उच्च पुनर्जागरण या पुनरुत्थान काल की चित्रकला | यूरोपीय उच्च पुनर्जागरण कालीन कला | High Renaissance Painting

16वीं सदी की यूरोपीय उच्च पुनर्जागरण कालीन कला के केन्द्र थे इटली के शहर लोम्बाद वेनिस व रोम। उसके प्रमुख कलाकार थे, आरम्भ में लिओनार्दो, रेफिल व माइकिलेन्जेलो व बाद में तिशेन, वेरोनीस, तितोरेत्तो व काराच्चि परिवार। 

इटली में आरम्भ हुए कला के पुनर्जागरण का प्रभाव बाद में जर्मनी, फलैंडर्स, हालैण्ड, स्पेन व फ्रांस में फैल गया व उसने समग्र यूरोपीयन कला को नयी चेतना से प्रस्फुटित किया। 

यदि रोम के सिस्टिन प्रार्थनालय में पन्द्रहवीं सदी में बोत्तिचेली, गिलदायो, सिन्योरेली आदि कलाकारों द्वारा बनाये भित्तिचित्रों की तुलना उसी प्रार्थनालय की पूर्वी दीवार पर माइकिलेन्जेलो द्वारा बनाये भित्तिचित्रों से करते हैं तो सोलहवीं सदी की कला में कितना क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ यह स्पष्ट होता है और इस परिवर्तन का श्रेय प्रतिभासम्पन्न कलाकार लिओनार्दो, रेफिलमाइकिलेन्जेलो को है। 

सोलहवीं सदी के आरम्भ से पोप व स्थानीय आश्रयदाताओं से कलाकारों को बड़े पैमाने पर चित्रण कार्य सौंपा जाने से वेनिस की जगह रोम को इटली के प्रपुख कलाकेन्द्र के रूप में मान्यता प्राप्त हुई व वहाँ की कला समस्त यूरोपीय कला को प्रभावित करना आरम्भ किया।

उच्च पुनर्जागरण कालीन प्रारम्भिक कला की कुछ स्पष्ट विशेषताएँ थीं। प्रमुख विशेषता श्री घनत्वांकन जिसके कारण चित्रित मानवों, प्राणियों व वस्तुओं के आकार ठोस प्रतीत होते हैं। 

रंगों को गौण स्थान था। आकारों को स्मारकीय रूप प्राप्त हुआ व मनोहर रंगबिरंगे वस्त्रों की जगह सुरचित तहोंवाले वस्त्रों का अंकन शुरू हुआ। 

भित्तिचित्र या चित्र में समकालीन व्यक्ति व अनावश्यक आकृतियों का समावेश करने की प्रथा को त्याग कर नये कलाकारों ने मानवाकृतियों का आदर्श कुलीन व्यक्तित्वदर्शी रूप में व भावपूर्ण मुद्रा में अंकिन करना शुरू किया एवं उनको सुरचित लयबद्ध रेखाओं द्वारा अनुपात व सुसंवादित के गुणों से प्रभावी व सजीव बनाया। ये सब विशेषताएँ कलाकारों के शास्त्रीय ग्रीक कला के गहरे अध्ययन के परिणाम थीं।

नैसर्गिक रूप के प्रति आकृष्ट पन्द्रहवीं सदी के चित्रकारों की कला में दृष्टिगोचर रंग सौन्दर्य का सोलहवीं सदी के रोम के चित्रकारों की कला में इस वजह से अभाव है कि उन्होंने ग्रीक मूर्तिकला के आदर्श रूप को अनुसरणीय मान कर नैसर्गिक रूप की उपेक्ष की थी। 

रोम के चित्रकारों का ग्रीक मूर्तिकला की ओर आकर्षित होने का स्वाभाविक कारण यह था कि उस समय वहाँ निरन्तर अनेक ग्रीक मूर्तिकला की कृतियाँ खोज निकाली जा रही थीं और रोम पुरातत्त्वविदों, संग्राहकों व विद्वानों का प्रमुख निवास होने से उनके विचारों से चित्रकार, जिनको समाज में तब तक प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी थी, प्रभावित हो रहे थे। चित्रकार केवल सर्जक न रह कर विचारक भी बन गये थे।

लिओनार्दो द विंची

लिओनार्दो द विंची (1452-1519 ) लिओनार्दो द्वारा आयुकाल में भिन्न क्षेत्रों में किये आश्चर्यजनक सर्जनकार्य को देखकर उनको अपने समय से आगे के असाधारण प्रतिभा के पुरुष के रूप में सम्मानित किया जाता है। 

अपरिपक्व आयु में ही लिओनार्दो ने गणित, विज्ञान, संगीत, आशुरचना, चित्रकारी आदि सर्जनात्मक कार्यों में अपनी असाधारण प्रतिभा का परिचय दिया। 

आयु के 13वें साल में उनके फ्लोरेन्स के विख्यात कलाकार वेरोक्कियो के प्रशिक्षु काल में ही उनकी उदीयमान दैवी प्रतिभा के युवक के रूप में इटली में ख्याति हो गयी। कला व विज्ञान का उन्होंने प्रयोग किया। 

आयु के तीसवें साल में मिलान के ड्यूक की सेवा में अपना परिचय देते हुए उन्होंने लिखा था कि वे युद्धोपयोगी सुवाह्य पुल, बम, अध्वंस्य वाहन, तोपें बना सकते हैं व शान्ति के काल में उपयुक्त सार्वजनिक तथा निजी भवन निर्माण, भिन्न माध्यमों में मूर्तियाँ व चित्र बनाने में निपुण हैं। 

उनकी सचित्र नोटबुक्स मानवीय ज्ञान की पराकाष्ठा का भण्डार व उनकी अपार बुद्धिमत्ता व परिश्रमी वृत्ति का परिणाम हैं।

नोटबुक्स में हवाई यात्रा के लिये आविष्कृत उड़न-यन्त्र का आरेख है एवं उनके मानव मुखों, नग्न शरीरों व लाशों के विच्छेदन कर अध्ययन करके शरीर की अन्तर्रचना के व गर्भस्थ शिशु के आरेख हैं। 

अन्य आरेखों में विविध जानवरों के घोड़े, भेड़िये, कुत्ते, बिल्लियाँ, भालू आदि उनकी शरीर रचना का बारीकियों के साथ अध्ययन करके बनाये आरेख व फूलपत्तों के असंख्य आरेख हैं। 

वे कहते थे कि “जो भी सुन्दर है एवं जो भी मानवीय दृष्टि से सुन्दर है वह सब नश्वर है- केवल कला के अन्तर्निहित ही वह शाश्वत है।” शीघ्रगति बनाये कुछ आरेखों का प्रभाव पर्याप्त मात्रा में आधुनिक वस्तुनिरपेक्ष कला के सदृश है। 

फ्रांस के राजा फ्रांन्सिस प्रथम के निमंत्रण पर जब वे तुरेन के महल में रहने लगे तब उन्होंने अपूर्व शान्ति को अनुभव किया व अन्त में नोटबुक्स में लिखा ‘जब मैं सोचता था कि मैं जीना सीख रहा हूँ तब वस्तुतः मैं मरना सीख रहा था” व आयु के 67वें साल में ईश्वरीय स्वरूप में उनकी आत्मा विलीन हुई। 

उनका उपर्युक्त विचार व उनके धार्मिक चित्रों का स्वरूप इस बात के प्रमाण हैं कि वे मूलतः आध्यात्मिक प्रवृत्ति के दार्शनिक थे।

लिओनार्दो की चित्रण शैली शुरू से अन्त तक एक-सी बनी रही व उसमें कोई परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं है। अनेक आरेख बनाने के बावजूद उन्होंने रंगीन चित्र बहुत कम बनाये जिनमें से कुछ अधूरे हैं। 

उनके चित्र इस बात के साक्ष्य हैं कि उनकी अद्वितीय प्रतिभा ने जिस तरह मानव व प्राणियों के शरीरों एवं पहाड़ व फूल-पौधों की रचना का गहराई से सूक्ष्म अध्ययन किया उसी तरह रेखा व घनत्वांकन से उनको चित्र के रूप में कैसे सर्जित किया जाये इस समस्या का भी सफलतापूर्वक अध्ययन किया।

नैसर्गिक सृष्टि के रहस्य का आविष्कार करने के साधन के रूप में आँख के सामर्थ्य का उनको इतना विश्वास था कि उनके लिये देखना और जानना इसमें कोई अन्तर नहीं था। 

वे कहते थे कि कलाकार सबसे महान् वैज्ञानिक हैं और वह केवल इसलिये नहीं कि वे औरों से अधिक सूक्ष्मता से निरीक्षण करते हैं बल्कि इसलिये भी कि वे देखी हुई सृष्टि पर विचार करते हैं और दूसरों के सामने उसके बारे में चित्रों के रूप में प्रकाशित करते हैं। 

उन्होंने जिस किसी भी काम में हाथ डाला उसे किसी समस्या का समाधान करने के उद्देश्य से पूर्ण किया। चित्रकारी में उनकी प्रमुख समस्याएँ थीं संयोजन, आकार व भावाभिव्यक्ति तथा उनमें सामंजस्य । 

मिलान के मारिया देल ग्रात्सी गिरजाघर में बनाये उनके विश्वविख्यात चित्र ‘अन्तिम भोज’ (Last Supper) में उन्होंने सुपरिष्कृत व्यवस्था के जरिये मध्य में बैठे ईसा के दोनों तरफ के पट्टशिष्यों के समूहों के आकारिक अन्तर्सम्बन्ध को प्रभावपूर्ण संयोजन की दृष्टि से सुस्थापित किया है एवं पट्टशिष्यों की मुखाकृतियों पर व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार भावों को दर्शाया है। 

जूड़ास की आकृति को भावपूर्ण चित्रित करने के उद्देश्य से उन्होंने मिलान की ज्यू लोगों की बस्ती में अभ्यास पुस्तिका लेकर घूम कर भिन्न भावदर्शी चेहरों का अध्ययन किया, दण्डित व्यक्तियों के चेहरों के भावों का निरीक्षण किया और दो साल की तलाशी के बाद उनको एक ज्यू युवक मिला जिसे उन्होंने ईसा की आकृति चित्रित करने के लिये मॉडेल के रूप में उपयुक्त समझा। 

कला के इतिहास में यह सर्वप्रथम चित्र है जिसमें ईसा के कथन “आप लोगों में से एक मुझे धोखा देगा” के बाद उनके पट्टशिष्यों के चेहरों पर उत्पन्न नाटकीय मनोवैज्ञानिक प्रभाव कुशलता से अंकित हुए हैं। उनके द्वारा बनाया व्यक्तिचित्र ‘मोना लिसा’ सम्भवतः पश्चिमी कला जगत का सबसे प्रसिद्ध व श्रेष्ठ चित्र है। 

यह फ्रान्चेस्को देल जोकांदा की पत्नी लिसा का सामने बिठा के बनाया व्यक्तिचित्र है। महिला की रहस्यमय मुस्कराहट व उलझन में डालने वाली निगाह के कारण उसके सही मनोभाव के बारे में कुछ भी निश्चयात्मक कहना असम्भव है। 

उस पर अनेक निराधार काल्पनिक मत व्यक्त किये गये हैं जिनमें से कुछ अनाकलनीय हैं तो कुछ फ्रायड के सिद्धान्तों के अनुरूप यौन बोधक तेओफिल गोतिय के अनुसार उसकी निगाह में “दैवी व्यंग्यात्मकता के अन्तर्गत अपार कामोत्तेजकता है।” 

महिला की आकृति में पृष्ठभूमि की पहाड़ी के सृदश ठोसपन है व साथ में गतिपूर्ण ओझल होती हुई नदी के सदृश सजीवता है। इस चित्र पर लिओनार्दो ने तीन वर्ष तक कार्य किया। 

मोना लिसा की चित्तवृत्ति की स्वाभाविकता को बनाये रखने के लिये पृष्ठभूमि में उसके मनपसन्द आइरिस व कुमुदिनी के फूलों को रखवा कर, सांध्य प्रकाश में, क्रीडनशील फौआरे व मधुर संगीत से प्रसन्न रमणीय वातावरण में उन्होंने चित्र पूर्ण किया। 

उनके अन्य चित्रों में लुव्र संग्रहालय का संत एन के साथ मरियम व शिशु ईसा’ विशेष प्रसिद्ध चित्र है जो ठोसपन, यथोचित छटांकन, संयोजन, सामंजस्य व लयबद्धता के गुणों से परिपूर्ण है।

माइकिलेन्जेलो (1475-1564 )

माइकिलेन्जेलो ब्वोनारोत्ति मूर्तिकार, चित्रकार व वास्तुकार थे व वे लिओनार्दो से इस दृष्टि से भिन्न थे कि वे केवल ज्ञान से सन्तुष्ट नहीं रहते जब तक उसे कार्य में परिवर्तित नहीं किया जाये। रोम के सिस्टिन प्रार्थनालय में उनके द्वारा बड़े पैमाने पर बनाये भित्तिचित्र उनकी अथक सृजनशील प्रवृत्ति के परिचायक हैं। 

बचपन में ही जब वे फ्लोरेन्स के विद्यालय के छात्र थे, उन्होंने रेखांकन में अद्भुत कौशल को प्रदर्शित किया व आयु के तेरहवें साल में शहर के सबसे लोकप्रिय कलाकार गिलदायी ने उन्हें प्रशिक्षु के रूप में स्वीकृत किया जहाँ उन्होंने फ्रेस्को के अलावा बहुत कुछ सीखा। 

एक साल के भीतर ही फ्लोरेन्स के राजा लोरेंजो ने उन्हें राजाश्रय देकर पुत्रवत् सम्भाला व महल में स्वतंत्र कार्यकक्ष देकर बगीचों में स्थापित ग्रीक मूर्तियों से अध्ययन कर अपनी प्रतिभा को विकसित करने का अवसर प्रदान किया। 

अपनी उत्तरावस्था में उन्होंने अपनी पसन्द को व्यक्त करते हुए कहा था, “मेरे हाथ में हथौड़ी व छेनी आते ही मैं बहुत उत्साहित होता हूँ। चित्रण महिलाओं व खच्चरों के योग्य कार्य है।” इक्कीसवें साल में वे भाग्य आजमाने रोम चले गये। 

वहाँ उनके चित्रकला व मूर्तिकला में किये अपरिमित कार्य को देखकर आश्चर्य होता है। उनको धन, भवन व भूमि के रूप में अपार सम्पत्ति का लाभ हुआ किन्तु उनकी भौतिक सुखोपभोग में रुचि नहीं थीं—वे सादगी पसन्द व्यक्ति थे व कलासर्जन में अत्यधिक व्यस्त रहते थे। 

आयु के पच्चीसवें साल में उन्होंने ‘शोकमग्न मेरी’ (Pieta) की मूर्ति बनायी (जो सम्प्रति सेन्ट पीटर प्रार्थनालय में है) व फ्लोरेन्स शहर के लिये डेविड की विशाल मूर्ति का निर्माण किया। 

1508 में दबंग पोप ज्युलियस द्वितीय से लम्बी निष्फल बहस के बाद सिस्टिन प्रार्थनालय की छत पर भित्तिचित्र बनाना स्वीकार किया जो 1512 में पूर्ण हुआ। 

उनकी यह सबसे अधिक प्रशंसित कृति ‘दुनिया का निर्माण’ (Creation of the world) नाम से प्रसिद्ध है। पोप पौल तृतीय द्वारा उनकी प्रमुख वास्तुकार, चित्रकार, व मूर्तिकार के रूप में नियुक्ति की जाने के बाद उन्होंने वेतिकन प्रार्थनालय की मुख्य वेदी के पीछे अपने प्रसिद्ध भित्तिचित्र ‘अन्तिम निर्णय’ का निर्माण किया। 

वे 1564 में ‘क्रूसारोपण’ विषय को लेकर संगमरमर की विशाल मूर्ति निर्माण करने की योजना तैयार कर रहे थे कि मन्दगति बुखार ने उनकी इहलीला समाप्त कर दी। 

सामान्य कलाकार की कला के मूल्यांकन के लिये प्रयुक्त मापदंडों से माइकिलेन्जेलो की कला का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। उन्होंने न केवल बलिष्ठ अलौकिक मानवों का निर्माण किया बल्कि एक ऐसी नयी मानवजाति की कल्पना की जो अपनी शारीरिक व मानसिक सामर्थ्य से समूची दुनिया की पुनर्रचना करने की सामर्थ्य रखती है। 

उनके कलासंसार में लघु, हीन, नाजुक मिजाज व आलंकारिक को स्थान नहीं है – वहाँ सब केवल विराट आकारों का अप्रशमि कठोर पृष्ठभूमि पर निर्माण हुआ है। 

सिस्टिन प्रार्थनालय की छत पर बने वास्तुशिल्पीय स्वरूप के भित्तिचित्र में ऐसी ओजस्वी दुनिया का सर्जन किया जिसमें विशाल आकृतियाँ अपनी गतिपूर्ण क्रियाओं से अपने अलौकिक सामर्थ्य का प्रत्यय कराती है जिनमें आदम की अवज्ञा, उद्धार की भविष्यवाणी आदि दृश्य हैं किन्तु पृष्ठभूमि का दृश्य केवल सांकेतिक स्वरूप का है, जिसमें स्वर्ग को बन्जर भूमि, चट्टान व एक वृक्ष से दर्शाया है तो निसर्ग को इनेगिने पौधों से।

माइकिलेन्जेलो जवान हृष्ट-पुष्ट युवक-युवतियों के शारीरिक सौन्दर्य के भक्त थे व मॉडेल के रूप में उन्हीं को चुनते थे। उनके एक मात्र तिपायीचित्र ‘पवित्र परिवार’ (उफ्फिजी कलावीथिका) में कुँआरी मरियम की आकृति बनाने के लिये उन्होंने एक जवान किसान कन्या को मॉडेल के रूप में बिठाया था और उनके मूर्तिशिल्प शोकमग्न मेरी’ के लिये एक कुआरी लड़की को बिठाया था। 

जब छिद्रान्वेषी पंडितों ने उनसे पूछा कि "एक जवान पुत्र की माता को आपने इतनी जवान क्यों दर्शाया है" तब उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा "क्या आप नहीं जानते कि साध्वी स्त्रियाँ अन्य स्त्रियों से अधिक काल तक तरोताजा रहती हैं? और वासना से अछूत मेरी के बारे में तो कहना ही क्या है। मैं तो यहाँ तक कहता हूँ कि माता मेरी चिरकुँआरी व चिरयुवा थी।"

वे सामर्थ्य व पावित्र्य से परिपूर्ण आदर्श मानव के चित्रण में रुचि रखते थे व अधिकतर व्यक्तिचित्रण दूसरों पर छोड़ते थे। शारीरिक सौन्दर्य से परिपूर्ण होते हुए उनकी युवक या युवती की आकृतियों में जरा सी भी कामुकता नहीं है। 

इस बात का एक ही अपवाद मात्र पौराणिक विषय का चित्र है ‘लीडा व हंस’ जो उन्होंने फरोरा के ड्यूक की जिद के कारण बनाया। उन्होंने इतना विशाल कार्य अकेले कैसे किया यह आश्चर्य की बात है। 

सिस्टिन प्रार्थनालय का भित्तिचित्रण लेटे हुए किया। उनके भित्तिचित्रों में लगभग 343 मानवाकृतियाँ हैं जिनमें से 125 तो दस से अठारह फीट तक लम्बी हैं। वे शीघ्रगति कार्य करते थे – तेरह फीट लम्बी आदम की आकृति उन्होंने तीन दिन में पूर्ण की। 

रेफिल सन्जिओ (1483-1520) 

लिओनार्दो व माइकिलेन्जेलो से रेफिल का व्यक्तित्व काफी भिन्न था। वे उर्विनो के एक साधारण चित्रकार के पुत्र थे व उन्होंने कला की शिक्षा क्रमशः तिमोतिओ विती, पेरूजिनो व पिन्तुरिक्कियो से प्राप्त की। 

इन तीनों से जो कुछ भी ज्ञान व कौशल प्राप्त करने योग्य था वह तो उन्होंने आत्मसात कर ही लिया और उसके अलावा अपनी चित्रकारी से यह भी सिद्ध किया कि वे स्वतंत्र प्रतिभा के धनी हैं। 

वे चार साल तक फ्लोरेन्स में रहे व उनकी कला ने जो मूलतः कोमल व नारी-सुलभ गुणों से सम्पन्न थी, अधिक व्यापक स्वरूप प्राप्त किया। 

इस काल में उन्होंने कुँआरी मरियम के करीब 15 चित्र बनाये। इनमें से हर चित्र में उन्होंने आकारों व रेखाओं से सम्बन्धित स्वतंत्र समस्या को लेकर अपनी भौतिक सौन्दर्य की कल्पना को प्रत्यक्षित किया है। 

1508 में उनको पोप ज्युलियस द्वितीय के निवास को सजाने का कार्य सौंपा गया। इस कार्य में उन्होंने आरम्भ से यह सिद्ध किया कि उनमें कठिनतम कार्य सफलतापूर्वक करने की प्रभुता हैं और वे उसे ऐसा नवीन रूप दे सकते हैं जिससे चित्रकला को नयी दिशा मिल सकती है।

उनकी कला की तीन प्रमुख विशेषताएँ दृष्टिगोचर हैं। उनका कोई ऐसा प्रभावशाली व्यक्तित्व था नहीं जो उन्हें स्पष्ट रूप से ख्याति अर्जित करने के विचार से प्रेरित करे। 

वे स्वप्नदर्शी नहीं थे किन्तु उनमें ऐसी प्रतिभा अवश्य थी जिसके बल पर वे हर प्राप्त अवसर से लाभ उठाकर निर्धारित कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकें। उनकी दूसरी विशेषता यह थी कि वे सौन्दर्य, सुसंगति व श्रेष्ठता के प्रति स्वभावतः संवेदनशील थे। 

उनको निसर्ग में जो कुछ भी दिखायी देता उसकी आदर्श सौन्दर्य में रूपांकित करने की सम्भावना को देखकर वे उसे स्वीकारते। उनकी तीसरी विशेषता थी उनकी रेखांकन व संयोजन में असाधारण प्रतिभा जिससे वे रेखाओं वे आकारों की सुरचना करके हमेशा सौन्दर्यपूर्ण कलाकृति का निर्माण कर सकते थे। 

ज्योत्तो व मासाच्चो के समान के कथनात्मक शैली के चित्रकार थे व उनका लक्ष्य न केवल मनोहर कलाकृति का सर्जन था बल्कि आकारों व रंगों की भाषा से कहानी के प्रसंग को सजीव चित्रित करना था। 

उनके आरम्भकालीन नैशनल गॅलरी, लन्दन में संग्रहीत चित्र ‘सिपिओ का स्वप्न’ व अन्य चित्रों में कुछ छात्र सुलभ अपरिपक्वता व अनिश्चय हैं किन्तु उनके फ्लोरेन्स में बनाये चित्र आत्मविश्वासपूर्ण व प्रभावी बन गये हैं। 

उनके कुंवारी मरियम के शिशु ईसा के साथ बनाये चित्रों में मरियम विवाहिता जैसी नहीं बल्कि कुँआरी के समान विनम्र लगती है। 

उनके रोम आने के बाद बनाये नारी चित्रों में उनकी व्यक्तिगत विशेषता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है जिसके उनके चित्र ‘पानसिस’ ‘सिबल’ व ‘साइकी की पुराण कथा’ अभ्यसनीय उदाहरण हैं। 

कहा गया है कि रेफिल रंगसौन्दर्य के प्रति संवेदनशील नहीं थे और यह सही है कि उन्होंने तैलरंगों के रंगप्रभाव का यथोचित उपयोग नहीं किया। किन्तु उनके ‘बोल्सेना का ख्रिस्तयाग (Mass)’ ‘सन्त पीटर का उद्धार’ जैसे अपवादात्मक भित्तिचित्र हैं जो रंगसौन्दर्य की दृष्टि से तिशेन के तैलचित्रों से तुलनीय हैं।

रेफिल असाधारण व्यक्ति चित्रकार थे व व्यक्तिचित्रण में भी उन्होंने यदा-कदा रंगों का उनके स्वाभाविक प्रभाव के साथ यथोचित प्रयोग किया है जिसके ‘बाल्थाजार कास्तिल्योने’ (लुव्र संग्रहालय) व ‘कार्डिनल का व्यक्तिचित्र’ (मीड्रिड) उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 

किन्तु उनकी मानवाकृतियों को आदर्श व उदात्त रूप में चित्रित कर उनकी स्वाभाविक लालित्य व गरिमा से सम्पन्न करने की जो प्रवृत्ति थी वह उनकी शैलीगत विशेषता थी और इस तथ्य का सही आकलन नहीं होने से उनके पश्चात् उनका अनुसरण कर जिन चित्रकारों ने आगे बढ़ने की कोशिश की उनकी कला घिसीपिटी दिखायी देती है।

माइकिलेन्जेलो के रोम के सिस्टिन प्रार्थनालय की छत पर बने भित्तिचित्रों से रेफिल बहुत प्रभावित थे यह बात उनके वेतिकन के महल में बने भित्तिचित्र ‘हेलिओडोरस के निष्कासन’ से प्रमाणित होती है। 

किन्तु दोनों भित्तिचित्रों में यह अन्तर है कि रेफिल के भित्तिचित्र में भावनाओं का अन्तद्वंद्व नहीं है जो माइकिलेन्जेलो के भित्तिचित्रों में है। 

रेफिल के व्यक्तिचित्र ‘घूंघटवाली महिला’ पर लिओनार्दो ने विख्यात चित्र ‘मोना लिसा’ का प्रभाव प्रतीत होता है किन्तु रेफिल की चित्रित महिला गरिमामय अभिजात लगती है, ‘मोला लिसा’ के समान रहस्यमयी नहीं। उनके वेतिकन के भित्तिचित्र ‘हेलिओडोरस का निष्कासन’ व ‘एथेन्स की विचारधारा’ उनकी बेजोड़ संयोजन प्रतिभा के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। 

रीतिवादी कलाकार

जब शैलीगत विशेषताओं के कृत्रिम दिखावटी अनुसरण के कारण किसी कलाकार की कृतियों के रूप में अस्वाभाविकता दृष्टिगोचर होती है तब उस कलाकार को निन्दात्मक भाव से रीतिवादी कहते हैं। 

सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध में कार्यरत इटालियन चित्रकार पार्मिज्यानिनो के कुँआरी मरियम के चित्रों में मरियम की आकृति के अनुचित शारीरिक सौन्दर्य के आकर्षण को देखकर एवं माइकिलेन्जेलो का अनुसरण कर चित्रकार पोन्तोम (1494-1557) द्वारा बनाये चित्रों की मानवाकृतियों में, माइकिलेन्जेलो की मानवाकृतियों की बलिष्ठता व आत्मविश्वास की जगह स्त्रियोचित मृदुता व मनमोहकता को देखकर उनको रीतिवादी कहते थे। 

वैसे दोनों चित्रकारों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं थी किन्तु उसी समय माइकिलेन्जेलो जैसे अलौकिक प्रतिभा के धनी चित्रकार के कार्यरत होने के कारण, लोकप्रियता अर्जित करने के लिए उन्होंने मोहक रूपयोजना के तरीकों को अपनाया होगा । 

ब्रान्जिनो और एक समकालीन रीतिवादी चित्रकार थे। फार्माज्यानिनो के पार्मा के निकटवर्ती स्थान में बनाये फ्रेस्कोचित्र व पोन्तोर्मो के मेदिची भवन में बनाये फ्रेस्कोचित्र उत्कृष्ट व प्रशंसनीय हैं (चित्र 53)। कुछ कला मर्मज्ञों के अनुसार तिंतोरेत्तो व एल्प्रेको की कला भी रीतिवाद से प्रभावित है। 

वेनिशियन (Venetian) पुनर्जागरण

पोप ज्युलिअस द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् रोम का कला के प्रमुख केन्द्र के रूप में महत्त्व घट गया व इटली के वेनिस शहर में नयी शैली का उदय हुआ जो वेनिशियन शैली नाम से प्रसिद्ध है।

वेनिस बन्दरगाह होने से व्यापारिक केन्द्र था व उसका पूर्वी देशों से सांस्कृतिक आदान-प्रदान चलता रहता था। इस वजह से वहाँ के कलाकार बिजांटाइन कला व उसकी रंगों की चमक-दमक से प्रभावित थे। 

पन्द्रहवीं सदी के अन्त तक इटली के कलाकार चित्रकला के लिये दो माध्यमों का प्रयोग करते थे- भित्तिचित्रण के लिये जलरंग व फलक चित्रण के लिये टेम्पेरा। 

दोनों माध्यमों में से किसी में भी गहराई व घनत्व दर्शाने हेतु प्रयुक्त पारदर्शी छायांकन व गाढ़े रंगों की परत इनमें आवश्यक सुस्पष्ट विरोध प्रभाव ढंग से स्थापित करने की क्षमता नहीं थी। 

वेनिशियन चित्रकार शीघ्र ही जान गये कि वहाँ की नम खारी वायु के कारण भित्तिचित्र जल्दी ही खराब हो जाते हैं। कुछ समय में ही उन्होंने सार्वजनिक स्थानों को भित्तिचित्रों की जगह कैनवास पर बने बड़े तैलचित्रों से सजाना शुरू किया। 

ज्योवान्नि बेल्लिनी के उत्तरकालीन चित्रों से तैलरंगों की सम्भावना का स्पष्ट संकेत मिलता है किन्तु कलासर्जन में उसका पूरा लाभ उठाने का कार्य वेनिस के दो विश्वप्रसिद्ध चित्रकारों ने किया। 

वे थे ज्योर्जिओ बार्बा रेली, जो ज्योर्जिओने नाम से प्रसिद्ध हैं व तिजियानो वेचेलि जो तिशेन नाम से प्रसिद्ध हैं। दोनों के आरम्भिक चित्रों में इतनी समानता है कि ‘ग्राम्य संगीत-गोष्ठी’ (लुव्र) ‘संगीत-गोष्ठी’ (पित्ति संग्रहालय) आदि प्रमुख चित्रों में से कौनसा चित्र किसने बनाया है, इस सम्बन्ध में इतिहासकारों में मतभेद है। 

निर्णय करने में इस वजह से भी कठिनाई उत्पन्न होती है कि ज्योर्जिओने की असामयिक मृत्यु के कारण उनके कुछ चित्र तिशेन ने पूर्ण किये हैं। 

पूर्ववर्ती चित्रकारों से दोनों इस दृष्टि से भिन्न हैं कि दोनों चित्रकला को कठोर रेखा व सुस्पष्ट परिरेखा से मुक्त करके आकारों को अधिक ठोसपन के साथ किन्तु वाह्य रूप में छाया के कारण दृष्टिगोचर धुंधलापन के नैसर्गिक प्रभाव की रक्षा करते हुए चित्रण करते थे एवं पारभासी रंगों की अनेक परतों से रंगांकन करते थे।

ज्योर्जिओन

ज्योर्जिओन (1477-1510) के बहुत कम चित्र हैं जो उनके द्वारा बनाये माने जाते हैं। उनकी सबसे श्रेष्ठ कृतियों में ‘सन्त फ्रांन्सिस के साथ मरियम’ व ‘सन्त जॉर्ज’ जो कास्तेल फ्रेंको में हैं, विएना संग्रहालय का ‘तीन दार्शनिक’ अकादमिया वेनिस का ‘तूफान’ ड्रेस्डेन का ‘निद्रित वीनस’ ये चित्र हैं। 

ज्योर्जिओन ने लिओनार्दो द्वारा वास्तविक रूप की ओर किये कलात्मक आन्दोलन को ही आगे बढ़ाया किन्तु मानवीय भावनाओं की दृष्टि से उनके चित्र अधिक प्रत्ययकारी हैं व उनके रंगसौन्दर्य का लिओनार्दो की कला में अभाव है। 

उनके पश्चात् अग्रसर हुए कलाकारों ने जिन कलात्मक गुण से लाभ उठाया ये सब उनकी कला में विद्यमान हैं जो हैं प्रकाश से सतेज मानव शरीर, प्रचुर घनत्व लिये आकार, पारदर्शी रंग-परतें, चमकीले रंग व देहाती जीवन के प्रति आकर्षण । 

जहाँ माइकिलेन्जेलो व रेफिल ने आकार सौन्दर्य को आवर्धित कर आदर्श दुनिया की रचना की वहाँ ज्योर्जिओन ने रंगसौन्दर्य व जीवन की काव्यात्मकता पर ध्यान केन्द्रित कर जानी-पहचानी दुनिया के हार्दिक स्वरूप को प्रत्यक्षित किया।

ज्योर्जिओन द्वारा निर्धारित दिशा में कला को अधिक विकसित कर तिशेन ने (1490-1575) अपनी लम्बी आयु में अनेक श्रेष्ठ कृतियों की निर्मिति की व वे वेनिशियन कलाकारों में सबसे श्रेष्ठ व ख्यातनाम के रूप में प्रतिष्ठित हुए। 

उन्होंने युवावस्था के आरम्भ से चित्र बनाना शुरू किया व अन्त तक कला सृजन में व्यस्त रह कर बहुत अधिक चित्र बनाये जिन्होंने भविष्य की कला के दिशा-निर्देशन में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। 

उन्होंने शीघ्र ही तकनीकी व सर्जनशील भावपूर्ण रूपांकन पर प्रभुत्व प्राप्त किया। वे सफलता के लिए उत्सुक थे व रोचकता को ध्यान में रखकर विषयों का चुनाव व चित्रण करते थे। 

अतः कोई आश्चर्य नहीं कि वे समकालीन आश्रयदाताओं में विशेष प्रिय थे। इसके अलावा उनके समकालीन कलाकारों व साहित्यिकों से मधुर सम्बन्ध थे।

तिशेन बेल्लिनी भाइयों के शिष्य थे किन्तु उनसे अनबन होकर वे ज्योर्जिओन के साथ काम करने लगे जिनकी शैली उनकी शैली से काफी मिलती-जुलती थी। 

इस काल का उनका सबसे प्रसिद्ध चित्र है ‘पवित्र व अपवित्र प्रेम’। समय के साथ उनकी शैली में अधिक प्रचुरता आ गयी जिसका वेनिस अकादेमिया का चित्र ‘उद्ग्रहण’ उत्कृष्ट उदाहरण है।

वेनिशियन कला की अधिकतर विशेषताओं का प्ररेणास्रोत तिशेन की कला था। वैसे वेरोनीस व तिन्तोरेत्तो जैसे कलाकारों की शैलियाँ पर्याप्त व्यक्तिगत स्वरूप की हैं फिर भी उनमें भी तिशेन की कलासिद्धान्तों के प्रति निष्ठा दृष्टिगोचर है एवं उनके संयोजन, रेखांकन व रंगमिश्रण के नियमों का पालन किया हुआ है।

रंगसौन्दर्य की दृष्टि से तिशेन की विश्व के अब तक के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों में गणना की जाती है। सीमित साधनों से भी बहुविध प्रभावों के निर्माण में वे निपुण थे। 

दृश्य जगत में जो कुछ भी सुन्दर है – विभिन्न किस्म के सुन्दर मानव शरीर, कीमती वस्त्र, रमणीय सुसंगतिपूर्ण प्रकृति-दृश्य आदि-उसको चित्रित करना उनका प्रमुख लक्ष्य था। उनके लिये धार्मिक विषय आकारों की सुसंगत रचना व मनोहर रंगसंगति की योजना करने का सुअवसर मात्र था। 

उनके कलाकारों में भी नग्नाकृति चित्र व व्यक्ति चित्र सबसे श्रेष्ठ हैं। नग्नाकृति चित्रों में ‘पवित्र व अपवित्र प्रेम’ (बोर्गेज महल, रोम) ‘उर्विनो की वीनस’ (उफ्फिजी संग्रह), दॅनाई (प्रादो संग्रह) विशेष प्रसिद्ध हैं और व्यक्ति चित्रों में ‘तिशेन की महिला’ (पित्ती संग्रह) ‘पोप पॉल तृतीय’ (नेपल्स), ‘दस्ताने के साथ आदमी’ (लुव्र) विशेष प्रसिद्ध हैं। 

सर्जन की अन्तिम अवस्था में वे आश्चर्यजनक रूप से मुक्त व रंगों की व्यक्तिगत पद्धति से रंगों की मोटी परतों में व तूलिका के शीघ्र संचालन के साथ कार्य करने लगे। ‘काँटो का ताज पहने हुए ईसा’ (म्यूनिक) इस परिवर्तित विकसित शैली का अभ्यसनीय उदाहरण है। पाओलो कालिआरी, जो वेरोनीस (1528-1588 ) नाम से प्रसिद्ध हुए, का जन्म वेरोना में हुआ। उनके पिता मूर्तिकार थे। 

वे चाहते थे कि पुत्र भी मूर्तिकार बने किन्तु युवा वेरोनीस की चित्रकला के प्रति विशेष रुचि थी। वे अपने रिश्तेदार चित्रकार आंतोनिओ बादाइल के छात्र थे किन्तु ज्योवान्नि कारोतो की कला का अधिक प्रभाव हुआ। 

वेरोनीस शीघ्र ही सज्जाकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। प्रथम वे मान्तुआ में एक महत्त्वपूर्ण सज्जाकार्य पर नियुक्त हुए व उसके पश्चात् वेनिस में व रोम की यात्रा में माइकिलेन्जेलो व रेफिल की कलाकृतियाँ देखने के पश्चात् उनसे प्रभावित होकर वेनिस लौट कर उन्होंने पौराणिक, ऐतिहासिक व धार्मिक विषयों के चित्रव्यक्ति चित्र बनाना शुरू किया। 

उनके समकालीन कलाकारों के जीवनी-लेखक वासारी ने उनके चित्र ‘काना का विवाह भोज’ के विषय में लिखा है “यह चित्र आकार, चित्रित मानवाकृतियों की संख्या, वस्त्रों की विविधता व मौलिक विशेषताओं के विचार से आश्चर्यजनक है।

इसमें 150 से अधिक, एक-दूसरे से भिन्न व्यक्तित्व दर्शाते हुए मानवशीर्ष बारीकियों के साथ चित्रित हैं।” शानशौकत, भोगविलास व उल्लास से परिपूर्ण विषयों पर केन्द्रित वेरोनीस की कला की विशेषताएँ हैं, विविधता, वैभव, चटकीले रंग, मौलिक तत्त्वों का समावेश व सुनियोजित संयोजन। 

उन्होंने दोजेस के महलों, गिरजाघरों व मठों के लिये विशाल पटचित्र व ज्याकोमेली ग्राम- भवन के भित्तिचित्र बनाये। उनके चित्रों में हम धार्मिक भावनाओं की उत्कटता की अपेक्षा नहीं कर सकते। 

उनके धार्मिक विषयों के चित्र भी पृष्ठभूमि के वैभवशाली दृश्य, मीनार, गिरिशिखर, चमकीले रेशमी वस्त्र व चटकीले रंगों से सम्पन्न हैं जिसके वेरोना के साथ ज्योर्जियो गिरजाघर के चित्र ‘सन्त जार्ज की शहादत’, विर्सेजा के महामन्दिर माँते बेरिको के ‘ग्रेगरी महान का भोज’ व वेनिस की अकादमिया के चित्र ‘लेवि के घर में व्यालू’ उत्कृष्ट उदाहरण हैं। 

पेरिस के लुव्र संग्रहालय का चित्र ‘काना का विवाह भोज’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है किन्तु उसमें मेहमानों की भीड़ में ईसा की आकृति को आसानी से ढूँढ़ा नहीं जा सकता। 

वेरोनीस की कला की त्रुटियों के बावजूद वे विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न चित्रकार थे व कला के रंग-सौंदर्य की दृष्टि से तिशेन से स्पर्धा कर सकते थे व उनकी रंग-योजना में अधिक विविधता थी व अंकनपद्धति में भी कुछ मौलिकताएँ थीं। उनकी रंगांकन पद्धति का सूक्ष्म निरीक्षण करने पर उसमें अनेक चुनी हुई छटाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। 

जाकोपो रोबस्ती तिंतोरेत्तो 

जाकोपो रोबस्ती तिंतोरेत्तो (1518-1594) की कला तिशेन व वेरोनीस एवं वेनिस के अन्य समकालीन चित्रकारों से कुछ भिन्न स्वरूप की थी। 

कहते हैं कि उन्होंने अपने कार्यकक्ष की दीवार पर ‘माइकिलेन्जेलो का रेखांकन’ व ‘तिशेन के रंग’ लिखा था। यह बात उनके कलात्मक ध्येय पर प्रकाश डालती है। 

उन्होंने शीघ्र ही अपने कलात्मक ध्येय को प्राप्त कर तिशेन व वेरोनीस के साथ अपना नाम ‘वेनिस के महान तीन कलाकार’ के अन्तर्गत स्थापित किया। 

उनका अंकन पद्धति पर आश्चर्यजनक प्रभुत्व था व वे शीघ्र ही अपना चित्र पूरा करते थे। वे पारिश्रमिक की चिन्ता नहीं करते थे। 

जब सान रोक्को के भ्रातृसंघ के प्रमुखों ने उन्हें ‘क्रसारोपण’ की कलाकृति का कार्य सौंपने से पूर्व छोटा पूर्व रेखाचित्र बनाने के लिये कहा तब उन्होंने सम्पूर्ण बड़ा चित्र बनाके उनके सामने रखा। 

जब चिढ़ाये प्रमुखों ने उनसे पूछा कि उन्होंने पूर्व रेखाचित्र क्यों नहीं प्रस्तुत किया तब उन्होंने जवाब दिया “मैं इसी तरह पूर्व रेखाचित्र की जगह सम्पूर्ण चित्र बनाता हूँ ताकि बाद में कोई असन्तोष नहीं हो। और यदि आपको चित्र पसन्द नहीं हो तो मैं बिना पारिश्रमिक के इस भ्रातृसंघ को भेंट देता हूँ।” 

उनका चित्र स्वीकृत हुआ व उनको वहाँ की सजावट का शेष कार्य भी सौंपा गया। 

उनका वेनिस अकादेमिया का चित्र ‘सन्त मार्क का चमत्कार’ इस बात का प्रमाण है कि वे तिशेन के समान चमकीले रंगप्रभाव का निर्माण कर सकते थे किन्तु बाद में उन्होंने अधिक सौम्य रंगों व स्वर्ण व चाँदी का प्रयोग शुरू किया व उनकी रंगसंगतियों में उदासी की छाया झलकने लगी। 

फ्रा एंजेलिकोरेम्ब्रांट जैसे ईसाई धार्मिक विषयों के महान चित्रकारों के समान वे विषय के भावात्मक स्वरूप को महत्त्व देते थे। 

इस दृष्टि से उनको विशेष सफलता मिली क्योंकि वे स्वप्नद्रष्टा होते हुए यथार्थवादी भी थे एवं आसपास की दुनिया के दृश्यों का चित्रनिर्माण में समुचित प्रयोग करते थे। 

उनके चित्र ‘अन्तिम ब्यालू’ का प्रभाव वेरोनीस के चित्र के समान आनन्दोल्लास से भरपूर नहीं है बल्कि वह ईसा का गेलिली के विनम्र मछुवाओं को आशिष के रूप में रोटी व शराब वितरित करते हुए बनाया दृश्यचित्र है।

तितोरेत्तो प्रवीण रेखाकार थे व सशक्त रेखाओं से स्थितिजन्यलघुता की कठिनतम स्थितियों को भी कुशलता से अंकित करते थे किन्तु उसका प्रयोग उन्होंने प्रवीणता प्रदर्शन के हेतु नहीं किया बल्कि अपने विचारों की अभिव्यक्ति के हेतु किया। 

रेफिल के समान उनमें असाधारण संयोजन-प्रतिभा थी व रेफिल से भी अधिक सशक्त व नवीनतापूर्ण संयोजन के अन्तर्गत चित्रण करते थे। 

संयोजन में वे रेखाओं व आकारों का असममितीय प्रयोग करते ताकि गतित्वदर्शी रेखाओं के जरिये दर्शक की निगाह चित्र के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं तक लयात्मकता के साथ पहुँच जाये। 

वेनिस के सान त्रोवासो वसान पोलो गिरजाघरों के ‘अन्तिम ब्यालू’ विषय के चित्र व अकादमिया वेनिस के चित्र ‘क्रूसावतरण’ जैसे प्रसिद्ध चित्रों के अतिरिक्त उन्होंने ठोस व सशक्त विवस्त्र नारीचित्रण भी किया है जिसके लायोन्ज के संग्रहालय के चित्र ‘दॅनाई’, विएन्ना का ‘सुजान’, लन्दन की नैशनल गैलरी के चित्र ‘आकाशगंगा’ प्रसिद्ध उदाहरण हैं। 

उस कालखण्ड के व्यक्ति चित्रों में उनके कास्तेलो, मिलान के व्यक्ति चित्र ‘जाकोपो सोरान्जो’ वेनिस अकादमिया का ‘आंतोनियो कापेलो’ प्रसिद्ध हैं। 

फिर भी उनकी कलानिर्मिति की शीर्षस्थ कृतियाँ हैं वेनिस के ‘स्कुओला दि सान रोक्को’ में सजावट के हेतु बनाये चित्र। 

इस चित्रमालिका में उन्होंने बहुत ही सोच समझकर बायबल के पूर्वविधान व नवविधान के प्रसंगों को चित्रित किया जो उनकी स्वप्नद्रष्टा प्रतिभा के प्रमाण हैं। 

उनके चित्र ‘क्रूसारोपण’ में रेम्ब्रांट के ‘चित्र ‘तीन क्रूस’ के समान धार्मिक भावनाओं की उदात्त अभिव्यक्ति है। 

इस कालखण्ड के वेनिस शैली के चित्रकार, वेरोनीस व तिंतोरेत्तो की कला से भी तिशेन की कला से अधिक प्रेरित थे।

पैरिस बोर्दोन 

पैरिस बोर्दोन ( 1500-1570) ने तिशेन के समान चटकीले रंगों से युक्त मांसल शरीर के मानव समूहों के चित्र बनाये किन्तु वे तिशेन से आगे नहीं जा पाये।

यही बात पाल्मा वेक्कियो (1480-1528) की कला पर भी लागू होती है जिनके शारीरिक आकर्षण लिये विवस्त्र नारीचित्रों में ठोसपन है। 

सेबास्तियानो लुचिआनी, जो सेबास्तियानी देल पिओम्बो (1485-1547 ) नाम से प्रसिद्ध थे की कला का वर्गीकरण कठिन है क्योंकि आरम्भिक काल में उन्होंने ज्योर्जिओने का अनुसरण किया किन्तु रोम जाने के पश्चात वे माइकिलेन्जेलो व रेफिल के संयुक्त प्रभाव का अनुसरण करने लगे। 

उनके रोम के मोन्तारियो स्थित सान पिएत्रो गिरजाघार के चित्र ‘ईसा को कोड़ों की मार’ प्रभावकारी है। किन्तु उसमें उनकी व्यक्तिगत विशेषता का अभाव है। उनके वितेर्बो का चित्र ‘शोक विहल मेरी’ भव्य व प्रशंसनीय है। 

लोरेन्जो लोत्तो (1480-1556) और एक कलाकार थे जिनको कला वेनिस के अन्य कलाकारों से भिन्न स्वरूप की है। उनकी कलाकृतियाँ आकर्षक होते हुए उनका कोई नियम बद्ध स्वरूप नहीं है। 

परिश्रमी व खोजी प्रकृति के होने से वे तिशेन व कोरेजो के अलावा अनेक कलाकारों की कला से प्रभावित हुए। मिलान के ब्रेरा संग्रहालय के व्यक्ति चित्र ‘वृद्ध व्यक्ति’ व वेनिस अकादेमिया के ‘युवा भद्र व्यक्ति’ जैसे अनेक उत्कृष्ट व्यक्ति चित्रों के अतिरिक्त उन्होंने कुछ सामान्य दरजे के चित्र तो कुछ ऐसे चित्र भी बनाये जिनमें प्रकाश के प्रभाव को सूक्ष्मता के साथ अंकित किया है। 

वर्गामो के निकटवर्ती स्कोर स्थित सुआर्दो भवन के प्रार्थनालय में चित्रित भित्तिचित्र व आइसी के ग्रंथालय में ‘सन्त लुचिया की दन्त कथा’ पर चित्रित भित्तिचित्र उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियाँ हैं जो सूक्ष्म निरीक्षण व नाविन्य के साथ बनायी हैं।

जाकोपो दा पान्ते जो बासानो (1510-1592) नाम से प्रसिद्ध थे, के चार पुत्र भी उनके साथ चित्रण करते थे और इसलिये यह कहना कठिन है कि ऐसी कौनसी कृतियाँ हैं जो उन्होंने पूर्णतया स्वयं चित्रित कीं। 

वे ग्रामीण शैली के चित्रकार थे व उन्होंने अपने चित्रों में ग्रामवासियों को विभिन्न मुद्राओं में अंकित किया है।

वेनिस की कला का प्रभाव लोम्बाद में फैल गया जो आलेसान्द्रो बोन्विचिनो, जो मोरेतो दा ब्रेस्विया (1498-1554) नाम से प्रसिद्ध थे, के ठोस आकारों में दृष्टिगोचर है। 

वेरोना में ज्योवानी बातिस्ता मोरोनी (1523-1578) ने अपनी कला को व्यक्ति चित्रण तक सीमित रखा जो बहुत उत्कृष्ट हैं। 

सतह की चमकदार बुनावट व चटकीले रंगों की उपेक्षा कर उन्होंने भूरे, श्यामल व श्वेतल रंगों की सुसंगतियों के साथ चित्रित व्यक्तियों को यथातथ्य दर्शाने पर ध्यान दिया। 

उनकी कला की विशेषताओं को वाशिंगटन के ‘तिशेन शैली के उस्ताद’ व न्यूयॉर्क के ‘मठाध्यक्ष लुक्रेजिया कातानिओ’ व्यक्ति चित्रों में देख सकते हैं।

फेरारा के चित्रकार ज्योवानिन दे लुतेरी, जो दोस्सो दोस्सी (1479-1542) नाम से प्रसिद्ध थे, की कला में कुछ अनोखे रोमांसवादी तत्त्वों का समावेश है जिसके अधिकतर विषय पौराणिक हैं व भूदृश्यों की पृष्ठभूमि के साथ चित्रित हैं। 

इस विचार से उनके ‘जादूगरनी’ के दो चित्र अभ्यसनीय हैं जिनमें से एक वाशिंगटन में है व दूसरा रोम के पालाज्जो बोर्गीस में। यदि वे रंगसौन्दर्य पर भी विशेष ध्यान देते तो उनके चित्र अधिक आकर्षक होते।

आन्तोनियो आलेग्री कोरेजो

आन्तोनियो आलेग्री कोरेजो (1489-1534) जिनको प्रारम्भ में तिशेन के समकक्ष महान चित्रकार मानते थे, की ख्याति में बाद में कुछ कमी आ गयी। 

वे मानवाकृतियों की सुडौलता व कोमल क्रमबद्ध घनत्वांकन में रुचि रखते थे जिसके कारण उनके बर्लिन के ‘लीड’, विएन्ना के ‘आयो’ व रोम के पालाज्जो बोगस के दॅनाई, ये नारीचित्र आकर्षक बने हैं। किन्तु धार्मिक विषयों के चित्रण में वे विषयानुकूल पवित्रता का भाव अंकित करने में सफल नहीं हुए। 

धार्मिक चित्रों में अंकित उनकी कुँआरी मरियम, देवदूत व सन्तों की आकृतियों के चेहरों पर ऐसे सस्मित भाव दर्शाये हैं जैसे कि वे दर्शक को मोहित करना चाहते हैं। फिर भी उनके पार्मा के सान पाओलो मठ में बनाये भित्तिचित्र उत्कृष्ट हैं। 

पार्मा के महामन्दिर के गुम्बद पर उन्होंने ‘स्वर्ण-ग्रहण’ विषय पर सौम्य रंगसंगति का प्रयोग कर एक अतिविशाल भित्तिचित्र बनाया जिसका अनेक इटालियन व अन्य देशों के चित्रकारों ने आदर्श मान कर अनुसरण किया। 

फेदेरिगो बोरोच्चो जो बोरोच्चि (1526-1612) नाम से जाने गये और एक चित्रकार थे जिन की कला मानवाकृतियों में अत्यधिक आकर्षकता दर्शाने के प्रयास में दूषित हो गयी। 

उनके चित्रों की आकर्षकता मुख्यतः रंगों में मोतियों जैसी विविध चमक एवं जामुनी, आसमानी व हल्के पीले रंगों के कुशल प्रयोग में है जो अठारहवीं सदी के फ्रेन्च चित्रकारों व दीवार दरी चित्रकारों को बहुत प्रिय थी।

काराच्चि 

काराच्चि नाम से तीन प्रसिद्ध इटालियन चित्रकार थे जिन्होंने अनुगामी चित्रकारों को काफी प्रभावित किया, विशेषतया उनके रोम के पालाज्जो फार्नेस की सजावट के कार्य के द्वारा प्रचलित रीतिवादी शैली से पृथक् मार्ग अपनाकर करच्चि बन्धुओं ने पुराने श्रेष्ठ चित्रकारों के भिन्न प्रभावों से युक्त व अधिक ठोस चित्रण शुरू किया। 

इनमें लुदोविको काराच्चि (1555-1619) सबसे बड़े थे व दूसरे दो सगे भाइयों के रिश्ते के भाई थे। उनके बोलोन्या के गिरजाघरों व महलों में धार्मिक व पौराणिक विषयों पर बनाये भित्तिचित्रवेदिका चित्र बहुत ही अभ्यासपूर्ण हैं किन्तु उनमें नवीनता की कमी है और वे रूढ़िबद्ध हैं। 

दो सगे भाइयों में से आगोस्तिनो (1537-1602) दार्शनिक, संयोजक व अच्छे अध्यापक थे। चित्रकला की अपेक्षा वे उत्कीर्णन में ज्यादा रुचि रखते थे व उन्होंने अनेक प्राचीन श्रेष्ठ चित्रों के उत्कीर्णन द्वारा छापचित्र बनाये। 

तीसरे आनिबाले काराच्चि (1560-1609) की कलाकृतियाँ दूसरे दोनों से अधिक कलात्मक हैं। काराच्चि भाइयों के धार्मिक विषयों के कुशलतापूर्वक बनाये चित्रों की आकृतियों में धार्मिक भावना की कमी भले ही दृष्टिगोचर होती हो किन्तु आनिबाले ने आगोस्तिनो व उनके शिष्य दोमेनिकिनो व आल्बानी की सहायता लेकर पालाज्जो फार्नेस में बनाये चित्र निश्चय ही उनकी श्रेष्ठ चित्रकार के रूप में अर्जित ख्याति के अनुरूप हैं। दीर्घ वीथिका व सभा भवन में किया चित्रण उत्कृष्ट दर्जे का है। 

छजलियों के ऊपर परीखम्भों द्वारा उठाये फलकों पर ग्रीक देवी- देवताओं के भक्तों व सुन्दर नग्न युवकों को चित्रित किया गया है जो निश्चय ही माइकिलेन्जेलो के सिस्टिन प्रार्थनालय में बने भित्तिचित्रों से प्रेरित है। 

इनमें बायबल के काव्यमय प्रसंगों का ग्रीक देवी-देवताओं की आकृतियों के सदृश आकृतियों में चित्रण किया है किन्तु इनमें देवत्व की जगह मानवीय शरीर का आकर्षण है। 

माइकिलेन्जेलो की आकृतियों के समान ये अतिमानवीय शक्ति से अलौकिक नहीं लगतीं। मानवीय शरीर के उद्दीपक सौन्दर्य के चित्रण की दृष्टि से ये उत्कृष्ट हैं। काराच्चि की कलाकृतियों व उनकी शैली ने इटली व फ्रांस के कलाकारों को काफी प्रभावित किया। 

फ्रांस के वर्साय के महलों की अन्तर-सज्जा पालाज्जो फार्नेस की सजावट से प्रेरित है। किन्तु भिन्न शैलियों के सम्मिश्रण से निर्मित होने से काराच्चि की कला का प्रभाव दीर्घजीवी नहीं हुआ। 

सोलहवीं सदी की जर्मन कला सोलहवीं सदी जर्मन भाषायी प्रदेशों की कला का उत्कर्ष काल था। जर्मनी व स्वित्जरलैंड में अनेक कलाकार कार्यरत थे। 

बाह्य रूपसौन्दर्य की अपेक्षा उत्कट प्रभावशाली अभिव्यक्ति को महत्त्व देने की जर्मन कला की मूल प्रवृत्ति ने इटालियन पुनर्जागरण कालीन कला को लेकर क्या प्रतिक्रिया दिखायी यह अभ्यसनीय विषय है क्योंकि ग्रीक कला से प्रेरित इटालियन कला में आदर्श मानव शरीर व निसर्गदृश्य को महत्त्व देकर सुरचना व सुसंवादित्व पर ध्यान केन्द्रित कर कलासर्जन किया जाता था। 

वस्तुतः केवल आल्ब्रेस्ट ड्यूरर ही, जो असाधारण प्रतिभा के धनी थे, समुचित रूप से जर्मन कला की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का त्याग किये बिना इटालियन पुनर्जागरणकालीन कला की विशेषताओं को आत्मसात कर सके। 

शेष कलाकारों ने इटालियन कला के आलंकारिक अभिप्रायों को मात्र अपनाया। इनके अलावा हान्स होल्वाइन एक ऐसे जर्मन कलाकार थे जिनकी कला औरों से भिन्न व निजी विशेषताएँ लिये हुए थी।

आल्ब्रेश्ट ड्यूरर 

आल्ब्रेश्ट ड्यूरर (1471-1528 ) वोल्गेमुट व मार्टिन शोनगोअर के भाइयों के शिष्य थे व बचपन में ही उन्होंने अपनी अद्भुत प्रतिभा से सबको आश्चर्यचकित किया। 

उनके असाधारण कौशल का परिचय उनके 13वें साल में बनाये रेखात्मक आत्मचित्र (आल्बर्टिना, विएन्ना) व 19वें साल में बनाये अपने पिता के व्यक्तिचित्र से होता है। 

उनके आरम्भकालीन आत्मचित्र (प्राडो), ओस्वोल्ट क्रेल के व्यक्ति चित्र (पिनाकोटेक, म्यूनिक) व एल्स्वेथ दुशेर के व्यक्ति चित्र (कासेल) बारीकियों के साथ रेखांकन करने के उनके प्रभुत्व के प्रमाण हैं । 

किन्तु उनके आरम्भिक धार्मिक चित्र, उत्कृष्ट होते हुए आत्मविश्वास. की कमी व आकारों की भरमार के कारण असंयोजित व अस्तव्यस्त लगते हैं। 

किन्तु उन्होंने अपनी इन कमजोरियों को शीघ्र दूर कर धार्मिक विषयों के चित्रण पर भी प्रभुत्व प्राप्त किया जिसके उदाहरण हैं ‘मजूसियों की आराधना’ (उफ्फिजी) ‘हर्क्युलिस व स्टिम्फलि के पक्षी’ (बावारियन संग्रहालय, म्यूनिक)। 

1505 में ड्यूरर इटली गये व एक साल तक वहाँ की कला का उन्होंने अध्ययन किया। वहाँ की कला से वे कितना प्रभावित हुए थे यह उनके अपने मित्र विलीबाल्ट पिर्कहाइमेर को लिखे पत्र से ज्ञात है। 

वे इटालियन कला से कितना प्रभावित हुए थे यह उनके उस कालखण्ड में बनाये चित्रों से स्पष्ट होता है। 

उनके चित्र ‘माला-विनति का भोज’ (स्ट्राहाउ मठ, प्राग) ‘सुवर्णतूती वाली कुँआरी मरियम’ (बर्लिन) ‘युवती का व्यक्ति चित्र’ (बर्लिन) से स्पष्ट होता है कि उन्होंने ज्योवान्नि बेल्लिनी की प्रकाश योजना व घनत्वांकन पद्धति को किस तरह पूर्णरूप से आत्मसात किया था। 

मानव शरीर की सानुपातिकता व उसके सुसंवादपूर्ण अंकन में उनकी विशेष रुचि के उदाहरण हैं प्राडो संग्रहालय के उनके चित्र ‘आदम’ व ‘ईव’ और उनके चित्र ‘चार धर्म प्रचारक’ (पिनाकोटेक, म्युनिक ) जिन पर इटालियन कला का प्रभाव है व जिनमें सरल व गतिशील रेखाओं से किया वस्त्रों का अंकन उनके अन्य चित्रों में किये गये कोणदार जटिल रेखाओं से किये वस्त्रांकन से भिन्न है। 

उनके उत्तरकालीन व्यक्ति चित्र पूर्वकालीन व्यक्ति चित्रों से भी उत्कृष्ट है जिसके उदाहरण है ‘मिशाएल वोल्गेमुट’ (म्यूनिक) ‘अज्ञात व्यक्ति’ (प्राडो) ‘हिरोनिमस होल्शुहेर’ (बर्लिन)। 

ड्यूरर बहुविध प्रतिभा के धनी थे व उन्होंने कला के सैद्धान्तिक पक्ष का भी गहरा अध्ययन किया था एवं मनोहर जलरंगीय दृश्यचित्र, प्राणी चित्र व वनस्पति चित्र बनाये। 

उनमें वास्तविकता के सूक्ष्म निरीक्षण व काल्पनिकता को अपनी कलाकृति में संयुक्त कर प्रत्ययकारी रूप से प्रस्तुत करने की असाधारण प्रतिभा थी जो उनके उत्कीर्णन से तैयार किये छापचित्रों में विशेषतया दृष्टिगोचर है। 

जर्मन चित्रकार हान्स ज्यूस फान कुल्म्बारव (1480-1522) की कला में ड्यूरर की कला का अनुसरण मात्र है किन्तु हान्स बाल्डुंग ग्रीन जो हान्स वाल्डुंक ( 1484-1545) नाम से प्रसिद्ध है, की कला में कुछ निजी विशेषताएँ दृष्टिगोचर हैं। 

उनके रंगप्रयोग में कुछ कठोरता है किन्तु उनकी कला में कल्पना की प्रचुरता है जो विकरालता व अनोखेपन के प्रभावोत्पादन के प्रति कलाकार की विशेष रुचि दर्शाती है। 

‘कुँआरी का अभिषेक’ (फ्रायडेल धर्मपीठ का वेदिकाचित्र) व ‘सन्त जार्ज व सन्त मारीस के साथ मजूसियों की आराधना’ (बर्लिन) उनके श्रेष्ठ चित्रों में से हैं। 

चित्र ‘पायरेमस व थिस्बे’ (बर्लिन) में उन्होंने प्राचीन ग्रीक प्रसंग के पात्रों को समकालीन वेशभूषा के साथ चित्रित किया है जिससे वह रोमांचक तन गया है। 

हान्स बुर्गमैर (1473-1531) पर इटालियन कला का इतना स्पष्ट प्रभाव है कि माना जाता है कि वे इटली में कुछ समय तक रहे होंगे। 

उनके चित्रण में सहजता व कौशल है और उन्होंने प्रचुर मात्रा में कलासर्जन किया। उनकी कलानिर्मिति प्रशंसनीय है किन्तु उसमें निजी विशेषता का दर्शन नहीं है।

लुकास क्रानाख (1472-1553) निष्ठावान प्राटेस्टंट थे व मार्टिन लूथर के प्रशंसक थे। काफी समय तक वे सैक्सनी के निर्वाचक फ्रेडेरिक तृतीय व जॉन की सेवा में रहे। 

कलात्मक गुणों की दृष्टि से प्रशंसनीय होते हुए उनके धार्मिक विषयों के ‘क्रूसारोपण’ (म्यूनिक) व ‘मिस्र की ओर पलायन के बीच विश्राम’ (बर्लिन) जैसे चित्र उनकी सर्वोत्कृष्ट कला के अन्तर्गत नहीं आते। 

इनसे भी उनके व्यक्ति चित्र अधिक पसन्द किये जाते हैं जो चित्रविषय के व्यक्तित्व को महत्त्व देकर बनाये जाने से अविस्मरणीय हैं। इन व्यक्ति चित्रों में ‘युवती का व्यक्ति चित्र’ (लुव्र) ‘युवती का व्यक्ति चित्र’ (जूरिक) ‘डॉ. जोहानेस कुस्पिनियन’ (राइनहार्ट, विंटरथर) अभिव्यक्तिपूर्ण हैं। 

इनके अलावा भूगोलवेत्ता व खगोलविज्ञ जोहानेस शोनेर का व्यक्ति चित्र (ब्रसल्ज) उनकी सर्वश्रेष्ठ कृतियों में से है जिसके बारे में कहा जाता है कि किसी एक व्यक्ति का इतने गहरे अन्तर्बोध से किया सशक्त व्यक्तिचित्रण दुर्लभ ही होगा। 

लुकास क्रानाख व उनके सहायकों ने पुराण, इतिहास, व धर्मग्रंथों से विषयों को चुनकर असंख्य नारीचित्र बनाये। 

किन्तु नारी की व्यक्तिगत स्वभाव विशेषता का ध्यान रखे बिना सब की आकृतियाँ एक-सी बनावटी मुद्रा में, संदिग्ध स्मित व छोट गोल स्वत (stanyukt) चित्रित की हैं। 

नवीन विचारों के समर्थक होते हुए उन्होंने सम्भवत: इस तरह का नारी चित्रण ग्राहकों को प्रसन्न करने हेतु किया होगा।

आल्बेश्ट आल्ट्डोर्फर (1480-1538) असाधारण व्यक्तिगत स्वरूप की कल्पना शक्ति के धनी थे। उन्होंने छोटे आकार के धार्मिक चित्र बनाये जिनका प्रभाव कभी मन्द नहीं पड़ा। 

उनकी प्रकृति चित्रण में विशेषतः निशादृश्यों में रुचि थी। उनके चित्र ‘सुसान्ना व गुरुजन’ व ‘जंगल में सन्त जार्ज’ (म्यूनिक) तथा ‘मिस्र में पलायन’ व ‘ईसा का जन्म’ (बर्लिन) देख कर लगता है जैसे कि उन्होंने ये चित्र, विषय को बच्चों को समझाने हेतु बनाये हैं। 

इनमें से अन्तिम चित्र बहुत ही आकर्षक, स्वाभाविक व काव्यमय बनाया है जिसमें शिशु ईसा को माता-पिता के साथ टूटे-फूटे बखार में अंकित किया है व देवदूतों को रात्रिकालीन आसमान में दिखाया है। 

इसमें बचपन की निष्कपटता व्यक्त करने का उद्देश्य है जो बाद में 19वीं सदी के जर्मन चित्रकार लुटविश रिश्टेरमोरित्स फान श्विंट की कला में पुनश्च दृष्टिगोचर हुआ। 

डच मूल के कलाकार बार्टोलोमस ब्रूयन (1493-1555) ने उत्कृष्ट व्यक्ति चित्र बनाये जो कलाकार यान वान स्कोरेल के व्यक्ति चित्रों से कुछ समानता रखते हैं। 

ब्रूएन के विशेष उल्लेखनीय व्यक्ति चित्रों में जोहानेस फान रायट, कलोन का नगरपति (बर्लिन), आर्नोल्ड ब्रौवाइलेर (कलोन) व डॉ. फुक्सियस (नैशनल गैलरी लन्दन) ये व्यक्तिचित्र हैं। 

इसके विपरीत उनके धार्मिक चित्रों में अतिशयोक्ति व अनावश्यक भीड़भाड़ के दोष हैं जो सामान्यतया इटालीयन कला के अनुसरण कर बनाये फ्लेमिश चित्रों में भी दिखायी देते हैं। 

गेओर्ग पेन्क्त्स (1500-1550) के आडम्बरहीन व्यक्ति चित्रों पर इटालियन कला का विशेषतया ब्रोन्जिनो की कला का प्रभाव है। किन्तु उनके नुरेम्बर्ग के हर्शवोगेल भवन की सजावट में स्पष्ट माइकिलेन्जेलो व रेफिल का आडम्बरपूर्ण अनुकरण है। 

क्रिस्टोफ आम्बेर्गेर (1500-1561) प्रसिद्ध साहूकार परिवार फुगेर्स के प्रिय कलाकार थे व उनका भूगोलविज्ञ सेबास्टियन म्युन्स्टेर का व्यक्ति चित्र (बर्लिन) उल्लेखनीय है। 

अन्य जर्मन कलाकारों की अपेक्षा हान्स होल्वाइन (1477-1543) की कला भिन्न स्वरूप की है। 

होल्वाइन द्वारा बायबल के प्रसंगों या ग्रीक पुराणों से लिये विषयों पर चित्रित कृतियों में ड्यूरर, बाल्डुक या आल्टडोर्फर की कल्पना शक्ति नहीं है। 

जो वास्तविकता में दृष्टिगोचर नहीं है ऐसे धार्मिक या पौराणिक प्रसंगों को लेकर बनाये उनके चित्र आलंकारिक प्रतीत होते हैं व उनमें सजीवता नहीं होती। 

उनके मरियम के चित्रों (डार्मस्टाट व सोलोर) का आकर्षण केवल इसी कारण से है कि वे प्रत्यक्ष मॉडेल को देखकर बनाये हैं न कि कल्पना द्वारा। 

उनका प्रसिद्ध चित्र ‘मृत ईसा’ (बासेल) शव के यथार्थ चित्रण के कारण उल्लेखनीय है किन्तु उसमें ईसा के धर्मपुरुषी व्यक्तित्व का प्रभाव नहीं है। किन्तु व्यक्ति चित्रण में जहाँ कल्पनाशक्ति को कोई स्थान नहीं होता, वे अद्वितीय हैं। 

होल्वाइन के सूक्ष्म निरीक्षण के साथ यथातथ्य व्यक्ति चित्रण करने की चरम सीमा को देखकर ही एक बार प्रसिद्ध लेखक आस्कर वाइल्ड ने इटालीयन कला समीक्षक बर्नार्ड बेरेनसन से शिकायत की कि “मैं होल्बाइन के सामने मेरा व्यक्ति चित्र बनाने बैठा तो उन्होंने मेरे चेहरे का मात्र नक्शा या प्रकृति चित्र ही बना डाला।” 

होल्बाइन की यही विशेषता थी कि वे अपने सामने जो कुछ दिखायी देता, पोशाक मेजपोश, उसकी बुनावट, माडेल की आँखे, मुँह आदि हर अंग को समान महत्त्व देकर बारीकियों के साथ सोच-समझकर सावधानी से अंकित करते। 

वास्तव में उन अनावश्यक बारीकियों को छोड़ते भी थे किन्तु दर्शक कह नहीं पाता कि क्या छोड़ दिया है। उनकी अंकन पद्धति इतनी एकनिष्ठ स्वरूप की है कि उनके व्यक्ति चित्रों की आपस में तुलना कर उनमें श्रेष्ठता का निर्णय करना कठिन है। 

उदाहरणार्थ उनके व्यक्ति चित्र ‘बोनिफासियस आमेरबाक’ (बासेल) ‘गेओर्ग गित्से’ (बर्लिन) ‘रिचर्ड साउथवेल’ (उफ्फिजी) ‘डेनमार्क की ख्रिस्टिना’ ‘मिलान की डचेस’ (नेशनल गैलरी, लन्दन) सभी समान रूप से उत्कृष्ट हैं। 

इनके अलावा उनके और भी अनेक व्यक्ति चित्र हैं जो इसी श्रेणी के हैं। उन्होंने अनेक उत्कृष्ट रेखाचित्र भी बनाये। कल्पना, भावुकता व धार्मिक विश्वास से प्रेरित अन्य समकालीन जर्मन व स्विस कलाकारों से होल्बाइन की वस्तुनिष्ठ कला इतनी भिन्न स्वरूप की क्यों है इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। 

सम्भवतः बरसों तक इंग्लैण्ड में किये निवास व उस कालखण्ड में उनके द्वारा राजाओं, सामन्तों व प्रतिष्ठित महिलाओं के लिये किये व्यक्ति चित्रण का यह परिणाम होगा। 

वे इंग्लैण्ड में करीब 13 साल तह रहे और इस कालखण्ड में वे व्यक्ति चित्रण में व्यस्त थे जिस कार्य में कलाकार, चित्रित व्यक्ति व उसके परिवार के सदस्य एवं दर्शकों की दृष्टि से सादृश्य चित्र के विशेष महत्त्वपूर्ण व आकर्षक अंग होते हैं और यही कारण हो सकता है उनकी कला की वस्तुनिष्ठता का। 

लम्बे समय तक होल्बाइन की कला इंग्लैण्ड के व्यक्ति चित्रकारों के लिये आदर्श बनी रही। इंग्लैण्ड जाने के पूर्व वे मानवीयतावादी विचारधारा से प्रभावित बासेल में चित्रण करते थे। 

उसके पश्चात् वे इटली के उत्तरी भाग व फ्रांस के दक्षिणी भाग में रहे जहाँ वे लिओनार्दो की कला व फ्रेन्च मध्ययुगीन कला से प्रभावित हुए। 

इसी तरह भिन्न देशों में भ्रमण किये व दरबारी चित्रकार रहे होल्बाइन की कला का अन्य जर्मन कलाकारों की कला से व जर्मन कला के देशज स्वरूप से भिन्न दिशा में विकसित होना स्वाभाविक है। 

अतः उनको जर्मन कलाकार की अपेक्षा स्वतंत्र निजी शैली के कलाकार के रूप से जानना उचित होगा। उनकी कला के अनेक प्रशंसक थे, कुछ कलाकारों ने उनका अनुसरण भी किया किन्तु उनका कोई भी शिष्य विशेष ख्याति अर्जित नहीं कर सका। 

समकालीन कलाकारों में से प्रसिद्ध कलाकार इंग्लैण्ड के जॉन बेटीस व जर्मनी के ब्रूयन व आम्बेर्गेर उनके सामने गौण प्रतीत होते हैं।

कला के विकास की दृष्टि से जर्मनी के समान स्वित्जरलैंड के लिये भी यह काल महत्त्वपूर्ण रहा। बर्न के कलाकार निकोलस मान्युएल डाइटस (1484-1530) न केवल चित्रकार थे बल्कि सैनिक, राजनीतिज्ञ, व्यंग्यकवि व धर्मसुधार आन्दोलन के कार्यकर्ता थे। 

उनके सबसे श्रेष्ठ चित्र ‘सन्त जॉन का शिरच्छेद“पैरिस का निर्णय’ व ‘पायरामस व थिस्बे (सब बासेल संग्रहालय में हैं)’ हैं, जिनकी विशेषताएँ हैं स्वतंत्र व्यक्तित्व, प्रभावकारी कल्पनाशक्ति व रंगों का सूक्ष्म व निर्भीक प्रयोग। 

जुरिक के चित्रकार उर्स ग्राफ (1485- 1528) के रेखांकन बहुत सशक्त हैं जिसके द्वारा उन्होंने अपने सैनिक जीवन के मृत्यु से जूझते हुए दृश्यों को चित्रित किया है। 

शाफौसेन के चित्रकार टोबियास स्टिमर (1539- तिशेन व ब्रांजिनो के चित्रों की अनुकृतियाँ की एवं उनकी निजी कला भी इटालियन कला 1584) ने कुछ समय कोमों में रह कर कार्य किया। उन्होंने इटालियन चित्रकार मान्तेन्या,से प्रभावित है। 

उनके शाफैसिन स्थित हौस जम रिटेर भवन के दर्शनी भाग पर बनाये चित्र ओजस्वी हैं यद्यपि वे अत्यधिक आलंकारिक भी हैं। 

उनके व्यक्ति चित्र ‘कान्राड गेस्नेर’ ‘मार्टिन पेयर’ (शाफौसेन) ‘जाकोब श्वायत्जेर व पत्नी’ (बासेल) श्रेष्ठता की दृष्टि से लगभग होल्याइन के व्यक्ति चित्रों के निकट का स्थान पा सकते हैं। 

निम्न भूमि देशों में (फ्लैंडर्स, हालैन्ड, बेल्जियम, लक्सेम्बुर्ग ) कला का पुनर्जागरण फ्लैंडर्स व हालैन्ड की कला इस काल में कुछ अनिश्चय की मानसिकता के साथ विकसित हो रही थी। 

अधिकतर कलाकार इटालियन कला से स्पर्धा करने में तत्पर हुए थे तो कुछ कलाकार अपनी देशज परम्परा को छोड़ना नहीं चाहते थे जिस परम्परा ने उनकी कला को पूर्ववर्ती सदी में गौरवपूर्ण स्थान दिलाया था। 

इन कलाकारों में से योआखिम पाटिनिर (1480-1524) व पीटर ब्यूगेल ज्येष्ठ (1525-1569) विशेष प्रसिद्ध हैं। योआखिम पाटिनिर को वह प्रसिद्धि मिली जिसके वे योग्य थे। 

हिरोनीमस बॉस के समान किसी धार्मिक विषय को एक अवसर के रूप में चुनते जिससे लाभ उठा कर वे क्षितिज को काफी ऊपर अंकित कर विशाल भू-दृश्य चित्रित करते जिसमें वे घुमावदार नदी प्रवाह, काम करते हुए श्रमिक, घोड़ों पर सवार सरदार, प्रार्थना में मग्न साधु, आदि विविध प्रसंगों को अपनी अन्तःप्रेरणा के अनुसार सम्मिलित करते। 

उनके एवं बॉस व ब्यूगेल के चित्रों से प्रतीत होता है कि उस समय कला प्रेमी उन चित्रों को पसन्द करते थे जिनमें पुस्तक चित्रण के समान विविध बारीकियों व विवरणों के साथ प्रसंग को यथातथ्य पुनर्निर्मित किया हो। 

अपने पूर्ववर्ती कलाकारों की निरभ्र आकाश को चित्रित करने की प्रथा को त्याग कर पाटिनिर ने विविध रंगों व आकारों के मेघों से आच्छादित आकाश को चित्रित करना आरम्भ किया। 

उनके चित्र ‘सन्त क्रिस्टोफर’ (एस्कोरिल) ‘पलायन में विश्राम’ (प्राडो) व ‘ईसा का बपतिस्मा’ (विएन्ना) को देखकर लगता है कि वे धार्मिक विषय की अपेक्षा उस भू- प्रदेश को चित्रित करने में रुचि रखते थे जिसमें वे भिन्न-भिन्न दृश्यों को अंकित कर सकते थे। 

उनकी इस हार्दिक रुचि के कारण उनके चित्र काव्यामय व प्रसन्नतापूर्ण बन गये हैं।

इनके अलावा रोमेनिस्ट (रोमनवादी) नाम से जाने गये कलाकार थे-वारेन्ड वाल ओर्ली (1488-1541), युस्ट वान क्लेफ (मृत्यु-1548), यान गोसार्ट जो माबुसे नाम से ज्ञात थे (जन्म 1475) और फ्रांस डे व्रिएंट (1516-1570) जो फ्लोरिस नाम से ज्ञात थे। 

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि उनके धार्मिक एवं पौराणिक चित्रों में कोई एकरूपता नहीं है किन्तु इसके लिये उनके इटली की यात्राओं व वहाँ किये कलाध्ययन को दोष देना उचित नहीं है। 

रुबेन्स व अन्य श्रेष्ठ कलाकारों ने भी इटली जाकर वहाँ की कला का अध्ययन किया था किन्तु उसका उनकी निजी कला पर कोई विपरीत परिणाम नहीं हुआ। 

असल में रोमेनिस्ट कलाकार इटली की कला के ग्रहणीय तत्त्वों से लाभ उठाने में असफल रहे। यह बात मासे के चित्र ‘नेपच्युन व एम्फिट्राइट’ (बर्लिन) ‘सन्त ल्युक कुँआरी मरियम व बाल ईसा का चित्रण करते हुए’ (प्राग) ओर्ली के चित्र, ‘जॉब की परीक्षा (ब्रसल्ज), क्लेफ के चित्र ‘कुँआरी की मृत्यु’, ‘पवित्र परिवार’ (विएन्ना) व फ्लोरिस के ‘देवदूतों का पतन’ (एंटवर्प) से स्पष्ट दिखायी देती है। 

उनके साथ दिक्कत थी कल्पनाशक्ति के अभाव की किन्तु जब वे व्यक्ति चित्र या सामने के दृश्य के चित्र बनाने लगते तब वे उसे बहुत ही कुशलता से बनाते जो कुशलता उन्होंने अपने पूर्वजों से अर्जित की थी। 

और तब वे रेफिल माइकिलेन्जेलोलिओनार्दो का प्रभाव एवं ग्रीक वास्तुकला व अलंकरण भूल जाते और सामने बैठे व्यक्ति के सादृश्यपूर्ण व्यक्ति चित्र बनाने में एकाग्रचित्त होते। 

इस दृष्टि से ओर्ली के डॉ. जेले (ब्रसल्ज) युस्ट वान क्लेफ के ‘जयमाला लिये महिला’ (उफ्फिजी) और ‘फ्रांस की रानी एलिओनोर’ (विएन्ना), माबुसे के ‘दाता व पत्नी’ (ब्रसल्ज) व ‘अज्ञात व्यक्ति’ (वान बायनिगेन संग्रह) और फ्लोरिस के ‘बाज के साथ आदमी’ (बन्स्विक) व्यक्ति चित्र विशेष प्रशंसनीय हैं। 

इन चित्रों में सादृश्य के अतिरिक्त व्यक्ति की स्वभाव विशेषताओं का भी दर्शन है। व्यक्ति सादृश्य को यथातथ्य अंकित करने के उद्देश्य को प्रमुख महत्त्व देकर बनाये व्यक्ति चित्रों में फ्रांस पौर्वस ज्येष्ठ के ‘युवती का व्यक्ति चित्र’ (घेंट), मार्टेन डे वोस का ‘आन्सेल्म परिवार का चित्र’ (ब्रसल्ज) प्रसिद्ध हैं।

पीटर एसेन 

पीटर एसेन (1509-1575) व उनके भतीजे योआखिम बायकेलार (1533- 1573) ने सांसारिक विषयों को लेकर चित्रण शुरू किया जिसमें अधिकांश पारिवारिक दृश्यों के चित्र हैं। दोनों ने गतिविधियों से सजीव बाजार के चित्र एवं खाद्य पदार्थ व बरतनों से भरे रसोईघर के चित्र बनाये ।

सोलहवीं सदी के उत्तरार्ध में पौलुस ब्रिल (1545-1626), योसे डे मोम्पेर (1564- 1635) व रोलेन्ड सावेरी (1575-1639) इन चित्रकारों ने बॉस व पाटिनिर की पृष्ठभूमि को विशाल क्षेत्र में अंकित करने की पम्परा को त्याग कर भू-दृश्य चित्रण करना आरम्भ किया जिसका बाद में ब्यूगेल ने अनुसरण किया। 

पौलुस ब्रिल 1582 में रोम गये व आजीवन वहीं रह भू-दृश्य चित्रण व गिरजाघरों व महलों में फ्रेस्को चित्रण किया। इन चित्रों में जो सरलीकरण व सुसंवादित्व दृष्टिगोचर है उससे विश्वास होता है कि वे क्लोद लोरें के पूर्ववर्ती भू दृश्य चित्रण के प्रणेताओं में थे। 

सम्भवत: योसे डै मोम्पेर ने भी इटली की यात्रा की होगी जिसका प्रमाण उनकी चित्रों में पहाड़ी दृश्यों को अंकित करने की अभिरुचि से दिखायी देता है। 

उनके भू-दृश्यों की विशेषता है रंगों का स्वतंत्र अप्रत्याशित प्रयोग एवं प्रकृति का वास्तविकता, रोमांच व भव्यता के सम्मिश्रित रूप से दर्शन। 

उनके भूचित्र दर्श (विएन्ना) व ‘जाड़े का दृश्य’ (ड्रेस्डेन) बहुत ही सुन्दर हैं व उनकी तुलना ब्यूगेल के चित्रों से की जा सकती है। 

रोलेन्ड सावेरी ने भी आल्प्स के पर्वतीय दृश्यों के चित्र बनाये जिसमें टायरोल के ऊबड़-खाबड़ पथरीली ढालों के ठंडे रंगों में चित्रित भू दृश्य हैं जिसका ‘पथरीली दीवार’ (बुडापेस्ट) प्रतिनिधि उदाहरण है। 

बहुत से अन्य समकालीन कलाकार बन्धुओं के समान पीटर ब्यूगेल ज्येष्ठ (1525-1569) भी इटली गये थे जहाँ से वे इटली के देहातों के अनेक उत्कृष्ट रेखाचित्र बनाकर लाये। 

किन्तु रेखाचित्रों के अलावा उनकी कला पर इटली की कला का कोई विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं है। 

लगता है जैसे कि वे किसी प्रवासी पक्षी की तरह इटली हो आये थे। वे येरोम बॉस की परम्परा के कलाकार थे व उन्होंने बॉस के समान ही ऊँचे दृष्टिकोण से व क्षितिज को काफी ऊपर अंकित कर विशाल पृष्ठभूमि पर लोकप्रिय कथाओं के अन्तर्गत जनसमुदायों व वस्तुओं को चित्रित करना आरम्भ किया था। 

उनकी कला की ये विशेषताएँ उनके चित्र ‘कार्निवाल व लेंट के बीच की लड़ाई’ (विएन्ना) चित्र में देखने को मिलती हैं। जोश व परिहास के साथ बनाये उनके चित्रों में सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति व आविष्कारक स्वैर कल्पना का मनोरम संगम है। 

परिहास प्रिय होते हुए भी वे मूलतया चित्रकार थे व उन्होंने परिहास प्रियता को कला पर हावी नहीं होने दिया। 

बाद में वे धार्मिक विषयों के चित्रण की ओर झुके व उन्होंने ‘निरोहों का नरसंहार’ (विएन्ना) ‘बेथलेम की गणना’ (ब्रसल्ज) जैसे चित्र बनाये जिनकी पृष्ठभूमि में उन्होंने फ्लैंडर्स के दृश्यों व वहाँ के जनजीवन की विशेषताओं को सम्मिलित किया है। 

देगा व तुलुज लोत्रेक के समान, हर व्यक्ति को, साधारण क्यों न हो उसके स्वभाव व शरीर की विशेषताओं के साथ चित्रित किया है। 

पृष्ठभूमि के तूफानी घने बादल, जाड़ों में दृष्टिगोचर निस्तेज सूर्यबम्ब, लाल ईंटों के मकान आदि चित्रों में समाविष्ट सभी वस्तुओं को यथातथ्य अंकित किया है। 

कभी-कभी वे पूर्णरूप से भू-दृश्य जैसे चित्र बनाते जैसे 19वीं सदी के भू-दृश्य चित्रकारों से पहले और किसी चित्रकार ने नहीं बनाये, उदाहरणार्थं चित्र ‘हिमाच्छादित प्रदेश में शिकारी’ (विएन्ना), ‘फसल’ (न्यूयॉर्क) ‘वृक्ष के नीचे नृत्य’ (डाम्स्टॉट) जो कलाकार के प्रकृति प्रेम के परिचायक हैं। 

कुछ कला के इतिहासकार ब्यूगेल को दार्शनिक प्रकृति के कलाकार मानते हैं। उनके इस मत में अतिशयोक्ति हो सकती है। 

किन्तु ब्यूगेल एक महान कलाकार थे जिन्होंने सामान्य लोगों के सुख दुःखों के प्रति संवेदनशील रह कर उनके जीवन को चित्रित किया। 

‘निरीहों का जनसंहार‘ चित्र की पृष्ठभूमि में जाड़े में एक ग्रामीण दृश्य है। आसमान का वर्ण धूसर है व मकानों की छतें हिमाच्छादित हैं। 

श्वेतवर्णीय पृष्ठभूमि पर भूरे व पीले रंग के मकान स्पष्ट रूप से निकले हुए नजर आते हैं और इस दृश्य के बीच निर्दय सैनिक जाँच कर रहे हैं और निरीह ग्रामवासी दया की याचना करते हुए व शोकमग्न दिखायी देते हैं। 

‘बेथलेम की गणना’ चित्र भी लगभग इसी के समान प्रभाव का है। ‘ग्रामीण विवाह’ चित्र में फार्म के अहाते में एक बहुत बड़े मेज पर भोजन व पेय की सामग्री रखी हुई है एवं वस्त्रों, वस्तुओं व भोज्य पदार्थों का अंकन बारीकियों के साथ निरीक्षणपूर्वक किया है। 

‘हिमाच्छादित प्रदेश में शिकारी’ की पृष्ठभूमि में मकान, वृक्ष व स्केटर्स का सुपरीचित दृश्य चित्रित किया है। ‘मोलेनबेक की तीर्थ यात्रा’ (आल्बेर्टिना, विएन्ना) ‘किसान व घोंसले निकालने वाला’ (विएन्ना), ‘शहद की फसल ‘ (लन्दन) ये सब ग्रामीण दृश्यों पर आधारित चित्र हैं। 

इन सब में व्यंग्य व विनोदपूर्ण घटनाएँ प्रत्यक्ष देख कर चित्रित की हैं। धार्मिक चित्र भी ऐसे लगते हैं जैसे कि वे किसी दृश्य प्रत्यक्ष देखकर चित्रित किये हुए हों।

16वीं सदी के हालैंड में न तो कोई ब्यूगेल के समान श्रेष्ठ कलाकार था न डीरिक बॉट्स या औवाटर के समकक्ष सर्वमान्य । 

उस समय के वहाँ के कलाकार कार्नेलिस एंगेलब्रेख्टसेन (1498-1574) के धार्मिक चित्र’ सन्त कान्स्टन्टाइन व सन्त हेलन’ (म्यूनिक) ‘कलवारी’ (लायडन) एवं मार्टेन वान हेमस्कर्क (1498-1574) के चित्र केवल दस्तावेजी महत्त्व के हैं यद्यपि यह सही है कि हेमस्कर्क ने व उनकी पत्नी’ (रियस्क संग्रहालय, अॅमस्टरडम) जैसे आकर्षक व्यक्तिचित्र बनाये हैं। 

कुछ इनके अलावा यान वान स्कोरेल (1495-1565) भी एक समर्थ व्यक्ति चित्रकार थे जिनके ‘पीटर बिकर ‘लड़के का व्यक्ति चित्र’ (बायमान्स संग्रहालय, रोटरडम), ‘आगाथा वान स्कुनहोवेन’ (पालाजो डोरिया, रोम) ‘येरुशलेम की तीर्थयात्रा’ (ब्लुमफील्ड हिल्स, मिशिगन) ये चित्र आकर्षक हैं। 

लुकास वान लायडन (1494-1533) चित्रकार को अपेक्षा उत्कीर्णक के रूप से अधिक प्रसिद्ध थे और उन्होंने उत्कृष्ट उत्कीर्णन कार्य किया। 

उनके ‘मोजेस का चट्टान पर आघात’ (बोस्टन), ‘प्रवचन’ (अॅम्स्टरडम), ‘मजूसियो की अराधना’ (शिकागो) ये उत्कीर्णन से बनाये छाप चित्र कल्पनाविलास व सूक्ष्म निरीक्षण के उदाहरण हैं किन्तु उनकी निर्विवाद उत्कृष्टता के बावजूद उनके रंगों में परिपक्वता का दर्शन नहीं है व उनकी प्रकाश योजना भी रूढ़िबद्ध है।

स्पेन की चित्रकला

सोलहवीं सदी की स्पेन की कला में कुछ श्रेष्ठ दरजे के कलाकार हुए किन्तु उनमें सबसे श्रेष्ठ एल्प्रेको थे जो विदेशी थे। 

हान डे हानेस जो कभी मासिप (1523-1579) नाम से भी जाने गये हैं, को कला पूर्ण रूप से इटालियन पुनर्जागरण से प्रभावित है। उन्होंने केवल रेफिल का अनुकरण किया है। 

ह्रान फर्नाडीज नावारेट (1526-1579) जो एल्मुडो नाम से विख्यात थे की कलाकृतियों में तिशेन, कोरेजो व येरोम बॉस की कलाओं के प्रति ग्रहणशीलता की स्पष्ट झलक मिलती है। 

फ्रान्थिस्को डे रिबाल्टा (1552-1628) की कला अधिक आकर्षक है व उनके धार्मिक चित्रों में यथार्थ रूप का आरम्भिक दर्शन है जो म्युरिलो की कला के पूर्वाभास जैसा प्रतीत होता है। 

लुई मोरालेस (मृत्यु 1586) रीतिवादी कलाकार थे जिनके लम्बे चेहरेवाली व आगे निकले हुए माथवाली कुँआरी मरियम से युक्त विशाल चित्र अनाकर्षक होते हुए समकालीन प्रचलित मान्यता के अनुसार लोकप्रिय थे व दिव्य कृतियाँ नाम से जाने जाते थे। 

फिर भी उस समय स्पेन में अँटोनियो मोरो (1512-1575) नामक युट्रेक्ट से आये हुए कुशल व्यक्ति चित्रकार थे जिनको स्पेन के राजा फिलिप द्वितीय ने दरबारी कलाकार नियुक्त किया था। 

उन्होंने गहरी पृष्ठभूमि पर कुशल नियन्त्रण के साथ कठोर वास्तविकता दर्शाते हुए व्यक्ति चित्र बनाये। उनके व्यक्ति चित्र ‘आल्बा के डयूक’ (ब्रसल्ज) व ‘स्काटलैंड की रानी मेरी’ (प्राडो) उनके निर्विवाद अंकन कौशल के परिचायक हैं। 

आलोन्जो सान्चेज कोएलो (1531-1590) जो पोर्तुगाल के मूल निवासी थे व स्पेन में जन्मे थे वे मोरो के शिष्य थे और गेरो के पश्चात् राजा ने उनको दरबारी कलाकार नियुक्त किया। 

अपने गुरु के श्रेणी के निपुण कलाकार नहीं होते हुए उन्होंने कुछ ‘फिलिप द्वितीय’ (प्राडो) जैसे अच्छे यथार्थ दर्शन के व्यक्ति चित्र बनाये।

दोमेनिकोस थिओटोकोपुलोस जो एल्ग्रेको (1541-1614 ) नाम से विख्यात हैं का जन्म क्रीट में हुआ जहाँ के मठों में उन्होंने चित्रकला की आरम्भिक शिक्षा ग्रहण की। 

वे जीवन के आरम्भिक काल में ही वेनिस गये जहाँ वे तितोरत्तो की कला से प्रभावित हुए। उसके पश्चात् वे रोम गये जहाँ उनकी मौलिक प्रतिभा की पहचान हो गयी। 

उसके पश्चात् वे स्पेन गये व वहाँ टोलेडो को अपना निवास स्थान बनाया। उनको ‘सान मोरिसियो व साथियों का इतिहास’ के चित्रण का कार्य सौंपा गया था किन्तु उनका कार्य राजा को पसन्द नहीं आया। 

वे अन्त तक टोलेडो में रहे व उनकी चित्रशैली के अनोखेपन के बावजूद उन्होंने गिरजाघरों व मठों के लिए प्रचुर कार्य किया। एल्ग्रेको की कला में विभिन्न कलातत्त्वों का अनोखा सम्मिश्रण है- ग्रीस के मूल निवासी होने से एवं उनकी आरम्भिक शिक्षा के कारण उनकी कला पर जहाँ एक तरफ बिजांटाइन कला के कुछ तत्त्व दृष्टिगोचर हैं वहाँ वेनिस में नौसिखिये के रूप में किये अध्ययन के कारण उसमें रंग सौंदर्य के प्रति जागरूकता व अंकन शैली पर प्रभुत्व है। 

इसके साथ ही वे फ्लोरेन्स व रोम के कलाकारों के समान आकारों को ठोस रूप में अंकित कर उनको अभिव्यक्ति सामर्थ्य भी प्रदान करते हैं। 

स्पेन में आरम्भिक काल में बनाये चित्र ‘त्रयी’ (प्राडो) व ‘शोकमग्न मेरी’ (बेरोदियर संग्रह, पैरिस) में उन्होंने जिस अंकन शैली का प्रयोग किया है व आकृतियों को शारीरिक सौष्ठव के साथ चित्रित किया है वह उनकी कला पर हुए इटालियन कला के प्रभाव का प्रमाण है। 

किन्तु उसके पश्चात् शीघ्र ही उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्र शैली विकसित हो गयी जिसने उनका कला के इतिहास में बिलकुल पृथक् व अद्वितीय चित्रकार का स्थान निश्चित किया। 

उनकी इस विकसित शैली के आरम्भिक उदाहरण है ‘सान मोरिसियो और साथी’ (एस्कोरियल), ‘ईसा के वस्त्र उतारना’ (टोलेडो प्रार्थनालय), ‘काउंट ओर्गाज का दफन’ (सांतो होम चर्च, टोलेडो)। 

अपनी धार्मिक विश्वासों पर आधारित कल्पना सृष्टि के सर्जन के हेतु वे दृश्य ऐहिक सृष्टि के बाह्य रूपों को अपनी स्वयंभू कल्पना की प्रेरणा के अनुसार परिवर्तित करते गये। 

उन्होंने मानवाकृतियों को सुदीर्घ, उनके वस्त्रों की तहों को मोटा अंकित कर वस्त्रों को भारी बनाया व यह प्रभाव साधने के हेतु रंगों का पारदर्शी पतली परतों में प्रयोग किया। 

पीछे वे काले कठोर बादलों से आच्छादित पृष्ठभूमि को चित्रित करते जिससे पृष्ठभूमि भौतिक वायुमंडलीय गहराई के प्रभाव से मुक्त होकर उसमें अलौकिक सृष्टि का आभास होता। 

अभ्यास के साथ उनकी अंकन पद्धति अधिक मुक्तहस्त व दीर्घवृत्तीय बनी। उनके अंतिम कालीन चित्रों में फिर से उनके छात्रकालीन बिजांटाइन शैली की ओर आकर्षण का पुनरुद्भव दृष्टिगोचर हैं यद्यपि उसे उन्होंने गतित्व व अभिव्यक्ति की सामर्थ्य बढ़ाने तक सीमित रखा। 

उनकी चित्रित आकृतियाँ ऐंठनदार हैं व उनकी भंगिमाएँ हावभाव युक्त व नाटकीय हैं जो बेरोक शैली के आगमन का पूर्व संकेत करते हैं। 

उनके चित्र ‘पंचाशती (Pentecost)’ (प्राडो), ‘ईसा का बपतिस्मा’ (टोलेडो), ‘रहस्योद्घाटन की पांचवीं मुहर’ (जुलोगा संग्रहालय, सुमाया) देखन से पता चलता है कि उनकी कलाकृतियाँ समकालीन कलाकारों को इतना प्रक्षोभक क्यों लगती थीं व कुछ कलाकार उनको पागल क्यों मानते थे। 

प्रचलित मान्यता प्राप्त कला शैलियों से बिलकुल भिन्न व अनोखी शैली की कला को मानसिक रूप से स्वीकृत करना। कोई आसान कार्य नहीं है। 

कुछ लोगों की यह कल्पना है कि नेत्रदोष से पीड़ित होने से एल्ग्रेको ने ऐसी सुदीर्घ व ऐंठनदार आकृतियों को चित्रित किया सही नहीं हो सकती। 

यदि ऐसा नेत्रदोष के कारण हुआ होता तो उनको चित्रित आकृतियों को भी नैसर्गिक अनुपात की व नैसर्गिक बनानी चाहिए थी ताकि वे भी उनको अपने नेत्रदोष के कारण सही प्रतीत हों। 

क्योंकि एल्ोको उस कालखण्ड के कलाकार हैं जिस कालखण्ड ने अनेक रहस्यवादियों को जन्म दिया व वे संत टेरेसा व संत जॉन क्रूसधारी के समकालीन हैं, इसलिए माना जाता है कि उनकी कला में रहस्यवाद का दृश्य रूप में प्रकटीकरण इसी कारण हुआ है। 

किन्तु इस मान्यता को तर्कसंगत मानने के पूर्व इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि उनकी कलाशैली स्पेन के धार्मिक विषयों के चित्रकार रिबेरा, थुर्वारान और म्युरिल्लो से बिलकुल भिन्न है। 

एल्ग्रेको एक स्वतंत्र व्यक्तिगत स्वरूप की प्रेरणा के स्वप्नदर्शी कलाकार थे और उन्होंने दृश्य वास्तविकता से केवल उतना ही अपना लिया जो उन्हें अपनी काल्पनिक प्रतिमाओं को चित्रित कर अभिव्यंजक बनाने में सहायक हो जबकि अन्य धार्मिक विषयों के स्पेनिश चित्रकारों ने धार्मिक विषयों को भी वास्तविक रूपों का जामा पहनाकर चित्र रूप में प्रस्तुत किया। 

रहस्यवादी दृष्टिकोण के कलाकार होते हुए एल्ग्रेको ने कुछ श्रेष्ठ दरजे के व्यक्ति चित्र भी बनाये जिसके उदाहरण हैं ‘तलवार के साथ आदमी’ (प्राडो), ‘कार्डिनल निनो ग्वेवारा’ (न्यूयार्क)।

फ्रांस में इटालियन कला का प्रभाव (फांतेन्ब्लो शैली का उदय )

पुनर्जागरण के आरम्भ से ही इटली की वैचारिकता, संस्कृति व कला फ्रेंच जीवन पर प्रभाव डालती रही थीं व 16वीं सदी में जब राजा फ्रान्सि प्रथम के आश्रय में फान्तेन्च्लो के महलों में इटालियन कलाकारों द्वारा सजावट का कार्य शुरू हुआ तब रोम के अनुसरण के साथ यह प्रभाव स्पष्ट हुआ व फ्रेंच फान्तेन्ब्लो शैली का उदय हुआ। 

इटालियन कलाकार रोस्सो द्वितीय व प्रिमातिच्चो की नियुक्ति के साथ ही इटालियन प्रभाव की यह शैली विकसित हुई। 

फ्रेंच राष्ट्रीय कला के विचार से इस शैली का विकास हितकर हुआ या अहितकर इस सम्बन्ध में मतभेद हैं किन्तु राष्ट्रीयत्व को लेकर खड़े किये किसी विवाद का संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल सकता, यह बात भी सही है। 

किन्तु यदि इस सच्चाई पर ध्यान दिया जाये कि उस समय फ्रेंच राष्ट्रीय चित्रकला का स्तर फ्रेंच कला के इतिहास में निम्नतम था तो फ्रांस के राजाओं व दरबारियों की इटालियन कला में अभिरुचि को अनुचित नहीं मान सकते। 

इसके अलावा उस समय, फ्लेमिश कलाकारों के समान, अनेक फ्रेंच चित्रकार भी इटालियन कला का अनुकरण करने को तत्पर थे। 

ऐसे फ्रेंच चित्रकारों में ज्यां कुर्सी ज्येष्ठ थे जिनका चित्र ‘इवा प्रिमा पान्दोरा’ (लुव्र) पूर्णतया इटालियन शैली का लगता है एवं ज्यां कुसँ कनिष्ठ थे जिनका चित्र ‘अंतिम निर्णय’ (लुव्र) माइकिलेन्जेलो की रीतिवादी शैली में की गयी अनुकृति मात्र लगता है। 

इस काल में कमर तक विवस्त्र नारियों के अनेक चित्र बनाये गये जिनमें ‘गाब्रिएल देस्त्रीज व बहन’ (लुव्र) व ‘पोप्पाया’ (जेनिवा) कल्पना से बनाये ऐतिहासिक व्यक्ति चित्र हैं। 

इन चित्रों से उन चित्रकारों की विशेषताओं के बारे में जानकारी होती है, जिनको राजा फ्रान्सि प्रथम ने निमंत्रित किया था व जो बाद में फान्तेन्च्लो शैली के कलाकार के रूप में ख्यातनाम हुए।

राजा बारहवाँ लुई के समय से ही इटालियन चित्रकार आल्प्स पर्वत श्रेणी को पार कर फ्रांस में चित्रण करने आने लगे थे। लिओनार्दो के शिष्य आन्द्रिया सोलारिओ ने 1507 से 1509 तक गेलोन के भवन में फ्रेस्को चित्र बनाये थे। 

लिओनार्दो स्वयं राजा फ्रान्ि धम ( fransis pratham) के निमंत्रण पर जनवरी 1519 में फ्रांस आये थे व उनका क्लू में 2 मई 1519 को निधन हुआ। 

1518 के करीब आन्द्रिया देल सार्तो ने कुछ महिने फान्तेन्च्लो में बिताये थे। फान्तेन्च्लो के भवनों की सजावट के लिए राजा फ्रान्सि प्रथम ने दो इटालियन रीतिवादी शैली के चित्रकार ज्याम्बातिस्ता देई रोसि जो रोस्सो द्वितीय (1494-1540) नाम से प्रसिद्ध थे व फ्रान्चेस्को प्रिमातिच्चो (1504-1570) को 1530 व 1531 में निमंत्रित किया। 

अनेक सहायकों को साथ लेकर उन्होंने फान्तेन्ब्लो के भवनों की दीवारों पर फ्रेस्कोचित्र बनाये व उनके चौखटों को आकृतियों व अलंकरणों से उभारदार गचकारी से सजाया। 

उनके कला कार्य में रीतिवादी कलाकारों की वे विशेषताएँ हैं जिनमें माइकिलेन्जेलो की शैली के बलिष्ठ मांसपेशीय शरीर, असामान्य मुद्राओं में मानवाकृतियों का सुदीर्घीकृत रूप दृष्टिगोचर है किन्तु उनका प्रयोग केवल चित्रों की आकर्षकता बढ़ाने के विचार से किया हुआ है व उनमें माइकिलेन्जेलो सदृश वीरोचित भाव नहीं हैं। 

दोनों चित्रकारों की कृतियों में दिखावटीपन है एवं एकाग्रता व कुशलता से बनायी जाने के बावजूद उनमें चित्रित मानवाकृतियाँ नखरेल व मुख्यतः ऐंद्रिय आकर्षण की हैं।

इटालियन कला के अलावा फ्रेंच कला पर फ्लेमिश कला का भी प्रभाव पड़ा जो छोटे आकार के रंगीन व्यक्ति चित्रों एवं रेखांकित व्यक्ति चित्रों में दृष्टिगोचर है जो उस समय काफी लोकप्रिय थे। 

फ्रान्स्वा क्लुए (1522-1572) अपने पिता ज्यां क्लुए के समान राजा के खिदमतगार व व्यक्ति चित्रकार थे। उनके बनाये चित्रों में ‘राजा फ्रान्सि प्रथम’ (लुव्र), ‘क्लोद द्युर्फे’, ‘सिन्योर द शातो नोफ’ (हेम्प्टन कोर्ट) प्रसिद्ध हैं। 

उनके अन्य व्यक्ति ‘चित्रों में वनस्पति शास्त्रज्ञ ‘पिअर क्युत्ते’ (लुव्र), ‘दिआन द प्वातियर स्नान करते हुए’ (कुक संग्रह, रिचमंड), ‘चार्ल्स नवम्’ (विएन्ना) व ‘आस्ट्रिया की एलिजाबेथ’ (लुव्र) हैं। 

फिर भी उनके रंगीन व्यक्ति चित्रों की अपेक्षा रेखांकित व्यक्ति चित्र अधिक प्रभावकारी हैं व उनको देखकर दर्शक उस काल के राजा, राज परिवार के सदस्य, सरदार व सरदारनियों के व्यक्तित्व से अच्छी तरह परिचित होता है। 

उस काल में रेखाचित्र विशेष प्रचलित थे व ज्यां क्लुए व फ्रान्स्वा क्लुए पिता-पुत्र के समान और भी व्यक्ति चित्रकार फ्रांस में कार्यरत थे। 

घुमुस्तिएर भाइयों को राजदरवार से काफी कार्य करने को मिला। कार्नेय द लायों ने लघु व्यक्ति चित्र बनाये हैं किन्तु उनमें सामान्यतया लघु चित्रों में दृश्यमान जकड़न व बारीकियों की भरमार नहीं है; उनके प्रतिनिधि व्यक्ति चित्र ‘जाक बर्ता’ (लुव्र) हैं।

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