गुलाम मुहम्मद शेख (1937 ) | Ghulam Muhammad Shaikh

गुलाम मोहम्मदशेख का जन्म सुरेन्द्र नगर (सौराष्ट्र) में 1937 में हुआ था। बड़ौदा में एम० ए० तक कला की शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् वहीं कला इतिहास के प्रोफेसर हो गए। 1963 में जब ‘ग्रुप 1890’ की स्थापना हुई तब वे काफी सक्रिय रहे। उसके बाद उसी वर्ष रायल कालेज ऑफ आर्ट्स लन्दन में शिक्षा प्राप्त करने चले गए। 

इटली की कला के अवलोकन के लिए शेख ने विस्तृत भ्रमण किया और इस यात्रा ने शेख पर निर्णायक प्रभाव डाला। वे 1966 में भारत लौटे और बड़ौदा में पुनः अध्यापन प्रारम्भ किया। इसी के साथ चित्रण तथा लेखन में भी प्रवृत्त हुए ब्रिटेन में उन्हें भारतीय लघु-चित्रकला की शक्ति का एहसास हुआ और उनकी शैली पर भी उसका प्रभाव आया। लेखन के क्षेत्र में उन्होंने मुगल तथा आधुनिक कला पर अपनी दृष्टि से प्रकाश डाला और 1969-73 में कला-पत्रिका ‘वृश्चिक का सम्पादन भी किया। 

वे एक अच्छे कला-समीक्षक और इतिहासकार हैं। उन्होंने दिल्ली के आर्टिस्ट्स प्रोटेस्ट मूवमेण्ट में भी सक्रिय भाग लिया। वे 1960 से निरन्तर प्रदर्शनियाँ कर रहे हैं। उन्होने सभी प्रमुख राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भाग लिया है और भारत तथा यूरोप की द्विवार्षिकी तथा त्रिवार्षिकी प्रदर्शनियों मे भी भारत का प्रतिनिधित्व किया है। 

इस समय शेख फेकल्टी आफ फाइन आर्ट्स बड़ौदा विश्वविद्यालय में कला इतिहास विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत है। 1983 में उन्हें ‘पद्मश्री’ से विभूषित किया गया है।

गुलाम शेख भारतीय युवा कलाकार हैं। वे पेन्टर तथा प्रिण्टमेंकर के साथ-साथ लेखक, कवि और कला-समीक्षक भी हैं। यद्यपि उनकी शैली में भारतीय लघु चित्रण लघु- का प्रभाव है किन्तु उनका विश्वास परम्परा को दोहराने में नहीं है। 

उनके विचार से अकबर कालीन मुगल कलाकार के सामने जो समस्या थी कुछ उसी तरह की देशी और विदेशी कला परम्पराओं के समन्वय की समस्या में आधुनिक कलाकार भी उलझा हुआ है। उनके नए चित्रों में स्वप्न, फन्तासी और यर्थाथ का एक नए रूप में मिश्रण मिलता है। 

उनके चित्रों के विवरणों में चित्र का बहुत सा सत्य अंकित रहता है। प्रतीक्षा, भ्रमण, चक्कर खाते रास्ते, अपने केश सँवारती पीठ किये बैठी कोई स्त्री, कही कोई स्त्री नहाती हुई, कही विवश होकर प्रेम करती हुई, कही पिटती हुई और कही खिडकी अथवा द्वार से बाहर देखती हुई- इस प्रकार की कई स्थितियाँ इन नए चित्रों में मुखर हुई है।

गुलाम शेखं के कुछ चित्र बहुत महत्वपूर्ण हैं: लम्बी अनुपस्थिति के बाद घर वापसी (रिटर्निंग होम आफ्टर लोंग एब्सेन्स), मनुष्य (मैन), प्रतीक्षा और घुमक्कड़ी के बारे में (एबाउट वेटिंग एण्ड वाण्डरिंग), बोलती सड़क (स्पीकिंग स्ट्रीट) तथा शहर बिकाऊ है । 

‘मनुष्य’ शीर्षक चित्र में मनुष्य द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाकर उसका शोषण करने पर करारा व्यंग्य है। ‘बोलती सड़क’ शीर्षक चित्र अपनी ‘मखमली खूबसूरती’ में बहुत सुन्दर लगता है, किन्तु निकट से देखने पर इसके विवरण आधुनिक शहरों की गलियों में होने वाले वीभत्स व्यापारों का संकेत करने लगते हैं। 

‘शहर बिकाऊ है’ गुलाम शेख का एक अन्य प्रसिद्ध चित्र है। यह 1981 में आरम्भ होकर 1984 में पूर्ण हुआ । 259.5320.5 सेमी आकार का यह चित्र विक्टोरिया तथा अल्बर्ट संग्रहालय लन्दन ने क्रय कर लिया है। यह फ्रांस में आयोजित भारत महोत्सव की प्रदर्शनी में रखा गया था। इस चित्र की प्रेरणा शेख को बड़ौदा के हिन्दू-मुस्लिम दंगों से मिली। 

इसमें भारत के किसी भी बड़े शहर के जीवन की समस्त जटिलताएँ हैं और इसे किसी भी शहर से सम्बन्धित माना जा सकता है। चित्र के केन्द्र में ‘सिलसिला’ फिल्म भी प्रदर्शित होती दिखायी गयी है क्योंकि चित्रकार ने आधुनिक शहरी पाशविकता, क्रूरता तथा चारित्रिक पतन के सिलसिले के पीछे बम्बई की फिल्मों को उत्तरदायी माना है। 

एक मारधाड़ के करतबों में कुशल अभिनेता के परदे पर दिखाये जाने वाले जीवन के संकट को एक बड़े स्तर पर पूरे समाज के जीवन पर आरोपित कर दिया गया है। इसमें तीन लोग सिगरेटें सुलगाते दिखाये गए हैं जिनमें एक गुण्डा भी है। माचिस माँग कर बीड़ी-सिगरेट सुलगाने वाला क्षण भी विशेष प्रकार का होता है जिसमें सुलगाने वाले लोग अलग-अलग प्रकार के होते हुए भी एक साथ दिखायी देते हैं।

शेख गुजराती के श्रेष्ठ कवियों में गिने जाते हैं। ‘जार्ज पम्पिदू केन्द्र’ में ‘शेख की पुनरावलोकन प्रदर्शनी आयोजित हो चुकी है। 1981 में दिल्ली तथा बम्बई की बहु-चर्चित प्रदर्शनी ‘प्लेस फार पीपुल’ में गुलाम शेख भी छह चित्रकारों में से एक थे ।

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