रामकुमार का जन्म शिमला में 1924 में एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता सरकारी नौकरी में थे। वे पटियाला से सम्बन्धि त थे और माता दिल्ली की थीं। पिता को शिमला तथा दिल्ली में बार-बार क्रमशः रहना पड़ता था ।
आरम्भ में रामकुमार ने हरकोर्ट बटलर हाई स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। उन्हें अपनी छात्रावस्था में वायलिन बजाने का शौक था, किन्तु बी०ए० तक आते आते उनका संगीतज्ञ बनने का स्वप्न धूमिल हो गया।
बी०ए० के उपरान्त उन्होंने सेण्ट स्टीफेन कालेज में अर्थशास्त्र पढने हेतु एम०ए० में प्रवेश लिया जहाँ उन्हें डॉ० वी०के०आर०वी० राव तथा डॉ० जाकिर हुसैन जैसे शिक्षक मिले। इसी के साथ उनकी हिन्दी साहित्य में भी विशेष रुचि उत्पन्न हो गयी। कुछ वर्षों के उपरान्त उनकी कहानियां छपने लगीं।
1943 में एम०ए० में अध्ययन करते हुए वे शारदा उकील के कला-विद्यालय में भी पहुँच गये। वहाँ वे सन्ध्या कालीन कक्षाओं में पश्चिमी कला का अध्ययन करने लगे। वहाँ उन्हें शैलोज मुखर्जी पढ़ाते थे। छुटटी के दिनों में प्रातः कालीन कक्षाओं में उन्होनें बंगाल शैली का भी अध्ययन किया ।
अर्थशास्त्र में एम०ए० करने के उपरान्त उन्होने शिमला में अपने चाचा की बैंक में नौकरी कर ली। 1947 तक काम करने के पश्चात् उन्होंने अनुभव किया कि वे प्रातः 9 से सांय 5 बजे तक वहाँ लगातार कार्य नहीं कर सकते अतः उन्होंने अल्पकालीन काम ढूँढना आरम्भ कर दिया ।
अपने अवकाश के समय उन्होंने साहित्य और कला का सृजन भी आरम्भ कर दिया। 1946 की आल इण्डिया फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स सोसाइटी द्वारा आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी को देखकर उन्होंने अपनी कला की दिशा निर्धारित की। वे एक साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे अंतः अपनी समस्त मान्यताओं और संवेदनशीलता के साथ वे कला के क्षेत्र में आगे बढे ।
1948 से उन्होंने प्रदर्शनियों में अपने चित्र भेजना आरम्भ कर दिया और दिल्ली शिल्पी चक्र के भी सदस्य बन गये । यह संस्था बम्बई के प्रगतिशील कलाकार ग्रुप के समान प्रभावशाली तो नहीं थी फिर भी इसने चित्रकारों को एक मंच पर संगठित करने में सहायता की। रामकुमार ने इसके तत्वावधान में शिमला तथा दिल्ली में प्रदर्शनियों की
1948 में रजा के कश्मीरी दृश्य चित्रों की प्रदर्शनी दिल्ली में हुई। रामकुमार उनसे मिले और उनकी कला से भी बहुत प्रभावित हुए। वे रजा के साथ बम्बई गये और सूजा, आरा तथा सामन्त आदि से मिले। मुल्कराज आनन्द ने भी उन्हें प्रोत्साहित किया ।
रजा के गुरू लॅगहेमर ने रामकुमार को चित्रकला के क्षेत्र में से हट जाने का परामर्श दिया और उनमें प्रतिभा तथा कला कुशलता की कमी बतायी। किन्तु रामकुमार ने कला के क्षेत्र में ही आगे बढ़ने का निश्चय किया। उन्होंने विदेश जाने की भी ठान ली और कुछ सरकारी सहायता तथा कुछ धन अपने पिता से लेकर फरवरी 1950 में वे पेरिस के लिये चल पड़े।
पेरिस में उन्होंने कई मित्र बनाये और साम्यवादी विचारकों के सम्पर्क में आये वे साम्यवादी गतिविधियों में भाग लेने लगे। यहाँ रामकुमार की मानववादी विचारधारा और भी परिपक्व हुई ये वारसा, हेलसिंकी तथा कोलम्बो के शान्ति समेलनों में भी गये। रूस तथा हंगरी में अनेक विद्वानों से मिले रामकुमार समाज के लिये प्रतिबद्धता अनुभव करने लगे। अस्तित्ववादी निराशा का उत्तर उन्हें कर्तव्य पूर्ति और सृजनकी सार्थकता में मिला।
1950-51 में पेरिस में उन्होंने आन्द्रे ल्होते (Andre Lhote) की कार्यशाला में प्रवेश किया किन्तु वहाँ अकादमिक धनवाद की सीमा में जकड़ जाना उन्हें पसन्द नहीं आया और ये फरनों लेजे (Fernand Leger) के पास चले गये जो आधुनिक महान् चित्रकार होने के साथ-साथ साम्यवादी दल के सदस्य भी थे। किन्तु रामकुमार उनके बहुत अधिक रहस्य ग्रहण न कर सके।
लेजे उनके वर्णनात्मक होने की आलोचना करते रहते थे कला में सामाजिक यथार्थवाद को प्रस्तुत करने की शैली क्या हो और आकृति तथा उसमें निहित भाव का परस्पर क्या सम्बन्ध है इन प्रश्नों का चित्रकला की दृष्टि से कोई समाधान नहीं हो पाया है।
1951 में रामकुमार भारत लौटे । शिल्पी चक्र के साथ-साथ उन्होनें यहाँ फ्रेंच चित्रकारों के दल से भी सम्बन्ध स्थापित कर लिया और उन्हीं के साथ चित्र प्रदर्शित करने लगे।
1952 में उनकी भेंट कला आलोचक रिचर्ड बोर्थोलोम्यू से हुई 1955 तक रामकुमार भारत के पाँच-छः मूर्धन्य चित्रकारों में गिने जाने लगे और प्रत्येक प्रदर्शनी में उनके चित्र दिखायी देने लगे। ललित कला अकादमी ने भी उन्हें सम्मानित किया और 1971 में उन्हें भारत सरकार द्वारा “पदम् श्री’ की उपाधि प्रदान की गयी।
रामकुमार ने आरम्भ में आकृति-मूलक चित्र बनाये फिर दृश्य-चित्रों का दौर आया जो आगे चलकर नगर चित्रण तक पहुँचा। फिर आया वर्तमान दौर जिसमें दृश्यमान ही परिवर्तित हो गया। ये उनके आत्मानुभव के चित्र हैं जिनमें अमूर्तन के बावजूद मार्मिकता है।
रामकुमार की आरम्भिक कला पर शहर की सामाजिक विकृति हावी है। इनमें मध्यवर्ग की परवशता और निराशापूर्ण खामोशी ध्वनित हुई है। लोगों की आँखें बड़ी और चमकदार बनायी गयी हैं मानों उन्हें वे वस्तुएँ बहुत प्यारी हैं जिन्हें वे खोज रहे हैं।
इससे लोगों के सामाजिक अलगाव की ध्वनि मिलती है वर्गों तथा त्रिभुजों के द्वारा बनी शहरी भवनों की भावहीन पृष्ठभूमि, हाथो की विचित्र रिक्त मुद्राएँ, गम्भीर उदास रंग भूरा, मटमैला, कत्थई, काला और कहीं-कहीं लाल, नीले या पीले- का एक स्पर्श, चित्र में करुणा की मनःस्थिति उत्पन्न करने के लिये घूमती हुई गली, नंगे तार के खम्भे, खींच कर कसे हुए तार, और पूर्ण निष्क्रिय वातावरण मानों ठण्ड से जम गया हो। ये सभी उनके चित्रों के प्रतीक हैं।
कहीं-कहीं पृष्ठ भूमि में कागज के मकान मानों मुड़-तुड़ कर गिरने वाले हैं जो शहरी समाज की आत्मघात की ओर बढ़ती प्रवृत्ति के सूचक हैं। बाद में रामकुमार इन चित्रों में उदासी के बजाय दुःख चित्रित करने लगे। इन चित्रों को अस्तित्ववादी दर्शन से भी प्रभावित माना गया है।
रामकुमार के वाराणसी के दृश्य-चित्रों की श्रृंखला तथा स्केच आधुनिक दृश्य-चित्रण की अमूर्त शैली के उत्तम उदाहरण हैं ये बौद्धिक अनुशासन में बँध कर बनाये गये हैं और चित्रकार के कठोर संयम के परिचायक हैं। वाराणसी की जो छाप मन पर पड़ती है, केवल उसी को इन चित्रों में अमूर्त शैली के दृश्य का रूप देने का प्रयत्न किया गया है। किन्तु इनमें भाव की गहराई नहीं है।
1965-67 के मध्य बने स्याही और मोमी रंगों के रेखा चित्र बहुत प्रसिद्ध हुए। बाद में एक्रिलिक रंगों से भी बनारस आदि के शहरी दृश्य-चित्र अंकित किये। 1969 से रामकुमार की कला में एक नया मोड़ आया है।
वे उदास रंगों के बजाय पीले तथा सुनहरी आभा वाले बादामी रंग के बड़े-बड़े क्षेत्रों के साथ चमकदार अर्धपारदर्शी इन्द्रनील, कुसुम्भी तथा श्वेत अथवा काले भूरे का प्रयोग करने लगे हैं।
चित्रण क्रिया के अन्त में लगाये गये गहरे रंग के तूलिकाघातों से चित्र के ढाँचे को स्पष्ट व्यवस्था दी जाती है। इसी में एक काल्पनिक परिप्रेक्ष्य का आभास दिया जाता में है जिससे कुछ आकार आगे और कुछ आकार पीछे एक सन्तुलित स्थिति का निर्माण करते हैं।
वे रंग को चाकू के किनारे की सहायता से केनवास पर से खुरच भी देते हैं जिससे केनवास की बुनावट का प्रभाव दिखायी देने लगता है। चित्रों में रंगों के क्षेत्रों के आकार बड़े तथा हलचलपूर्ण बनाये गये हैं।
चित्र का संयोजन केनवास की सीमाओं को तोड़कर बाहर पहुँचने लगा है जो अमेरिकी चित्रकार पोलोक तथा कूर्निंग द्वारा प्रवर्तित अमूर्त अभिव्यंजनावाद की विशेषता है।