यूरोप की आधुनिक चित्रकला का प्रथम महत्वपूर्ण आन्दोलन प्रभाववाद है। इसका मुख्य रूप से प्रचलन 1874 से 1886 तक पेरिस में रहा है और इसके प्रधान कलाकार मोने, पिरसारो, रेनोआ, सिसले, देगा आदि रहे हैं।
प्रभाववाद में प्रधानतः प्रकाशकी क्रीड़ा को ही प्रस्तुत किया गया है अतः इन कलाकारों ने अमिश्रित रंगों का प्रयोग किया है जिससे रंगों में अधिक से अधिक प्रकाश प्रतिबिम्बित हो सके।
श्वेत तथा काले रंग के साथ ही इन कलाकारों ने कत्थई और भूरे रंगों का भी प्रयोग छोड़ दिया था। विषयों की दृष्टि से भी इन कलाकारों ने प्राचीन विषयों को पूर्णतः तिलांजलि दे दी थी और समकालीन जीवन की वास्तविकताओं को समझने के अभिप्राय से प्रायः प्राकृतिक दृश्यों का समय और वातावरण के अनुसार घटना स्थल पर जाकर ही चित्रण करने के अतिरिक्त स्थिर जीवन, काफी हाउस, वेश्याओं, आवारा व्यक्तियों, शरावियों, मध्य एवं निम्न वर्गीय व्यवसायियों एवं कारीगर कलाकारों को ही चित्रित किया।
फोटोग्राफी की प्रेरणा से प्रभाववादी चित्रकारों ने जीवन के व्यस्त क्षणों को भी चित्रित करने का प्रयत्न किया।
आगे चलकर यह आन्दोलन नव-प्रभावववाद में परिणत हो गया जिसमें रंगों के मिश्रण पूरी तरह छोड़ दिये गये और अमिश्रित रंगों को बिन्दुओं के रूप में ही चित्रों में लगाया जाने लगा।
दिन के अलग-अलग समयों में धूपकी तेजी के अनुसार एक ही वस्तु के प्रकाश तथा छाया वाले भागों के रंगों में होने वाले परिवर्तनों का सावधानी पूर्वक अध्ययन किया गया।
विदेशी पद्धतियों का अध्ययन करने वाले भारतीय चित्रकारों ने प्रभाववादी शैली में भी चित्रांकन किया है। बंगाल के आरम्भिक कलाकारों में यामिनीराय ने अनेक दृश्य-चित्र प्रभाववादी शैली में बनाये थे।
आधुनिक भारतीय दृश्य-चित्रकारों में अधिकांश ने प्रभाववादी पद्धति से चित्रण आरम्भ किया था। भारत के सुप्रसिद्ध चित्रकार हुसैन ने भी अपने आरम्भिक काल में प्रभाववाद से मिलती-जुलती विधि से अनेक दृश्य अंकित किये थे।
बम्बई के ढोंढ तथा लखनऊ के रणवीर सिंह बिष्ट के प्रभाववादी पद्धति से बने जल रंग दृश्य-चित्र अद्वितीय हैं।