इश्तर जयवन्ती अप्पासामी का जन्म (1918-1984) मद्रास में हुआ था। उनका परिवार समाज सेवा के लिए विख्यात था। आरम्भिक शिक्षा के उपरान्त वे कला की शिक्षा के लिए शान्ति निकेतन, पेकिंग तथा ओबरलीन कालेज अमरीका गर्यो।
वहाँ से लौटने के उपरान्त उन्होंने कालेज आफ आर्ट दिल्ली (दिल्ली पोलीटेक्नीक) में 1953 से ग्यारह वर्ष तक चित्रकला की शिक्षा दी। वे दिल्ली शिल्पी चक्र की सोलह वर्ष तक सक्रिय सदस्या रहीं।
शान्ति निकेतन में उन्होनें बंगाल शैली का अध्ययन किया। चीन में उन्होंने स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् के दोनों युग देखे और वहाँ के प्रसिद्ध चित्रकार ची पाइ शी से विशेष प्रभावित हुई।
अमरीका में उनकी कला इतिहास की आलोचना-सम्बन्धी प्रवृत्ति विशेष विकसित हुई वहाँ 1952-53 में उन्होंने बंगाल स्कूल का वस्तु-परक मूल्यांकन किया। भारत लौटने पर उन्हें दिल्ली पालीटेक्नीक में कला शिक्षक के पद पर नौकरी मिल गयी।
वहाँ वे शैलोज मुखर्जी को प्रशंसक बन गई। उन्हें शैलोज के प्रयोग बहुत पसन्द आये। उन्होंने ललित कला अकादमी द्वारा शैलोज मुखर्जी पर प्रकाशित मोनोग्राफ का सम्पादन किया ।
जया चित्रकर्त्री होने के साथ-साथ कुशल लेखिका भी थीं। हिन्दुस्तान टाइम्स (अंग्रेजी) में वे पांच वर्ष तक कला-स्तम्भों की लेखिका-आलोचिका तथा 1964 से 1976 तक ललित कला अकादमी नई दिल्ली के समकालीन कलाकारों से सम्बन्धित प्रकाशनों की सम्पादिका रहीं।
1977 में वे कला भवन विश्व भारती (शान्ति निकेतन) की विजिटिंग प्रोफेसर रहीं। 1978-79 में वे इण्डियन काउन्सिल आफ हिस्टोरीकल रिसर्च नई दिल्ली की फैलो रहीं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपे अंग्रेजी लेखों के अतिरिक्त उनकी चार पुस्तकें हैं
- (1) अवनीन्द्रनाथ ठाकुर और उनके समय की कला
- (2) आधुनिक भारतीय मूर्ति शिल्प
- (3) मराठा युग की तंजौर चित्रकला तथा
- (4) कांच पर भारतीय चित्रकारी ।
उनका एक शोध प्रबन्ध भी है कम्पनी काल की भारतीय चित्रकला उनके संग्रह में अनेक भारतीय चित्र थे।
शिक्षण तथा लेखन के साथ-साथ वे चित्र भी बनाती रहीं। तेल माध्यम में बड़े आकार के चित्र प्रायः हरे, काईया तथा नीले रंगों में खूबसूरती से अंकित किये। कली के समान कोमल और कमनीय एकाकी किशोरियाँ, जिनका यौवन खिल रहा है, उनके चित्रों के विषय बनीं।
पृष्ठभूमि में प्रायः पहाड़ियाँ अथवा विरोधाभास की प्रतीक युगल आकृतियाँ चित्रित है। अपने अन्तिम समय में उन्होंने किशोरी का प्रतीक छोड़ दिया था और दृश्य-चित्र बनाये थे किन्तु इनमें भी उसी प्रकार के रंगों से पूर्ण यौवन में खिली हुई प्रकृति का अछूता सौन्दर्य अंकित हुआ है।
उनके द्वारा निर्भीकतापूर्ण लिखी गयी आलोचनाओं से दिल्ली के बड़े-बड़े कलाकार भी हिल गये और अन्त में दबाव में आकर उन्हें 1964 में दिल्ली पॉलीटेक्नीक की नौकरी छोड़नी पड़ी। उसके पश्चात् उन्होनें ललित कला के प्रकाशनों का कार्य सम्भाला।
यहाँ भी देश के प्रमुख कला केन्द्रों कलकत्ता, बम्बई, बड़ौदा, मद्रास, नई दिल्ली, हैदराबाद तथा लखनऊ में जमघट लगाये हुए कलाकारों की आपसी खींचतान और प्रतिस्पर्द्धा के मध्य उन्होंने अदम्य साहस से काम किया।
इसी अवधि में उन्होनें तंजौर तथा मैसूर से कुछ लोक-शैली की काँच की पेण्टिग्स प्राप्त की और उन पर लिखा। अपने संग्रह को उन्होंने ‘रसजा’ फाउण्डेशन नाम दिया। 1983-84 में ब्रिटेन में “भारतोत्सव” के समय वे कम्पनी शैली की ओर आकर्षित हुई और उसका एक चित्र भी बहुत ऊँचे मूल्य पर खरीदा।
अपने अन्तिम समय में ये बीमार रहने लगीं। उनकी चिकित्सा के लिये तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने दस हजार रूपये का एक चैक भेजा जिसे प्राप्त कर वे अत्यधिक द्रवित हो गयीं। 3 सितम्बर 1984 को वे इस संसार से चल बसीं।
जया के चित्रों की एक पहचान बन गयी थी, वह थी एक विशाल भू-अंचल और उसमें फैली पर्वत श्रृंखला। कभी-कभी इसमें वृक्ष भी अंकित किये गये हैं।
सभी प्राकृतिक उपादानों में विविध और आकर्षक रंग भरे गये हैं। इस प्रकार के वातावरण में अधखिली कली की भाँति किशोरावस्था छोड़कर यौवन में प्रवेश करती हुई कोई बालिका, कहीं बैठी और कहीं लेटी चित्र का सम्पूर्ण प्रभाव मनोमुग्धकारी होता है।