका की नीग्रो जातियाँ अधिक विकसित हैं। वे खेती करती हैं व दन पर जीवात्मवादी धर्मकल्पनाओं का काफी प्रभुत्व है।
वे सब वस्तुओं में आत्मा के अस्तित्व का एवं सृष्टि के अदृश्य गूढ़ अलौकिक शक्तियों का भी विश्वास करते हैं। अतः उनकी कला में इन शक्तियों को प्रतीकात्मक दृश्य रूप देने के प्रयत्न हैं।
आधुनिक अभिव्यंजनावादी कलाकारों के समान नीग्रो कलाकार वस्तुओं व प्राणीमात्र के बाह्य रूपों की उपेक्षा करके उनके आन्तरिक भावों को व्यक्त करने की अभिलाषा करते हैं।
आदिम नीग्रो मूर्तिकला के सहज सरल रूप ने यूरोपीय आधुनिक कलाकारों को काफी प्रभावित किया है।
पश्चिमी अफ्रीका के नीग्रो लोग भूतों एवं दुष्ट, अदृश्य शक्तियों का पक्का विश्वास करते हैं एवं सच्ची निष्ठा से अग्नि, जल व जंगली जानवरों के अन्तर्गत उनके अस्तित्व को मानते हैं।
अतः उनके द्वारा काल्पनिक रूपों में निर्मित इन शक्तियों की प्रतिमाएँ अनोखी भावनाओं से ओत-प्रोत एवं रहस्यमय सामर्थ्य से परिपूर्ण बन गयी हैं।
उन लोगों के लिए ये प्रतिमाएँ साक्षात् शक्तियाँ ही होती हैं, न केवल उनके प्रतीकात्मक रूप। परोक्ष या अपरोक्ष ऐसा कोई वे भेदभाव नहीं करते। उनकी दृष्टि में प्रतिमा निर्मिति शक्ति निर्मिति के समान है।
नकाबों व मूर्तियों के निर्माण के पीछे उनका एकमात्र उद्देश्य होता है जो है धार्मिक उपयोग। धार्मिक संस्कार या विधि के समय नवयुवकों को नकाब पहना कर शिक्षा दी जाती है कि वे क्रूर जानवरों, दुश्मनों व अन्य दुष्ट शक्तियों से निर्भय हों।
ऐसे समय में नवयुवक को अपने घरों से दूर ले जाया जाता है व उनके शीर्षो पर सफेद मिट्टी पोती जाती है। उनका विश्वास है कि इन संस्कारों के जरिये नवयुवक दुष्ट शक्तियों एवं दुश्मनों से मुकाबला करने के योग्य होकर नये सामर्थ्य युक्त जीवन में प्रवेश पाते हैं।
इसके अतिरिक्त और किस कारण से नकाबों का निर्माण किया जाता है यह निश्चित रूप से कहना सम्भव नहीं हुआ है।
अफ्रीकी मूर्तिकला के निर्माण के पीछे भी जादू-टोने का उद्देश्य है, ऐसा कई विद्वानों का मत है । सभ्य देशों की कलाओं का उद्भव भी धार्मिक उपयुक्तता में हुआ यद्यपि बाद में मुख्यतया सौन्दर्य भावना की पूर्ति के उद्देश्य से उनकी निर्मिति होने लगी।
जादू-टोना के अतिरिक्त दैनिक जीवन के लिए उपयुक्त वस्तुओं को अलंकृत करने का विचार भी अफ्रीकी कला में किया गया है व बरतन, हथियार जैसी असंख्य अलंकृत घरेलू वस्तुएँ अफ्रीकी कला में उपलब्ध हैं।
प्रायः उन वस्तुओं पर वस्तु के उपयोगकर्ता की सुरक्षा हेतु कुछ मंत्र-तंत्र के समान खुदाई भी होती है अर्थात् इन वस्तुओं का जादू टोने का महत्त्व के भी होता है।
मृतात्मा का भय अफ्रीकी लोगों में एक महत्त्वपूर्ण प्रेरणा का कार्य करता है व मृतात्मा को साकार रूप में गृहों में चिंतन रखने के हेतु मूर्ति निर्माण उनकी मूलभूत कल्पना रही है।
टोटमवाद की कल्पना भी अफ्रीकी मूर्तिकला (अधिकतर जानवरों की मूर्तियों) के निर्माण के पीछे जागृत रही है। अफ्रीकी मूर्तिकला में नवपाषाणकालीन कला के समान ज्यामितीय आकारों का प्राचुर्य है।
ओशिआनिआ में आस्ट्रेलिया, मेलानेशिया व पोलिनेशिया का अंतर्भाव होता है। इन द्वीपों के निवासी आदिम लोगों में विकास के भिन्न स्तर दृष्टिगोचर होते हैं व उन पर बाहरी संस्कृतियों का प्रभाव बिल्कुल ही नजर नहीं आता। वास्तुकला, मूर्तिकला व चित्रकला का समन्वित प्रयोग दिखायी देता है।
आदिम कला के इतिहास में उपर्युक्त प्रदेशों की कला के अलावा एस्किमो लोगों की कला भी महत्त्वपूर्ण है। आदिम कला ने प्रेरणा के रूप में आधुनिक कला के विकास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान किया है।
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