आधुनिक भारतीय चित्रकला
आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास एक उलझनपूर्ण किन्तु विकासशील कला का इतिहास है। इसके आरम्भिक सूत्र इस देश के इतिहास तथा भौगोलिक परिस्थितियों से जुड़े हुए हैं। विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, बर्बर और लालची विदेशी शक्तियों ने इसे बार-बार आक्रान्त किया; अतः एक स्वतंत्र चेता राष्ट्र के रूप में इस देश की विचारधारा, कला एवं संस्कृति का विकास अपेक्षित दिशा में नहीं हो सका।
आधुनिक युग में भी ब्रिटिश सत्ता के भारत से चले जाने के उपरान्त इस देश की कला का विकास सम्यक रीति से नहीं हो पा रहा है न हम अपनी परम्पराओं और अतीत को ही सही ढंग से समझते हैं और न पश्चिमी आन्दोलनों के भारत देश पर पड़ने वाले आवश्यक अथवा अनावश्यक प्रभावों को ही गम्भीरता से सोच पा रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में आधुनिक भारतीय चित्रकला की कोई राष्ट्रीय व्याख्या सम्भव नहीं है।
जैसे कोई झरना गिर कर अनेक छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगे (यहां तक कि कुछ पतली धाराएँ नालियों में बदल जायें) कुछ ऐसी ही स्थिति आज भारतीय चित्रकला की है। पिछले युगों को छोड़कर यह धारा जिस प्रकार आगे बढ़ी है उसका ही संक्षिप्त इतिहास अगले पृष्ठों में प्रस्तुत किया जा रहा है।
आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास प्रचलित परम्परागत कला-शैलियों (राजस्थानी, पहाड़ी तथा मुगल) के अवसान तथा भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ जुड़ा हुआ है।
यूँ तो पश्चिमी कला की तकनीक की कुछ विशेषताएँ सीखने के लिए अकबर ने भी अपने कुछ अन्य चित्रकार गोवा भेजे थे पर जैसे-जैसे भारतवर्ष में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रभाव बढ़ता गया और हिन्दू तथा मुस्लिम शासकों को पदच्युत करके अनेक राज्यों का शासन सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन होता गया, वैसे-वैसे राजाश्रय में पलने वाले चित्रकार भी अपने आश्रयदाताओं के दरबारों से पलायन करते गये।
भारत में कुछ पश्चिमी चित्रकार मुख्यतः ईस्ट इण्डिया कम्पनी अथवा ब्रिटिश शासन के अधिकारियों के साथ आये और कुछ अन्य चित्रकार भारत की समृद्धि की ख्याति सुनकर विदेशी व्यापारियों की भाँति भारत में अपना भाग्य आजमाने आये।
भारतीय संरक्षकों ने अपनी परम्परागत कला-शैलियों का तिरस्कार करते हुए इन पश्चिमी चित्रकारों को अप्रत्याशित प्रोत्साहन दिया किन्तु राजाश्रय से भिन्न यहाँ के लोक-जीवन में कलाओं का जो अनिवार्य प्रयोग होता रहा है. उसकी धारा इस युग में भी अविच्छिन्न बहती रही और उसके सौन्दर्य को कलाकारों की नई पीढ़ियों ने केवल तभी पहचाना जब यूरोप के कला-मर्मज्ञों ने आदिम कला तथा लोक कला की शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की भारतीय लोक-कलाओं का प्रभाव आज हम देश के मूर्धन्य कलाकारों पर देखते हैं।
भारत में अंग्रेजी शासन के फल स्वरुप कला के क्षेत्र में दो प्रभाव पड़े। एक तो यह कि स्थानीय चित्रकारों ने अपनी समझ के अनुसार पश्चिमी कला के मिश्रण से एक संकर कला-शैली का सूत्रपात किया जिसे कम्पनी शैली कहा जाता है।
दूसरा यह कि समाज के उन सभी वर्गों में, जो कलाओं के संरक्षक समझे जाते हैं, पश्चिमी कला के प्रति आदरभाव और अपनी कला के प्रति हीनता की भावना उत्पन्न हुई। स्वयं अंग्रेजों ने इस भावना को बढ़ाने तथा पश्चिमी चित्रकारों को भारत में प्रोत्साहित करने का भरपूर प्रयत्न किया। जो भारतीय चित्रकार पश्चिमी शैली में कार्य करते थे, अंग्रेजों ने उनकी भी पीठ थपथपाई।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते राजस्थानी, पहाड़ी तथा मुगल शैलियों में पर्याप्त ह्रास हो गया था। राजस्थान की प्रमुख शैलियों मेवाड, बूंदी, मालवा, जोधपुर, किशनगढ़ आदि की शैलियों के अत्यन्त दुर्बल हो जाने और जयपुर शैली के व्यापक प्रसार के कारण राजस्थानी कला की पहले जैसी स्थिति नहीं रही थी।
जयपुर शैली के चित्रों की मांग बढ़ जाने के कारण घटिया स्तर की असंख्य कृतियों का निर्माण होने लगा जिनमें चरबों के आधार पर प्राचीन चित्रों की अनुकृतियों की संख्या बहुत अधिक थी। 1880 तक आते-आते इस शैली पर पर्याप्त यूरोपीय प्रभाव पड़ चुका था।
पहाड़ी शैली की अन्तिम परिणति सिख चित्रकला में हुई जिसमें पर्याप्त दुर्बलता, आलंकारिकता तथा रेखांकन की कठोरता है। रंगों में भी पहले जैसा सौन्दर्य नहीं रहा। इसके साथ ही इस पर भी पश्चिमी कला का प्रभाव पड़ा।
मुगल कला में भी इस समय पहले जैसी उत्कृष्टता न रही। आकृतियों में छाया-प्रकाश दिखाने के हेतु काले रंग का प्रयोग किया जाने लगा। यूरोपीय कला के प्रभाव से अन्धकारपूर्ण वातावरण में तेज प्रकाश से चमकती आकृतियाँ भी अंकित की जाने लगीं घटिया रंगों का प्रयोग होने लगा और अनेक नकलें तैयार की जाने लगीं।
आलोचकों ने मुगल शैली के तीन रूप माने है-दरबारी, लोकप्रिय तथा बाजारू । शक्तिशाली शासकों के अन्त के साथ ही दरबारी मुगल कला भी समाप्त हो गयी।
मुगल कलाकारों की परम्परा की अनुकृति करने वाले अन्य चित्रकारों की कला ‘लोकप्रिय मुगल’ अथवा प्रान्तीय मुगल कहलाई और जो दरबारी मुगल कलाकार कहीं मी आश्रय न मिलने पर बाजार में आ बैठे उनकी कला ‘बाजार मुगल’ कहलाई। इस प्रकार मुगल कला का स्तर भी बहुत गिर गया था।
उन्नीसवीं शती की दक्षिण की कला में मुगल तत्वों के साथ-साथ यूरोपीय तत्वों का बहुत अधिक सम्मिश्रण होने से इसमें भी पहले के समान सौन्दर्य नहीं रहा।
इस समय तक अनेक विदेशी चित्रकार भी विभिन्न शासकों के दरबारों में आने लगे थे। उनके कारण भारत की परम्परागत शैलियों को बड़ा आघात लगा । उन्नीसवीं शती में भारतवर्ष के कई स्थानों पर कुछ स्थानीय शैलियाँ भी चल रही थीं।
इनमें निम्न शैलियाँ प्रमुख थीः
बंगाल की पटुआ कला तथा कालीघाट की पट चित्रकला
लोककला के दो रूप है, एक प्रतिदिन के प्रयोग से सम्बन्धित और दूसरा उत्सवों से सम्बन्धित पहले में सरलता है; दूसरे में आलंकारिकता दिखाया तथा शास्त्रीय नियमों के अनुकरण की प्रवृति है। पटुआ कला प्रथम प्रकार की है। पटुआ कला और कालीघाट की पट चित्रकला भी एक नहीं हैं, एक जैसी हैं।
जब कलकत्ता शहर बना तो कुछ ग्रामीण शिल्पी कालीघाट में आकर बस गये और चित्रण करने लगे। वे मूलतः ग्रामीण कलाकार थे। कालीघाट में आकर उनकी पद्धति में परिवर्तन होने लगा। उन्हें शहरी लोगों के लिए चित्रांकन करना पड़ा अतः इस नयी विधि में पटुआ कला की मूल भावना लुप्त हो गयी।
रूप तो पुराने ढंग पर ही बनाये गये पर विषयवस्तु में परिवर्तन हो गया। इस प्रकार रूप और प्रतिपाद्य की एकसूत्रता समाप्त हो गयी और कला अपने आदर्श से विमुख हो गयी।
विशुद्ध पटुआ कला अत्यन्त प्राचीन है। इस कला के कुछ मूल आधार खोज लिये गये थे पर धीरे-धीरे ग्रामीण जीवन में इसके चित्रों की माँग बढ़ जाने के कारण इस कला में यान्त्रिक पुनरावृत्ति तथा व्यावसायिकता का समावेश हो गया। आज के बंगाली पटुआ कलाकार इस कला का अर्थ भी नहीं समझते किन्तु इसके रूपों का आधार इतना दृढ़ है कि अत्यधिक यान्त्रिक होने पर भी इसके मूल रूप पूर्णतः विलुप्त नहीं हुए हैं।
पटुआ कला में पिछले युग के मानव द्वारा समझे गये प्रकृति के सारभूत तत्व प्रकट हुए हैं अतः यह प्रकृति की यथार्थ प्रतिकृति नहीं है। यह चारों ओर के वातावरण से मनुष्य के मन में उठे संवेगों की सीधी अभिव्यक्ति है अतः इसमें वस्तुओं के केवल आवश्यक तत्वों को लेकर ही रूप रचना कर दी जाती है।
संसार भर की आदिम कलाओं में यही प्रवृत्ति मिलती है पर यह उनसे इस रूप में भिन्न है कि एक तो पटुआ कला के स्रोत स्थानीय मिथक हैं, दूसरे पटुआ कलाकार परिष्कृत कला को भी देखता है जो शहरों में चलती रहती है। पटुआ कला मिथकों तथा विश्वासों पर जीवित रही है।
आदिम कला में अलग-अलग आकृतियों में तो लयात्मकता है पर सम्पूर्ण संयोजनों में नहीं है। पटुआ कला के सभी रूप एक काल्पनिक अन्तर्जगत की वस्तु हैं, एक रहस्य-सूत्र से वे आपस में सम्बन्धित हैं। उनका वास्तविक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता, ब्रह्माण्ड के सारभूत रूपों से होता है।
पटुआ कला ने अपने मिथक-विश्वासों को सरल रूपों में प्रस्तुत किया, उन्हें कोमल अथवा जटिल नहीं होने दिया। उसके सामने परिष्कृत कला भी थी किन्तु उसने उसकी अनुकृति नहीं की ।
कालीघाट के पट-चित्र
कालीघाट के पट-चित्रों में व्यावसायिकता के साथ-साथ शहरीपन भी आ गया है। उनके विषय तो नये हो ही गये हैं, सामग्री में भी परिवर्तन हुआ है। कालीघाट (कलकत्ता में काली मन्दिर के निकट के बाजार) में बिकने वाले इन पट चित्रों को प्रायः दर्शनार्थी भक्तजन खरीद ले जाते हैं।
ये प्रायः टाट, कपडा, कागज अथवा कपड़े पर चिपके कागज तथा केनवास पर बनाये जाते हैं। इनमें प्रायः धार्मिक कथाओं, देवी-देवताओं की छवियों अथवा सामाजिक विषयों का अंकन रहता है। हास्य तथा व्यंग्य के चित्र भी अंकित किये जाते हैं।
खनिज रंगों से टेम्परा विधि में चित्रण करके तूलिका द्वारा बाह्य रेखांकन कर दिया जाता है। पट-चित्रण की परम्परागत विधि में टाट पर गोबर-मिट्टी का छना हुआ गाढ़ा लेप करके सुखा लिया जाता है। फिर उसे घोट कर चिकना कर लेते हैं।
तत्पश्चात् उस पर खनिज रंगों से तूलिका द्वारा आकृति रचना करते हैं। उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दियों में कालीघाट में पट-चित्रों तथा कागज पर बने चित्रों का बहुत प्रचार रहा है।
इनमें लोक शैली के साथ-साथ कहीं-कहीं यूरोपियन टेकनीक का भी सम्मिश्रण किया गया है। कालीघाट के अतिरिक्त इस प्रकार के चित्र मिदनापुर, हुगली, चन्द्रनगर, बर्दवान तथा मुर्शिदाबाद में भी अंकित किये जाते रहे हैं। जया अप्पासामी के अनुसार इसके प्राचीन उदाहरण 1850 ई० से पूर्व के नहीं मिलते।
उड़ीसा के पट-चित्र
सत्रहवी शती की उड़ीसा की स्थानीय चित्रकला मैं मुगल, दक्षिणी तथा विजय नगर की कला शैलियों का सम्मिश्रण हुआ। इनके प्रभाव से लोक कला का वेग, अपभ्रंश शैली की अन्तराल व्यवस्था, विजय नगर शैली का आकृति विधान, दक्षिणी शैली की आलंकारिकता तथा मुगल शैली की रेखांकन की बारीकी का सम्मिश्रण हुआ।
यही शैली अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शती की उड़ीसा की पट-चित्रकला में आगे विकसित हुई जिस पर कालीघाट की शैली का प्रभाव भी पड़ा। वृक्षों का लताओं के समान अंकन भी इस शैली की एक मुख्य विशेषता है। उन्नीसवीं शती में इस पर कम्पनी शैली का प्रभाव भी पड़ने लगा।
इस शैली के चित्रकार मुख्य रूप से कपड़े पर ही चित्रांकन करते रहे हैं। इस शैली के चित्र प्रायः जगन्नाथपुरी में आने वाले तीर्थयात्री एवं पर्यटक खरीद कर ले जाते हैं अतः विशाल पैमाने पर साधारण कोटि के चित्रों की लोक-शैली के समान ही रचना होती रही है। धार्मिक कथानकों के पुस्तक चित्र भी बनाये गये हैं। प्रायः राधा-कृष्ण के कथानक सम्बन्धी चित्रों की अधिकता है।
नाथद्वारा के पट-चित्र
नाथद्वारा यों तो मेवाड़ शैली का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है तथापि श्रीनाथ जी के दर्शनों को आने वाले तीर्थयात्रियों में प्रसाद के साथ-साथ धार्मिक दृष्टि से चित्रों की भी बड़ी माँग रहती है।
इस मांग को पूरा करने के लिए सामान्य स्तर की शैली में पट- चित्र यहाँ बहुत बड़ी संख्या में बनते हैं। प्रायः भगवान श्रीकृष्ण के बाल एवं ग्वाल स्वरूप तथा गोपिकाओं और रास से सम्बन्धित घटनाओं एवं श्रीनाथजी की छवियों को ही चित्रित किया जाता है। यहाँ बने पट-चित्र पिछवाइयों के रूप में भी प्रचलित हैं और सामान्य रूप से लटकाये जाने वाले चित्रों के रूप में भी।
प्रायः टेम्परा विधि से राजस्थानी कला की परम्परा में ही चित्रण किया जाता है। पर सरलीकरण इतना अधिक है कि यदि इन्हें चाहें तो लोक कला के समकक्ष रख सकते हैं। यहाँ की वर्तमान परम्परागत शैली में मेवाड़ के अतिरिक्त किशनगढ़, जयपुर तथा मुगल शैलियों का भी सम्मिश्रण हुआ है।
खूबीराम, घासीराम, हीरालाल, नरोत्तम नारायण, लक्ष्मीलाल, नन्दलाल, गिरधारी लाल, भँवरलाल, नैनसुख, राजेन्द्र शर्मा, गुलाब जी मिस्त्री, घनश्याम, शंकर लाल आदि यहाँ के प्रसिद्ध चित्रकार हैं और इनमें से अनेक चित्रकारों की कृतियाँ मुद्रित तथा लोकप्रिय हुई हैं। इनका कार्य प्रायः व्यावसायिक स्तर का है।
इनमें से अनेक चित्रकारों की कृतियाँ कलैण्डरों के माध्यम से घर-घर में पहुँच चुकी हैं। नाथद्वारा की शैली से मिलते-जुलते अनेक चित्र मथुरा तथा वृन्दावन के बाजारों में भी बनते और बिकते हैं। इनमें मुख्यतः जयपुर, किशनगढ़ तथा मेवाड़ की कला का प्रभाव रहता है।
तंजौर शैली के चित्र
तंजौर प्राचीन काल से ही कलाओं का समृद्ध केन्द्र रहा है। चोल राजाओं के समय यहाँ पर्याप्त उन्नति हुई थी। अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शती में भी यहाँ मुगल शैली के सम्मिश्रण से चली आ रही दक्षिणी शैली का ही प्रचलन था किन्तु धार्मिक तथा परम्परागत विषयों के चित्र परम्परागत शैली का आधार लेकर निर्मित किये जाते रहे।
मराठाकाल में यहाँ पुस्तक-चित्रण तथा पट-चित्रण के अतिरिक्त लकड़ी के पटरों पर चिपके कपड़े पर चित्रण की विधि भी विकसित हुई थी।
इसमें किंचित् गाढ़े लेप से आकृतियाँ बनाकर रिलीफ का हल्का प्रभाव दिया जाने लगा। रामायण, कृष्णलीला आदि विषयों का अंकन इस प्रकार के चित्रों में बहुत हुआ है और रंगों के अतिरिक्त मूल्यवान् पत्थरों तथा सुवर्ण के पत्रों को भी चिपकाया गया है। यह कला हैदराबाद, कुड्डप्पा, कुरनूल, अर्काट, मैसूर तथा तंजौर, सभी स्थानों पर किंचित् स्थानीय विशेषताएँ लेकर विकसित हुई।
केदारनाथ, बद्रीनाथ, द्वारका आदि में बिकने वाले धार्मिक चित्रों तथा बंगाल, मधुबनी ( मिथला, बिहार) राजस्थान, उत्तर प्रदेश, गुजरात, मालवा आदि की लोक शैलियाँ भी अत्यन्त जीवन्त रूप में अपने-अपने क्षेत्रों को निरन्तर प्राणान्वित करती रही हैं।
काँच पर चित्रण
अठारहवीं शती उत्तरार्द्ध में पूर्वी देशों की कला में अनेक पश्चिमी प्रभाव आये। यूरोपवासी समुद्री मार्गों से खूब व्यापार कर रहे थे। डचों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों तथा अंग्रेज व्यापारियों ने भारतीय सागर तटों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं।
इनके लिए अनेक चित्रकार यूरोपीय काँच-चित्रण के अनुकरण पर चित्रांकन कर रहे थे। यह कार्य मुख्यतः चीनी चित्रकार कर रहे थे। भारतीय राजाओं ने भी विदेशी चित्रकारों को अपने दरबारों में स्थान दिया।
टीपू सुल्तान ने भी इनसे अनेक चित्र बनवाये सतारा, कच्छ तथा मुम्बई में भी अनेक चित्रकार थे जिनकी शैली में चीनी-यूरोपीय पद्धतियों का सम्मिश्रण था।
काँच पर चित्रण आरम्भ में दक्षिण भारत में प्रचलित हुआ था। तमिलनाडु, कर्नाटक, आन्ध्र तथा महाराष्ट्र में यह माध्यम भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में पहले आरम्भ हुआ था। सभी क्षेत्रों में स्थानीय शैलियों के प्रभाव से परिवर्तन भी हुए। तंजौर में यह काष्ठ-चित्रण से प्रभावित हुआ।
भीड़ युक्त सपाट संयोजन, कृत्रिम अलंकरणों की प्रचुर सजावट और प्रदर्शन, सुवर्ण का अत्यधिक प्रयोग, रंगों में छाया देने के उपरान्त भी प्रायः सपाट तथा आलंकारिक प्रभाव, रेखांकन में भारीपन आदि इन चित्रों की प्रमुख विशेषताऐं हैं।
मैसूर के चित्रों का रेखांकन अधिक स्पन्दनयुक्त है, अलंकरण कम है और आकृतियों में गति तथा सजीवता है कालीघाट की काँच चित्रण कला में मोटी सीमा रेखा, ओजपूर्ण आकृतियाँ तथा भारीपन है पृष्ठभूमि रिक्त रहती है। सभी स्थानों पर प्रायः देवी-देवताओं, राज दरबारों तथा गणिकाओं का अंकन इस कला में अधिक हुआ है।
भारत में विदेशी चित्रकार
आधुनिक भारतीय चित्रकला के विकास के आरम्भ में उन विदेशी चित्रकारों का महत्वपूर्ण योग रहा है जिन्होंने यूरोपीय प्रधानतः ब्रिटिश, कला शैली के प्रति भारतीय मानस में अधिकाधिक रुचि उत्पन्न कर दी थी। भारत में विदेशी कलाकार प्राचीन युगों में भी आते रहे थे।
इनके प्राचीनतम उदाहरण गान्धार शैली में मिलते हैं ईसाई धर्म के प्रचारकों के रूप में ईसा के शिष्य सन्त लूका द्वारा रचित एक चित्र को उनके दूसरे शिष्य सन्त टामस भारत लाये थे।
मध्य युग में सीरियाई चर्च का भारत आगमन हुआ और उसके साथ पश्चिमी एशिया में प्रचलित ईसाई कला-शैली का भारत में प्रवेश हुआ मुगल युग में पुर्तगाल ने गोवा में अपना केन्द्र स्थापित किया और तभी से मुगल कला पर पुर्तगाली एवं डच प्रभाव पड़ना आरम्भ हुआ।
किन्तु कुछ समय पश्चात् इंग्लैण्ड के राजदूत सर टामस रो के साथ जो ब्रिटिश प्रभाव भारत में आया वह निरन्तर बढ़ता ही गया। मुगल तथा राजपूत शैलियों के समस्त क्षेत्रीय रूपों में इसे देखा जा सकता है।
मुगल साम्राज्य के पतन के समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में व्यापार के साथ-साथ अपना राजनीतिक प्रभुत्व भी बढ़ाती जा रही थी। कम्पनी की आज्ञा लेकर अवथा स्वतंत्र रूप से इंग्लैण्ड से आने वाले ब्रिटिश चित्रकार भारत में अपना समृद्ध बाजार देख रहे थे।
कुछ तो भारत के मुगल अथवा हिन्दू शासकों के दरबारों में पहुँचे जहाँ उनके चित्र बहुत अच्छे मूल्य पर खरीदे जाने लगे। कुछ चित्रकार भारत के विभिन्न स्थानों पर घूम-घूम कर प्रसिद्ध स्मारकों, तीथों, जन-जीवन तथा विशिष्ट व्यक्तियों के चित्र बनाने लगे। इन्हें उस समय के सम्पन्न व्यक्ति खरीद लेते थे।
सबसे अधिक चित्र कम्पनी के अधिकारियों ने खरीदे। यही नहीं, कम्पनी के अधिकारियों ने कुछ चित्रकारों से अपनी इच्छानुसार भारत के चित्र बनवाये। इनमें दृश्य चित्रों, लोक-जीवन के चित्रों तथा व्यक्ति-चित्रों की प्रमुखता थी।
ब्रिटिश चित्रकारों का बड़ी संख्या में भारत में आगमन मध्य अठारहवीं शती से आरम्भ हुआ जबकि कम्पनी का व्यापार पर्याप्त उन्नत था। इस समय ब्रिटिश चित्रकारों ने भारत से खूब धन बटोरा । इन समस्त चित्रकारों का युग 1760 ई० से 1900 ई० तक रहा है।
इनमें कुशल चित्रकार, शौकिया कलाकार, नारी चित्रकार तथा व्यावसायिक कार्य करने वाले कलाकार, सभी थे। 1769 ई० में भारत में दिल्ली केटिल आये। अकेले ही मद्रास, कलकत्ता तथा लखनऊ का भ्रमण करके अन्त में अवध के दरवार में उन्होंने बहुत धन अर्जित किया।
उनकी सफलता का समाचार इंग्लैण्ड पहुँचा तो 1774 में जार्ज विलीसन (George Willison), 1976 में सेटोन (Seton), 1777 में कैथेरीन रीड (Catherine Reed) तथा 1778 में मिस आइजक (Miss Issacc) भी भारत की ओर दौड़े। जब ये कलाकार धनवान होकर इंग्लैण्ड पहुँचे तो वहाँ से अनेक श्रेष्ठ चित्रकारों की भीड़ भारत में अपना भाग्य आजमाने आ पहुँची।
1780 में विलियम होजेज (William Hodges) 1782 में जार्ज फेरिंगटन (George Farington), 1783 में जोफेनी (Zoffany), 1784 में थोम्स हिकी (Thomes Hickey) तथा 1785 में हम्फ्रे अलफाउण्डर, आर्थर विलियम डेविस तथा जोन स्मार्ट भारत आये। होजेज को भारत के वायरसराय वारेन हेस्टिंग्ज का संरक्षण मिला। फेरिगंटन ने मुर्शिदाबाद को अपना केन्द्र बनाया।
भारत के विभिन्न स्थानों के चित्रों की दृष्टि से जोफेनी सर्वाधिक लोकप्रिय हुए आर्थर विलियम डेविस के चित्र भी बहुत प्रसिद्ध हुए। लार्ड कार्नवालिस के एक व्यक्ति चित्र से उनको इक्कीस हजार रूपये मिले। फिर भी उनका अन्तिम समय निर्धनता में व्यतीत हुआ
ब्रिटिश चित्रकारों में से एमिली ईडन जी० टी० दिग्ने, आगस्तों शोफ्त ने पंजाब में भी चित्रांकन किया और यह लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह के दरबार में भी पहुँचे। मिस एमिली इंडन को रणजीत सिंह की शबीह बनाने का सर्वप्रथम अवसर भी प्राप्त हुआ। बाद में विण्टर हाल्टर, हार्डिन्ज, रिचमन्ड तथा प्रिंस सए० सोल्टीकौफ भी पंजाब में सिख शासकों का चित्रण करते रहे।
डेनियल चित्रकार
टामस तथा विलियम डेनियल भारत में 1785 से 1794 के मध्य रहे थे। उन्होंने कलकत्ता के शहरी दृश्य, ग्रामीण शिक्षक, धार्मिक उत्सव, नदियाँ, झरने तथा प्राचीन स्मारक चित्रित किये। श्रीनगर गढ़वाल में उन्होंने रस्सी के पुल का चित्रण किया। दक्षिण में उन्होंने कन्याकुमारी के सागरीय दृश्य, दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मन्दिरों, गोपुरों, प्रपातों आदि के अनेक चित्र बनाये।
पश्चिम भारत का भ्रमण कर उन्होंने ऐलौरा, ऐलीफेण्टा तथा अजन्ता आदि के स्थापत्य का भी चित्रण किया। इन सभी स्थानों पर बनाये गये स्केच तथा चित्र छः खण्डों में विभाजित हैं: (1) ओरिएण्टल सीनरी (2) ट्वेन्टीफोर ब्यूज इन हिन्दुस्तान, (3) एण्टीक्विटीज आफ इण्डिया (4) हिन्दू एक्सकेवेशन्स इन माउन्टेन आफ ऐलौरा नीअर औरंगाबाद इन द डकन (5) ट्वेन्टी फोर लैण्डस्केप्स तथा (6) ताजमहल आदि के चित्र।
भारत में उस समय न तो रेल गाड़ी थी और न स्टीम से चलने वाली नाव। इन दोनों चित्रकारों ने साधारण नाव में बैठ कर ही नदी मार्गो से भारत की यात्रा की और चित्र बनाये। इनके पास एक तत्कालीन बाक्स कैमरा भी था। कानपुर से इन्होंने मैदानी यात्रा पालकियों में की।
इनके साथ दक्षिण की यात्रा में लगभग पचास सेवक थे, ग्यारह ग्यारह कहारों वाली दो पालकियाँ, दो घोड़े, एक बैलगाड़ी, तीन बोझा ढोने वाले साँड, सात आदमी सामान लेकर चलने वाले दो कुली, अर्दली, खजाँची, तम्बू गाढ़ने वाले तथा छोटे-छोटे काम करने के लिये एक मुसलमान बालक।
दोनों डेनियल चित्रकारों ने बड़े ही यथार्थतापूर्ण दृश्यों का अंकन किया है। इनका माध्यम प्रायः जल रंग थे। इन्होंने जल रंगों के Aquatint तकनीक का भारत में श्रीगणेश किया और उसे बंगाली चित्रकारों को भी सिखाया।
इंग्लैण्ड वापस लौटने पर वे भारतीय जीवन के चित्रण के विशेषज्ञ तो माने ही गये, उन्होंने ब्रिटिश भवन कला को भी प्रभावित किया उनके सहयोग से इंग्लैण्ड में कुछ ऐसे भवन भी बने जिन पर भारतीय स्थापत्य कला की छाप है। उनके चित्रों ने ब्रिटिश कला में संयोजन के रूपों को भी प्रभावित किया। 1837 ई० में भतीजे विलियम डेनियल की तथा 1840 में चाचा टामस डेनियल की मृत्यु हो गयी ।
डेनियल तथा अन्य ब्रिटिश चित्रकारों ने भारत में ब्रिटिश चित्रकला के प्रति जो रुचि उत्पन्न कर दी थी वह बहुत समय तक भारतीय कला को प्रभावित करती रही। विशेषतः आधुनिक भारतीय चित्रकला में विशुद्ध दृश्य-चित्रण तथा यूरोपीय पद्धति के तैल माध्यम में व्यक्ति चित्रण की दृष्टि से इन चित्रकारों ने जो आधार बनाया उसी का भारतीय चित्रकारों ने आगे विकास किया।
आगोश्तों शोफ्त (Agoston Schofft 1809-1880)
शोफ्त हंगेरियन चित्रकार थे। उनके विषय में भारत में बहुत कम जानकारी है। शोफ्त के पितामह जर्मनी में पैदा हुए थे पर वे हंगरी में बस गये थे। वहाँ पेस्ट नामक नगर में वे जिस गली में रहते थे वह आज भी चित्रकारों की गली कहलाती है। उनका घर ‘सात उल्लुओं के घर” के नाम से मशहूर था। यहीं शोफ्त 1809 में जन्मे थे।
1828 ई० में उन्नीस वर्ष की आयु में ये कला की शिक्षा के लिए वियना गये। फिर इटली, फ्रांस तथा स्विटजरलैण्ड होते हुए म्यूनिख गये। 1835 में वे घर लौट आये किन्तु घर में रहने के बजाय उस होटल में रहने लगे जहाँ उनके चित्र बिक्री के लिए प्रदर्शित थे।
वहाँ उनका एक लड़की से प्रेम हो गया किन्तु उनके माता-पिता ने इस विवाह की अनुमति नहीं दी। शोफ्त ने बुखारेस्ट जाकर विवाह कर लिया और उस प्रेमिका पत्नी के साथ 1836 में आजीविका की खोज में निकल पड़े। कुस्तुनतुनियाँ (वर्तमान इस्तम्बूल), तथा अरब देशों की यात्रा करते वे ईरान तथा अफगानिस्तान होते हुए भारत आ पहुँचे।
14 नवम्बर 1841 को वे लाहौर में रुके। वहाँ के तत्कालीन शासक महाराज शेर सिंह को उन्होंने एक सिख ग्रन्थी का व्यक्ति चित्र दिखाया जिससे वे उनकी यथार्थवादी कला से बहुत प्रभावित हुए।
महाराजा शेरसिंह अत्यन्त उदार थे। उन्होंने शोफ्त से अनेक चित्र बनवाये और उन्हें बहुत सा पुरस्कार दिया। शोफ्त ने अपनी इस यात्रा के दौरान जो भी महत्वपूर्ण चित्र बनाये थे उनकी नकलें अपने पास रखली थीं जिनका उन्होंने स्वदेश लौटने पर प्रदर्शन किया। इनमें महाराजा शेर सिंह तथा लाहौर दरबार के चित्र भी थे।
लाहौर दरबार का चित्र महाराजा शेर सिंह के उत्तराधिकारी महाराजा रंजीत सिंह के समय बनाया गया था। इस चित्र में सत्तर मुखाकृतियाँ पूर्ण सादृश्य लिये हुए चित्रित की गयी हैं। महाराजा कोहिनूर का मुकुट पहने हैं। 1841 में ही शोफ्त ने अमृतसर नगर का चित्रण किया। उन्होने दरबार साहब का भी चित्र बनाया था।
इसे बनाते समय एक दिन उनके दाँतों के बीच बुश लगा हुआ था। सिख श्रद्धालुओं ने उसे सिगार समझ कर शोक्त को पीटना आरम्भ कर दिया। वे मरते-मरते बचे।
लाहौर से शोफ्त दिल्ली आये और मुगल शासक बहादुरशाह का चित्र बनाया। वे आगरा भी गये और वहाँ के भी चित्र बनाये। आगरा से वे बनारस तथा कलकत्ता पहुँचे। कलकत्ता में उन्हें अपने देश का एक विद्वान् मिल गया जिससे उनकी मित्रता हो गयी। 1842 में शोफ्त बम्बई पहुँचे।
वहाँ मलाबार पहाड़ियों से बनाया गया उनका बम्बई का दृश्य बहुत प्रसिद्ध है। शोफ्त भारत से अपार धन एकत्रित कर अपनी पत्नी के साथ बम्बई से एक जहाज पर सवार होकर मिस्र की ओर चले गये। उन्होंने भारत से अनेक बहुमूल्य वस्तुएँ भी एकत्रित कर ली थीं।
स्वदेश पहुँच कर शोफ्त विलासपूर्ण जीवन व्यतीत करने लगे और अपव्यय करने लगे। धीरे-धीरे उन पर आर्थिक तंगी आने लगी। परवश होकर 1863 ई० में उन्हें अपना संग्रह बेचने को बाध्य होना पड़ा। हंगरी से वे लन्दन चले आये और अपना अन्तिम समय वहीं व्यतीत किया। 1880 ई० में 71 वर्ष की पागलखाने में उनकी मृत्यु हुई।
इस समय के अन्य चित्रकार प्रायः व्यक्ति-चित्रण में ही कुशल थे: दृश्य-चित्रण के क्षेत्र में टामस डेनियल तथा विलियम डेनियल चाचा-भतीजे ने ही अविस्मरणीय कार्य किया था। लिथोग्राफी के क्षेत्र में जार्ज चिन्नरी, विलियम सिम्पसन तथा एडवर्ड लीअर के नाम प्रमुख हैं। जन-जीवन का चित्रण 19 वीं शती में जेम्स एटकिन्सन ने भी पर्याप्त विवरणात्मकता से किया हैं।
कम्पनी शैली
अठारहवी शती के मुगल शैली के चित्रकारों पर उपरोक्त ब्रिटिश चित्रकारों की कला का बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी कला में यूरोपीय तत्वों का बहुत अधिक मिश्रण हो गया और इस प्रकार जो नयी शैली विकसित हुई उसे कम्पनी शैली कहते हैं।
कुछ विद्वानों ने इसे पटना शैली कहा है पर यह नाम ठीक नहीं है क्योंकि इस शैली का प्रभाव बंगाल से सिन्ध तक, पंजाब से महाराष्ट्र तक एवं नेपाल में भी था। इस शैली का प्रभाव अंग्रेजों और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ-साथ बढ़ा था, अतः इसे कम्पनी शैली ही कहना चाहिये।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना लगभग 1600 ई० में इंग्लैण्ड में हुई थी जिसने भारत से व्यापार करने का उद्देश्य बनाया था। इससे सम्बन्धित जो ब्रिटिश अधिकारी भारत भेजे गये थे उन्होंने सत्रहवीं शती के आरम्भ में सूरत, बम्बई, अहमदाबाद और भडोच में व्यापारिक कोठियाँ बना लीं।
तत्पश्चात् गोलकुण्डा, मद्रास, उड़ीसा तथा बंगाल में भी कम्पनी ने अपने पैर जमा लिये और कोठियों के रूप में सुदृढ़ किले-बन्दी भी कर ली। भारत के स्थानीय नरेशों से झगड़ा करके और फिर कूटनीतिक तरीकों से धीरे-धीरे सत्ता हथिया कर अन्त में 1857 ई० में भारत के अधिकांश भागों का शासन सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथों में चला गया।
राजाश्रय समाप्त हो जाने से कलाकार निराश्रित होकर इधर- उधर भटकने लगे। इनमें से कुछ चित्रकार बड़े-बड़े शहरों में जाकर बस गये। कुछ कलाकारों को ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रोत्साहन दिया। ये कलाकार भारतीय जन-जीवन तथा भारतीय दृश्यों के चित्र जल- रंगों अथवा टेम्परा में बना कर बेचा करते थे।
अंग्रेज सैनिक, व्यापारी तथा अधिकारी इन चित्रों को सबसे अधिक खरीदते थे तथा इंग्लैण्ड में अपने परिवारीजनों को भेजा करते थे और स्वयं भी इनसे मनोरंजन करते थे।
अठारहवीं शती के अन्तिम वर्षों में बंगाल में मुर्शिदाबाद से आकर कुछ कलाकार पटना में रहने लगे थे उस समय पटना चित्रकला का कोई महत्वपूर्ण केन्द्र नहीं था और ये चित्रकार मुर्शिदाबाद में कठिनाइयों के कारण ही पटना आये थे पटना, जिसे आजमाबाद कहते थे, में कुछ मुगल चित्रकार अंग्रेज संरक्षकों के हेतु 17 वीं शती में चित्रण करते रहे थे किन्तु वहाँ कोई स्थानीय शैली विकसित न हो सकी थी।
मुर्शिदाबाद में 18 वीं शती में अनेक चित्रकार व्यक्ति-चित्रण, दरबारी दृश्यों तथा रागमाला आदि के चित्रण में व्यस्त थे। 1756 ई० में नवाब अलीवर्दी खाँ की मृत्यु से मुर्शिदाबाद की कला को भी धक्का लगा। उसके जीवन काल में भी अफगानों तथा मराठों ने नदी पार करके शहर को लूटा था।
उसके उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला – (1756-57 तथा मीर जाफर (1757-61) के समय राज्य की दशा बहुत बिगड़ गयी और चित्रकारों को नये आश्रय खोजने को बाध्य होना पडा मिल्ड्रेड आर्चर का विचार है कि 1770 के लगभग ही ये कायस्थ चित्रकार पटना की ओर मुड़े जो उस समय व्यापारिक समृद्धि पर था। यहाँ कम्पनी की सुदृढ़ शासन व्यवस्था थी ।
पटना पहुँच कर इन चित्रकारों ने अपने नये आश्रयदाताओं की रुचि के अनुकूल भारतीय जीवन का चित्रण किया। विभिन्न जातियों, शिल्पियों, देशी वाहनों तथा यातायात के साधनों और भारतीय उत्सवों की चहल-पहल और रंगीनी ने अंग्रेजों को पर्याप्त आकर्षित किया।
यहाँ के एक चित्रकार सेवकराम (1770-1830) से लार्ड मिन्टो ने अनेक चित्र खरीदे थे अंग्रेज अधिकारियों को बेचने के लिये चित्रकार उनके पास अपने चित्र ले जाते थे। ये चित्र प्रायः 8 ” x6″ के आकार के कागज पर बने होते थे। बड़े चित्र 22 ” x16″ तक के बनते थे।
प्रायः जल रंगों का प्रयोग होता था और छाया के स्थान पर पहले सीपिया रंग का वाश देकर बाद में स्थानीय रंग लगाया जाता था। रंगों में मुगल कला जैसी चमक नहीं थी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हुलास लाल को अपने यहाँ रखा था। उसने बॉकीपुर में एक लिथो प्रेस भी लगाया था।
जैरामदास इस कार्य में उसका विशेष सहायक था। इस समय के अन्य चित्रकार झूमकलाल (लग० 1884), तूनी लाल (लग० 1800), तथा फकीरचन्द लाल (लग० 1790-1865) थे जो पटना के बाजार में कागज तथा अभ्रक के चौकोर टुकड़ों पर चित्रण करते थे।
फकीरचन्द लाल के पुत्र शिवलाल (1817-1887) के चित्र कलकत्ता तक बिकने जाते थे। वह कागज तथा हाथी दाँत पर व्यक्ति चित्र भी बनाता था और 1850-70 के मध्य का सबसे प्रसिद्ध चित्रकार था। शिवलाल का चचेरा भाई शिवदयाल भारतीय ढंग पर सपाट आकृतियों तथा चमकदार रंगों का प्रयोग करता था जो भारतीयों को अधिक पसन्द थे।
मुकुन्द लाल, बनी लाल (1850-1901), ईश्वरी प्रसाद तथा गोपाल लाल यहाँ के अन्य चित्रकार थे। उन्नीसवीं शती में बनारस में भी यह शैली बहुत जोरों से चल रही थी। महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने इसे संरक्षण दिया जहाँ इसके प्रसिद्ध चित्रकार डल्लूलाल, लाल चन्द एवं गोपाल चन्द थे।
राय कृष्ण दास जी के अनुसार सम्भवतः ये अर्रा (आरा) घराने के थे। यहाँ उस्ताद राम प्रसाद ने भी कम्पनी शैली में चित्रांकन किया। केहर सिंह नामक एक सिख चित्रकार जो श्री रन्धावा के मत से सम्भवतः कपूरथला निवासी था, इसी शैली में अमृतसर में कार्य करता था।
उसने भिखारियों, गायकों, ज्योतिषियों, संपेरों आदि के अनेक चित्र अंकित किये। 1860 में भारत में कैमरे के प्रयोग से यह कला बहुत प्रभावित हुई। इसके अन्य केन्द्र दिल्ली, लखनऊ, पूना, सतारा, तंजौर एवं नेपाल आदि थे। कम्पनी शैली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है
- (1) मुगल तथा यूरोपीय शैलियों के यथार्थवादी तत्वों का सम्मिश्रण तथा छाया प्रकाश द्वारा वास्तविकता लाने का प्रयत्न ।
- (2) अधिकांश लघु चित्रों की रचना जिनके हेतु कागज तथा हाथी दाँत की पतली-पतली परतों का प्रयोग आधार के रूप में हुआ है। छोटे आकार के केनवास चित्र भी बने।
- (3) प्रायः छाया-प्रकाश के द्वारा गढ़नशीलता अथवा उभार दिखाकर चित्र की खुलाई मुगल पद्धति की बारीक रेखाओं द्वारा की गयी है तथा आभूषणों एवं वस्त्रों आदि के डिजाइन भी पर्याप्त बारीकी से बनाये गये हैं।
- (4) प्रकृति चित्रण यथार्थवादी ढंग का किन्तु आलंकारिक है।
- (5) प्रायः डेढ़ चरम चेहरे बनाये गये हैं।
- (6) प्रायः प्रसिद्ध लोगों तथा आश्रयदाताओं के व्यक्ति-चित्र और भारतीय जन-जीवन हुए का चित्रण ही इस शैली के प्रमुख विषय रहे हैं। धार्मिक चित्र भी अंकित हैं।
- (7) भारतीय लोगों की विभिन्न प्रकार की वास्तविक वेश-भूषा तथा रहन-सहन का चित्रण हुआ है।
- (8) वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के आधार पर दृश्य-चित्रण का प्रयत्न हुआ है।
- (9) अंग्रेजी जल रंग पद्धति के आधार पर चित्रण तकनीक का विकास हुआ है।
विदेशी लोग इस शैली में भारतीय पहनावे आदि के चित्र बनवा कर अपने देशों को ले जाते थे। इनका आकार प्रायः पोस्टकार्डों जैसा होता था। पंजाब में रणजीत सिंह के शासन के उपरान्त सिख शैली भी लुप्त हो गयी। उत्तरी भारत के कुछ खानदानी चित्रकार तंजौर चले गये। वहाँ 1867 ई० तक वे अपना निर्वाह करते रहे।
बंगाल का आरम्भिक तैल चित्रण
अठारहवीं शती में बंगाल में जो तैल चित्रण हुआ उसे “डच बंगाल शैली” कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि यह माध् यम डच कलाकारों से बंगला कलाकारों ने सीखा था। आरम्भ में यह चिनसुरा, चन्द्र नगर तथा कलकत्ता में प्रयुक्त किया गया। इस समय इसकी सामग्री भी विदेशों से मँगाई जाती थी।
अठारहवी शती उत्तरार्द्ध से इस माध्यम में भारतीय विषयों का चित्रण होने लगा। सम्भवतः इसका प्रभाव कालीघाट की पट-चित्रकला पर भी पड़ा। आरम्भ में धार्मिक विषयों के चित्रण को संरक्षकों का प्रोत्साहन मिला।
अंग्रेजों की जीवन-पद्धति की नकल करने वाले भारतीय नरेश तथा अधिकारी अपने घरों को मिलाकर एक शब्द बनायें अथवा रोमाण्टिक शैलियों के चित्रों से सजाते थे। यद्यपि उस समय भारत में कुछ ब्रिटिश चित्रकार भी कार्य कर रहे थे पर बंगला कलाकारों परउनका प्रभाव नहीं पड़ा।
इनकी शैली का प्रधान तत्व भारतीय ही रहा। इन चित्रों का आकार यूरोपीय तैल चित्रों की भाँति बड़ा नहीं है। रंग योजनाओं तथा छाया-प्रकाश आदि में भी यूरोपीय तकनीक का अनुकरण नहीं है।
केवल कहीं-कहीं यूरोपीय विधियों का प्रयोग हुआ है जैसे दूरगामी परिप्रेक्ष्य के नियमों का यथार्थवादी ढंग से पालन तथा देवी-देवताओं के चित्रण में मानवीय भावना का पुट ये चित्र तीन प्रकार के विषयों के है:-
- (1) भारतीय देवी-देवताओं के चित्र
- (2) वर्णनात्मक विषयों तथा घटनाओं के चित्र
- (3) व्यक्ति-चित्र एवं जन-जीवन के चित्र । देवी-देवताओं में दुर्गा के चित्र अधिक बने। काली तथा अन्नपूर्णा का भी अंकन हुआ। द्वितीय प्रकार के चित्रों में पौराणिक घटनाओं का अंकन अधिक किया गया।
तीसरे प्रकार में व्यक्ति-चित्रों के अतिरिक्त प्राकृतिक दृश्यों आदि का अंकन हुआ। इन चित्रों का केवल माध्यम ही तैल था, अन्य बातों में ये भारतीय परम्परागत पद्धतियों का प्रयोग करते थे। प्रायः सपाट रंग भरकर बाहय सीमा-रेखा का भी अंकन किया जाता था।
केवल मोटा-मोटा छाया-प्रकाश अंकित किया जाता था। भारतीय पद्धति तथा मान्यताओं के अनुसार ही रंगों, परिधानों एवं पृष्ठभूमि का अंकन किया जाता था। कहना न होगा कि भारत में तैल-चित्रण का आरम्भ इसी विधि से हुआ।
रवि वर्मा (1848-1906 )
रवि वर्मा का जन्म केरल के किलिमन्नूर ग्राम में अप्रैल सन् 1848 ई० में हुआ था। यह कोट्टायम से 24 मील दूर है। वे राजकीय वंश के थे और त्रावणकोर (तिरुवोंकुर) के प्राचीन राज-परिवार से सम्बन्धित थे। उनके चाचा को चित्रकला का बड़ा शौक था। उन्हीं के कारण रवि वर्मा की भी रुचि इस ओर बढ़ी।
आरम्भ में उन्होंने तंजौर शैली के चित्रकार अलागिरि नायडू से कला की शिक्षा प्राप्त की जो त्रिवेन्द्रम के महाराजा द्वारा दरबार में लाये गये थे। रवि वर्मा जब चौदह वर्ष के हुए तो तत्कालीन राजकीय चित्रकार रामास्वामी नायडू से कला का अध्ययन किया।
1866 ई० में उन्होंने वहाँ की महारानी लक्ष्मी बाई की छोटी बहन से विवाह किया। 1868 ई० में महाराजा ने थियोडोर जेन्सन नामक एक ब्रिटिश चित्रकार को दरबार में आमन्त्रित किया। महाराजा के द्वारा कहने पर उन्होंने भी रवि वर्मा को यूरोपीय तकनीक की शिक्षा दी।
रवि वर्मा ने उसे बड़े मनोयोग से सीखा विवाह के द्वारा राजकीय परिवार से सम्बन्धित होने के कारण रवि वर्मा स्थानीय ब्रिटिश रेजीडेण्ट के सम्पर्क में आये जिन्होंने मद्रास में सन् 1873 ई० में हो रही चित्र प्रदर्शनी में भाग लेने हेतु रवि वर्मा को प्रोत्साहित किया बकिंघम के ड्यूक ने जो उस समय मद्रास के गवर्नर थे, रवि वर्मा से अनेक चित्र खरीदे।
जब प्रिंस ऑफ वेल्स सन् 1875 में त्रिवेन्द्रम आये तो वहाँ के महाराजा ने रवि वर्मा के चित्र उन्हें भेंट किये। 1880 की पूना प्रदर्शनी और 1892 की वियना तथा शिकागो की कला प्रदर्शनियों में भी उनके चित्रों की प्रशंसा हुई बड़ीदा तथा मैसूर के महाराजाओं ने अपने यहाँ उनसे अनेक चित्र बनवाये धीरे-धीरे उनके चित्रों की इतनी माँग बढ़ी कि उसे पूरा करना कठिन हो गया।
बड़ौदा के तत्कालीन दीवान राजा सर माधवराव के परामर्श से राजा रवि वर्मा ने पूना में एक मुद्रणालय स्थापित किया जिसके कारण उनके चित्र प्रत्येक भारतीय हिन्दू के घर में पहुँच गये।
इसके पश्चात् किलिमन्नूर में रहते हुए वे जीवन के अन्तिम क्षणों तक चित्र बनाते रहे। 1 अक्टूबर सन् 1906 को उनका देहावसान हो गया।
रवि वर्मा की कला
रवि वर्मा ने चित्रकला की शिक्षा थियोडोर जेन्सन नामक यूरोपीय चित्रकार से प्राप्त की थी उनके दूसरे शिक्षक मदुरै के अलागिरि नायडू थे जो तिरवाँकुर के महाराजा के आश्रय में यूरोपीय शैली में काम करने वाले कुशल चित्रकार थे।
रवि वर्मा के चित्र बहुत लोकप्रिय हुए। इस लोकप्रियता का कारण चित्रों का धार्मिक होना था। रवि वर्मा तथा यूरोपीय शैली में काम करने वाले अन्य भारतीय चित्रकारों का काम कभी भी कला की दृष्टि से बहुत ऊँचा नहीं बन पड़ा।
डा० आनन्द कुमार स्वामी का कथन है कि रवि वर्मा की अच्छी से अच्छी कृतियाँ भी दूसरी श्रेणी के ऊपर नहीं उठ सकी हैं; फिर भी यूरोपीय प्रभाव ने भारत वासियों को ऐसा चका- चौंध कर दिया था कि उनकी त्रुटियों की ओर किसी का ध्यान ही न गया।
अनेक राजा-महाराजाओं ने उनकी कृतियों से अपने महल सजाये श्रेष्ठ कलाकृतियाँ न होते हुए भी यूरोपीय कला शैली के प्रचार के उद्देश्य से अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें बढ़ावा दिया। वे किसी ऐसी मौलिक शैली के विकास में असमर्थ रहे जिसे भारतीय कहा जा सके और अन्य कलाकार उसकी परम्परा का अनुकरण कर सकें।
रवि वर्मा की आलोचना में यह कहा जाता है कि उनके चित्र नाटकीय हैं। यह बात बहुत अंशों तक सही है। रवि वर्मा पर तत्कालीन नाटक मण्डलियों का प्रभाव पड़ा था। उन्होंने प्राचीन वेश-भूषाओं की खोज की थी और उत्तर-भारत का भ्रमण भी किया था, किन्तु अपनी खोज में वे सफल नहीं हुए थे, अतएव उन्होंने तत्कालीन लोक-जीवन तथा नाटक- मण्डलियों से प्रेरणा ग्रहण की और बहुत कुछ उसी आधार पर प्राचीन देवी-देवताओं तथा पुराणों से सम्बन्धित चित्र बनाये।
रवि वर्मा का प्रयास व्यक्तिगत था, पाश्चात्य विचार-धारा उन पर हावी थी, फिर भी उनके प्रयत्नों की अवहेलना की जा सकती। उन्होंने हमारा ध्यान अतीत के आदर्श महापुरुषों की ओर आकर्षित किया। वे धार्मिक होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय विचारों वाले थे, इसीलिये उन्होंने भारतीय विचारधारा और पश्चिमी शैली के समन्वय से एक नवीन स्वरुप की सम्भावना व्यक्त की थी।
क्या आज भी अनेक भारतीय चित्रकार भारतीय विषयों को पाश्चात्य शैलियों में अंकित नहीं कर रहे हैं? किन्तु फिर भी उनकी कला ऐसी नहीं है जिस पर भारतवासी गर्व कर सकें। उनके चित्रों को मुद्रित कर देने से भी उनकी कला का स्तर गिरा है क्योंकि उस समय के छापेखाने की स्थिति के अनुसार ये मुद्रित चित्र बहुत अच्छे नहीं हैं।
फिर भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि उन्होंने मुद्रित चित्रों का एक आरम्भिक स्तर निर्धारित किया और उसी के आधार पर भारतीय कैलेण्डर कला का विकास हुआ है। रवि वर्मा को काव्यमयी कल्पना से शून्य कहा जाता है पर बंगाल के भी अनेक कलाकारों की कृतियाँ अतिभावुकतापूर्ण हैं, कवित्वपूर्ण कल्पना से युक्त नहीं।
रवि वर्मा तथा बंगाल के पुनरुत्थान काल के कलाकारों की कला आज अप्रासंगिक हो गयी है; अतः रवि वर्मा की कला का मूल्यॉकन उन्हीं के युग के परिप्रेक्ष्य में करना होगा। जब रवि वर्मा ने चित्रांकन आरम्भ किया था तब मुगल तथा राजपूत शैलियों का पतन हो चुका था; दिल्ली, लखनऊ, पटना तथा तंजौर आदि में पतित और सकर शैलियाँ प्रचलित हो गयी थी।
उन्होंने तंजौर में ही चित्रांकन आरम्भ किया था अतः भारतीय कला क्षेत्र में तेल माध्यम के वे अग्रदूत के रूप में सामने आते है जहाँ तक विषय-वस्तु का सम्बन्ध है, बंगाल का पुनरुत्थान आन्दोलन देश की स्वतंत्रता के लिये संघर्ष के उम्र वातावरण के मध्य उत्पन्न हुआ था अतः भारत के अतीत के लिये उसमें एक स्वाभाविक श्रद्धा थी; किन्तु रवि वर्मा उससे पहले के युग के हैं।
उस समय अंग्रेजी साहित्य और सभ्यता का भूत बुरी तरह भारतीय सामन्त वर्ग पर सवार था। ऐसे वातावरण में भारत के प्राचीन विषयों को लोकप्रिय बनाने का सराहनीय कार्य रवि वर्मा ने किया था।
रवि वर्मा पर केरल की साहित्यिक परम्पराओं का प्रभाव था जिनमें सुन्दर, हृष्ट-पुष्ट शहरी कुलीन नायिका के आदर्श पर साहित्य-रचना की जाती थी। यही आदर्श रवि वर्मा की शकुन्तला आदि नारी-आकृतियों में प्रकट हुआ है। केरल के जो नारी सौंदर्य के प्रतिमान है ये बंगाल के नहीं हो सकते। रवि वर्मा ने यूरोपीय अकादमिक पद्धति को अपने ढंग से बदला भी है।
उनके संयोजन बहुत सुन्दर है और उनमें लयात्मकता है। सुकेशी, श्रीकृष्ण और बलराम, सागरमानभंग, रावण सीता और जटायु, मत्स्यगन्धी, शकुन्तला, इन्द्रजीत की विजय, हरिश्चन्द्र, फल बेचने वाली. गरीबी, चाँदनी में सुन्दरी, हंस दूत, मोहिनी-रुक्मांगद केरल सागरतट, उदयपुर दुर्ग आदि उनके कुछ प्रसिद्ध चित्र हैं। इनके अतिरिक्त उन्होंने भारत के अनेक राजा-महाराजाओं तथा सामन्तों के व्यक्ति-चित्र अंकित किये और स्वर्ग तथा नरक के दृश्यों का भी अंकन किया।
सरकारी प्रयास
सन् 1857 की क्रान्ति के असफल हो जाने से अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी और भारत के अधिकांश भागों पर ब्रिटिश शासन थोप दिया गया। भारत की अनेक संस्थाओं को भी अंग्रेजों ने अपने हाथों में ले लिया।
पश्चिमी कला की शिक्षा देने के लिए कुछ बड़े नगरों में कला-विद्यालय स्थापित किये गये जहाँ यूरोपीय शिक्षकों के निर्देशन में भारतीय विद्यार्थियों को कला एवं शिल्प सिखाये जाने लगे। इनका आदर्श लन्दन की रायल एकेडेमी आफ आर्ट्स के अनुरूप रखा गया।
इन कला विद्यालयों ने धीरे-धीरे जन-रुचि को प्रभावित करना आरम्भ कर दिया। किन्तु इन्हीं कला-विद्यालयों में आगे चल कर भारतीय कला के प्रशंसक शिक्षक तथा विद्यार्थी आये जिनके कारण इनमें प्रचलित पाठ्यक्रमों में भी समय-समय पर परिवर्तन किये गये।
मद्रास कला-विद्यालय
यह विद्यालय 1850 ई० में मद्रास रेजीमेण्ट के शल्य चिकित्सक डा० एलेग्जेण्डर हण्टर द्वारा स्थापित किया गया जिसे 1852 ई० में सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। 1876 ई० में इसे वास्तु शिल्पीय कार्यशाला में बदल दिया गया।
1884 ई० में श्री ई० बी० हैवेल इसके प्रधान शिक्षक नियुक्त हुए। इसके पाठ्यक्रम में भारतीय पद्धति के चित्रांकन (Indian Design) का समावेश किया गया। यहाँ तैल माध्यम में जो चित्रण किया जाता था वह यथार्थवाद और प्रभाववाद के मिश्रित स्वरुप जैसा था।
दक्षिण भारत में वास्तु शिल्प, मूर्तियों के तक्षण तथा ढलाई की जो समृद्ध परम्परा थी, उसके कारण दक्षिण भारत के शिल्पियों को इस विद्यालय से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। सन् 1929 ई० में यहाँ देवी प्रसाद रायचौधुरी प्रधानाचार्य नियुक्त हुए वे अवनीन्द्रनाथ के सम्पर्क में रहे थे और उनके अनुगामी भी थे।
बंगाल शैली में वे पारंगत थे किन्तु मूर्ति रचना उनका प्रिय क्षेत्र था। मद्रास कला-विद्यालय में एक तो उन्होंने पाठ्यक्रम में पूर्वी कला-शैलियों का समावेश किया, दूसरे कला-विद्यालय की शिक्षा में आधुनिक तत्वों को भी जोड़ दिया।
परिप्रेक्ष्य की परम्परागत पद्धति तथा प्राचीन कृतियों की अनुकृति के स्थान पर जीवित मॉडेल से स्केच तथा चित्रांकन पर उन्होंने बल दिया। आज भी यह विद्यालय इस प्रकार के पाठ्यक्रम की प्रसिद्ध शिक्षण संस्था है।
कलकत्ता कला विद्यालय
इस कला विद्यालय की स्थापना 1854 ई० में चित्रकला तथा मृत्तिकाआकृति-रचना (क्ले माडलिंग) की शिक्षा देने के लिए की गयी थी। कुछ समय पश्चात् उत्कीर्णन (एनग्रेविंग), अम्लांकन (एचिंग) तथा अश्ममुद्रण -(लिथोग्राफी) का भी पाठ्यक्रम आरम्भ किया गया।
यहाँ के आरम्भिक शिक्षक रिगॉड, एग्यार तथा फाउलर आदि थे। तदुपरान्त यहाँ रेखांकन (ड्राइंग) को एक स्वतंन्त्र विषय के रूप में समाविष्ट किया गया। 1864 में सरकार ने इसे अपने हाथ में लिया। 1876 ई० में यहाँ एक कला वीथी (आर्ट गैलरी) का आरम्भ हुआ।
इसमें ब्रिटिश चित्रकारों से क्रय किये गये दृश्य-चित्र, स्मारकों के चित्र तथा भारतीय जन-जीवन की विविध झाँकियाँ एवं वेश-भूषा के चित्र तथा अभियान्त्रिक रेखाचित्र (इन्जीनियरिंग ड्राइंग्स) प्रदर्शित किये गये। 1885 ई० में भारतीय पद्धति के भित्ति चित्रण का शिक्षण भी आरम्भ किया गया किन्तु वह लोक-प्रिय नहीं हो सका।
श्री ई० बी० हैवेल, जो मद्रास में थे, 6 जुलाई 1896 को स्थान्तरित होकर कलकत्ता आये। मद्रास में रहकर दक्षिण भारत के परम्परागत शिल्प के वैभव का उन्होंने अनुभव किया था।
अतः उन्हें कलकत्ता कला विद्यालय के विदेशी पाठ्क्रम को देखकर निराशा हुई। उन्होंने कहा कि “यहाँ आकार-कल्पना (डिजाइनिंग) पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता जो समस्त कला की नींव है बल्कि यहाँ इंग्लैण्ड के प्रादेशिक विद्यालयों की चालीस वर्ष पुरानी निकृष्ट परम्परा अपनाई जा रही है और पूर्वी कला की उपेक्षा करके भारतीय कला-विद्यार्थियों को दिग्भ्रमित किया जा रहा है।
श्री हैवेल ने सर्वप्रथम कला वीथी के चित्रों को बदल दिया। फिर तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन से आज्ञा लेकर यूरोपीय चित्र बेच दिये और नेपाल के पीतल के कलात्मक पात्र, अजन्ता के चित्रों की अनुकृतियाँ तथा मुगल शैली के लघु चित्र संकलित कर भारतीय चित्र वीथी की स्थापना की।
इन प्रयत्नों से प्रभावित होकर अवनीन्द्रनाथ ठाकुर उनके सम्पर्क में आये । श्री हेवेल ने अवनी बाबू को कलकत्ता कला विद्यालय में अपने सहयोगी के रूप आमन्त्रित किया और 1898 में उन्हें उप-प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त करा दिया। में 1905 से 1915 तक ये प्रधानाचार्य रहे।
भारत की स्वतन्त्रता के लिए चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन तथा जापानी दार्शनिक ओकाकुरा के विचारों से प्रभावित होकर अवनी बाबू ने भारत के साथ-साथ चीन तथा जापान की कलाओं के अध्ययन को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया और भारतीय परम्परागत चित्रण पद्धति की शिक्षा देने के लिए पटना के चित्रकार ईश्वरी प्रसाद को तथा जयपुर से भित्ति चित्रकारों को आमन्त्रित किया।
श्री अवनीन्द्रनाथ के इन प्रयत्नों से अनेक प्रतिभाशाली युवक उनकी ओर आकर्षित हुए और उनके शिष्य बन गये ये थे नन्दलाल वसु, सुरेन्द्र नाथ कार वीरेश्वर सेन, सुधीर खास्तगीर, कनु देसाई, मनीषीडे, शैलेन्द्रनाथ डे, समरेन्द्रनाथ गुप्त, हकीम मुहम्मद खाँ, समी उज्जमा, शारदाचरण उकील, तथा नागहवटट आदि।
यहाँ पर शिक्षा प्राप्त कर ये शिष्य भारत भर में फैले गये और बंगाल शैली का प्रचार करने लगे। इस प्रकार कलकत्ता कला विद्यालय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड गया किन्तु अवनी बाबू के पश्चात् श्री पर्सी ब्राउन ने पुनः यहाँ का पाठ्यक्रम लन्दन की राबल बाबू के एकेडेमी आफ आर्ट्स की पद्धति पर आधारित कर दिया।
बम्बई कला विद्यालय
सन् 1857 ई० में बम्बई के एलफिन्स्टोन इन्स्टीट्यूशन में प्रसिद्ध पारसी उद्योगपति सर जमशेद जी जीजी भाई टाटा के उदार अर्थदान से 2 मार्च को कला की कक्षाएँ आरम्भ की गयीं जिनमें डिजाइन तथा उत्कीर्णन का पाठ्यक्रम सम्मिलित किया गया और शिक्षण एक नवीन भवन में स्थान्तरित कर दिया गया।
सन् 1866 में आलंकारिक चित्रण, माडलिंग तथा लोहे के जालीदार काम का पाठ्यक्रम भी आरम्भ हो गया। 1878 में एक नवीन भवन निर्मित किया गया और 1879 में ड्राइंग विषय अपने सम्पूर्ण पाठ्यक्रम के साथ सिखाया जाने लगा। 1891 में कला की कार्यशालाएँ आरम्भ की गयीं कला शिक्षकों के प्रशिक्षण की कक्षाएँ 1910 में खोली गयीं।
1914 में यहाँ वास्तु शिल्प का भी शिक्षण आरम्भ हुआ। 1936 के पश्चात् यहाँ व्यावसायिक कला का भी पाठ्यक्रम चालू किया गया। सर जे० जे० स्कूल आफ आर्ट के नाम से यह कला-विद्यालय सर्वत्र विख्यात है।
आरम्भ में यहाँ इंग्लैण्ड से ही शिक्षक बुलाये जाते थे सर्व प्रथम यहाँ लॉकवुड किपलिंग प्रधानाचार्य बने श्री सीसिल बर्न के समय 1900 ई० में यहाँ इंग्लैण्ड की कला शिक्षण एवं परीक्षा पद्धति लागू हुई। इनके पूर्व 1880 में श्री ग्रिफिथ्स के समय यहाँ साउथ केसिंगटन कला-विद्यालय (इंग्लैण्ड) के आधार पर शिक्षण की रूप-रेखा बनायी गयी थी।
1919 में श्री ग्लेडस्टोन सोलोमन के द्वारा कार्यभार सम्हालने के उपरान्त यहाँ ब्रिटिश कला की आभिजात्य शैली को शिक्षण का आधार बनाया गया। इस प्रकार उनके समय शुद्ध तथा अनुपातपूर्ण रेखांकन, रंगों के विभिन्न बलों का सही मिश्रण, माध्यम और सामग्री का पूर्ण कुशलता सहित उपयोग, जीवित रूपों का अध्ययन आदि विशेष महत्वपूर्ण हो गया।
यह सब बाहय आकृति-सादृश्य पर आधारित था। उनके सहायक चार्ल्स जेरार्ड 1936 ई० में प्रधानाचार्य बने जिन्होंने यूरोप में प्रचलित आधुनिक कला- शैलियों से भी विद्यार्थियों को परिचित कराया और प्रभाववादी शैली में चित्रांकन प्रारम्भ किया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् यहाँ पाठ्यक्रमों में सुधार किया गया है और भारतीय कला की अलग कक्षाएँ “इण्डियन डिजाइन क्लास “के रूप में आरम्भ की गई हैं।
मेयो स्कूल आफ आर्ट लाहौर सन् 1875 ई० में इस कला
विद्यालय का आरम्भ आलंकारिक तथा उपयोगी कलाओं (Decorative and applied arts) की उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान करने के लिए किया गया था यहाँ मुख्य रूप से काष्ठ शिल्प, वास्तु शिल्प, ताँबे की कला-कृतियों तथा सजावटी उपकरणों की ढलाई और आभियान्त्रिकी की शिक्षा दी जाती थी।
पंजाब में उस समय प्रचलित सिख शैली में भी अलंकरण पद्धति का प्राचतुर्य था। अवनी बाबू के शिष्य समरेन्द्रनाथ गुप्त के प्रधानाचार्य बनने से यहाँ बंगाल शैली का प्रभाव बढ़ा जिसमें अवनी बाबू के ही एक अन्य शिष्य चित्रकार मुहम्मद अब्दुर्रहमान चुगताई ने एक विशिष्ट शैली का विकास किया जो अत्यन्त आकर्षक है, साथ ही अलंकारपूर्ण भी है।
कुछ समय पश्चात् इस विद्यालय के पाठ्यक्रम में से शिल्पों को हटाकर इसे पूर्ण रूप से ललित कला-विद्यालय का रूप दे दिया गया।
लखनऊ कला- विद्यालय
सन् 1911 ई० में लखनऊ में कला तथा शिल्प विद्यालय की स्थापना की गयी। इसमें व्यावसायिक कला, वास्तु शिल्पीय मान-चित्रांकन तथा रेखा-चित्रांकन, अश्म- मुद्रण आदि की शिक्षा के साथ-साथ सुवर्ण एवं लौह की ढलाई, धातु शिल्प, काष्ठ शिल्प, मिट्टी के खिलौने बनाने तथा औद्योगिक कलाओं के हेतु नवीन डिजाइन तैयार करने की शिक्षा भी दी जाती थी।
प्रथम प्रिंसिपल के रूप में एक अंग्रेज श्री नेटहार्ड की नियुक्ति की गई। 1925 ई० में श्री असित कुमार हाल्दार यहाँ के प्रधान शिक्षक बने जो अवनी बाबू के शिष्य थे।
उन्होंने भारतीय कला को प्रमुख महत्व देने की दृष्टि से विद्यालय की शिक्षा-पद्धति में सुधार किया साथ ही कला शिक्षकों के प्रशिक्षण, मीनाकारी, बहुरंगी मुद्रण तथा मूर्तिकला विभागों की स्थापना करके विद्यार्थियों के लिये रोजगार के नये क्षेत्र भी प्रशस्त किये चित्रकला के क्षेत्र में यूरोपीय पद्धति की ‘माडेल’ विधि तथा दृश्य के साथ-साथ बंगाल शैली की वाश पद्धति में भारतीय विषयों का समावेश किया गया।
ब्रिटिश सरकार के इन प्रयासों के बावजूद भारतीय कला और शिल्प के स्तर में निरन्तर गिरावट आती गयी क्योंकि इन कला विद्यालयों के शिक्षक अंग्रेज थे जो अपने देश की कला शिक्षण पद्धति के अथवा अपनी व्यक्तिगत रुचि के आधार पर पाठ्यक्रम बनाते जो न तो भारतीय वातावरण के अनुकूल और न यहाँ की परम्परागत कलापद्धतियों के अनुरूप थे यहाँ शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को दृश्य-चित्रण अथवा व्यक्ति चित्रण के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध नहीं थे।
इन विद्यालयों में सिखाई जाने वाली ब्रिटिश कला-शैली का स्तर भी था क्योंकि स्वयं ब्रिटेन में इस समय कला की परम्परा मृत प्रायः हो चुकी थी और प्राचीन कला शैलियों का केवल पिष्टपेषण ही हो रहा था।
बहुत निम्न कला महाविद्यालय इन्दौर मध्य प्रदेश के इन्दौर नगर का कला महाविद्यालय प्रारम्भ से ही कला जगत् में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। सन् 1904-5 में यहाँ एक उच्च शाला (हाई स्कूल) में कला की कक्षाएँ आरम्भ हुई।
1927 ई० में स्कूल आफ आर्ट्स को स्वतंत्र रूप मिला जो अब कला-महाविद्यालय के नाम से विख्यात है। इस संस्था का एक अन्य नाम चित्रकला मन्दिर भी है।
इस संस्था के आरम्भिक शिक्षक श्री दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कला के शिक्षण और सृजन के लिये समर्पित कर दिया था। उनके शिष्यों में नारायण श्रीधर बेन्द्रे, देव कृष्ण जटा शंकर जोशी, मनोहर श्रीधर जोशी, विष्णु चिंचालकर, हजारनीस, सालेगांवकर, देवयानी कृष्ण, लक्ष्मी शंकर राजपूत तथा मकबूल फिदा हुसेन आदि प्रमुख हैं जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है।
इस संस्था के अन्य लब्ध प्रतिष्ठ कलाकार हैं कँवल कृष्ण, श्रेणिक जैन, आर०के० दुबे, एम० डी० साखड़कर, बसन्त चिंचवडकर, मीरा गुप्ता, गजेन्द्र, इस्माइल बेग तथा नलिनी चौसालकर आदि।
यहाँ जिन छात्रों ने कला की शिक्षा प्राप्त की उनमें से अधिकांश ने आकृति चित्रण की आधार भूमि को बनाये रखते हुए तथा पश्चिमी आधुनिक कला आन्दोलनों की मूल विचारधाराओं को आत्मसात् करते हुए अपनी शैलियों का विकास किया और अपनी कला शैली में क्रमशः परिवर्तन भी किया। यह परिवर्तन कहीं युग की और कहीं कलाकारों की निजी मानसिकता की आवश्यकता के अनुरूप हुआ है।
दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर (1894-1978)
अपने आरम्भिक जीवन में “दत्तू भैया” के नाम से लोकप्रिय श्री देवलालीकर का जन्म 1894 ई० में हुआ था। वे जीवन भर कला की साधना में लगे रहे और अपना अधिकांश समय छात्रों की कलात्मक प्रतिभा के विकास में लगाया।
श्री देवलालीकर मुख्य रूप से बम्बई कला विद्यालय की परीक्षाओं के लिए छात्रों की तैयारी कराते थे अतः उनकी कला बंगाल शैली से पूर्णतः पृथक् थी और बम्बई के पश्चिमी पद्धति पर आधारित पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं को पूरा करती थी।
इसमें न बंगाल शैली के धूमिल रंग थे, न अस्पष्ट रेखाऐं और न कृशकाय आकृतियाँ टेम्परा अथवा तैल माध्यम में किया गया उनका कार्य पश्चिमी कला जगत् के आधुनिक अन्दाज को पकड़ने का आरम्भिक प्रयत्न था।
देवलालीकर ने 1927 ई० में स्कूल आफ आर्ट इन्दौर में कला शिक्षक का पद सम्भाला। आरम्भ में उन्हें अनेक कठिनाइयाँ उठानी पड़ी। कला विद्यालय में ये हाई स्कूल की पेटिंग की कक्षाएँ लेते थे और हाई स्कूल के समय के बाद बम्बई की ड्राइंग की एलीमेण्ट्री तथा इण्टरमीडिएट ग्रेड की विशेष कक्षाएँ लगाते थे।
स्कूल आफ आर्ट में उस समय उन्हें केवल दो कमरे ही मिले हुए थे अतः वे कुछ कक्षाएँ बाहर छत्री बाग आदि में भी लगाते थे। प्रातःकाल सूर्योदय के समय के प्रकाश में वे दृश्य-चित्रण, दोपहर बाद स्टिल लाइफ आदि सिखाते थे।
बदलते हुए प्रकाश की चमक और रंगों के अध्ययन पर वे विशेष बल देते थे और कभी-कभी तो रात में भी चित्रण कराते थे। इससे छात्रों को रंग की विभिन्न विशेषताओं तथा प्रभावों का बहुत अच्छा ज्ञान हो जाता था।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् भारत में प्रभाववाद ने कला के क्षेत्र में बड़ी हलचल मचा दी थी। देवलालीकर जी ने भी आधुनिक चित्रकला की एकेडेमिक, प्रभाववादी तथा अतियथार्थवादी कला की पुस्तकें मँगवार्थी और छात्रों को इन आन्दोलनों की विशेषताओं की विधिवत् शिक्षा दी। जब उनके विद्यार्थी परीक्षा देने बम्बई जाते तो संरक्षक की भाँति देवलालीकर भी उनके साथ बम्बई जाते।
अपने विद्यार्थियों को कला के विविध आन्दोलनों तथा शैलियों की शिक्षा देने के बावजूद देवलालीकर स्वयं प्रभाववाद से ही कुछ प्रभावित थे। उन्होंने अधिकांश धार्मिक चित्र ही बनाये जो कल्याण आदि में छपते रहे।
इन चित्रों में यद्यपि आकृतियाँ आलंकारिक हैं तथापि रंग-योजनाओं में वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव दिया गया है जिसके कारण रंगों के बल परस्पर प्रभावित हुए हैं। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा छापे गये बी०के० मित्रा, टी० के० मित्रा, भगवान तथा जगन्नाथ आदि चित्रकारों की कृतियों से ये स्पष्टतः भिन्न हैं और तुरन्त पहचान में आ जाते हैं।
देवलालीकर के बनाये हुए व्यक्ति-चित्र भी उत्तम कोटि के हैं। उन्होंने बजाजवाडी में राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद का चित्र भी अंकित किया था किन्तु उनका सर्वोत्तम व्यक्ति-चित्र ‘बैरिस्टर अभ्यंकर” का है। उनका पेंसिल का रेखांकन भी अद्वितीय था ।
श्री देवलालीकर का अन्तिम समय पर्याप्त कष्ट से व्यतीत हुआ। वे एक बहुत साधारण बस्ती में अपने पुत्र राजाभाऊ के साथ नागपुर में रहने लगे थे। कुछ समय में पश्चात् उन्होंने नागपुर भी छोड़ दिया था किन्तु देश की कलात्मक गतिविधियों से वे बेखबर नहीं रहते थे और दिल्ली में आयोजित ‘त्रिनाले’ अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों से लेकर विशिष्ट चित्रकारों से भी निरन्तर सम्पर्क बनाये रखते थे।
अपना अन्तिम समय उन्होंने दिल्ली में एकान्त और अज्ञातवास में व्यतीत किया और दिल्ली में ही 1978 में उनकी मृत्यु हुई। देवलालीकर आज इस संसार में नहीं हैं किन्तु एक सच्चे गुरु की भाँति उन्होंने अपने विद्यार्थियों को सदैव प्रोत्साहित किया।
शैली तथा प्रयोगशीलता सम्बन्धी उनकी अपनी सीमाएँ भी थीं इसीलिए वे प्रतिभावान् छात्रों को बम्बई चले जाने का परामर्श देते थे। उन्हीं के आरम्भिक छात्रों में से अनेक बम्बई जाकर आज अन्तर्राष्ट्रीय कला जगत् में अपना कीर्तिमान बनाये हुए हैं।
बम्बई आर्ट सोसाइटी
भारत में पश्चिमी कला के प्रोत्साहन के लिए अंग्रेजों ने बम्बई में सन् 1888 ई० में एक आर्ट सोसाइटी की स्थापना की। श्री फोरेस्ट इसके संस्थापक सचिव थे जो कि 1891 तक इस पद पर रहे। इस सोसाइटी का मुख्य कार्य भारत में फैले हुए यूरोपियन शौकिया कलाकारों के कार्य को प्रकाश में लाना था।
इस सोसाइटी ने अपनी कला प्रदर्शनियों के द्वारा प्राय: अंग्रेजी शासन और अंग्रेजी सेना के अधिकारियों को ही पुरस्कृत किया। यह प्रवृत्ति 1924-25 ई० तक चलती रही। आरम्भ में तो केवल अंग्रेज जाति के कलाकारों को ही प्रोत्साहन दिया जाता था पर बाद में कला-विद्यालयों के छात्रों को भी प्रोत्साहित किया जाने लगा।
यहाँ घटिया यूरोपीय चित्रकार, यहाँ तक कि कम्पनी-शैली में काम करने वाले भी अच्छे इनाम पा जाते थे। आरम्भिक आधुनिक भारतीय चित्रकारों में पुरस्कार पाने वालों में से कुछ हैं-धुरन्धर, रुस्तम सिसौदिया. एस०डी० सातवलेकर, अबलाल रहमान, रवि शंकर रावल, पेस्टनजी बोमनजी, बाबूराव (मिस्त्री) पेण्टर, जे० एम० अहिवासी, एम० आर० अचरेकर, एन० एन० हलदंकर के० बी० चूडेकर, आर० डी० धोपेश्वरकर तथा ए० ए० भौंसले ।
मिश्रित यूरोपीय पद्धति के राजस्थानी चित्रकार
इस समय यूरोपीय कला से राजस्थान भी प्रभावित हुआ। 1851 में विलियम कारपेण्टर तथा 1855 में एफ०सी० लेविस ने राजस्थान को प्रभावित किया जिसके कारण छाया-प्रकाश युक्त यथार्थवादी व्यक्ति-चित्रण मेवाड में 1855 ई० से ही आरम्भ हो गया।
डा० सी० एस० वेलेण्टाइन के आचार्यत्व में जयपुर में 1857 ई० से ही महाराजा राम सिंह ने “हुनरी मदरसा स्थापित किया जो कालान्तर में “महाराजा स्कूल आफ आर्ट्स” के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
कुछ राजस्थानी चित्रकार विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने गये जिनमें कुन्दनलाल का नाम प्रमुख है। इन्होंने 1886 ई० में सर जे०जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में कला की शिक्षा प्राप्त की फिर 1889 में लन्दन के स्लेड स्कूल आफ आर्ट्स में कला का विशेष अध्ययन करने गये।
1893 से 1896 तक लन्दन में कला शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे स्वदेश लौट आये। यहाँ उनका पर्याप्त सम्मान हुआ और उन्हें कई पुरस्कार भी प्राप्त हुए। कुन्दनलाल ने उदयपुर में राजा रवि वर्मा के साथ-साथ स्वयं भी राजघराने के व्यक्ति-चित्रों का अंकन किया।
भारतीय जन-जीवन के चित्र उन्होंने प्रभाववादी शैली में भी चित्रित किये। उनके शिष्यों में रघुनाथ, लहरदास, नारायण, राम नारायण तथा अम्बालाल प्रमुख थे।
सोभागमल गहलौत, नन्दलाल शर्मा, घासीराम तथा खूबीराम आदि ने भी यूरोपीय तकनीक के मिश्रण से अपनी शैलियों का विकास किया। इन कलाकारों में यथार्थवाद अथवा प्रभाववाद की ओर झुकाव तथा मॉडेल बिठाकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति थी।
भारतीय विषयों तथा भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों का चित्रण होने के कारण वेश-भूषा तथा वातावरण तो भारतीय है पर भारतीय व्यंजना-पद्धतियों जैसे मुद्रा-विधान, रस विधान आदि का प्रयोग नहीं है; अतः व्यंजना- क्षमता का अभाव है। तकनीक प्रायः यूरोपीय है और तेल माध्यम में अधिकांश कार्य किया गया है।
यह स्थिति बहुत दिनों तक चलती रही किन्तु इसके विरोध में एक नया आन्दोलन आरम्भ हुआ जिसे बंगाल का पुनरुत्थान आन्दोलन कहा जाता है।
यह ऐसे कलाकारों और कला-मर्मज्ञों का दल था जो भारतीय परम्परा को जीवित रखते हुए अजन्ता आदि की शास्त्रीय अथवा मध्यकालीन लघु चित्र शैलियों में विकसित रूप पद्धतियों का प्रयोग करने के पक्ष में था ये कलाकार कोमल घुमावदार रेखाओं और वाश पद्धति के रंगों का ही प्रयोग मुख्यतः करते थे और एक पवित्र धार्मिक कृत्य की भाँति अपने विषय अथवा मनः स्थिति के प्रति पूर्ण आस्था से कार्य करते थे। ये सभी चित्रकार आकृति-मूलक थे। कुछ कलाकारों ने टेम्परा में भी पर्याप्त कार्य किया जिनमें नन्दलाल बसु का नाम प्रमुख है।
ठाकुर परिवार
1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में हर प्रकार से अपने शासन को दृढ़ बनाने का प्रयत्न किया, किन्तु बीसवीं शती के आरम्भ होते-होते स्वतन्त्रता आन्दोलन पुनः जोर पकड़ने लगा इण्डियन नेशनल कॉंग्रेस की स्थापना और उसके द्वारा धीरे-धीरे स्वतन्त्रता की लहर के व्यापक होने के साथ-साथ अंग्रेजों ने अपने समर्थकों और अन्य लोगों में अपनी छवि उभारने का काफी प्रयत्न किया।
इसके परिणाम स्वरूप ‘इण्डियन सोसाइटी आफ ओरियण्टल आर्ट’ की स्थापना हुई जिसके तीस संस्थापकों में से केवल पाँच भारतीय थे भारत में ब्रिटिश सेना के कमाण्डर इन चीफ इसके सभापति थे। बंगाल के गवर्नर रोनाल्डशे ने इस संस्था को राजनीतिक कारणों से प्रोत्साहित किया।
बंगाल भारत की राजधनी थी। जमींदार ठाकुर परिवार के अधिकांश सदस्य स्वतन्त्रता आन्दोलन के बाहर थे, उनमें से कई ब्रह्म-समाजी तथा समाज-सुधारक थे और अंग्रेजों से मित्रता रखते थे।
पिछली सामन्ती व्यवस्था के कारण समाज में ठाकुर परिवार का बहुत आदर था अतः अंग्रेजों ने उसके माध्यम से अपने ही प्रचार का प्रयत्न किया। 1910 में इंग्लैंड में इण्डिया सोसाइटी बनायी गयी जिसमें रोथेन्स्टीन, हैवेल, लेडी हेरिंघम, भावनगरी तथा कुमार स्वामी आदि थे।
इन्होंने ठाकुर कलाकारों की लन्दन तथा पेरिस प्रदर्शनियों का आयोजन 1914 में किया। 1912 में गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद हुआ और 1913 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उस पर नोबल पुरस्कार भी दिलवा दिया गया।
1915 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर को ‘नाइटहुड’ की पदवीं भी दी गयी। ठाकुर परिवार में केवल अवनीन्द्रनाथ ही पश्चिमी कला-शैली के सक्रिय विरोधी थे जिन्होंने ठाकुर शैली का सूत्रापात किया था अतः 1917 के पश्चात् ठाकुर स्कूल को सारे देश के कला-विद्यार्थियों के निर्देशन का अधिकार भी (बम्बई को छोड़कर) दे दिया गया। विनायक पुरोहित का विचार है कि इस प्रकार अंग्रेजों ने जमींदार ठाकुर परिवार को लाभ पहुँचाया।’
अवनीन्द्रनाथ ठाकुर तथा उनके दल द्वारा विकसित कला-शैली में भारत की स्वतन्त्रता का कोई उद्घोष, क्रान्ति के कोई बीज या विप्लवकारी विषय आदि नहीं।
थे एक स्वप्निल शैली में स्वप्न के समान ही अतीत अथवा कोमल विषयों का अंकन इसमें प्रमुख रूप से हुआ था। देश में चल रहे आजादी के आन्दोलन का कोई भी प्रतिबिम्ब इस कला में नहीं था। फिर भी बंगाल शैली ने पश्चिमी अनुकरण का विरोध किया था।
इस आन्दोलन की सबसे बड़ी देन यह थी कि इसने सारे देश की कलात्मक गतिविधियों में नई चेतना भर दी थी। अवनी बाबू के शिष्य सारे देश में फैल गये और कला का प्रचार करने लगे। यह एक दिलचस्प बात है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर पश्चिमी शैली के विरोधी नहीं थे।
इस प्रकार गाँधी जी की स्वदेशी की विचार धारा से उनके विचारों में अन्तर था। वे गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से भी सहमत नहीं थे।
इसी के साथ यह भी एक दिलचस्प बात है कि जिसे हम आज भारतीय आधुनिक चित्रकला कहते हैं उस पर पश्चिमी कला का जबर्दस्त प्रभाव है और साथ ही भारत की परम्परात कलाओं के तत्वों को बंगाल शैली की तुलना में आधुनिक भारतीय कला ने ज्यादा अच्छी तरह समझा है। भारत की आधुनिक कला की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ बंगाल में न होकर बम्बई, बड़ौदा तथा दिल्ली आदि में ही हुई हैं।