जार्ज कीट जन्म से सिंहली किन्तु सांस्कृतिक दृष्टि से भारतीय हैं । उनका जन्म श्रीलंका के केण्डी नामक स्थान पर 17 अप्रैल सन् 1901 को हुआ था।
उनके पिता भारतीय मूल के और माता डच परिवार की थीं। उनका पालन-पोषण पाश्चात्य सभ्यता में ढले उच्च वर्गीय वातावरण में हुआ था। बाल्यावस्था से ही जार्ज को चित्र बनाने तथा नये-नये आविष्कारों का शौक था।
दस वर्ष की आयु में उन्होंने पढ़ना आरम्भ किया। अंग्रेजी साहित्य के अनुशीलन से उनमें राष्ट्रीयता की भावना का उदय हुआ; साथ ही वे चित्रांकन में भी रूचि लेते रहे ।
उच्च शिक्षा के के कारण उन्होंने 1918 में पढ़ाई छोड़ दी। 1918 से 1927 तक उन्होंने हिन्दू तथा लिए उन्होंने केण्डी के ट्रिनिटी कालेज में प्रवेश लिया किन्तु कला में विशेष अभिरूचि बौद्ध धर्म, कला और साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया ।
इससे उनका भारतीय संस्कृति के प्रति आकर्षण बढ़ा । रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लंका यात्रा के समय वे उनके व्याख्यानों से अत्यधिक प्रभावित हुए और शान्ति निकेतन जाकर पढ़ने की इच्छा प्रकट की किन्तु घर वालों ने उनकी इस बात का मजाक बनाया और कला की शिक्षा के लिये इंग्लण्ड जानेका परामर्श दिया।
इसके पश्चात् उन्होंने सिंहली धर्म और संस्कृति का अध्ययन किया। उन्होंने सिहली, पाली और संस्कृत भाषाएँ भी सीखी।
इससे उनके व्यक्ति तथा कला पर हिन्दू एवं बौद्ध धर्म तथा दर्शन का प्रभाव पड़ा। 1920 के पश्चात् उन्होंन बौद्ध पत्र-पत्रिकाओं के लिये अगले चालीस वर्ष तक अनेक लेख लिखे और चित्र बनाये
सन् 1926 से वे चित्रकला में विशेष रूप से दत्त-चित्त रहने लगे। उन्होंने लंका में कुछ यूरोपीय कला शिक्षकों से तकनीकी शिक्षा भी ग्रहण की। 1928 में वे सीलोन आर्ट क्लब के सदस्य बने ।
साथ ही भारतीय कला परम्पराओं तथा सिंहली लोक कला का भी अध्ययन किया । 1928 में उन्होंने गोविन्दम्मा नामक नर्तकी को माडल कई बनाकर अनावृत चित्र अंकित किया।
इसके पश्चात् उन्होंने अनावृत नारियों के क चित्र बनाये । इसी समय जार्ज कीट ने कृष्ण तथा गोपियों के विषय का चित्रांकन प्रारम्भ किया।
1928-30 के मध्य उन्होंने कैण्डी तथा आस-पास के क्षेत्र के कई दृश्य चित्रित किये, साथ ही सिंहली जन-जीवन के भी कुछ चित्रों का अंकन किया इन पर सेजान और पाल गॉगिंग का स्पष्ट प्रभाव है।
जार्ज कीट द्वारा बनाये गये विधा जीवन के चित्र पिकासो से मिलते-जुलते हैं। 1928 की एक प्रदर्शनी में उन्होंने नार लिया।
वहाँ उन्हें नव-भविष्यवादी कलाकार कहा गया । 1929 में उन्होंने पुनः एक प्रदर्शनी में श्रीलंका के कई प्रसिद्ध चित्रकारों के साथ भाग लिया।
जनवरी 1930 में उन्होंने जब तीसरी बार अपने चित्र प्रदर्शित किये तो उन्हें बहुत प्रशंसा मिली मिली। यहीं से जार्ज कीट को अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति मिलनी आरम्भ हुई ।
1930 तथा 1932 के मध्य उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के जीवन का चित्रण किया। ये चित्र अत्यन्त संयत शैली में बनाये गये हैं तथा कृष्ण-राधा से सम्बन्धित पूर्व-रचित चित्रों से पर्याप्त भिन्न हैं।
इसी युग के अनावृताओं के चित्रों के शरीर के ठोस आय का चित्रण पिकासो के समान है।
सन् 1933 से जार्ज कीट की कला में अमूर्त रूपों एवं रेखाओं का आधिक्य ह लगा इस समय के उनके रूप संश्लेषात्मक धनवाद (सिन्थेटिक क्यूबिज्म) के निकट हैं।
इनमें दो चेहरों को एक कर देने वाली शैली पिकासो की है जिसे जार्ज की ने भारतीय अद्वैत दर्शन के संदर्भ में प्रयुक्त किया है। 1936 से जार्ज कीट ने हिर पौराणिक आख्यानों तथा काव्यों के आधार पर चित्रण प्रारम्भ किया।
इनमें जयदे कृत गीत गोविन्द पर आधारित कृष्ण-राधा की प्रणय-लीला का विषय प्रमुख है। 1937 में चित्रित ‘वर्षा-विहार’ इस क्रम की सर्वश्रेष्ठ कृति है।
इस समय जार्ज क के जीवन में जो विपत्तियों आयीं उनके कारण उन्होंने संयोग श्रृंगार के तुरन्त विरह के चित्र बनाये। इसी अवधि में विरह से सम्बन्धित उनके दो कविता-संग्रह सन प्रकाशित हुए ।
भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन और द्वितीय विश्वयुद्ध की आशंका से उनके चित्रों में विशेष विकृति और तनाव भी आ गया है। इसके पश्चात् उनके चित्रों में यह तनाव कम हो गया।
उन्होंने कोलम्बों के गौतमी बिहार में गौतम बुद्ध का जीवन चित्रित किया। 1939 में उन्होंने दक्षिण भारत के मदुरै, श्रीरंगम् और चिदम्बरम् नामक स्थानों की यात्रा की तथा भारत के विविध नृत्यों के कार्यक्रमों से प्रभावित हुए ।
यहाँ से वापस लौटकर उन्होंने गौतमी विहार के चित्र पूर्ण किये। ये सभी चित्र तैल माध्यम में बने हैं और जार्ज कीट की शैली की शक्तिमत्ता के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इनमें भारतीय एवं पाश्चात्य शैलियों का सुन्दर समन्वय भी हुआ है।
1940 से 1946 ई० तक जार्ज कीट ने चित्रण से लगभग सन्यास ले लिया और एकान्तवास में रहे केवल कुछ चित्र भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन से प्रेरित होकर अवश्य अंकित किये।
इस समय की उनकी कृति “भीम और जरासन्ध” संसार की फासिस्ट शक्तियों की प्रतीक है।
1946 के पश्चात् पुनः श्रृंगार विषयक “नायिका” चित्रों का क्रम आरम्भ हुआ। 1943 में श्रीलंका में “ग्रुप 43” की स्थापना हो चुकी थी और जार्ज कीट इसके संस्थापक सदस्य थे।
1946 के अन्त में वे पुनः भारत आये। यहाँ उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगायी गयी। यहीं पर उनका परिचय कुसुम नामक युवती से हुआ जो उनसे टेम्परा चित्रण विधि सीखना चाहती थीं।
बाद में यह परिचय प्रणय बन्धन में परिवर्तित हो गया। सम्भवतः कीट की 1946 के पश्चात् की कला में श्रृंगारिक विषयों का पुनः प्रवेश उनके व्यक्तिगत जीवन के इस मधुर प्रसंग के कारण ही हुआ है।
स्वयं जार्ज कीट का कथन है कि कुसुम के संसर्ग के आनन्द से ही मेरी नायिकाओं का गुलाबी मॉसल वर्ण हो गया है।
जार्ज कीट के परवर्ती जीवन में चित्रों की प्रेरणा हिन्दू तथा बौद्ध कथाएँ रही हैं।
उन्होंने जातक कथाओं, नायिका, राग-रागिनी, कृष्ण लीला एवं श्रीलंका के जन-जीवन तथा प्रकृति से सम्बन्धित चित्रों का अंकन किया है।
उनके गीत-गोविन्द के चित्र विशेष प्रसिद्ध हुए हैं। उनकी कला पर सेजान, गोंगिन तथा पिकासो के अतिरिक्त अजन्ता, सिगिरिय, चोल कालीन कांस्य प्रतिमाओं, केण्डी की लोक कला, दक्षिणी भित्ति चित्रों तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रभाव है।
सेजान से उन्होंने वस्तुओं के ढाँचे को समझा है, गॉगिन से उन्होंने रंग की ऐन्द्रिक अनुभूति ली है, अजन्ता तथा सिगिरिय से रेखा का शास्त्रीय माधुर्य सीखा है, दक्षिण भारत की कांस्य प्रतिमाओं से लय तथा गतिमय ओज का अनुभव प्राप्त किया है, लोक कला से स्पष्ट अभिव्यक्ति की पद्धति अपनाई है तथा रवीन्द्र नाथ ठाकुर से सहजता का गुण प्राप्त किया है।
कीट के संयोजनों की शक्ति मुख्यतः रेखाओं पर निर्भर है जो आवश्यकतानुसार दृढ़, मोटी, शिथिल अथवा बारीक हैं, किन्तु दुर्बल अथवा अनिश्चित नहीं ।