कला का उद्देश्य क्या है?
मानवेत्तर प्राणी अपनी सहज प्रवृत्तियों पर निर्भर रह कर अपना जीवनकाल सरलता से व्यतीत कर लेते हैं। उनको क्या करने से क्या होगा, क्या करना चाहिए, क्या नहीं करना चाहिये, इस पर सोचना नहीं पड़ता।
मनुष्य के साथ यह बात नहीं है। उनकी सहज प्रवृत्तियाँ इतनी विश्वसनीय नहीं होती। भूख नहीं होते हुए, स्वादिष्ट पदार्थ देख कर वह खाने की इच्छा करता है व शारीरिक आवश्यकता नहीं होते हुए उसकी वासनाएँ उसको छलती हैं।
इस तरह वासनाधीन मनुष्य लाचार हो कर जो नहीं करना चाहिये वह कर लेता है व जो करना चाहिये वह टाल लेता है। अतः उसको निरंतर अनिष्टकारी परिणामों का सामना करना पड़ता है।
यही कारण है कि वह अपनी आंतरिक प्रेरणाओं के स्वरूप व प्रयोजन के तदनुरूप कार्य करने को विवश है।
भूख, प्यास, कामेच्छा, वात्सल्य जैसी प्रेरणाओं का प्रयोजन सरलता से समझ में आ जाता है किन्तु कलासर्जन जैसी मानवेत्तर प्राणियों में दिखायी न देने वाली प्रेरणा का विश्लेषण करके उसका प्रयोजन सुनिश्चित करने में कठिनाई होती है।
अधिकतर आधुनिक कलाकार कला को आत्मिक आनंद की प्राप्ति का साधन मानते हैं। किन्तु क्या हम उनकी इस धारणा को पूर्ण सत्य मान सकते हैं? वैसे इस तरह का आनंद तो मनुष्य को किसी साधारण कार्य से भी मिल सकता है यदि उसको प्रेम व तन्मयता से किया जाये।
अमेरिकी शिक्षाशास्त्री व विचारक जॉन डयूई क्रीड़ा, वैज्ञानिक संशोधन, चिंतन, रोजमर्रा का कार्य आदि मनुष्य की अन्य सब गतिविधियों को कला के समान एक आनन्ददायक अनुभूति मानते हैं जो समान अवसर व संभावनाओं के साथ मनुष्य को आकर्षित कर सकती हैं, प्रश्न केवल अभिरुचि व एकात्मकता का है।
भौतिक सुखों का त्याग कर के परमेश्वर भक्ति में लीन हुए बुद्ध, महावीर, ईसा, गुरु नानक जैसे महापुरुषों व कबीर, मीरा, तुकाराम जैसे संतों को साक्षात्कार के अंतर्गत इस बात का ज्ञान हुआ कि उनके जीवन की सार्थकता इसी में है कि वे मानव कल्याण के लिए लोगों को सदाचरण, निस्स्वार्थ भाव व भक्ति के सर्वोपरि महत्व को उपदेश द्वारा समझायें।
फलस्वरूप उन्होंने अपना समस्त जीवन लोगों को सन्मार्ग दर्शन कराने में व्यतीत किया; वे कभी भी समाज से जरा सा भी कटे हुए नहीं रहे। यह निश्चित है कि परमार्थ साधना के विचार का जन्म प्रापचिक सुख-दुःखों से निर्मित उद्विग्नता में होता है; किन्तु मानव कल्याण के ध्येय से पृथक् होकर परमार्थ अर्येहीन हो जाता है।
प्रपंच और परमार्थ मानव जीवन के अभिन्न से अंग हैं। संतों ने इस बात को स्पष्ट शब्दों में कहा है कि यह धारणा गलत है कि परमार्थ प्राप्ति के लिये प्रपंच का त्याग आवश्यक है; आवश्यकता है चराचर सृष्टि को परमात्मा का प्रकट रूप मान कर उस पर प्रेम करने की एवं कर्तव्य बुद्धि व सदाचरण की इस प्रकार परमार्थ साधना का प्रयोजन है समस्त मानव जीवन का शुद्धिकरण ज्ञानमार्गी शंकराचार्य व ज्ञानेश्वर हों या भक्तिमार्गी चैतन्यप्रभु, कबीर, तुकाराम व मीरा, इनसे जनसाधारण को मन की शांति व संकटों से सामना करने का धैर्य निरन्तर मिलता रहा जो इतिहास प्रसिद्ध वीर पुरुष उसे अपने पराक्रमों से नहीं दिला पाये।
जब इतने असाधारण पुरुषों ने अनुभव किया कि उनके जीवन का ध्येय मानव कल्याण है तो पलायनवादी कलाकारों का यह वक्तव्य कि वे केवल ‘स्वान्तः सुखाय’ कला निर्मिति करते हैं उनका या तो अज्ञान दर्शाता है या नितान्त स्वार्थबुद्धि ।
इस संबंध में रविन्द्रनाथ टैगोर की निम्नलिखित पंक्तियाँ विचारणीय हैं।
I slept
And dreamt that life was all joy
I awoke
And saw that life was but service I served
And saw that service was a joy.
आधुनिक कला के पूर्व कलाकार किसी धार्मिक उद्देश्य से या अपने आश्रयदाता की कामना को समझ कर कार्य करते थे; कला के प्रयोजन के बारे में किसी को संदेह नहीं था।
किन्तु जब 19 वीं सदी में धार्मिक प्रभाव घट जाने से एवं राजाश्रय समाप्त होने से कलाकार स्वतंत्र बुद्धि से कार्य करने लगा तब परिस्थिति बदल गयी।
किसी आधुनिक कलाकार से यदि पूछा जाये कि उसकी कला का उद्देश्य क्या है तो शायद ही आपको कोई संतोषजनक उत्तर मिल पायेगा ।
कहते हैं कि जब किसी विख्यात आधुनिक चित्रकार से उनकी कला के उद्देश्य के बारे में पूछा गया तब उन्होंने प्रतिप्रश्न किया, ‘चिड़िया क्यों गाती है ?’ यह एक तरह से चलने का तरीका हो गया।
अब वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि जिसको हम चिड़िया का आंतरिक आनंद से उत्स्फूर्त जाना मानते हैं वह उसकी भाषा मात्र होता है जो अन्य चिड़ियाएँ समझती हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि कला निर्मिति के क्षणों में असीम आनंद मिलता है जिसको कलाकार आत्मिक आनंद मान लेता है। वास्तव में उसका यह आनंद अतीव ऐंद्रिय अनुभूति के अलावा कुछ नहीं होता।
यह केवल भौतिकवादियों का मत नहीं है। हरितायन ऋषि प्रणीत ‘त्रिपुरा रहस्य’ में स्पष्ट रूप से लिखा है कि स्त्री-सुख, भोजन, क्रीड़ा, आकस्मिक वस्तुलाभ, जागृति व निद्रा के बीच का मध्यान्तर, विचार परिवर्तन की मध्यास्थिति ऐसे अनेक क्षणों में हर एक मनुष्य को अपने दैनिक जीवन में समाधि-सुख के समरूप अनुभव प्राप्त होता है; किन्तु उसका यह अनुभव सच्चा समाधि-सुख न हो कर सविकल्प (यानी ऐंद्रिय जीवन पर निर्भर) होता है जो आत्मज्ञान प्राप्ति में सहायक नहीं होता इंद्रियाँ पर निर्भर होने से मनुष्य के आत्मबल का ह्रास होता है।
सच्ची समाधि आत्मिक बल से प्राप्त होती है. वह निरपेक्ष होती है। आत्मज्ञान ऐन्द्रिय अनुभूति के वास्तविक मायिक स्वरूप को जान कर ऐंद्रियता से विमुक्त अवस्था (यानी सच्ची निर्विकल्प समाधि) प्राप्त करने से होता है- यह अवस्था ऐंद्रिय अनुभवों के पश्चात आने वाली आत्मग्लानि से मुक्त रहती है।
सृष्टि में स्वतंत्र व संपूर्ण कुछ भी नहीं है। सब चराचर प्राणी व पदार्थ एक दूसरे से अदृश्य बंधनों से जुड़े हुए वृष्टि संचालन के आवश्यक अंग हैं। सबका अस्तित्व इन बंधनों पर टिका हुआ है।
इस वैज्ञानिक सत्य को आइजक न्यूटन ने इन शब्दों में व्यक्त किया है, “मेरा कार्य कितना पराकोटि का अत्यल्प है यह मैं जानता हूँ और यह भी जानता हूँ कि उसको करना कितना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।”
हर व्यक्ति की हर सॉस, हर गतिविधि अत्यंत सूक्ष्म रूप में क्यों न हो, सृष्टि-संचालन को प्रभावित करती है। अतः सृष्टि में प्रयोजन विहीन कुछ भी नहीं है। हर कर्म का अपना महत्त्व होता है। देहरूपेण मनुष्य नश्वर है किन्तु कर्मणा वह सृष्टि के अंतर्गत अमर रहता है।
क्या मानव मन में ब्रह्मजिज्ञासा या सर्जन प्रेरणा का उदभव सामाजिक जीवन से पृथक् रह कर हो सकता है ? जन्म से लेकर अंत तक मनुष्य अपनी प्रत्येक शारीरिक व मानसिक आवश्यकता के लिए समाज पर निर्भर रहता है।
उसका शारीरिक व मानसिक विकास, विद्यार्जन, आकांक्षाओं का गठन सब सामाजिक वातावरण के अंतर्गत होता है।
समाज में रह कर वह भाषा, धर्म, विचार व संस्कृति से परिचित होता है, अन्यथा वह भेड़िया बालक जैसा बन कर रह जायेगा।
कहते हैं सम्राट अकबर ने मनुष्य की स्वाभाविक भाषा व धर्म जानने के हेतु कुछ शिशुओं का जन्मतः मानव संपर्क से पृथक् रख कर पालन-पोषण कराया। किन्तु परिणाम यह हुआ कि उनमें से अधिकतर बच्चे बड़े होने से पूर्व मर गये व शेष गूंगे-बहरे निकले।
आनंद व ज्ञान बाँटने से बढ़ता है। यह सामान्य अनुभव है कि कोई नयी वस्तु प्राप्त होने पर उसको दूसरों को दिखाने की हार्दिक इच्छा होती है।
नयी साड़ी खरीदने पर औरों के सामने उसका प्रदर्शन किये बिना महिलाएँ संतुष्ट नहीं होतीं वैज्ञानिक आविष्कार हो या साहित्यिक रचना जब तक उसको जानकारों या रसिकों के सामने नहीं रखा जाता तब तक आविष्कारक या साहित्यकार सफलता का अनुभव नहीं करता।
ग्रीक विचारक पर्सियस ने लिखा है . इसका निष्कर्ष यह हुआ कि आपके ज्ञान का आपके लिये कोई अर्थ नहीं है जब तक अन्य लोग नहीं जानते कि आप जानते हैं”।
कलाकार भी इसका अपवाद नहीं है भले ही वह कहता फिरे कि वह केवल निजी आनन्द के लिए कलाकृतियाँ बनाता है। सच्चाई तो यह है कि वह अपनी कृतियों को निजी उपयोग तक सीमित नहीं रखता व उसको तब तक संतोष नहीं मिलता जब तक उसकी कृतियाँ अन्य लोगों से प्रशंसित नहीं होती।
अतः कलाकार का कथन कि वह ‘स्वान्तः सुखाय’ कला निर्मिति करता है अर्धसत्य है जिस कुएँ के जल का उपयोग नहीं होता वह सड़ता है।
कला के छात्र के लिये, जिसकी व्यक्तिगत शैली अभी अविकसित अवस्था में है, सर्जन से मिलने वाला आनंद सब से अधिक महत्त्व रखता है; किन्तु जैसे ही उसकी निजी शैली उसकी प्रतिभा व प्रवृत्ति के अनुरूप परिपक्व होती जाती है उसको कला के सामाजिक महत्त्व की ओर ध्यान देकर कार्य करना होगा।
इसका कतई यह अर्थ नहीं है कि उसको प्रचलित, प्रस्थापित यानी अकादमिक लोकप्रिय शैली के अनुरूप कार्य करना चाहिए।
मानव जिस तरह अपनी भौतिक सुखसमृद्धि के लिये विज्ञान, उद्योग, समाज-व्यवस्था, प्रशासन, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में विकास चाहता है उसी तरह अपनी सौंदर्य-पिपासा की तृप्ति के लिये अपने कलात्मक सांस्कृतिक परिसर को नवीन परिवर्तनशील रूपों, गतिविधियों एवं रहन-सहन के तरीकों से चिर युवा रखना चाहता है जिसके लिये समाज को प्रतिभावान वास्तुकारों, कलाकारों, साहित्यकारों, संगीतकारों आदि की आवश्यकता होती है।
एक तरह से ये सर्जनशील व्यक्ति समाज के सौंदर्यात्मक रूप के भविष्य निर्माता होते हैं।
मनुष्य के नाविन्यप्रिय स्वभाव को संस्कृत में निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किया गया है, “क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूपं रमणीयतायाः ” नये रूप को समाज स्वीकृति मिलने में काफी विलंब होता है क्योंकि उसकी अपनी प्रक्रिया होती है जिसको अक्सर हर प्रतिभासंपन्न कलाकार को झेलना पड़ता है किन्तु इसके बिना कला को नयी दिशा नहीं मिल सकती।
अब कुछ विद्वानों व कलाकारों के कला व कलाकार के समाज के प्रति उत्तरदायित्व के बारे में क्या विचार हैं, इस पर गौर करेंगे। टाल्स्टाय के इस विषय पर विचार स्पष्ट हैं।
उनके मतानुसार कला मानव भावनाओं की ऐसी अभिव्यक्ति है जो दूसरों को समान रूप से प्रभावित कर सके। महात्मा गाँधी की मान्यता थी कि “जो कला आत्मा का दर्शन करने की शिक्षा नहीं देती यह कला नहीं है”।
मेक्सिकन कलाकार डायगो रिवेरा ने स्पष्ट कहा है कि “जो प्रचार नहीं करती वह कला नहीं है”। कलाकार जार्ज लायस की मान्यता है कि कला व शब्द दोनों ही संप्रेषण के साधन हैं और यदि कलाकार ने कलाकृति नहीं बेची (यानी दूसरों के सामने नहीं रखी) तो उसने अपना कार्य पूरा नहीं किया।
प्रसिद्ध कला समीक्षक शेरमान ली लिखते हैं “कलाकृति पूर्ण होते ही समाज का एक अविभाज्य अंग बन जाती है…. पहले वह कलाकार की संपत्ति होती है और उसके पश्चात् खरीददार की।
वे आगे लिखते हैं “कोई भी महान कला (या धर्म) जनसाधारण की समझ के परे नहीं होती और यदि वह ऐसी है तो वह असफल है प्राचीन महान कलाकारों ने जिनके लिये अपनी महान कृतियाँ बनावी उनको उलझन में डालने या उनके सामने अबोधगम्य रहस्य खड़ा करने के प्रयत्न नहीं किये” कला समीक्षक फ्रैंक नोरिस ने कला के इतिहास से प्रमाण दे कर लिखा है “जो कला अंत में लोगों द्वारा स्वीकृत नहीं होती वह जीवित नहीं रहती” भारतीय दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति ने निर्णयात्मक शब्दों में कहा है कि जो कला मानव-जीवन से संबद्ध नहीं है उसका कोई महत्त्व नहीं है।
अंत में सबका निष्कर्ष यही है कि कला कभी प्रयोजनहीन नहीं थी, न रह सकती है।
उपर्युक्त विवेचन को ध्यान में रख कर यदि वर्तमान कलाक्षेत्र का विचार करते हैं तो क्या स्थिति सामने आती है। संप्रति परम्परागत कला, लोककला, आदिम कला, यथार्थवादी कला के अतिरिक्त आधुनिक कलाकारों द्वारा किये प्रयोगों के परिणामस्वरूप विभिन्न शैलियों की बहुविध रूपों की जो कलाकृतियाँ देखने को मिल रही हैं उसकी एक सदी पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
रूप व अभिव्यक्ति के विचारों से हर शैली की अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं व साथ ही कुछ त्रुटियाँ भी अतः उपयुक्तता की दृष्टि से प्रत्येक शैली की सीमा होती है।
वान गो ने बिन्दुवाद के विषय में लिखा था, “बिंदुवाद एक आश्चर्यजनक आविष्कार है, किन्तु न तो बिंदुवादी अंकन पद्धति, न कोई अन्य अंकन पद्धति कला की सभी समस्याओं का हल करने में समर्थ है”।
पिकासो ने कहा था “अन्त में, कला में महत्त्वपूर्ण बात है, कलाकार क्या व्यक्त करना चाहता है और उसको चित्रित करने में वह सफल नहीं होता”।
एक तरफ जब कलाकार किसी समस्या का हल करने में सफल होता हैं तो दूसरी तरफ कोई अन्य समस्या खड़ी हो जाती है और वह अनुभव करने लगता है कि कला की कोई पूर्णता नहीं होती।
सेजान कहते थे “मेरे मस्तिष्क में जो प्रतिमाएँ उभरती हैं वैसी पट पर उतारना संभव नहीं है”।
हिंदी के विख्यात कवि मुक्तिबोध की कविता में एक पंक्ति है, “नहीं होती कहीं भी खत्म नहीं होती कविता” जो संपूर्ण अव्यक्त को व्यक्त रूप देने की कवि की असमर्थता को प्रकट करती है।
कलाकार व कवि आत्माभिव्यक्ति हेतु नये नये रूपाकारों की मरीचिका के पीछे भागते रहते हैं व उनकी अपूर्ण कलायात्रा चलती ही रहती है; किन्तु इस अपूर्णता के साथ-साथ उनकी रचनाएँ
सामाजिक कार्य में अपना सीमित भला-बुरा योगदान करती रहती हैं।
कला के छात्रों व नव कलाकारों को स्वयं निर्णय लेने हेतु प्रेरित करने के लिये, प्रमुख शैलियों की प्रयोजनीयता के बारे में यहाँ कुछ विचार प्रस्तावना के रूप में रखे गये हैं। वैसे इस विषय का विस्तृत विवेचन बृहदाकार ग्रंथ से ही संभव है।
जहाँ धार्मिक विषयों को चित्रित करना है या परिसर को धार्मिक रूप प्रदान करना है वहाँ स्वाभाविक है कि इस कार्य के लिये पंरपरागत प्रतीकात्मक शैली उपयुक्त होगी।
भौतिक रूप की यथार्थवादी या आधुनिक कला आध्यात्मिक प्रभाव समुचित रूप से उत्पन्न नहीं कर सकती।
जनसाधारण व आदिवासियों की सहजोत्स्फूर्त, चैतन्यपूर्ण लोककला व आदिम कला उनके स्वाभाविक सामाजिक वातावरण के अंतर्गत अनुभव करना एक अनोखी सौंदर्यानुभूति प्रदान करता है, किन्तु अब आधुनिक सभ्यता से प्रभावित होते जा रहे उन लोगों की कला के स्वाभाविक चैतन्य की किस तरह रक्षा की जाये यह कला प्रेमी विद्वानों के सामने चिंता का विषय है।
आधुनिक कलाकारों द्वारा लोककला व आदिमकला से प्रेरणा लेकर बनायी गई कृतियों में मूल शैली के चैतन्य व प्रत्यक्ष जीवनानंद के दर्शन का अभाव दिखायी देता है जिसके उदाहरण है यामिनी राय की कालिघाट शैली से प्रेरित कृतियों व पिकासो की भीग्रो कला से प्रेरित कृतियाँ कलात्मकता के विचार से उत्कृष्ट होते हुए भी वे मूल शैलियों की कृतियों के सामने सोची-समझी, कृत्रिम व केवल प्रतिभा प्रदर्शन लगती हैं जब कलाकारों में विषय-वस्तु के प्रति भक्तिभाव की जगह रचनात्मक समस्या का हल ढूंढने का प्रयास शुरू हो जाता है तब कला की स्वाभाविकता नष्ट होती है।
असल में कलाकृति कलाकार का जीवन के प्रति निष्ठा का फल होता है न कि बौद्धिकता का यही कारण है कि हमें आदिम कला, लोक-कला, बाल-कला व सहजसिद्ध कलाकारों की कला की स्वाभाविकता रचनाप्रधान आधुनिक कला में देखने को नहीं मिलती।
कुछ विद्वानों को भय है कि शायद लोक-कला व आदिम कला अब संग्रहालयीन महत्त्व की या सजावट की वस्तु होकर रहेगी किन्तु भौतिक विकास के साथ-साथ प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ विचारशील शांतिप्रिय लोगों की सादगीपूर्ण जनसाधारण के नैसर्गिक जीवन व सच्चे धर्म के प्रति जो आस्था बढ़ रही है उसको देखते हुए लगता है कि इन शैलियों के समरूप कलाशैली का विकास संभव है।
जहाँ किसी ऐतिहासिक या समकालीन घटना या व्यक्ति के स्मरणार्थ कलाकृति बनाना है वहाँ यथार्थवादी शैली ही सबसे उपयुक्त होगी।
किसी प्रकृति दृश्य का स्मरणीय चित्र बनाने या सामाजिक विषय की कहानी के चित्रण के लिये यथार्थवादी शैली का स्थान अन्य शैली नहीं ग्रहण कर सकती।
विषय-वस्तु के आंतरिक रचना सौंदर्य या भावों को प्रभावी ढंग से व्यक्त करने के लिए यथार्थवाद अपर्याप्त रहता है। यहाँ सादृश्य, नैसर्गिक वर्ण, नैसर्गिक अनुपात, दूर दृश्यलघुता, छाया-प्रकाश जैसे नियमों का परित्याग करना पड़ता है।
परम्परागत भारतीय, चीनी, जापानी या समरूप शैली के अनुसार सरलीकृत आकार, प्रतीकात्मकता, भावानुरूप रंगसंगति, लयबद्धता आदि कला- तत्त्वों का संवर्धन कर के प्रसन्न भावपूर्ण चित्रों की निर्मिति की जा सकती है।
ऐसी कृतियाँ निजी निवास स्थानों के वातावरण को शांतिप्रद व उत्साहवर्धक बनाती हैं।
मानवीय भावनाओं को अतिरंजित रूप दे कर अभिव्यक्त करना हो तो उसके लिये अभिव्यंजनावादी तरीकों का सहारा लेना पड़ता है।
सामाजिक विषमता, मानव की असहाय स्थिति, दुःख-दर्द, भीषण दुर्घटनाएँ, उत्पीड़न, अत्याचार आदि के चित्रण व प्रचार का सशक्त माध्यम अभिव्यंजनावाद ही हो सकता है।
अभिव्यंजनावादी तरीकों को अपना कर व्यंग्य चित्रण काफी कार उपहासोत्पादक दृश्य माध्यम बन गया है एवं कार्टून फिल्मस्, कामिक स्ट्रिप्स, राजनीतिक व्यंग्य-चित्रण मनोरंजन व प्रचार के प्रभावी साधन बन गये हैं।
दोमीय व एन्सोर को छोड़कर किसी प्रसिद्ध अभिव्यंजनावादी कलाकार ने उपहासात्मक चित्र नहीं बनाये अधिकतर अभिव्यंजनावादी कलाकारों ने मानव जीवन की दुःखमयता का निराशावादी दृष्टिकोण से चित्रण किया; अतः व्यंग्य चित्रण को कला के इतिहास में जो महत्त्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाया।
काल्पनिक विषयों के चित्रण एवं मानव के अंतर्मन में सुप्त भावनाओं के प्रकटीकरण के लिये अतियथार्थवादी रूपांकन पद्धतियों व प्रतीक योजना काफी उपयुक्त सिद्ध हुई हैं।
विज्ञान के युग में प्रवेश के पश्चात भी मानव का काल्पनिक जीवन के प्रति आकर्षण कम नहीं हुआ है। असल में, अपने जीवन के भौतिक पक्ष में भी मानव के सुख-दुःख, महत्त्वाकांक्षाएँ, रहन-सहन के तरीके चयन सब कुछ वास्तविकता व तर्क बुद्धि की अपेक्षा कल्पना पर निर्भर करता है।
कल्पना के बिना उसका भावजीवन ही समाप्त हो जायेगा। कल्पना के बिना उसके काल्पनिक भय व दुःख के साथ उसके काल्पनिक श्रेष्ठत्व व सुख का भी अंत हो जायेग व मानव व पशु पक्षियों में कोई अंतर नहीं रहेगा।
रहस्यकथा, पुराण, भूत-प्रेतों की कहानियाँ आदि काल्पनिक साहित्य अभी भी लोकप्रिय है। विज्ञान कथा, अलौकिक मानव की कथा उसी का नया संस्करण है।
अतियथार्थवाद के स्वप्निल प्रभाव निर्माण करने के सामर्थ्य का चल चित्रपट, नृत्य, नाटक, पॉप संगीत, मनोवर्धक कला आदि का सामूहिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में काफी उपभोग किया जाता है। काल्पनिक साहित्य के सचित्रीकरण में अतियथार्थवादी शैली विशेष उपयुक्त है।
वस्तु सादृश्य से पूर्णतया मुक्त वस्तु निरपेक्ष कला, रचना सौंदर्य व रंगसंगति पर निर्भर होने से, वास्तु कला, वस्त्रालंकार, वस्तु का रूपनिर्माण, गुहांतर्भागों की सजावट या जहाँ भी वातावरण के भौतिक सौंदर्य की अभिवृद्धि करनी हो वहाँ निर्विवाद प्रयोज्य है।
आजकल उद्यानों, सार्वजनिक स्थानों, उपवनों, पर्यटन स्थलों पर वस्तुनिरपेक्ष कृतियों का प्रस्थापन काफी प्रचलित है। किन्तु परिसर से पृथक स्वयंपूर्ण कलाकृति के रूप में उनका श्रेष्ठत्व संदेहास्पद है क्योंकि उनका ऐसा पृथक् रूप में दृश्य प्रभाव स्थायी नहीं होता।
कला संग्रहालयों में सब तरह की कलाकृतियाँ संगृहीत की जाती हैं किन्तु मन्दिरों, विद्यालयों या किसी आदर्श को समर्पित संस्थाओं में जो कृतियाँ रखी जाती है उनका समूचे वातावरण से मेल-मिलाप होना चाहिये एवं वे संस्था के ध्येय के अनुरूप होनी चाहियें निजी निवास स्थानों के अंतर्भागों की सजावट का उद्देश्य वहाँ के वातावरण को प्रसन्न व उत्साहवर्धक रूप देना होता है और यह तभी सफल हो सकता है जब वहाँ लगाये जाने वाले चित्र निवासियों के रहन-सहन, परम्परा, जीवन दर्शन व सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप हों तथा चित्रों में नीरस एकरूपता न होकर ‘विविधता में एकता’ का दर्शन हो निजी निवास स्थानों में लगाने के लिये कोई भी निवासी निराशावादी, दुःखदर्द से भरे अभिव्यंजनावादी चित्र नहीं चाहेगा या ऐसे अतियथार्थवादी चित्र जिनमें खरीददार का व्यक्तिगत या वैचारिक जीवन प्रतिबिम्बित न हो। यह सब व्यापक व गहरे अध्ययन का विषय है।
यहाँ सिर्फ कला को सामाजिक जीवन से समन्वित करने के महत्त्व की ओर इंगित करने के उद्देश्य से कुछ विचार प्रस्तुत किये गये हैं।