भारतीय चित्रकला में नई दिशाएँ

लगभग 1905 से 1920 तक बंगाल शैली बड़े जोरों से पनपी देश भर में इसका प्रचार हुआ और इस कला-आन्दोलन को राष्ट्रीय कहा गया। 

1920 के लगभग इस क्षेत्र में एक नया मोड़ आया एक कारण तो यह था कि अवनीन्द्रनाथ के सामने केवल मुगल तथा अजन्ता शैली का ही आदर्श था। 

उस समय तक अन्य शैलियों की चित्रकला की खोज पूर्ण नहीं हुई थी। पीछे से जब राजस्थानी, पहाड़ी तथा अपभ्रंश शैलियों की विस्तृत खोज हुई तो अवनीन्द्रनाथ की एकांगिता समझ में आने लगी। 

भारतीय कला के इन विभिन्न प्राचीन रूपों का अध्ययन करके समयानुकूल शैली का निर्माण करना बड़ा कठिन था।

दूसरा कारण यह था कि विदेशों से भारत का सम्पर्क होने के कारण तथा भारतीय कलाकारों के विदेश भ्रमण के कारण यूरोप की नई-नई शैलियों का भारत में आगमन हुआ। 

कलाकारों के सामने दो ही विकल्प रह गये : या तो वे आधुनिक कला को अपनायें या प्राचीन शैलियों का अनुकरण करें।

सन् 1930 में रवीन्द्रनाथ के चित्रों की प्रदर्शनी हुई। गगनेन्द्रनाथ ने लगभग इसी समय घनवादी शैली में अनेक चित्र बनाये। 1925 के लगभग यामिनीराय ने बंगाल की लोक-कला के आधार पर नये प्रयोग किये। 

सन् 1933 में लंका में जार्ज कीट ने भी एक नई शैलो का आरम्भ किया। इन सबने ठाकुर शैली को असामयिक कर दिया; किन्तु ठाकुर शैली को सबसे बड़ा आघात पहुँचा अमृता शेरगिल की कला से, जिन्होंने भारत आकर 1935 में अपने चित्रों की प्रदर्शनी की। 

आरम्भ में उनका बड़ा विरोध हुआ और उनकी कला को अभारतीय कहा गया, किन्तु धीरे-धीरे उनकी आधुनिकता और भारतीयता समझ में आने लगी।

इन सब प्रयोगों से भारतीय कला अनेक नये-नये मार्गों पर चलने लगी। आरम्भ में यद्यपि कुछ विदेशी शैलियों की नकल भी हुई किन्तु अवनीन्द्रनाथ की कला द्वारा उत्पन्न की हुई राष्ट्रीय भावना ने विदेशी शैलियों के तूफान को भारत में चलने से रोक दिया। 

कलाकार अपनी कला में मौलिकता और भारतीयता की आवश्यकता अनुभव करने लगे। फलस्वरूप आज भारत की चित्रकला जहाँ आधुनिकता में किसी भी देश से पीछे नहीं है वहाँ वह मौलिकता और भारतीयता में भी किसी से घटकर नहीं है।

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