अठारहवीं सदी की चित्रकला
राइनलैंड में वाइब्यूकेन के ड्यूक के लिए भवन-निर्माण का कार्य कर रहे फ्रेंच वास्तुकार ने 1765 में लिखा था कि प्राचीन काल में कला की दृष्टि से यूरोप में ग्रीस को जो महत्त्व प्राप्त हुआ था वही सम्प्रति पेरिस को प्राप्त हुआ है और उनके इस कथन में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
18वीं सदी में जर्मनी, रशिया, पोलैण्ड व इटली में फ्रेंच कलाकारों ने काफी ख्याति अर्जित की थी। उनको वहाँ महत्त्वपूर्ण कला कार्य को पूरा करने को निमंत्रित किया जाता था। लगभग यूरोप के हर देश का पेरिस में राजदूत के समान कला परामर्शदाता हुआ करता जो कलाकार का चयन, कार्य का आदेश व क्रय सम्बन्धी आवश्यक कार्यवाही किया करता ।
इसके अलावा, भिन्न देशों के अनेक कलाकार अध्ययन हेतु या अपनी कला को अधिक विकसित करने हेतु पेरिस पहुँचते थे। फ्रेंच कला को यह श्रेष्ठता प्राप्त होने के कई कारण थे। सबसे पहले तो कला प्रेमी राजा 14वें लुई की एवं अद्वितीय स्मारक वर्साय के कलात्मक महल की ख्याति कारण थी।
दूसरा कारण यह था कि बुर्बीन राजपरिवार के नेपल्स, पार्मा व स्पेन से रिश्तेदारी के सम्बन्ध थे। किन्तु, सबसे प्रमुख कारण यह था कि फ्रेंच कलाकार समकालीन युगचेतना को प्रभावी ढंग से दृश्य रूप में अभिव्यक्त करने में सफल हो गये थे। समस्त यूरोप के लिए 18वीं सदी सुख-समृद्धिपूर्ण सदी रही व उस काल में जो भी युद्ध हुए उनसे सामान्य जनजीवन पर विशेष बाधक परिणाम नहीं हुआ।
विगत सदी के कठोर सम्बन्धों की जगह सामाजिक व्यवहार अब अधिक मधुर व भद्रतापूर्ण हो गये थे। पूर्वनिर्धारित औपचारिकता का दिखावा समाप्त होकर सामाजिक सम्बन्धों में मित्रता की भावना को अनुभव किया जाने लगा था। कुछ नहीं हो तो कम से कम अपनी वजह से दूसरों को कोई तकलीफ न हो इसका ध्यान रखने की भावना बढ़ी थी।
व्यक्तिगत एकांत जीवन की अपेक्षा सामाजिक जीवन के हर्षोल्लास में सम्मिलित होकर उसका स्वाद लेने में रुचि बढ़ी व भविष्य की रोमांसवादी एकांतप्रियता के प्रचलन का उद्भव दूर था। फिर भी 18वीं सदी के मध्य में अधिक संवेदनशील व्यक्ति इस नाटकीय सामाजिकता से ‘ऊबकर देहाती प्रशांत जीवन को पसन्द करने लगे थे।
भौतिक सुखों के प्रति लालसा बढ़ते ही सामाजिक जीवन में नारी को सबसे प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ और विशेषतः नारी को गौरवान्वित करने व प्रसन्न करने के विचार से कलाकारों ने कला-सर्जन करना शुरू किया। इसके अलावा नाट्य कला ने भी चित्रकला को प्रभावित किया।
वातो के चित्र इटालियन सुखान्तिका का स्मरण दिलाते हैं तो वृशे व ज्योवानि बातिस्ता तायपोलो के चित्र गीतिनाट्य के प्रसंग जैसे लगते हैं। ग्रोज के चित्रों की अतिशयोक्त कारुणिकता व कृत्रिम भावुकता के कारण सहज में ही वे दिदेरो व निवेल द ला शासे के दुःखपूर्ण नाटकों के चित्रित रूप जैसे लगते हैं और दाविद व उनके अनुयायियों के चित्र तो नाटकीय अभिनय से परिपूर्ण होते हैं।
उपर्युक्त विशेषताओं के बावजूद इस काल की कला आकर्षक होते हुए भी अपूर्ण सी लगती है। उसमें पवित्र भावनाओं या अलौकिकता को स्थान नहीं है, न उसमें भव्यता या सच्ची काव्यमय भावना का दर्शन है। धार्मिक चित्रण नहीं के बराबर हुआ।
चित्र में प्राचीन मिथकों का समावेश केवल अर्धवस्त्र या विवस्त्र नारी चित्रण के लिए बहाना जैसा प्रतीत होता है। कला के सबसे अधिक प्रचलित विषय ऐसे थे जिनमें विद्यमान सुख लोलुप समाज को प्रतिबिम्बित किया जाता था जैसे कि सुरुचिपूर्ण ऐंद्रिय प्रभाव के सजावटी अन्तरंग दृश्य, व्यक्ति चित्र, नारी भक्ति के दृश्य, कुलीन व्यवहार के दृश्य।
यह सही है कि वातो, तायपोलो व फ्रागोनार के चित्रों में कुछ व्यक्तिगत स्वरूप की गीतात्मकता भी है किन्तु उसमें ऐंद्रियता के अतिरिक्त किसी उदात्त विचार या भावना को स्थान नहीं है।
इस काल की फ्रेंच कला प्रतिभा सम्पन्न कलाकारों से इतना परिपूर्ण थी कि यूरोप के अन्य देशों की कला की ओर ध्यान आकर्षित न होना स्वाभाविक है। किन्तु यदि स्पेन व निम्न भूमि स्तरीय प्रदेशों की कला की जड़ता की उपेक्षा की जाये तो अन्य देशों में कुछ कलाकार प्रशंसनीय कला सर्जन में व्यस्त थे।
वातो से फ्रागोनार तक (रॉकॉको शैली)
18वीं सदी के प्रारम्भ में फ्रांस की दरवारी कला में एक नई शैली ने जन्म लिया। इस शैली पर समकालीन वास्तुकला (जो रॉकॉको कहलाती है) का स्पष्ट प्रभाव था व यह शैली रॉकॉको शैली नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शैली के कलाकारों में वातो, बुशे, फ्रागोनार व विजी ल ब्यूं प्रसिद्ध हैं।
सामर्थ्यशाली अंकन पद्धति के बावजूद नाटकीय अभिनय, काल्पनिक वातावरण व भावनाओं के अतिरंजन के कारण, अभिव्यक्ति के विचार से, इनके चित्र बड़े अस्वाभाविक से दिखायी देते हैं। समकालीन धनिक वर्ग व प्रतिष्ठित समाज की कल्पनारम्य जीवन के प्रति अभिरुचि बढ़ने से रॉकॉको शैली के चित्रों की माँग थी व इस शैली को काफी प्रोत्साहन मिला।
'रॉकॉको' शब्द की उत्पत्ति फ्रेंच शब्द ‘रॉकॉय' से हुई ''जिसका अर्थ है 'सीप'। सीप के ऊपर जिस प्रकार की गतिमान वक्र रेखाएँ होती हैं, उसी प्रकार की रेखाओं की रॉकॉको शैली में प्रमुखता थी व ऐसी रेखाओं से निर्मित आकारों की उसमें भरमार थी।
अर्थात् सर्वसाधारण जनजीवन के यथार्थ चित्रण का उसमें नाम ही नहीं था। इस शैली के चित्रों में अधिकतर नायक-नायिकाओं के सदृश, काल्पनिक स्वर्ग समान वातावरण में बनाये गये राजाओं व दरवारियों के व्यक्ति चित्र, एवं ग्रीक पुराणों से लिए देवताओं, परियों व अन्य अतिमानवीय शक्तियों के चित्र हुआ करते थे।
कलाकार ग्रोज व वस्तु-चित्रण के लिए प्रसिद्ध शार्द को छोड़ 18वीं सदी के मध्य तक फ्रेंच कला राजदरबार तक सीमित रही ।
18वीं सदी के आरम्भ में जब रीजन्सी के अधीन शासन था, 14वें लुई के शासनकालीन धार्मिक कठोरता व पावित्र्य की संकुचित भावना के विरोध में असंतोष की प्रतिक्रिया जोर पकड़ रही थी। रीजन्ट व उनके अन्य सहयोगियों ने ऐसा माहौल बनाया जो नैतिक बंधन को शिथिल करे व परिणामस्वरूप अनिर्बंध सुखोपभोग फ्रेंच समाज का एकमेव लक्ष्य हुआ।
ऐसे विलासी वातावरण में भावनाओं की अभिव्यक्ति में उन्मुक्तता की जगह सूक्ष्मता व कोमलता को प्रदर्शित करने वाले ज्यां आंत्वान वातो (1684-1721) को इस कालखण्ड के प्रमुख कलाकार के रूप से मान्यता मिलना अनोखी बात है। उनके इने-गिने मित्र हो उनकी कला की श्रेष्ठता को पहचान पाये; अन्यों के लिए उनके रहस्यात्मक व काव्यमय चित्र मनमोहक प्रसन्नतापूर्ण दृश्य-चित्र मात्र थे।
निश्चय ही उनकी कला को किसी ज्ञात कला शैली के अन्तर्गत वर्गीकृत करना सम्भव नहीं था और किसी नवीन स्वरूप की कला की उत्कृष्टता को सहज में स्वीकृत करना सामान्य जन प्रवृत्ति के विपरीत है। वातो ने पौराणिक विषयों को लेकर बहुत ही कम चित्रण किया और जब भी ऐसे किसी विषय को चुना उन्होंने उसे अपने व्यक्तिगत नजरिये से अभिव्यक्त किया।
कुछ अपवादात्मक चित्रों को छोड़, वे अपने समय के जीवनदर्शन के प्रति उदासीन रहे। उन्होंने नाट्य के एवं बगीचों व वनस्थलों में किये भ्रमणों के अनुभवों की स्मृतियों को लेकर अपनी कल्पना द्वारा उन्हें स्वप्निल सृष्टि में रूपान्तरित कर एक अनोखी दुनिया की निर्मिति की।
उनके चित्रों में अंकित भांड, इजाबेला, स्केपिनो, जेर्लिना आदि पात्र जिन इटालियन प्रहसनों से लिए गए थे वे सब अनगढ़ स्वरूप के प्रहसन थे किन्तु उन्होंने ऐसी अपरिष्कृत सामग्री लेकर भी अद्भुत सृष्टि का निर्माण किया।
वातो के चित्रों में चुने हुए विषया की मूल भावना को उद्घाटित करने के विचार को कोई महत्त्व नहीं है, न चित्रांतर्गत आकृतियाँ किसी समान उद्देश्य को लेकर सक्रिय दिखायी देती हैं, नतीजतन चित्रों के शीर्षकों में अदला-बदली सम्भव है।
वे निरन्तर अपने मित्रों व मॉडेल्स के रेखाचित्र बनाते थे और उनमें से कुछ रेखाचित्रों को लेकर अंतिम चित्र रचना करते। उनके परिशुद्ध संयोजन कौशल, संतुलित छाया प्रकाश योजना व रंगों की कोमल चित्तियों के परिणामस्वरूप उनके चित्र स्वयमेव विशुद्ध श्रेष्ठ रचना के रूप में सामने खड़े होते।
इस तरह देखा जाये तो वातो के चित्रों का विषय उनकी कलात्मक संवेदनशीलता था जिसका शाब्दिक वर्णन सम्भव नहीं है व उनको मौजूदा शीर्षकों की जगह रागमाला के नामों से पहचानना उचित होगा। उनकी पश्चिमी छाया प्रकाश युक्त अंकन शैली की उपेक्षा की जाये तो उनके चित्र भारतीय रागमाला चित्रों से काफी समानता रखते हैं।
उन्नीसवीं सदी के मध्य के बाद ही वातो को उनकी योग्यता के अनुरूप स्थान फ्रेंच कला में प्राप्त हुआ और तब से जिन्होंने भी उनकी कला की प्रशंसा की उनको उसमें उदासी की अंतर्धारा प्रवाहित दिखायी दी।
स्वाभाविकतया माना जाता है कि वातो ने अपनी मानसिक व्यथाओं को भुलाने के लिए कला के जरिये ऐसी सृष्टि की निर्मिति की जो सुखशांति, विलास व सौंदर्य से परिपूर्ण थी। उनकी यह कल्पनासृष्टि देहाती शांति का साम्राज्य जैसी लगती है जहाँ वाद्य संगीत से गुंजायमान वातावरण में प्रियतम व प्रेयसी प्यार की बातें गुनगुना रहे हैं।
फिर भी यह कलासृष्टि वास्तविक जीवन से सुसम्बद्ध व उन प्रत्यक्ष अनुभवों पर आधारित है जिन्होंने कलाकार को आनन्दित किया था। उनकी नारियों में उद्दीपक सौंदर्य की अपेक्षा मनमोहक लावण्य का दर्शन है जिसे चमकीले रेशमी वस्त्रों व शरत्कालीन ताम्रवर्णी पर्णों की आभा और निखारती है।
मृत्यु से कुछ दिन पूर्व वातो ने अपने मित्र गेर्सेत की दुकान को दर्शाति हुए एक दैनिक दृश्य का जल्द अभ्यास चित्र बनाया था जो रंग सौंदर्य व यथार्थ दर्शन के विचार से उत्कृष्ट है। यह चित्र ‘गेर्सेत की दुकान’ व उनका सुप्रसिद्ध चित्र ‘सिथेरा के लिए पोतारोहण’ (लुव्र) 18वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ फ्रेंच चित्रों में स्थान प्राप्त किए हुए हैं।
वातो के अन्य प्रसिद्ध चित्रों में ‘संगीत समारोह’, भांड व कोलम्बाइन’ (वालेस संग्रह), ‘देहाती विलास’ (शांतिली), ‘गलत कदम’ (लुव्र), ‘इटालियन प्रहसन’ (बर्लिन डाहलेम) ये चित्र हैं। वातो रुबेन्स के शिष्य थे किन्तु उनकी अंकन पद्धति रुबेन्स से अधिक सौम्य है।
वातो के दो शिष्य थे, निकोला लांक्रे (1690-1743) व ज्यां बातिस्त पातेर (1695-1736) जिन्होंने आकर्षक देहाती दृश्य चित्रित किये हैं। किन्तु उन्होंने केवल वातो का अनुसरण किया है और वह वातो के स्तर का नहीं है। 17वीं सदी के अंतिम व 18वीं सदी के आरम्भिक काल के चित्रकार निकोला द लार्जियर (1656-1746) व इयासिन्ते रिगो (1659-1743) फ्लेमिश शैली के उत्कृष्ट व्यक्ति चित्रकार थे।
रिगो ने राजा चौहदवां लुई व दरबारी कुलीन पुरुषों के व्यक्ति चित्र बनाये जबकि लार्जियर ने पेरिस के उच्च मध्य वर्ग के व्यक्तियों के। परिणामस्वरूप लार्जियर के चित्र 18वीं सदी के जनजीवन की विशेषताओं को अधिक निकट से व स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं व वे बाह्य कृत्रिम राजसी ठाटबाट से अप्रभावित हैं।
रिगो ने ‘लुई 14वां’ व ‘बोस्वे’ (लुव्र) जैसे व्यावसायिक स्वरूप के औपचारिक व्यक्ति चित्र जरूर बनाये किन्तु उनका बनाया ‘मार्विस गास्पार्द द ग्वेदान’ का व्यक्ति चित्र (एजां प्रोवान्स संग्रहालय) ओजस्वी व मोहक है। लार्जियर के व्यक्ति चित्र ‘युवा वोल्तेर’, ‘दो दण्डाधिकारी’ (कार्नावाले, पेरिस), ‘स्ट्रास्बुर्ग की सुंदरी’ (मेयर- ससुन संग्रह, लन्दन), ‘पत्नी व पुत्री के साथ आत्मचित्र’ (लुव्र) से उनकी ओजस्वी जीवन, यौवन, स्वच्छ कांतिमय त्वचा, चमकीली आँखें एवं रेशमी व मखमली वस्त्रों की चमक अंकित करने में विशेष अभिरुचि व प्राविण्य के प्रमाण हैं।
इन दो कलाकारों के पश्चात् उनका व्यक्ति चित्रकार के रूप से स्थान ज्यां मार्क नातियर (1685-1766) व लुई तोक्वे (1696- 1772) ने ग्रहण किया। नातियर प्रतिष्ठित महिलाओं में विशेष प्रशंसित थे क्योंकि उनमें सादृश्य की सुरक्षा करते हुए महिला को रूपसुंदर चित्रित करने का कौशल था।
उन्होंने राजा 14वें लुई की पुत्रियों के सामान्य कला श्रेणी के किन्तु रूप सौन्दर्य से आकर्षक चित्र बनाये यद्यपि मान्यता के अनुसार पुत्रियों में सुन्दरता का अभाव था। फिर उनका बृहदाकार व्यक्ति चित्र ‘मादाम आदेलेद द फ्रान्स’ (लुव्र) विशिष्टता दर्शक व नितान्त प्रसन्नतापूर्ण है यद्यपि सामान्यतया रसिकों को उनके घरेलू स्वरूप के व कम आडम्बरपूर्ण चित्र अधिक पसन्द हैं जैसे कि ‘अज्ञात महिला’ (वालेस संग्रह), ‘महिला चित्रकार का व्यक्ति चित्र’ (बेसांको संग्रहालय) ।
तोक्वे भी चित्र के लिए बैठने वालों को खुश करने के लिए प्रयत्नशील रहते किन्तु वे सादृश्य की ओर अधिक ध्यान देते। उन्होंने अपने समय के स्त्री-पुरुषों के कुछ विशेष सजीव चित्र बनाये हैं। उदाहरणार्थ ‘मादाम द ग्राफिन्यी’ (लुव्र), ‘मादम्मोसल द और ‘बेलबूटेदार कोट पहने हुए गायिका गेस्योते’।
फ्रान्स में ऐसे भी चित्रकार थे जो राजमहलों, नाटकगृहों व अभिजात वर्ग के निवासों की दीवारों व छतों पर नीले अवकाश में विचरण करने वाली गुलाबी या सफेद रंग की नग्नाकृतियों, रूपक कथाओं की आकृतियों या प्राचीन ग्रीक देवताओं को शीघ्रगति चित्रित करते थे।
ऐसे चित्रकारों में आन्त्वान क्यायपेल (1661-1772) उनके पुत्र शाल (1694-1752), फ्रान्स्वा लेम्यायन (1688-1737), ज्यां फ्रान्स्वा द वाय (1679-1752) व कार्ल वान लू (1705-1765) हैं। ये चित्रकार भवनों के अंतर्भागों को सुरुचिपूर्ण ऐंद्रिय आकर्षण प्रदान करने के कार्य में काफी सफल रहे किन्तु उनकी कला में गांभीर्य नहीं था।
किन्तु जब ये ही चित्रकार आसपास के जीवन के दृश्यों को चुनकर उनको चित्रित करते तब उनकी कृतियाँ नैसर्गिक रूपों से परिपुष्ट होने से सजीव प्रतीत होती जिस बात के प्रत्ययकारी उदाहरण हैं कार्ल वान लू के चित्र ‘शिकार का नाश्ता’ (लुव्र), ‘मोलियेर का भाषण’ (फिलिप ससुन संग्रह) व वाय का ‘शिकार का नाश्ता’ (राथचाइल्ड संग्रह, पेरिस ) ।
18वीं सदी के सबसे सच्चे प्रतिनिधि व सर्वत्र मान्य चित्रकार हैं फ्रान्स्वा बुशे (1703-1770)। उन्होंने विविध विषयों को लेकर चित्रण किया। पौराणिक विषयों के चित्रों के सर्जन में उन्होंने विवस्त्र युवा मानवाकृतियों का प्रयोग किया है जिसके उदाहरण है ‘लीडा व हंस’ (स्टाकहोम), ‘स्नान के बाद डायना’ (लुव्र)।
दैनिक जीवन के दृश्य को चुनकर उन्होंने ‘नाश्ता’ (लुव्र) चित्र बनाया तो ग्रामीण दृश्य को लेकर ‘देहात की मनोहारिता ‘ (लुव्र)। उनके व्यक्ति चित्रों में ‘मादाम बुशे’ (दाविद वेल संग्रह, पेरिस) का चित्र है तो प्रकृति चित्रों में ‘पवन चक्की’ (लुव्र)।
उनकी समग्र कलानिर्मिति से स्पष्ट है कि उन्होंने अपनी नैसर्गिक प्रतिभा का बड़ी मेहनत व शीघ्रता से विभिन्न दिशाओं में भरपूर प्रयोग किया व कला पर इतना प्रभुत्व प्राप्त किया कि वे प्रत्यक्ष दृश्य की सहायता लिए बिना कभी कभार उस पर सरसरी दृष्टि डालकर कला सर्जन कर सके।
किन्तु उन्होंने प्रत्यक्ष देखकर कुछ विवस्त्र मानवाकृतियों के जो अप्रतिम रेखाचित्र बनाये हैं उनका सौंदर्य देखकर लगता है कि यदि वे लोगों की अभिरुचि की ओर कम ध्यान देकर कलात्मकता की ओर अधिक समर्पित होते तो उनकी श्रेष्ठता में वृद्धि होती।
दो अन्य चित्रकार फ्रान्स्वा देपोर्त (1661-1743) व ज्यां बातिस्त उद्री (1686- 1755) ने बहुत निरीक्षण के साथ ओजस्वी वस्तु चित्र व शिकार के दृश्य चित्रित किये हैं, उदाहरण के लिए देपोर्त का ‘मुरगा, शिकार व तरकारी’ (लुव्र) व उद्री का ‘सफेद बतख’ (फिलिप ससुन संग्रह) जिसमें सभी सम्मिलित वस्तुएँ सफेद हैं।
दोनों ने प्रकृति चित्र भी बनाये हैं यद्यपि उस समय तक प्रकृति चित्रण प्रचलित नहीं हुआ था। काम्पिन्य के भवन में देपोर्त के बनाये पेरिस के परिसर के अनेक अभ्यास चित्र हैं। वे अभ्यास चित्र इतने यथार्थ हैं व उनका रंगांकन इतना निर्भीक है कि वे उस समय के सदी बाद बनाये जैसे लगते हैं।
18वीं सदी में पेस्टल-चित्रण भी काफी प्रचलित हुआ था। वेनिस के चित्रकार रोसाल्या कारिएरा ने पेस्टल की नयी क्रियाविधि का आविष्कार किया था जिससे स्वच्छ व ताजगीपूर्ण रंगों के ऐसे पेस्टल-चित्र बनाये जा सकें जो गृहांतर्भागों को मनमोहक रूप प्रदान कर लोकप्रिय हो जायें।
पेस्टल रंगों का प्रयोग केवल व्यक्ति चित्र बनाने के लिए किया जाता था व उस कला में ख्याति अर्जित करने वाले चित्रकार थे पेरोना व ला तुर। मोरिस क्वेन्ता द ला तुर (1704-1788) ने समकालीन उच्च वर्ग के व्यक्तियों के अनेक व्यक्ति चित्र बनाये। उनके स्वतंत्र व लापरवाह स्वभाव के बावजूद वे उच्च वर्ग में लोकप्रिय थे।
उनके द्वारा बनाये चित्रों में ‘द आलेम्बेर’ ‘मादाम द पाम्पादुर’ (लुव्र) व ‘उत्कीर्णक श्मिट’ (वेल-पिकार्द संग्रह, पेरिस) हैं। ला तुर स्वयं कहते थे कि अत्यधिक समय तक काम करके उन्होंने कई बार अपने चित्रों को खराब किया और यही कारण है कि उनके सेत क्वेंताँ संग्रहालय में रखे अनेक अभ्यास चित्रों से उनके पूर्ण किये व्यक्ति चित्र प्रायः निम्न स्तर के हैं।
यह बात उनके लुव्र संग्रहालय में रखे पूर्ण किये हुए ‘मादाम द पाम्पादुर’ के चित्र की उसके लिए बनाए अभ्यास चित्र से तुलना करने पर स्पष्ट हो जाती है।
धुंधलेपन के साथ बारीकियों को अंकित करने की पेस्टल रंगों की क्षमता का ला तुर ने प्रयोग कर के आश्चर्यजनक प्रभाव की कृतियाँ बनायीं।
सेंत क्वेंताँ संग्रहालय में उनके लिए पृथक् रखे कमरों में कुलीन पुरुषों, अभिनेत्रियों, बैंकरों, नर्तकों व साहित्यकारों के मुखाकृति व्यक्ति चित्र इतने सजीव हैं व उनके चेहरे-मोहरे व मुद्राएँ इतनी यथातथ्य हैं कि दर्शक को लगता है कि वह किसी असार्वजनिक वार्तालाप का दृश्य देख रहा है।
जहाँ लातुर के आश्रयदाता अभिजात वर्ग के थे ज्यां बातिस्त पेरोनों के आश्रयदाता उच्च मध्य वर्ग के थे। जहाँ ला तुर चेहरे के अस्थायी भावों को अंकित करते थे, पेरोनो ऐसे अस्थायी भावों की अपेक्षा व्यक्ति की स्थायी स्वभाव विशेषताओं को अंकित करने में रुचि रखते थे।
उनकी रंग योजना में अधिक सूक्ष्मता है तथा उनकी रंग संगति के प्रति संवेदनशीलता अधिक विकसित थी। कुछ व्यक्ति चित्रों को देखकर लगता है कि उनको बनाते समय उन्होंने व्यक्ति के चेहरे के सादृश्य को यथातथ्य अंकित करने पर ध्यान केन्द्रित किया है जैसे कि ‘मादाम शेवोते’ (ओर्लेआन्स), ‘शार्ल लेनोम द्यु कुद्राय’ (कोन्याक जे संग्रहालय, पेरिस), ‘मादाम देस्क्रीशे’ (निजी संग्रह), ‘उत्कीर्णक गाब्रिएल यूक्विय’ (निजी संग्रह) ।
किन्तु अन्य व्यक्ति चित्रों को देखकर लगता है कि उनके लिए चित्र के लिए बैठने वाला व्यक्ति नीले, हरे व सुनहरी रंगों की सूक्ष्य काव्यात्मक सुसंगति की निर्मिति के लिए एक सुअवसर मात्र था जैसे कि उनके अत्युत्कृष्ट चित्र ‘अज्ञात महिला’ (ज्या द्युरां संग्रह, जेनिवा) से प्रतीत होता है।
जहाँ ला तुर की कला गद्यात्मक व कभी रुखापन लिए हुए है वहाँ पेरोनो की कला अतिसंवेदनशील व काव्यात्मक है। पेरोनो ने तैल रंगों में भी कुछ व्यक्ति चित्र बनाये हैं और वे भी उनके पेस्टल में बनाये चित्रों के समान उत्कृष्ट हैं।
‘द्युशेस द आयँ’ (दाविद वेल संग्रह) एक बिलकुल साधारण नाक-नक्श वाली महिला का व्यक्ति चित्र होते हुए उसे उन्होंने अपनी प्रतिभा से श्रेष्ठ कृति के रूप में परिवर्तित किया है। उनका व्यक्ति चित्र ‘मादाम द सोर्काविल’ (लुव्र) देखकर विश्वास होता है कि असुंदर चेहरा होते हुए वह मोहक व्यक्तित्व की महिला होगी।
जोसेफ द्युप्लेसिस (1725-1802)
प्रोवान्स के मूल निवासी व्यक्ति चित्रकार थे जिन्होंने बँकर्स व प्रतिष्ठित व्यक्तियों को छोड़ मध्यम वर्ग के अन्य लोगों के चित्र बनाये। उनके चित्र ‘वाद्य यंत्र के साथ ग्ल्यूक’ (विएन्ना) व ‘मादाम लेन्वार’ इस बात का प्रमाण हैं कि वे ऐसे व्यक्ति चित्रकार थे जो बैठने वाले व्यक्ति की स्वभाव विशेषताओं को यथातथ्य अंकित करते थे व उन्होंने खुशामद करने या कुछ कम करने के विचार से चित्रण नहीं किया।
उनके चित्रों में जहाँ संगीतकार अंतःप्रेरित व तल्लीन दिखायी हैं वहाँ सुकोमल चेहरे-मोहरे की मादाम लेन्वार भलाई, सूक्ष्मदृष्टि व सौम्य विद्वेष की सम्मिश्र भावनाओं से प्रेरित व्यक्तित्व की महिला प्रतीत होती है।
सौंदर्य वृद्धि की अपेक्ष वास्तविकता को अंकित करने की यह प्रवृत्ति 17वीं सदी के डच चित्रकारों की विशेषता थी जो फ्रेंच व्यक्ति चित्रकार जाक आवेद (1702-1766) की कला में दृष्टिगोचर है जिन्होंने अपना युवा काल अॅम्स्टरडेम में बिताया। उनके व्यक्ति चित्र ‘माविव द मिराबी’ (लुव्र) व ‘मादाम क्रोजा’ (मोंपेलिय संग्रह) उनको 18वीं सदी की फ्रेंच कला में सम्मान का स्थान दिलाने में सक्षम हैं।
ज्यां बाप्तिस्त सिमेआं शार्द ( 1704-1788), वातो व फ्रागोनार के साथ अपने काल के सबसे महान कलाकार माने जाते हैं। अपेक्षाकृत अल्पकालिक समय के कलाध्ययन के पश्चात् शार्दं ने वस्तुचित्र बनाना शुरू किया जो शीघ्र ही बिकने लगे। वे कल्पना शक्ति सम्पन्न नहीं थे।
वे मंदगति से काम करते व चित्र पूर्ण करने में काफी समय लगाते। आवेद की सलाह से उन्होंने वस्तुचित्रण की जगह मेट्सु, टर्बार्ख व पीटर डे होख के समान दैनिक जीवन के दृश्यों के चित्र बनाना आरम्भ किया।
उन्होंने गतिपूर्ण दृश्यों को चित्र विषय के रूप में कभी नहीं चुना व उनके दैनिक दृश्यों के चित्रों में चित्रित आदमी निश्चत प्रतीत होते. हैं जिस तरह उनके वस्तु चित्रों में चित्रित वस्तुएँ। उनके लिए माताएँ व बच्चे चित्रण के लिए वहाना मात्र थे, जिस तरह चीनी मिट्टी के बरतन, शीशियों व शराब के गिलास।
उनकी कलाकृतियों की श्रेष्ठता उनमें स्पष्टतया दृष्टिगोचर कलात्मक गुणों में हैं—ये हैं छटाओं का समुचित प्रयोग व विस्तार, रंगों के तथ्यात्मक और विविध सूक्ष्म, कुशल तूलिकाघातों से निर्मित सौंदर्य।
इन्हीं गुणों द्वारा शार्द वस्तुचित्रों में फलों की मुलायमता, धातु के बरतनों का चमकीलापन, गिलासों की पारदर्शिता तथा दैनिक दृश्यों के चित्रों में मानव शरीरों की गरमाहट, रुमाल की सूक्ष्म मिश्रित सफेदी, रेशम की चमक-दमक यथातथ्य दर्शाने में सफल हुए।
इसी तरह उन्होंने हमारे दैनिक जीवन की वस्तुओं के उपेक्षित सौंदर्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया। दृश्य सौंदर्य के विचार से उनके चित्र ‘रसोई घर की नौकरानी’ (लिश्टेनश्टाइन संग्रह), ‘लट्टू के साथ बच्चा’ व ‘खानपान प्रबंधक’ (लुव्र) उतने ही आकर्षक हैं जितने ‘खरगोश’ (स्टाकहोम) व ‘चिलम व गिलास’ (लुव्र)।
उत्तरायु में बीमारी के कारण तैल चित्रण के लिए आवश्यक लम्बे समय तक काम करना कठिन होने से शाद 1770 के पश्चात् पेस्टल चित्रण करने लगे और उनके पेस्टल से बनाये ‘आत्म-चित्र’ (राथचाइल्ड संग्रह) व ‘चित्रकार की पत्नी का व्यक्ति चित्र’ (लुव्र) विशेष प्रसिद्ध हैं।
पेस्टल चित्रण के मामले में वे अपने समय से आगे निकल चुके थे। वे पेस्टल के छोटे-छोटे आघातों से चित्रण करते-जिसका बाद में चित्रकार देगा ने अनुसरण किया—और साथ ही छटाओं के विरोध का कुशलतापूर्ण प्रयोग कर के प्रकाश के विभिन्न प्रभावों को दर्शाते। अठारहवीं सदी में चित्रकारों ने पूर्ववर्ती चित्रकार क्लोद लोरें का अनुसरण कर ऐतिहासिक स्मारकों व विषयों का अंतर्भाव करके प्रकृतिचित्रण करने की रूढ़ि को त्याग कर विशुद्ध प्रकृति चित्रण आरम्भ किया।
जोसेफ बर्ने (1714-1789) के स्वाभाविक ढंग से बनाये नैसर्गिक प्रकाशयुक्त चित्र ‘पोंत रोत्तो’ (लुन) में कोरो के इटालियन प्रकृतिचित्रों के पूर्व चिह्न दृष्टिगोचर हैं। किन्तु उनके लुन संग्रहालय में रखे मार्साय बन्दरगाह के बड़े चित्र अव्यवस्थित व यंत्रवत चित्रित किये लगते हैं।
यूबेर रोबर (1733-1808) ने पूर्ण रूप से समझा कि क्लोद लोरें व पुस की तरह ऐतिहासिक विषयों को महत्त्व देकर प्रकृतिचित्रण करना पुराना पड़ गया था किन्तु उन्होंने उसे अभिनव आकर्षक रूप से प्रस्तुत करना शुरू किया।
उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं का स्मरण दिलाने वाली प्राचीन इटालियन वस्तुओं की जगह खण्डहरों के साथ इटालियन ग्रामीणों के प्राकृतिक जीवन को चित्रित करना शुरू किया। उन्होंने बैठकों को सुशोभित करने के लिए बहुत उपयुक्त चमकीले रंगों के आकर्षक प्रकृति चित्र बनाये।
उनके चित्रों में ग्रामीण काव्यात्मकता थी व वे उस गंवारूपन से मुक्त थे जिसे समकालीन संग्राहक नापसन्द करते थे। लम्बे समय तक रोम में रहने के पश्चात् वे फ्रांस वापस आये व कुछ समय तक प्रोवान्स में कार्य कर के पेरिस के निवासी बन गये व उन्होंने वहाँ के शहरी दृश्यों के चित्र बनाये।
उनकी सब कलाकृतियों से जैसे कि ‘तिवोली के जल-प्रपात’ (लुव्र), ‘वर्साय के बगीचे, 1775’ (वर्साय), ‘नोइली का पुल’ (कार्नावाले संग्रह) वे एक बुद्धिमान, सूक्ष्मदर्शी व कोमल रंग संगति के प्रति संवेदनशील चित्रकार के रूप में प्रभावित करते हैं।
कभी वे इष्ट परिणाम के लिए परिश्रम करते हुए भी नजर आते हैं; फिर भी ऐसी स्थिति में उनकी निरीक्षण शक्ति व वास्तविकता को यथातथ्य अंकित करने की प्रवृत्ति प्रकट होती है। लुई गाब्रियल मोरो (1739-1805), जो मोरो वरिष्ठ नाम से ख्यातनाम थे, ने पेरिस के आसपास के प्रदेश के सौम्य प्रकाश से युक्त छोटे आकार के प्रकृति चित्र बनाये।
उनकी श्रेष्ठ श्रेणी के चित्रकारों में गणना नहीं की जा सकती फिर भी उनके ‘बेलेव्यु की पहाड़ी का दृश्य’ (लुव्र) व ‘मांत्रोई के निकट पेरिस का बाह्यांचल’ चित्रों से स्पष्ट है कि देहाती प्रदेश के प्रति हार्दिक प्रेम के कारण वे प्रकृति चित्रण की ओर प्रेरित हुए थे।
ज्यां बातिस्त ग्रोज (1725-1806) उन बिरले कलाकारों में से हैं, जिनकी कला के निश्चित स्वरूप के बारे में कुछ कहना कठिन होता है। उनकी प्रतिभा के बारे में कोई संदेह नहीं है जो उन्होंने अपनी श्रेष्ठ कृतियों द्वारा सिद्ध की है किन्तु अत्यधिक अहंकारी व सफलताकांक्षी होने से उनकी कला की स्वाभाविकता बाधित हुई है।
उन्होंने उन चित्रों से लोकप्रियता जरूर अर्जित की जिनसे उन्होंने अशिष्ट तरीके से दर्शकों की भावुकता को आकर्षित किया जैसे कि ‘पिता का शाप’ व ‘ग्रामीण वधू’ (लुव्र) या जिनसे उन्होंने दर्शकों की घिसीपीटी रुचि को प्रसन्न किया जैसे कि ‘टूटा हुआ घड़ा’ (लुव्र) व ‘प्रातःकालीन प्रार्थना’ (मांपेलिय संग्रह) जिनमें किशोरियों को अपनी बड़ी-बड़ी अबोध आँखें घुमाते हुए व अपने अविकसित स्तनों को सलज्ज अनावृत्त करते चित्रित किया है।
अविवेकी उद्दीपकता ने जिस तरह ग्रोज की प्रतिभा को हानि पहुँचायी है उसी तरह जब भी उन्होंने नैतिक विषय को लेकर चित्रण किया है उनकी प्रतिभा के बारे में संदेह उत्पन्न होता है। ऐसे चित्रों में उनकी रंगयोजना अपरिपक्व है व रेखांकन कमजोर व रटा हुआ है।
विश्वास नहीं होता कि उन्होंने ही ‘उत्कीर्णक विल का व्यक्ति चित्र’ (जाक मार्त आन्द्रे संग्रह, पेरिस), ‘मादाम पोर्स’ (आंजे), ‘प्रमुदित मां’ (बायमान्स संग्रह, रोटरडम) जैसे पारदर्शी चंचल , छायाओं से युक्त सशक्त ओजस्वी चित्र बनाये।
ज्यां ओनोरे फ्रागोनार (1732-1806)
इस सदी के ऐसे अंतिम कलाकार थे जिनकी कला में युग चेतना के साथ पूर्ववर्ती कलाकारों की समग्र उपलब्धियाँ दृष्टिगोचा हैं। उन्होंने वातो के समान नारी भक्ति के, बुशे के समान काम विषयक पौराणिक, शाद के समान दैनिक प्रसंगों के एवं वर्ने के रोबर के समान प्रकृति दृश्यों के चित्र बनाये।
उन्होंने श्रेष्ठ डच, फ्लेमिश व इटालियन कलाकारों की कला की विशेषताओं से बहुत कुछ ग्रहण किया किन्तु अपनी प्रतिभा से उसे इस तरह रूपान्तरित किया कि उससे उनकी कला की मौलिकता प्रभावित नहीं हुई।
असाधारण कौशल के अतिरिक्त उनकी कला में अपरिमित विविधता थी। उन्होंने कुछ चित्र इतने सूक्ष्मता के साथ चित्रित किये हैं कि वे अवैयक्तिक स्वरूप के लगते हैं तो उनके अन्य चित्र निर्भीक अंकन पद्धति के साथ शीघ्रगति से पूर्ण किये हैं।
तात्कालिक मिजाज के अनुसार उनके चित्रों की भावात्मक अभिव्यक्ति बदलती गयी – ‘साया उतारना’ व ‘स्नानमग्ना’ (लुव्र) वैषयिक हैं, ‘प्यार का आह्वान’ (शिफ संग्रह, न्यूयार्क) संवेदनशील है, ‘झूला’ (वालेस संग्रह) नटखट है, ‘सेंत नाम के पादरी का व्यक्ति चित्र’ (बार्सेलोना) प्राविष्य दर्शक है, ‘धोबन’ (आमियां संग्रह) सहृदय निरीक्षक का परिचायक है, ‘कठपुतली’ (वेल पिकार्द संग्रह, पेरिस) काव्यात्मक है तो ‘रेनो व आमद’ में देलाक्रा व रोमांसवाद के पूर्वचिह्न हैं।
फ्रागोनार प्रसन्न अविकल सुखवादी प्रकृति के कलाकार थे व उनकी मानसिकता ग्रोज के समान संदेहग्रस्त नहीं थी। अपनी कला द्वारा उन्होंने मातृत्व, बचपन व पारिवारिक सुखद जीवन का गुणगान किया है। उनकी निर्विवाद प्रवीणता के बावजूद, मुक्त तूलिका संचालन को ढीला छोड़ने के कारण उनके कुछ जल्द बनाये अभ्यास चित्र व पतले रंगों से बनाये तैल चित्र संतोषजनक नहीं हैं।
किन्तु अन्य चित्रों में प्रकट उनका असाधारण स्वच्छंद अंकन-कौशल व निर्भीक नाविन्यपूर्ण रंग संगति प्रमाणित करते हैं कि वे समय से काफी आगे थे व उनकी कला में उन्नीसवीं सदी के कलाकारों की प्रयोगशीलता के पूर्व चिह्न दिखायी देते हैं।
इंग्लैण्ड की कला का उदय होल्वाइन व वॅन डाइक के समय से, विदेशी कलाकारों की सफलता को देखकर, इंग्लैण्ड के कला प्रेमियों की धारणा बन गयी थी कि विदेशी कलाकारों की कला निश्चय ही श्रेष्ठ है व इंग्लैण्ड के कलाकारों को उनका अनुसरण करने के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं है।
ऐसी स्थिति में असाधारण प्रतिभा के धनी इंग्लिश कलाकार होगार्थ ने अपनी स्वतंत्र स्वरूप की कला द्वारा इंग्लैण्ड के कला प्रेमियों व कलाकारों के लिए नया मार्ग खोलकर इंग्लिश कला को स्वतंत्र पहचान प्रदान की होगार्थ की कला को देखकर सबको विश्वास हुआ कि विदेशी कलाकारों द्वारा निर्धारित कला विषयक नियमों की अनुपालना की आवश्यकता नहीं है तथा इंग्लिश कलाकार प्रादेशिक जनजीवन व दृश्यों को चुनकर श्रेष्ठ कृतियों की निर्मिति कर सकते हैं।
होगार्थ व उनके उत्तरवर्ती इंग्लिश कलाकारों ने प्रत्यक्ष जीवन से विषयों को चुनकर व्यक्ति चित्र, दैनिक प्रसंगों के चित्र व प्रकृति चित्र बनाये यद्यपि फैशनपरस्त ग्राहकों के लिए ऐसे व्यक्ति चित्र भी बनाये गये जिनमें चित्र के लिए बैठने वाले व्यक्ति को वास्तविक रूप से भी अधिक आकर्षक दर्शाया हो।
इंग्लिश कलाकारों 1 में फ्यूसेली व ब्लेक ये दो अपवादात्मक कलाकार थे जिन्होंने इन सब कलाकारों से भिन्न मार्ग अपनाया।
विल्यम होगार्थ (1697-1764)
विल्यम होगार्थ ने मुख्य रूप से दैनिक जीवन के विषयों के चित्रण से ख्याति अर्जित की यद्यपि वे व्यक्ति चित्रकार के रूप में भी प्रसिद्ध थे। ग्रोज के समान होगार्थ ने उपदेशक का दृष्टिकोण अपना कर चित्रों द्वारा सामाजिक कुरीतियों की आलोचना शुरू की।
वे एक ही विषय को चुनकर चित्रमालिका बनाते जिस तरह उपन्यास को अध्यायों में बाँटते हैं। उनकी ऐसी चित्रमालिकाओं में ‘वेश्या की प्रगति’ (जिसके उत्कीर्णन उपलब्ध हैं), ‘रैंक की प्रगति’, (स्लोन संग्रहालय), ‘विवाह के रिवाज’ (नेशनल गैलरी, लंदन) हैं, किन्तु जहाँ ग्रोज के उपदेशपरक चित्र आडम्बरी भावुकता व नीरस रंग योजना से दूषित हैं वहाँ होगार्थ की चित्रमालिकाएँ प्रमाणित करती हैं कि वे प्रभावशाली चित्रकार थे, तेजस्वी रंगों का प्रयोग करते थे सत्रहवीं सदी के डच चित्रकारों के, विशेषतया यान स्टेन के, अनुगामी थे।
उनके सर्वोत्कृष्ट दैनिक घटनाओं के चित्रों में से ‘भिखारियों के गीतिनाट्य का दृश्य’ (नेशनल पोट्रेट गैलरी, लंदन) एवं व्यक्ति चित्रों में से ‘होगार्थ के नौकर’ (नैशनल गैलरी, ‘लंदन) व ‘गरीब लड़की’ (नेशनल गैलरी) विशेष प्रसिद्ध हैं। होगार्थ से लेकर करीब एक सदी तक प्रसिद्ध ब्रिटिश व्यक्ति चित्रकारों की परम्परा बनी रही जिसका आरम्भ वॅन डाइक के प्रभाव में हुआ किन्तु जो विशेषतया रेम्ब्रांट व तिशेन की कला से प्रेरित थी।
सर जोशुआ रेनाल्ड्स (1723-1792) अध्ययन के हेतु इटली गये व वहाँ 3 साल तरह रहकर वापस आये। लंदन आने के बाद वे शीघ्र ही सफल व्यक्ति चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हुए व उनको 1768 में प्रस्थापित रॉयल अॅकेडेमी का प्रथम अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उनके समकालीन ब्रिटिश अभिजातवर्ग के व्यक्तियों एवं प्रमुख मान्यता प्राप्त व्यक्तियों के व्यक्ति चित्र एक साथ यथातथ्य के श्रेष्ठत्व लिए हैं, उदाहरणार्थ सेम्युअल जानसन का उद्धत व पंडिताऊ स्वभावदर्शी व्यक्तिचित्र, लार्ड हीथफील्ड का आंधीयुक्त आसमान की पृष्ठभूमि पर चमकीले लाल कोट पहने वीरोचित मुद्रा में बनाया व्यक्ति चित्र (दोनों नेशनल गैलरी, लंदन में हैं) और लारेन्स स्टर्न (लॅन्सडाउन संग्रह, लंदन) का रहस्यपूर्ण हास्य के साथ बनाया व्यक्ति चित्र।
उनके महिलाओं के व्यक्ति चित्रों में वे व्यक्ति चित्र अधिक आकर्षक हैं जिनमें चित्र के लिए बैठी महिला सौंदर्य प्रदर्शन की अपेक्षा अपने आप में ही प्रसन्न नजर आती है, उदाहरणार्थ ‘काउंटेस स्पेन्सर व पुत्री’ (अर्ल स्पेन्सर संग्रह), ‘किट्टि फिशर’ (ग्रेन्विल प्रोबी संग्रह) । रेनाल्ड्स ने पूर्ववर्ती डच, फ्लेमिश व वेनिस कलाकारों की कला से बहुत कुछ सीखा व उसको आत्मसात् कर निजी व्यक्तिगत शैली को विकसित किया।
व्यक्तिचित्रों से किया जिनमें व्यक्तियों व पृष्ठभूमि के निसर्ग दृश्यों को बहुत सावधानी से टामस गेन्सबरो (1727-1788) ने अपनी कला का आरम्भ छोटे आकार के अंकित किया गया है – ऐसे चित्रों में ‘एंड्रयूज व पत्नी’, (एंड्रयूज संग्रह, सरे), ‘चित्रकार अपनी पत्नी व पुत्री के साथ’ (ससून संग्रह) उल्लेखनीय हैं। 1760 में गेन्सबरो ने बाथ को अपना स्थायी निवास बनाया जहाँ वे लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे व उनकी कलाकृतियों की माँग बढ़ी। उनकी अंकन पद्धति कुशलतापूर्ण होते हुए प्रायः सतही प्रतीत होती है।
यद्यपि यह सही है कि उन्होंने अपने व्यक्ति चित्रों द्वारा चित्र के लिए बैठने वालों के आकर्षक व्यक्तित्व को अमरत्व प्रदान किया है; ‘श्रीमती रोबिन्सन’ (वालेस संग्रह), ‘सुश्री एलिजाबेथ सिंगल्टन’ व ‘सुश्री मागरिट गेन्सबरो’ (दोनों नेशनल गैलरी, लंदन में) इस बात के उल्लेखनीय उदाहरण हैं।
उन्होंने कुछ निसर्ग दृश्य व देहाती दृश्य भी चित्रित किये किन्तु अंकन पद्धति की शिथिलता के कारण उनमें ग्रामीण जीवन के प्रति आत्मीयता का अभाव है।
सर्वोच्च इंग्लिश व्यक्ति चित्रकार रेनाल्ड्स व गेन्सबरो के अलावा जार्ज रॉम्नी (1734-1802) भी एक प्रमुख व्यक्ति चित्रकार थे जिनकी रंग-योजना साधारण होते हुए उनमें ऐसी काम चलाऊ कुशलता थी जिससे वे व्यक्ति चित्र को सुरुचिपूर्ण व आकर्षक बनाते थे, उदाहरणार्थ उनके व्यक्ति चित्र ‘श्रीमती कावर्डाइन व शिशु’ (हिलिंगफोर्ड संग्रह, लंदन)।
इनके अलावा व्यक्ति चित्र ‘अध्यापिका’ (लायड संग्रह, लंदन) के चित्रकार जॉन ओपी (1761-1807) व व्यक्ति चित्र ‘श्रीमती विल्यम्स’ (एशक्राफ्ट संग्रह, लंदन) के चित्रकार जॉन हॉजर (1757-1810) अन्य प्रमुख इंग्लिश व्यक्ति चित्रकार थे। इन्हीं के अलावा दो समकालीन स्काटिश व्यक्ति चित्रकार थे हेनरी रेबर्न (1756-1823) व अॅलन रॅम्से (1713-1784) जो अधिक प्रतिभावान व व्यक्तिगत विशेषता लिए हुए थे।
रेबर्न ठोस कुशलता व विषयानुकूल अंकन पद्धति के धनी थे व उन्होंने बच्चों की शारीरिक ताजगी व उत्साह को तथा स्काटिश महिलाओं के स्वास्थ्यपूर्ण सौंदर्य को उतना ही सफलतापूर्वक चित्रित किया है जितना कि राष्ट्रीय पोशाक पहने हुए अधिकारी के स्वाभाविक आत्मविश्वास को। फिर भी उनके चित्रांतर्गत प्रकाश का प्रभाव अकसर आधुनिक रंगमंचीय प्रकाश योजना के सदृश दिखायी देता है जिसे हम उनके चित्र ‘जॉन क्लार्क व पत्नी’ (लेडी बाइट संग्रह, लंदन), ‘क्लिरी के विल्यम फर्ग्युसन’ (नोवार संग्रह, लंदन) व ‘ग्लेनगरी के कर्नल एल्स्टेअर मेक्डोनेल’ (नेशनल गैलरी, स्काटलैंड) में देखकर अनुभव कर लेते हैं।
रेबर्न से रॅम्से की कला शैली बिल्कुल भिन्न स्वरूप की है किन्तु वह भी बहुत आकर्षक है। उन्होंने समकालीन व्यक्ति चित्रकारों के समान अंकन पद्धति की निपुणता पर विशेष निर्भर होने की अपेक्षा नैसर्गिक रूप के यथातथ्य चित्रण पर अधिक बल दिया है। उनके व्यक्ति चित्र ‘ग्रिसेल, काउंटेस स्टेनहोप’ (स्टेनहोप संग्रह, चेवेनिंग) व ‘चित्रकार की पत्नी’ (नेशनल गैलरी, स्काटलैंड) यथार्थ प्रकाश-प्रभाव, कोमल रंग संगति के साथ दृढ़तापूर्वक चित्रित किए हुए हैं।
इस काल के अंतिम इंग्लिश व्यक्ति चित्रकार थे सर टॉमस लारेन्स (1769-1830) जो अपने काल में समूचे यूरोप में ख्यातनाम थे व उनको राजनयिक सम्मेलनों के दर्शक के रूप में अनेक प्रमुख राजनेताओं के व्यक्ति चित्र बनाने के अवसर प्राप्त हुए।
स्त्री सौंदर्य को आकर्षक रूप में चित्रित करने की उनकी कुशलता के कारण फैशनप्रिय महिलाओं के वे प्रिय चित्रकार थे। उनके कुछ व्यक्ति चित्र केवल प्रदर्शनीय महत्त्व के हैं किन्तु उनके ‘आस्ट्रिया के आर्चड्यूक चार्ल्स’ व ‘सातवें पोप पायस’ (राज संग्रह) एवं ‘रानी चार्लोट’ (नेशनल गैलरी, लंदन) जैसे अन्य व्यक्ति चित्र उनकी असाधारण अंकन कुशलता को प्रमाणित करते हैं।
उपर्युक्त चित्रकारों के अलावा योहान्न त्सोफानी (1735-1810) एक जर्मन चित्रकार थे जिन्होंने आयु के 23वें वर्ष में लंदन आकर चित्रकारी आरम्भ की थी। व्यक्ति चित्रों के अलावा वे छोटे आकार के परिवार सदस्यों या मित्र-मंडली के सामूहिक व्यक्ति चित्र बनाते थे जो ‘वार्तालाप चित्र’ नाम से प्रसिद्ध थे।
ये चित्र पूर्ववर्ती सदी के डच चित्रों से मिलते-जुलते हैं। इसके उदाहरण हैं ‘डटन परिवार’ (वायकाउंट बिअरस्टेड संग्रह) व ‘श्रीमती ओस्वाल्ड’ (लार्ड ली, फेअरहाम, संग्रह) उनके चित्र कभी निर्जीव लगते हैं व उनका प्रकाश प्रभाव धात्वीय चमक के समान लगता है फिर भी यथार्थता व कभी मौलिक रंगसंगति के कारण वे आकर्षक बने हैं।
होगार्थ के बाद दैनिक जीवन के विषयों को चुनकर चित्र बनाने की मेट्स व टंबख जैसे डच चित्रकारों की परम्परा का किसी इंग्लिश चित्रकार ने अनुसरण नहीं किया।
जार्ज मोरलैंड (1763-1804) ने देहाती जीवन के अनेक कथांशों को चित्रित किया जिसके उदाहरण हैं, ‘डाकिये की वापसी’, ‘ग्रामीण वार्तालाप’ (एल्टन हाल ) किन्तु चित्रों में सूक्ष्म निरीक्षण का अभाव है। किन्तु जार्ज स्टब्स (1724-1806) के प्राकृतिक दृश्यों की पृष्ठभूमि पर आदमियों व जानवरों से युक्त छोटे आकार के चित्र चरम यथार्थता व अतिसावधान अंकन पद्धति के साथ बनाये हुए हैं उदाहरण के लिए ‘सफेद घोड़े पर पोर्टलैंड के ड्यूक’, ‘लुनेरे’ ‘सर जान नेल्थार्प दो कुत्तों के साथ तीतर का शिकार करते हुए’।
अठारहवीं सदी के अंतिम काल के, दैनिक जीवन के विषयों के सच्चे इंग्लिश चित्रकार थे टामस रोलेंडसन (1756-1827)। उनके कला कार्य में तैलचित्र नहीं हैं। उन्होंने केवल जलरंगों में चित्र बनाये जिनमें खुले दिल से समकालीन जीवन का उपहास किया है। उनके मुक्त रेखांकन का जोश, सजीवता व निर्भीकता प्रशंसनीय हैं, जिसके सामने रेनाल्ड्स व गेन्सबरो के रेखांकन सौम्य व स्थापित स्वरूप के लगते हैं।
19वीं सदी की कला में महत्त्वपूर्ण स्थान पाने वाली इंग्लिश भूदृश्य चित्रण शैली का आरम्भ रिचर्ड विल्सन (1714-1782) से हुआ। उन्होंने कला सर्जन का आरम्भ व्यक्ति चित्रण से किया व तत्पश्चात् आयु के 35वें साल में वे इटली गये। वहाँ रोम में उनको जोसफ वर्नेर ने भूदृश्यचित्रण करने की सलाह दी।
इंग्लैण्ड लौटते ही उन्होंने स्मृतियों से रोम के दृश्यों के छोटे आकार के चित्र बनाना शुरू किया जिनकी अंकन पद्धति प्रायोगिक स्वरूप की है। ‘आवर्नस का सरोवर’ (नेशनल गैलरी, लंदन) इस आरम्भिक शैली का उदाहरण है।
इसके बाद वे अपने मूल प्रदेश वेल्स गये व वहाँ उन्होंने अनेक भूदृश्य चित्रित गैलरी)। विल्सन के भूदृश्यों में रूढिगत तत्त्वों का प्राबल्य है फिर भी चित्रित आसमानों किये जिसके उदाहरण हैं, ‘स्नोडन’ (नाटिंगहेम संग्रहालय), ‘वेल्स घाटी’ (मेंचस्टर शहर व जलाशयों की जगमगाहट से स्पष्ट है कि वे प्रकाश के प्रभाव के सूक्ष्मतापूर्ण दर्शन के प्रति विशेष संवेदनशील थे।
जान क्रोम (1768-1821 ) ने इटालियन कला की जगह डच भू-दृश्य चित्रण का अध्ययन कर व प्रत्यक्ष प्रकृति का निरीक्षण कर भू-दृश्य चित्रित किये। उन्होंने अपने जन्म स्थान नारविच के आसपास की अजोत भूमियों के एवं मछुवाही बंदरगाहों के नैसर्गिकतावादी चित्र बनाये जिसके उदाहरण हैं ‘माउसहोल्ड भूमि’ (विक्टोरिया व अल्बर्ट संग्रहालय, लंदन) ‘यारमाउथ घाट’ (कैसल संग्रहालय, नारविच), ‘येर नदी पर चाँदनी’ (हावर्ड संग्रह, लंदन) ।
19वीं सदी की इंग्लिश चित्रकला में जलरंग चित्रण का महत्त्व इतना बढ़ गया था कि इस विधि से चित्रण कर विशेष ख्याति अर्जित करने वाले दो चित्रकारों का उल्लेख आवश्यक होता है जब जलरंग चित्रण को कला की स्वतंत्र शाखा के रूप में मान्यता प्राप्त हो रही थी।
ये चित्रकार हैं आलेक्सांडर कोजेन्स (1715-1786) व उनके पुत्र जॉन रोबर्ट (1752-1797)। आलेक्सांडर के भू-दृश्य चीनी भूदृश्यों के समान प्रकृति के सांकेतिक रूप जैसे हैं जॉन राबर्ट के कोमल रंग संगति के स्वित्जरलैंड व इटली के भूदृश्यों में यथार्थता को विशेष महत्त्व न देकर प्रकाश के विशेष प्रभाव को काव्यात्मक रूप में चित्रित किया गया है।
कोजेन पिता-पुत्रों की कला में जो रोमांसवादी तत्त्व दृष्टिगोचर है वैसा ही तत्त्व दो अन्य समकालीन कलाकारों की कला में देखने को मिलता है। वे कलाकार हैं स्विस कलाकार फ्यूसेलि व इंग्लिश कलाकार विल्यम ब्लेक ।
विल्यम ब्लेक (1757-1827)
रेनाल्ड्स व गेन्सबरो के फैशनप्रिय लोगों को खुश करने के लिए बनायी कला से तथा होगार्थ की यथार्थवादी कला से घृणा करते थे। ब्लेक अलौकिक स्वप्नों के द्रष्टा कलाकार थे। उनके कथनानुसार उनको आयु के चौथे साल से ही ईश्वर व भविष्यवक्ताओं के प्रत्यक्ष दर्शन होते थे।
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि वे भौतिक जीवन से पूर्णतः विरक्त हुए थे। वे राजनीतिक अत्याचार, दास प्रथा व बाल श्रम के खिलाफ थे। वे माइकिलेंजेलो व रेफिल की कला के प्रशंसक थे जिनकी कला से वे उत्कीर्णनों द्वारा परिचित हुए थे। ब्लेक ने दोनों के वीरोचित मानवाकृतियों का अनुसरण किया किन्तु उनकी आकृतियाँ निर्बल व अस्थिविहीन हैं व उनकी चित्रित सृष्टि इहलोक से निराली प्रतीत होती है।
उनकी अंकन विधि का प्रमुख गुण है गतिशील रेखात्मकता । वे आध्यात्मिक कवि के रूप में भी प्रसिद्ध हुए यद्यपि उनके जीवन काल में उनको कुछ लोग पागल मानते थे । 18वीं सदी की इटालियन कला 19वीं सदी के पूर्व काल में माना जाता था कि सत्रहवीं सदी में इटालियन कला का जो हास आरम्भ हुआ था वह अठारहवीं सदी में और बढ़ता गया व तायपोलो व कानालेत्तो भी प्रतिकूल आलोचना से मुश्किल से बच पाये।
किन्तु अब हाल में इस मान्यता में परिवर्तन आया है। यह सही है कि 18वीं सदी में तायपोलो के अलावा कोई उच्च कोटि का कलाकार इटली में नहीं हुआ। फिर भी उस सदी में इटली के ऐसे अनेक कलाकार हुए जिनकी कला को सामान्य दरजे की मान कर उपेक्षा नहीं की जा सकती। 18वीं सदी में इटली का प्रमुख कला केन्द्र वेनिस था।
सदी के उत्तरार्ध में रोम समस्त यूरोप के कलाकारों, आलोचकों, गुणग्राहकों के सम्मेलनों का स्थान हो गया। किन्तु ऐसे सम्मेलनों में उपस्थित प्रमुख व्यक्ति विदेशी थे। विंकेलमान, टिश्बाइन, मेन्ज, गोएटे जर्मन थे; दाविद् फ्रेंच थे; फ्यूसेलि व एंजेलिका कापमन एंग्लो-स्विस थे।
रोम में पिरानेसी को छोड़ सब साधारण श्रेणी के कलाकार थे व पिरानेसी भी मूलतः वेनिस के कलाकार थे। नेपल्स के कलाकार फ्रान्चेस्को सोलिमेना (1657-1747) ने नेपल्स के गिरजाघरों को बृहदाकार भित्ति चित्रों से अलंकृत किया जिनमें विशाल वास्तुशिल्प भवनों में कुछ प्रकाशित हिस्सों में तो कुछ अंधेरे में विरोधी मानव समूहों को उन्होंने चित्रित किया है
जिसके ‘साइमन मागस का पतन’, ‘संत पौल का धर्म परिवर्तन’ ‘सेंटोर व लेपिथ का युद्ध’ जैसे चित्र उदाहरण हैं। सोलिमेना की कला आडम्बरी है फिर भी वे तात्कालिक सर्जन व गतित्वदर्शन में निपुण एवं विविध कल्पनाओं से परिपूर्ण कलाकार थे।
नेपल्स के एक अन्य कलाकार ग्विसेप बोनितो (1707-1789) ने अपने ‘मंदिर का उद्घाटन’ (नेपल्स संग्रहालय) जैसे आरम्भिक चित्रों में सोलिमेना का ध्यानपूर्वक अनुसरण किया। किन्तु उसके बाद उन्होंने भिन्न दशा अपनायी और ‘जख्मी आदमी’ (इतालो ब्रास संग्रह, वेनिस) व ‘दैनिक दृश्य’ (एकिलितो किएसा संग्रह, मिलान) जैसे चित्र बनाये जो उनकी असाधारण सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति व मनोहर रंग संगति के साथ दैनिक जीवन के प्रसंगों को चित्रित करने की प्रतिभा के प्रमाण हैं।
इस कालखण्ड में फ्लोरेन्स व रोम से भी उत्तरी इटली में प्रतिभासम्पन्न कलाकारों की अधिकता थी। जेनोआ के चित्रकार आलेसांद्रो मान्यास्को (1667-1747) जिनकी कला बीसवीं सदी के आरम्भ तक उपेक्षित थी, अब कुछ महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर चुकी है।
उन्होंने भूरे, काले व भूरंगों का मोटी परतों में प्रयोग किया है व घुमक्कड़ जातियों के डेरों, मठवासियों व पच्चिनेल्ला परिवार के जीवन का सजीव चित्रण किया है। कुछ समीक्षकों ने उनके चित्रों के स्वप्निल काव्यात्मक प्रभाव की प्रशंसा की है।
उनके चित्र ‘भोजनालय’ (बास्सानो संग्रहालय), ‘बाजार’ (कास्तेलो स्फोर्जा, मिलान) व ‘दावत’ (लुव्र) मौलिकता- व सशक्त अंकन पद्धति के कारण आकर्षक हैं। ग्विसेप बाज्जानि (1690-1769) मांतुआ में रहे व वहीं उन्होंने अपना सम्पूर्ण कला सर्जन किया।
उनकी लालित्यपूर्ण विषयों में अत्यधिक रुचि, सौंदर्य प्रेम व उनकी धुंधली रंगसंगतियों की उत्तेजकता को देखकर लगता है कि वे श्रंगारिक व पौराणिक विषयों के चित्र बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से चित्रित कर सकते थे किन्तु उन्होंने ‘संत लुई व देवदूत’ (पोदियो संग्रह, बोलोन्या) व ‘दूत संदेश’ (इतालो ब्रास, वेनिस) जैसे धार्मिक विषयों के चित्र बनाये, जिनका रूपाकर्षण धार्मिक प्रभाव को दूषित करता है।
वित्तोर गिस्लांदी (1665-1743) बर्गामो के निवासी थे। वे मठवासी भिक्षु थे व चित्रकारी भी करते थे इसलिए वे फ्रा (भिक्षु) गाल्गारिओ नाम से जाने जाते थे। उन्होंने केवल व्यक्ति चित्र बनाये जो बहुत ही सजीव, सशक्त हैं और चटकीले मोटे रंगों से बनाये हैं, जिसके उदाहरण हैं ‘पाओलो गुफ्रिनी’ (पालाज्जो वेक्किओ, फ्लोरेन्स) का गम्भीर मुद्रा में बड़ी बालों वाली टोपी पहने हुए बनाया व्यक्ति चित्र, ‘आदमी का व्यक्ति चित्र’ (पोल्दी- पेज्जोली संग्रहालय, मिलान) ‘इसाबेल्ला कामोज्जि का व्यक्ति चित्र’ (कामोज्जि वेर्तोवा संग्रह, बर्गामो) ।
ज्याकोमो चेरुति के जीवन वृत्त के सम्बन्ध में केवल इतना ही ज्ञात हुआ है कि उनका जन्म अठारहवीं सदी के मध्य के आसपास हुआ व उन्होंने बर्गामो व पादुआ में रहकर चित्रकारी की व मुख्यतः वस्तुचित्र व दैनिक जीवन के विषयों को लेकर चित्र बनाये।
रंगों की हल्की छटाओं का प्रयोग करके उन्होंने समकालीन विनम्र श्रमजीवी लोगों के संयमित यथार्थवादी रूप के चित्र बनाये हैं जिनमें कोमल धूसर रंगों का मर्यादित प्रयोग है जिसके उदाहरण हैं ‘धोबन’ (पिनाकोतेका मार्तिनेंगो, ब्रेशा), उदास चेहरे का ‘बौना’ (साल्वादेगो संग्रह, पादेर्नेलो) व ‘पंखे के साथ लड़की’ (कारारा अकादमी, बर्गामो) जिसमें उन्होंने लड़की की त्वचा के फीकेपन को कुशलता से अंकित किया है।
चेरुति की प्रतिभा की अपवादात्मक मौलिकता इस बात में है कि उन्होंने प्रचलित बॅरोक शैली के नाटकीय प्रभाव व छाया प्रकाश के तीव्र विरोध को अस्वीकार कर, प्रत्यक्ष दृश्यमान यथार्थ को सच्चाई के साथ सरलीकृत रूप में चित्रित किया।
ग्विसेप मारिया क्रेस्पी (1665-1747) का मूल निवास स्थान बोलोन्या था । उनकी विशेष उल्लेखनीय चित्रकारी में उनकी स्वतंत्र प्रतिभा के प्रमाण बोलोन्या के पालाज्जो पेपोली में बनाये भित्ति चित्र, ड्रेस्डेन वीथिका की चित्रमालिका ‘सात संस्कार’ जिसमें उन्होंने गम्भीरता से ईसाई धार्मिक जीवन को यथातथ्य चित्रित किया है, तुरीन संग्रहालय का चित्र ‘संत जान नेपोमुक द्वारा बोहेमिया की रानी का पाप स्वीकार’ व उफ्फिजी संग्रहालय के ‘कामदेव व मन’ नामक कृतियाँ हैं।
क्रेस्पी ने कारावाद्ज्यो द्वारा इटालियन चित्रकार में घनी छायाओं को अंकित करने का जो आरम्भ किया था उसको अपनाया किन्तु छाया के ठोसपन व अपारदर्शित्व की जगह उसको पारदर्शी बनाने के प्रयत्न किये ताकि चित्रित वस्तुओं के आकार छाया से क्रमश: प्रकाश में उभरते दिखाई दें।
टर्बार्ख व वेलास्केस के समान क्रेस्पी छाया प्रकाश के प्रभाव को अंकित करने में निपुण थे व कभी-कभी उन्होंने स्वच्छंदता से रंगों का मोटी परतों में जो प्रयोग किया है वह शाद के चित्रों की मक्खन जैसी सतह का स्मरण दिलाता है। उनके कुछ चित्र ऐसे लगते हैं जैसे कि उन्होंने वे बहुत जल्दी बनाये हैं या थकी हुई मनःस्थिति में बनाये हैं तो कुछ चित्र निचली परत काली पड़ने से धुंधले हो गये हैं।
वेनिस के चित्रकार सेबातिआनो रिच्ची (1659-1734) व ज्याम्बातिस्ता पिआज्जेत्ता (1683-1754) की कला में आगामी कलाकार तायपोलो की कला के पूर्वचिह्न प्रतीत होते हैं। निपुण कलाकार होते हुए रिच्ची ने धार्मिक व पौराणिक विषयों का जो चित्रण किया है वह सतही प्रभाव का है, उदाहरण के लिए ‘यूरोप का अपहरण’ (वेनिस अकादेमिया) ।
पिआज्जेत्ता ने ग्राम्य जीवन के चित्र लाल धूसर निचली परत पर हल्के रंगों का प्रयोग करके बनाये हैं जिससे उनके चित्रों के छाया के हिस्सों में हलकी लाल झलक छायी हुई दिखायी देती है उदाहरणार्थ चित्र ‘एलिजेर व रिबेका’ (ब्रेरा वीथिका, मिलान), ‘ग्राम्य काव्य’ (नेशनल गैलरी, डब्लिन) ।
ज्योवान्नि बातिस्ता तायपोलो (1690-1770) की कला का क्षेत्र अधिक व्यापक है। नवीन आकारों के सर्जन में वे असाधारण प्रतिभा सम्पन्न थे व उत्कृष्ट रंग संगतियों का नियोजन करते थे। गिरजाघरों व महलों की दीवारों व छतों पर बनाये उनके भित्ति चित्र ‘पूर्व विधान के प्रसंग’ (Old Testament) (आर्च विशेष महल, उदिने), ‘अपोलो की ‘विजय’ (क्लेरिची महल, मिलान), ‘संत दोमिनिक द्वारा माला विनति’ (जे स्वाति गिरजाघर, वेनिस), उनके द्वारा किया व्युर्जवर्ग के आर्च विशेष के महल व माड्रिड के राजमहल की सजावट तथा उनके छोटे धार्मिक विषयों के चित्र ‘कुंआरी मेरी की शिक्षा’ (सांता मराया देल्ला कांसोलाज्योने, वेनिस), ऐतिहासिक चित्र ‘सिपिओ की उदारता’ (स्टाकहोम संग्रहालय), ‘साहित्यिक रचना ‘तासो’ से विषय को चुनकर बनाया चित्र ‘रिनाल्दो व आर्मिदा’ (आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो) ये सब कलाकृतियाँ उनकी विलक्षण कल्पनाशक्ति को प्रमाणित करती हैं।
वे असाधारण सर्जनशीलता के धनी थे व शायद इसी वजह से उन्होंने चित्रण करते समय सत्याभास की कोई चिंता नहीं की होगी। उन्होंने आब्राहाम की पत्नी सारा को ढोलाकार घाघरा व सोलहवीं सदी में प्रचलित गरेबान पहने हुए चित्रित किया है जबकि उससे मिलने आये फरिश्ते को आधुनिक रंगमंचीय पात्र जैसी पोशाक में।
उन्होंने साफा पहने हुए तुर्कों को, इधर-उधर, हर जगह अपने चित्रों में सम्मिलित किया है-चित्र ‘बपतिस्मादाता संत जान का शिरच्छेदन’ (कोलिओनी प्रार्थनालय, वर्गामो) में एवं उनकी श्रेष्ठ भित्ति चित्रों की मालिका ‘एन्टोनी व क्लिओपात्रा’ (पालाज्जो लाबिया, वेनिस) के एक चित्र में भी।
वह जो भी विषय चुनते उसे उत्सव सदृश वातावरण के अंतर्गत व उसके पोशाक चमकीले नीले, गुलाबी, पीले रंगों को चुनकर उसे सतरंगा बनाते। साथ ही, वे आवश्यकतानुसार चित्र में नाटकीय प्रभाव का किस तरह समावेश किया जाये, यह भी जानते थे जैसा उनके चित्र ‘कैलवरी का मार्ग’ (संत आल्वीसे गिरजाघर, वेनिस) व वेदिका चित्र ‘संत थेक्ला शहर को प्लेग से मुक्त करते हुए’ (किएसा देल ग्राजी, एस्ते) में दृष्टिगोचर है।
उनका यह नाविन्य प्रेम प्रदर्शन प्रवृत्ति जैसा नहीं लगता क्योंकि सभी महान स्वप्नद्रष्टाओं के समान उनकी कल्पना का मूलाधार यथार्थ जगत् है। निश्चय ही तायपोलो ने चित्र ‘दानाइ’ (स्टाकहोम विश्वविद्यालय) में अंकित दानाइ की गुस्ताखी भरी मुद्रा को एवं चित्र ‘हागर व इश्माएल’ (स्कुओला दी सान रोक्को, वेनिस) में अंकित सोए हुए बच्चे को प्रत्यक्ष देखने के बाद ही चित्रित किया होगा और इस तरह के प्रत्यक्ष अनुभवों के आधार पर ही उनकी कला विकसित हुई।
तायपोलो की काल्पनिक दुनिया की द्रुतगति सैर कभी दर्शकों को थका देती है किन्तु उससे कभी मिलने वाले अलौकिक सृष्टि के दर्शन के अद्भुत आनन्द के कारण उनकी कला के महत्त्व को कम नहीं आँका जा सकता।
18वीं सदी में वेनिस विदेशी पर्यटकों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र था जिसके कारण थे उसके नहरी मार्गों से संयुक्त अनोखी नगर रचना व वहाँ के संगीत समारोह, मेले, जुआघर, वेश्यागृह जैसे मनोरंजन, क्रीड़ा व भोग विलास के साधन जहाँ आने वाले सम्पन्न पर्यटक इस अनोखी दुनिया के दृश्य लौटते समय अपने साथ ले जाना चाहते थे। इस चाह ने वहाँ वेनेशियन भूदृश्य चित्रण शैली को जन्म दिया जिसके प्रमुख व सबसे प्रसिद्ध चित्रकार थे कानालेतो व ग्वार्दी।
आन्तोनिओ कानाल, जो कानालेतो (1697-1768) नाम से प्रसिद्ध हैं, की कला के विशेष दर्शनीय तत्त्व हैं, सूक्ष्म निरीक्षण व प्रकाश का प्रभाव। उन्होंने अथक परिश्रम के साथ वेनिस के सर्वोत्कृष्ट भूदृश्य बनाये जिनमें ‘संगतराशों का अहाता, वेनिस’ (नेशनल गैलरी, लंदन), ‘ग्रँड कॅनाल’, (लुव्र), ‘रिवा देग्ली श्यावोनि’ (बर्लिन डाहलेम संग्रहालय) ये प्रसिद्ध भूदृश्य चित्र हैं।
खरीददारों की अपेक्षा का पूर्वानुमान लगाकर के वे अपने भूदृश्यों में हर बारीकी को अंकित करते (चित्र 74) । काना लेतो की तुलना में फ्रान्चेस्को ग्वादी (1712-1793) भूदृश्य के सौंदर्यकरण पर अधिक ध्यान देते थे व रंग योजना में व्यक्तिगत रुचि का भी ध्यान रखते थे।
उन्होंने सीमित रंगों का चयन किया किन्तु उससे भी उन्होंने सूक्ष्म रंग प्रभाव से अपने भूदृश्यों को आकर्षक बनाया। वे कानालेतो जितने चित्रण में अतिसावधान नहीं थे फिर भी लघु तूलिकाघातों से किये रंगांकन व प्रत्यक्ष जीवन से चुनी हुई यथातथ्य मुद्राओं से चित्रित छोटी मानवाकृतियों के कारण उनके नगर दृश्य आश्चर्यजनक रूप से वास्तविक व सजीव बने हैं, उदाहरणार्थ ‘अभिवादन’, (वान बोनिंगेन संग्रह) ‘समुद्रताल में गांदोला नाव’ (पोल्दी पेज्जोति संग्रहालय, मिलान), ‘गुब्बारे की उड़ान’ (बर्लिन – डाहलेम संग्रहालय)
18वीं सदी की वेनिशियन चित्रकला के अंतिम ख्यातनाम कलाकार थे पिएत्रो फाल्का जो लोंघी (1702-1785) नाम से प्रसिद्ध थे। इनकी श्रेष्ठ कलाकारों में गणना नहीं की जा सकती। उनके ‘नृत्य का पाठ’ व ‘औषध विक्रेता’ (वेनिस अकादेमिया) जैसे बेढंगे तरीके से विस्तार किये चित्र मुख्यतः दस्तावेजी महत्त्व के हैं। उनके प्रकृति को देखकर बनाये अभ्यास चित्र और अच्छे हैं।
अंत में महिला कलाकार रोसाल्वा कारिएरा (1675-1757) का उल्लेख आवश्यक है, जिन्होंने पेस्टल से बहुत अधिक व्यक्ति चित्र व स्वभाव चित्र बनाये हैं। उनके चित्र बहुत मनोहर हैं किन्तु धुंधलापन लाने के उद्देश्य से किये प्रयासों से वे अकसर दुर्बल बन गये हैं। उनके कार्य की सफलता इस बात में है कि उन्होंने पेरिस में पेस्टल से बनाये व्यक्ति चित्रों को लोकप्रिय बनाया जहाँ उनके चित्रों को उत्साह के साथ स्वीकार किया गया।
जर्मन कला पर फ्रेंच व इटालियन कला का प्रभाव | Influence of French and Italian art on German art
जर्मनी व आस्ट्रिया के कलाकारों ने कभी फ्रेंच कला को अनुसरणीय माना तो कभी इटालियन कला को । फ्रेंच कला ने रॉकॉको काल में गिरजाघरों व महलों के सज्जा कलाकारों को प्रेरित किया तो इटालियन कला ने अभिजात वर्ग के व्यक्ति चित्रकारों को।
इस काल के सर्वश्रेष्ठ जर्मन व्यक्ति चित्रकार हैं- जे.जे. त्सीसेनिस (1716-1777) जो हानोवर के राजदरबारी चित्रकार थे। उनके व्यक्ति चित्र ‘जाइक्से गोथा की डचेस’ (बर्लिन) में उन्होंने बैठी हुई महिला को चारूता व रूपाकर्षण के साथ यथातथ्य चित्रित किया है।
डानियल कोडोवाइकी (1726-1801) जो पोलैंड के मूल निवासी थे बर्लिन में बस गये थे। उन्होंने रंगाकन की अपेक्षा रेखाचित्र, उत्कीर्णन व पुस्तक चित्रण पर अधिक ध्यान दिया उनके कला कार्य पर स्पष्ट फ्रेंच प्रभाव है व उनकी अंकन पद्धति कुछ कृत्रिमता लिए हुए हैं। उनका अपना विशिष्ट व्यक्तित्व था व वे सूक्ष्मदर्शी व विनोदप्रिय थे जिसके उनके चित्र ‘उद्यान में मनोरंजन’ व ‘कालास की विदाइयाँ’ (बर्लिन) उदाहरण हैं।
फ्रीडरिश औगुस्ट टिश्बाइन (1750-1812) ने कला का अध्ययन इटली व र में किया किन्तु इंग्लिश व्यक्ति चित्रकारों का अनुसरण करना पसन्द किया व चित्र को बैठने वाले व्यक्तियों को काव्यपूर्ण वातावरण में चित्रित किया जैसे कि चित्र’ हेर फोन शाळेलाइन’ (नाय पिनाकोटेक, म्यूनिक) में उनके चचेरे भाई विल्हेल्म टिश्वाइन (1751-1829) विशेष महत्त्वपूर्ण कलाकार नहीं होते हुए उनके द्वारा बनाये चित्र ‘काम्पान्या में गोएंटे’ (स्टाडेल्शेज, कुन्स्टिट्यूट, फ्रान्कफुर्ट) के कारण वे प्रसिद्ध हैं। ये गोपटे के मित्र थे व उनके साथ रोम में रहे थे।
उस समय के कला समीक्षक विकेलमान के कला सम्बन्धी लेखों को काफी महत्त्व दिया जाता था। उन्होंने ‘आदर्श सौंदर्य’ के विषय में कुछ निश्चयात्मक विचार प्रतिपादित किये थे जिनसे कला क्षेत्र में शास्त्रीयतावाद का नवीन रूप में पुनस्तथान हो रहा था। विकेलमान के अनुयायियों में उनके मित्र रेफील मेन्ज (1728-1779) थे, जो कलाकार थे व कला पर लेख भी लिखते थे।
18वीं सदी के मध्य में यह धारणा प्रवस्त हो गयी थी कि यूरोप के भिन्न प्रदेशों से कलाकारों व कला-पारखियों के आगमन के कारण रोम में नवीन शास्त्रीयतावाद का पुनरुत्थान होगा जिसमें मेन्ग्ज पुनरुत्थानकालीन कलाकार रेफिल के समान महत्त्वपूर्ण कार्य करेंगे।
विकेलमान ने यहाँ तक घोषित किया कि मैनज न केवल समकालिक सर्वश्रेष्ठ कलाकार हैं बल्कि उनका यह स्थान निरन्तर अक्षुण्ण बना रहेगा। किन्तु विकेलमान की द्वितीय पुनरुत्थान की भविष्यवाणी ने मूर्त रूप नहीं धारण किया। मेनज का ‘पार्नासस’ जैसा कला कार्य जो उन्होंने विल्ला आल्बेनी की छत पर किया है या वेतिकन के पापिरस कक्ष में किया, उनका यह सज्जा कार्य किसी भी दृष्टि से प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता।
प्राचीन शास्त्रीय कला से प्रेरित लगने के बजाय यह उनका कला कार्य बोलोन्या के सत्रहवीं सदी के कलाकार आल्बेनी व ग्विदो रेनी के सामान्य दर्जे के चित्रों का अनुकरण लगता है। बाद में मेग्ज ने स्पेन की अनेक यात्राएँ की व वहाँ उन्होंने ‘स्पेन की राजकन्या का व्यक्ति चित्र’ (लुव्र) जैसे दरबारी व्यक्ति चित्र बनाये जो प्रशंसनीय हैं व उनके रोम काल के समान छद्म शास्त्रीयतावादी नहीं हैं जिससे उनकी कला के अनिश्चित स्वरूप का पता चलता है।
अॅन्टोन ग्राफ (1736-1813) विन्टर टूर के मूल निवासी थे। वे आयु के तीसवें साल में ड्रेस्डेन गये व वहाँ लोकप्रिय व्यक्ति चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हुए। जेन एत्येन लिओटार्ड (1702-1789) का जन्म जेनिवा में हुआ, उन्होंने पेरिस में अध्ययन किया व तत्पश्चात् वे प्रथम इटली व बाद में कांस्टान्टिनोपल गये।
उनकी कला को विएन्ना, पेरिस, लंदन व अॅम्स्टरडम में प्रशंसक मिले व अन्त में वे अपने मूल निवास जेनिवा में बस गये जहाँ से वे कभी पेरिस, लंदन, विएन्ना जाते रहे। उनके द्वारा बनाये निकट पूर्वी बलिष्ट मानवों की आकृतियों के चित्रों के कारण वे प्रसिद्ध थे व तुर्की कलाकार उपनाम से जाने जाते थे।
उनके कठोर व स्वभाव दर्शन के साथ बनाए व्यक्ति चित्र व पेस्टल में बनाये दैनिक प्रसंगों के चित्र उस समय फ्रांस में प्रचलित मनोहर, चमकीले व कुशलता दर्शक चित्रों से भिन्न प्रभाव के हैं। उनके कुछ चित्र सामान्य दरजे के हैं किन्तु अन्य चित्र यथार्थ 1 प्रकाश प्रभाव, कलाकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान सुनिश्चित करते हैं। उनके सबसे अधिक प्राविण्य दर्शक चित्र मौलिक रंग संगति व सूक्ष्म मनोविज्ञान के गुणों से उनका समकालीन हैं ‘कावेन्ट्री की डचेस’ (रियस्क म्युजियम, अॅम्स्टरडम) ‘मादाम देपिने’ (जेनिवा) व ‘वृद्ध ‘कलाकार’ (जेनिवा)।
योहान्न हाइनरिश फ्यूस्ली या फुसेली (1741-1825) का जन्म यूरिक में हुआ। आयु के 22वें साल में वे लंदन गये जहाँ उन्होंने चित्रण व लेखन किया। रेनाल्ड्स की सलाह से वे रोम गये जहाँ उनकी फ्रेंच चित्रकार दाविद व कला समीक्षक विकेलमान से मित्रता हुई। वापस लंदन आने के बाद वे जंगली स्विस (Wild Swiss) नाम से जाने जाने लगे।
वे अपने चित्र-विषय को होमर व शेक्सपियर के साहित्य व प्राचीन जर्मन दंतकथाओं से चुनते थे। उनके हिंसापूर्ण रोमांचकारी अनेक चित्रों से स्पष्ट है कि उनकी काल्पनिक, डरावने व घिनावने विषयों के चित्रण में विशेष रुचि थी।
उनके स्वतंत्र कलाकार व्यक्तित्व का अभाव इन तथ्यों से उजागर होता है कि जहाँ उनकी मानवाकृतियों की शरीर रचना माइकिलेंजेलो से प्रभावित है वहाँ उनकी अंकन पद्धति पर फ्लेमिश कलाकार रुबेन्स व वॅन डाइक का प्रभाव है।
इसके अलावा वे रंगमंच से प्रभावित थे और यही कारण है कि उनके विचित्र पोशाक पहने हुए आदिम व मध्ययुगीन दंतकथाओं के नायक अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं। फुसेली कलाकार की अपेक्षा रोमांसवाद के प्रतिनिधि के रूप में अधिक रोचक हैं।
उन्होंने किसी भी अन्य रोमांसवादी कलाकार की अपेक्षा अपने कुछ चित्रों में रोमांसवाद को अधिक आगे बढ़ाया, उदाहरणार्थ चित्र ‘ह्वान की बाहुओं में आमडा रेत्सिआ’ (वाडेन्सिविल, जूरिक) जो वीलांट की साहित्यिक कृति ओबेरॉन पर आधारित है, ‘टिटेनिआ को जादुई अंगूठी की प्राप्ति’ (जूरिक संग्रहालय) व ‘पागल केट’ (ओबेरहोफेन, बर्न) जो काउपर की कविता पर आधारित है।
गोया व स्पेन
18वीं सदी में कला की दृष्टि से स्पेन की वस्तुस्थिति इंग्लैण्ड से काफी भिन्न थी। इंग्लैण्ड के दो असाधारण प्रतिभा के व्यक्ति चित्रकार रेनोल्ड्स व गेन्सबरो के कारण वहाँ एक विशिष्ट कला शैली विकसित हुई थी और वहाँ कलाकारों का समूह भी था जो उस शैली से जुड़ा हुआ था। किन्तु स्पेन में इस सदी के अकेले अद्वितीय सितारे कलाकार गोया का कोई प्रतिस्पर्धी नहीं था।
लुइस पारेट इ आल्काजार (आल्काथार, स्पेनिश) (1747-1799) माड्रिड में निवासी हुए फ्रेंच कलाकार ओलिविए व त्रावेर्स का अनुकरण कर चित्रण करते थे। (मेनेन्डेथ स्पेनिश) (1716-1780) प्रशंसनीय लोकप्रिय वस्तु चित्रकार थे। लुइस मेनेन्डेज गोया (फ्रान्थिस्को डे गोया इल्यूश्येनटेस) (1745-1828) ने सांटा बार्बारा के दीवारदरी उद्योग के लिए रेखाचित्र बनाकर आरम्भिक लोकप्रियता प्राप्त की व साथ ही वे दरबारी कुलीन वर्ग के व्यक्ति चित्र व गिरजाघरों के लिए धार्मिक चित्र बनाते थे।
लम्बे समय तक उनको हर प्रकार की सफलता मिली जिसकी कलाकार आशा करता है। किन्तु दो दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं ने उनकी सफलता पर पानी फेर दिया। जब वे करीब पचास वर्ष के थे बहरेपन के आकस्मिक शिकार होकर सामाजिक जीवन से अलग से हो गये।
कुछ ही साल बाद फ्रेंच सेना ने आक्रमण कर स्पेन के राजा को निर्वासित किया व उसकी जगह नेपोलियन के एक भाई को राजगद्दी पर बिठाया। आरम्भ में, उदारवादी विचारधारा के गोया को लगा कि नया फ्रेंच शासन राज्य क्रांति के नवविचारों को लागू कर पुराने शासन में सुधार करेगा।
किन्तु शीघ्र ही उनकी देशभक्ति जागृत होकर उन्होंने चित्रों व अम्ललेखनों द्वारा आक्रमणकारी सत्ताधारियों के अत्याचारों की भर्त्सना आरम्भ की। राजा फर्डिनाड के गद्दी पर पुनःस्थापित होने पर गोया, सम्भवतः अपने उदारवादी विचारों के कारण अपने खिलाफ कार्यवाही होने की आशंका से देशत्याग कर के बोर्दो जा के रहे जहाँ उनका निधन हुआ।
वेलास्केस के विपरीत, गोया अपने व्यक्ति चित्रों में व्यक्तियों को यथार्थ रूप में चित्रित करने के साथ-साथ उनके स्वभाव, दोषों को भी बेधड़क अंकित करते जिससे उनके व्यक्ति चित्र कभी उपहासात्मक बने हैं जैसे कि उनके चित्र ‘राजा चतुर्थ चार्ल्स का परिवार’ (प्राडो, माड्रिड) व उनके श्वसुर का चित्र ‘चित्रकार बायो’ (प्राडो, माड्रिड) जिसमें उन्होंने अपने श्वसुर के शुष्क चेहरे पर परेशानी के भाव अंकित किये हैं।
चित्र ‘अज्ञात राजनेता’ (एन्टिक ओशिया संग्रह, माड्रिड) में राजनेता का फूला हुआ गंवार चेहरा उसके बेलबूटेदार जाकेट से व चौड़े कमरबन्द से मेल नहीं खाता। किन्तु जहाँ सुन्दर युवती का व्यक्ति चित्र बनाना हो वहाँ वे उत्कंठित प्रेमी जैसे बनकर उसे चित्रित करते जैसे कि उनके चित्र ‘काउंटेस चिंचोन’ व ‘डोना आन्टोनिया डे जाराटा’ (मेट्रोपोलिटन संग्रहालय, न्यूयॉर्क) से दिखायी देता है।
‘अज्ञात स्त्री’ (लुव्र) व्यक्ति चित्र में भी चिकने व फूले हुए चेहरे की स्त्री के घुंघराले बाल, गुलाबी गाल व रेशमी भूरे वस्त्र इनके विरोध को कुशलतापूर्वक चित्रित करने में उनकी यह उत्सुकता प्रकट होती है। (चित्र 75 )
उनके दैनिक प्रसंगों के चित्रों में ‘साइन का दफन’ जैसे लोक जीवन के प्रसंगों के चित्र व ‘पागलखाना’ जैसे घिनावने दृश्यों के चित्र (अकाडेमियाँ डे सान फार्नांडो, माड्रिड) हैं। देशभक्ति से प्रेरित होकर बनाये उनके चित्र ‘2 मई 1808’ व ‘3 मई 1808 ‘ (प्राडो, माड्रिड) विशेष प्रसिद्ध हैं।
वर्तमान परिस्थिति के संदर्भ में उनके उपर्युक्त दो चित्रों एवं अपने निवास ‘ला क्विंटा डोल सोर्डी’ (बहरे आदमी का घर) की सज्जा में काले व भूरे रंगों में बनाये चित्रों की नाटकीयता विशेष प्रभावित करती है। साथ ही उन अनेक चित्रों के महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती जिनमें उन्होंने यौवन, सौंदर्य व चारुता को अमर रूप दिया है जैसे कि चित्र ‘डोना इसाबेल डे पोर्सेल’ (नेशनल गैलरी, लंदन) व ‘ड्यूक ऑफ सान कार्लोस’ (मार्विस डे ला टोरेसिला संग्रह, माड्रिड) में।
उनकी कला उन दो सदियों का मध्यवर्ती सेतु है जिनमें वे कार्यरत रहे। उनके आल्बा की बेगम के दो प्राडो संग्रहालय, माड्रिड के चित्र (एक सवस्त्र व दूसरा विवस्त्र) व उसी तरह के अन्य चित्र वातो व फ्रागोनार की परम्परा के हैं।
किन्तु अन्य चित्र अंकन पद्धति में इतनी उन्मुक्तता लिए हुए हैं व रंग विधान में इतनी नवीनता लिए हुए हैं कि उनमें दोमीय, मोने व रेन्वार की कला का पूर्वाभास होता है जैसे कि उनके चित्र ‘सान इसिड्रो की तीर्थ यात्रा’ (प्राडो, माड्रिड) जो स्वच्छ प्रकाश के सच्चे प्रभाव से परिपूर्ण है, चित्र ‘पहाड़ी चट्टान पर शहर’ (मेट्रोपोलिटन संग्रहालय, न्यूयॉर्क) व ‘बोर्दो की ग्वालिन’ (प्राडो, माड्रिड)।
उन्होंने उत्कीर्णन (एक्वाटिंट) छापचित्रों द्वारा गिरजघारों की भर्त्सना की थी व सांट आन्टोनियो डेला फ्लोरिडा, माड्रिड के गिरजाघर की सज्जा में धार्मिक दृष्टिकोण की अपेक्षा अपने कला प्रदर्शन पर अधिक ध्यान दिया था किन्तु मृत्यु के कुछ ही वर्ष पूर्व उन्होंने ‘संत जोसफ कालासान्ज का परम प्रसाद’ (बोन्ना संग्रहालय, बायोन) यह एक ऐसा छोटा चित्र बनाया जो गहरी धार्मिक भावना से परिपूर्ण है।
गोया अत्यधिक सर्जनशील किन्तु अनिश्चित मानसिकता के कलाकार थे। उनके कुछ व्यक्तिचित्र देखकर ऐसे प्रतीत होता है कि उन्होंने ये जल्दी पूरा करने के इरादे से बनाये हैं क्योंकि चित्र के लिए बैठने वाला व्यक्ति उन्हें अप्रिय लगा। ‘कामदेव व सायकी’ (हर्नान्डेस गार्शिया इ क्वेविडो संग्रह) जैसे चित्रों से पौराणिक विषयों के चित्रों को किसी तरह पूर्ण करने की उनकी अनिश्चय की मानसिकता उजागर होती है।
वे यथार्थ से जुड़े बिना चित्रण नहीं कर सकते थे; ‘माड्रिड की रूपक कथा’ (माड्रिड टाउन हाल) में उन्होंने तीन आकर्षक नारियों को चित्र में सम्मिलित किया है इस बात का विचार किए बिना कि उनका वहाँ क्या प्रयोजन है? किन्तु जब भी उनको कोई विषय दिलचस्प लगता व उनमें प्रेम, घृणा या भयानकता जैसी तीव्र भावना उत्पन्न होती तो वे ऐसे चित्र बनाते जिनसे स्पष्टतः सिद्ध होता कि वे असामान्य प्रतिभा सम्पन्न, अद्भुत मौलिकता के धनी, कुशल व नवीन अंकन पद्धतियों के आविष्कारक कलाकार थे। शास्त्रीयवाद का पुनरुत्थान –
नवशास्त्रीयतावाद | Neoclassicism
फ्रेंच राज्य क्रांति के कुछ समय पूर्व फ्रांस के कला क्षेत्र में भी क्रांति हुई जो राज्य क्रांति के समान कला में आत्यन्तिक परिवर्तन का कारण बनी। 18वीं सदी के मध्य से नक्शानवीस कोश, वास्तुकार सुफ्लो, पुरातत्त्वविद् कांत दे केल्यु व अनेक कलाकारों ने रॉकॉको शैली के अतिशयोक्त रूप, अनोखेपन पर बल व असममितिय संयोजन के खिलाफ असंतोष व्यक्त करना आरम्भ किया था।
उन्होंने दृश्य कलाओं को सरल, संयमित व सुरचित रूप देने का निश्चय किया। उन्होंने उसके लिए प्राचीन ग्रीक व रोमन अवशिष्ट कलाकृतियों को आदर्शवत् माना।
शास्त्रीयतावाद के पुनरुत्थान के इस आरम्भिक प्रयत्नों को बहुत ही मर्यादित सफलता मिली। उसके पश्चात् फिर अधिक उत्साह के साथ दूसरी बार प्रयत्न हुए जो 1738 में हर्क्युलेनियम में हुए व 1755 में पाम्पेई में हुए उत्खननों में प्राप्त प्राचीन ग्रीक व रोमन कलाकृतियों से- जिन्होंने कलाकारों व विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया था— प्रेरित थे।
सदी के अंतिम वर्षों में जर्मन सौंदर्यशास्त्री योहान्न विंकेलमान ने प्राचीन ग्रीक शास्त्रीय कला की प्रशंसा में अनेक लेख प्रकाशित किये। इन लेखों के अंग्रेजी व फ्रेंच भाषा में अनुवाद हुए जो बहुत प्रभावकारी सिद्ध हुए।
इसके पहले जोसेफ वियां (1716- 1809) ने केल्यु के विचारों से प्रेरित होकर समकालीन ऐंद्रिय व अतिरमणीय स्वरूप की कला के विरोध में चित्रण किया था किन्तु उनके ‘डेडालस द्वारा इकारस को पंख लगा देना’ (ए कोल द बोजार, पेरिस) जिसमें उन्होंने शास्त्रीय कला की सादगी व भव्यता के गुणों से चित्र को सम्पूरित करने के प्रयत्न किये हैं, जैसे चित्र वर्णहीन व भावहीन हैं। वियां में वैसा समर्थ कलाकार व्यक्तित्व नहीं था जिससे वे नये विचारों को सफलतापूर्वक अपनाकर कला क्षेत्र में क्रांति ला सकें।
जाक लुइ दाविद (1748-1825) ने, जो वियां के शिष्य थे, 1774 में रोम पुरस्कार प्राप्त किया व वे रोम गये। वहाँ उनकी क्वात्रमेर दे क्विन्सी से मित्रता हुई जो शुरू में मूर्तिकार ये व बाद में पुरातत्त्वविद व सौंदर्यशास्त्री बन गये थे।
दे क्विन्सी ने दाविद को विंकेलमान के शास्त्रीयतावाद से सम्बन्धित सिद्धान्तों से परिचित कराया। पेरिस लौटने पर दाविद ने अपना चित्र ‘बोलिसारियस’ (लिल संग्रहालय), बनाया जिसकी काफी प्रशंसा हुई। यह चित्र पुस से प्रेरणा लेकर बनाया था। फिर रोम जाकर उन्होंने अपना चित्र ‘होरेशिआ का पण’ (लुव्र) पूर्ण किया जिसकी 1785 की वार्षिक प्रदर्शनी में काफी प्रशंसा हुई।
यह चित्र नवशास्त्रीयतावाद की आरम्भिक प्रेरणा स्रोत कृति के रूप में प्रसिद्ध है। दाविद को इस संयोग से लाभ हुआ कि उन्होंने जिस समय अपनी गम्भीर व सामाजिकता की हिमायती कला कृतियाँ बनायीं उसी समय फ्रेंच राज्य क्रांति हुई जिसके प्रणेता प्लूटार्क व टेसिटस के विचारों से प्रेरित थे व रोमन गणतंत्र को आदर्श मानते थे।
वे प्रतिनिधि सभा के लिए चुने गये थे व जाकोबिन विचारधारा के कट्टर समर्थक थे। राजा 16वें लुई को मृत्यु दंड देने के पक्ष मैं उन्होंने सक्रिय भाग लिया। अल्पजीवी फ्रेंच गणतंत्र में वे कला क्षेत्र के अधिनायक थे। नेपोलियन ने उनको बैरन की उपाधि से सम्मानित कर प्रमुख चित्रकार नियुक्त किया।
नेपोलियन के साम्राज्य के पतन के बाद वे बदला लिए जाने के भय से देश छोड़कर ब्रसल्ज गये जहाँ उनकी मृत्यु हुई।
दाविद् की कलाकृतियों को दो सुस्पष्ट वर्गों में बांटा जा सकता है पहले वर्ग की आकृतियों में उनके वे बड़े तैलचित्र हैं जो उन्होंने नवशास्त्रीयतावाद के सिद्धान्तों के अनुसार, ग्रीक व रोमन विषयों को लेकर बनाये हैं जिनमें लुव्र संग्रहालय के ‘होरेशिया का प्रण’, ‘सेबाइन्स का अपहरण’, ‘थर्मोपिलि में लिओनिडास’ ये चित्र हैं।
इनमें उन्होंने रोमन पुनरुत्थानकालीन महान शैली (Grand Style) को पुनरुज्जीवित करने के लिए विशेष परिश्रम किए हैं। ये चित्र निश्चय ही कुशलतापूर्ण, नाटकीय प्रभाव के व कभी भव्यता के दर्शक हैं किन्तु उनमें हार्दिकता का अभाव है व उनके संयोजन जटिल व परिश्रमपूर्ण हैं। मानवाकृतियों में गतित्व दर्शाने के उनके प्रयासों के बावजूद वे अपनी जगह अवरुद्ध लगती हैं।
उन्होंने संयोजन व रेखांकन पर ही ध्यान केन्द्रित किया है व उनके चित्रों के रंगों की चमक-दमक के अभाव को देखकर लगता है जैसे वे मनमस्तिष्क पर उद्दीपक प्रभाव डालने वाले रंग सौंदर्य को त्याग व सेवा पर आधारित गणतंत्र के लिए वर्जित मानते थे।
न केवल उनके चित्रों में सुंदर रंग संगतियों का अभाव है बल्कि उन्होंने रंगांकन भी एक क्षेत्र के लिए किसी एक रंग को चुनकर अपारदर्शी रंग की परत को शुष्क तूलिका से लगा कर किया है। उनकी दूसरे वर्ग की कलाकृतियाँ भिन्न दर्शन की हैं जो उन्होंने यथार्थ जीवन को देखकर बनायी हैं व इनमें नवशास्त्रीयतावादी सिद्धान्तों का अनुपालन नहीं है।
किया है वे प्रशंसनीय समर्थ यथार्थवादी कलाकार के रूप में सामने आते हैं। उन्होंने इन चित्रों से सिद्ध होता है कि जब भी उन्होंने अपने स्वीकृत सिद्धान्तों को भुलाकर चित्रण सामायिक विषयों को लेकर अनेक बड़े तैलचित्र बनाये हैं जिनमें लुव्र संग्रहालय के चित्र टेनिस कोर्ट पर शपथ’ व ‘नेपोलियन प्रथम का राज्याभिषेक’ एवं वर्साय संग्रहालय का चित्र ‘शांप द मार में राष्ट्रचिह्न का वितरण’ हैं।
नेपोलियन के राज्याभिषेक का चित्र विशेष प्रशंसनीय है जिसमें दाविद् ने बहुत बड़े दृश्य को, उसमें सम्मिलित जनसमूहों को उनके चमकीले बेलबूटेदार पोशाकों के साथ यथातथ्य चित्रित कर, कुशलता से संयोजित किया है।
इन्हीं कलात्मक गुणों से उनके व्यक्ति चित्र परिपूर्ण हैं जैसे उनके लुव्र संग्रहालय के चित्र ‘सातवां पोप पायस’ जिसमें चेहरे पर प्रभावी व्यक्तित्व का दर्शन है व चित्र ‘मादाम द सेरिजिआ’ जिसमें महिला के चेहरे को हंसमुख व आकर्षक दर्शाया है एवं समारोहीय पोशाकों में सजी मनोहराकृति ‘तीन गेंत की महिलाओं’ का चित्र ।
इनके अलावा उनका एक कठोर यथार्थ के साथ बनाया हृदयविदारक चित्र है ‘मारा’ (ब्रसल्ज संग्रहालय) जिसमें मारा को कंडाल में छुरा घोंपने के बाद मरणासन्न अवस्था में चित्रित किया है।