कृष्ण शामराव कुलकर्णी का जन्म (1918-94) पूना के समीप बेलगाँव में 7 अप्रैल 1918 को हुआ था। आरम्भ से ही खेल के साथ-साथ उन्हें चित्रकारी का भी शौक लगा और आर्थिक परिस्थितियाँ अनुकूल न होने पर भी उन्होंने कला की शिक्षा पहले पूना में ली और फिर 1935 में सर जे०जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में प्रवेश किया। 1940 में इन्होंने वहाँ से कला की डिप्लोमा परीक्षा उत्तीर्ण की। तदुपरान्त इन्होंने एक वर्ष का स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम भित्तिचित्रण में उत्तीर्ण किया।
इस समय इन्हें टाटा ट्रस्ट की ओर से शोध छात्रवृत्ति भी मिली। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन से कुछ दिन ये बेकार रहे किन्तु अचानक दिल्ली की एक टेक्सटाइल फर्म (दिल्ली क्लाथ मिल) के बम्बई स्थित एक मित्र से भेंट हो जाने पर ये 1943 में दिल्ली चले आये और मिल में टेक्सटाइल डिजाइनर का कार्य करने लगे।
यहाँ उन्हें अनेक कठिनाइनयों का सामना करना पड़ा अतः 1945 में उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र कार्य करने का निश्चय किया। ये युवक युवतियों को कला की शिक्षा देने लगे और आल इण्डिया फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स सोसाइटी में भी अवैतनिक कार्य करना आरम्भ कर दिया जहाँ देश भर के चित्रकार एकत्रित होते थे।
जुलाई 1945 में वे दिल्ली पालीटेक्नीक के कला विभाग में शिक्षक के पद पर नियुक्त कर दिये गये। उसी वर्ष आल इण्डिया फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स सोसाइटी ने उनकी प्रथम प्रदर्शनी आयोजित की। उन्होंने प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी में भी भाग लिया। 1948 में नई दिल्ली की अत्यन्त प्रतिष्ठित संस्था “त्रिवेणी-कला-संगम’ की स्थापना की।
1949 में कुलकर्णी ने शिल्पी चक्र के संस्थापक अध्यक्ष का पद सम्भाला और नवयुवक कलाकारों को प्रोत्साहित किया और इस प्रकार वे दिल्ली के कला-जगत में अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गये। नये कलाकार यहीं से परम्परागत कला के प्रति विद्रोह का स्वर उठाने लगे। जो स्थिति बम्बई के प्रगतिशील कलाकार दल की थी वही दिल्ली में शिल्पी चक्र की थी। कुलकर्णी ने इसे प्रेरणा दी।
1949 में ये अपनी प्रतिभा के बल पर छः महीने के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत अमेरिका भेजे गये। वहाँ के कला जगत् से उन्होंने गहन सम्पर्क किया और 1950 में भारत लौटे और त्रिवेणी, कला संगम का कार्य सम्भाला ।
त्रिवेणी कला संगम तथा दिल्ली पॉलीटेक्नीक में अपनी जिम्मेदारियाँ निभाते हुए 1950 से 1955 तक उन्होंने दिल्ली के स्कूल आफ प्लानिंग एण्ड आर्कीटेक्चर में भी अल्पकालीन कार्य किया। 1954 में वे व्यक्तिगत रूप में फिर अमेरिका गये और तीन वर्ष बाद 1957 में अमेरिका, मेक्सिको, ग्वाटेमाला, पेरू तथा ब्राज़ील की यात्रा की और वहाँ की आदिम कला से बहुत प्रभावित हुए उनकी कलाकृतियों में मय तथा इंका (अमरीका) आदिम संस्कृतियों की कला का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है।
मेक्सिको में वे सिकेरोस के अतिथि थे। 1963 में वे रूस गये। 1965 से उन्होंने ललित कला अकादमी में अपने चित्रों का प्रदर्शन बन्द कर दिया और अकादमी तथा अन्य कलाकारों की उन्नति के लिए प्राण-पण से जुट गये।
पहले वे अकादमी में प्रख्यात कलाकार के रूप में और फिर 1974 से 1976 तक के लिए वाइस चेयरमेन निर्वाचित किये गये। अकादमी की साधारण सभा के वे बारह वर्ष सदस्य रहे। 1969 से 1974 के मध्य वे पोलैण्ड, पं० जर्मनी तथा मेक्सिको आदि के भ्रमण पर गये।
1972 में कुलकर्णी बनारस विश्वविद्यालय के ललित कला संकाय के डीन के पद पर आसीन हुए और वहाँ छः वर्ष पर्यन्त (1972 से 1978 तक) कार्य किया।
इसी अवधि में वे 1972 से 1979 तक उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी के फैलो चुन लिये गये। इस समस्त अवधि में वे बीच-बीच में (1969 से 1972 तक, 1975 तथा 1978 में) अमेरिका में शिक्षण, अध्ययन, कार्यक्रमों के आयोजन, ग्रीष्मकालीन तथा अन्य पाठ्यक्रमों आदि में सलंग्न रहे।
1949 से 1968 तक वे त्रिवेणी कला संगम के प्रबन्ध निर्देशक रहे जहाँ उनके द्वारा प्रशिक्षित अनेक कलाकार आज प्रसिद्ध हो चुके हैं। वे दिल्ली कालेज आफ आर्ट्स तथा गढ़ी में कला की कक्षाएं लेते रहे। पिछले कई वर्षों से वे दिल्ली के खेलगाँव में आवंटित फ्लैट में रह रहे थे। यहाँ उनका स्टूडियो भी था। यहीं पर 17 अक्टूबर 1994 को उनका निर्धन हो गया।
कला-जगत् में स्थान पाने के लिये कुलकर्णी को कठिन संघर्ष करना पड़ा। अत्यन्त कठोर परिश्रम से उन्होंने अपनी शैली का विकास किया। अजन्ता से लेकर कॉंगठा शैली तक की कला के अनुशीलन से उन्होंने भारतीय कला के महत्वपूर्ण तत्व लिये। 1930 से 1933 तक उन्होंने साइन बोर्ड पेण्ट किये।
आरम्भ में उन्हें राजा रवि वर्मा के चित्र तथा ब्रिटिश लैण्डस्केप बहुत अच्छे लगते थे। समृद्ध रंगों में बने यथार्थवादी विदेशी फिल्मों के पोस्टरों ने भी उन्हें प्रभावित किया था। उन्होनें उनकी अनुकृतियाँ भी की थी। जे० जे० स्कूल में उनका परिचय वाश तकनीक से हुआ और साथ ही इंग्लैण्ड की रायल अकादमी की शैली से भी शीघ्र ही उन्होंने यूरोपीय पद्धति के व्यक्ति-चित्रण में कुशलता प्राप्त कर ली।
मध्यकालीन भारतीय मूर्ति शिल्प से उन्होंने स्पन्दनशील लयात्मकता युक्त पेन तथा स्याही से दो सौ रेखा-चित्र बनाकर दिल्ली में पहली बार प्रदर्शित किए जो सभी बिक गये। इन मूर्तियों के आध्यात्मिक तथा ऐन्द्रिक तत्वों के उत्तेजक चाक्षुष रूपों में समन्वय ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। उन्होंने शरीर शास्त्र के नियमों की चिन्ता नहीं की और शरीर की स्वाभाविक लय का अंकन किया।
इस प्रकार कुलकर्णी ने जिस आकृति का विकास किया वह सरल, ऐन्द्र तथा अरूपता के निकट है। चोल प्रतिमाओं, अमेरिका की मय कला, बाल कला तथा इट्रस्कन प्रभावों के समन्वय से उन्होंने अपनी कला शैली का विकास किया।
अजन्ता-ऐलोरा की रेखा एवं अलंकरण पद्धति, काँगड़ा की लयात्मकता तथा ताजगी, पश्चिमी यथार्थवादिता, पिकासो तथा अमरीकी आदिम कलाओं की प्राणवत्ता तथा सरलता का उनकी कला में अद्भुत समन्वय है।
भारतीय शास्त्रीय भाव और रस, समकालीन- जन-जीवन तथा सामजिक वातावरण को उन्होंने यथार्थवाद एवं अमूर्त-कला क मिले-जुले प्रयोगों से विकसित दोनों की मध्यवर्ती शैली में प्रस्तुत किया। मेक्सिको, न्यूयार्क आदि के उनके द्वारा बनाये गये दृश्य-चित्रों में विषय ही नहीं बल्कि विधान भी विदेशी है।
उनकी आकृतियों टेढ़ी-मेड़ी होते हुए भी जीवन-शक्ति से भरपूर हैं। रेखाएँ स्वतंत्र हैं, रंग उत्तेजक एवं लयात्मक है। गतिपूर्ण आकृतियों में कोणीय अथवा वक्र शारीरिक स्थितियों एवं मुद्राओं का प्रयोग हुआ है। ऐन्द्रिकता होते हुए भी आकृतियाँ रेखात्मक हैं अतः उनमें यथार्थता भी है और अयथार्थता भी है।
कुलकर्णी के “संयोजन-1957” शीर्षक चित्र में आधुनिक अराजकतापूर्ण परिस्थितियों तथा विश्व पर मंडरा रहे विनाश की प्रतिध्वनि है। साहसपूर्ण चौड़े तूलिकाघात, रंगों के चुभने वाले श्वेत-मिश्रित बल, विकृत अंग, वर्तमान घृणा और मिथ्याचार के सूचक हैं और मानव की असहायता को प्रदर्शित करते हैं। चित्र परं मेक्सिकन कला का प्रभाव है।
“अन्तिम भोज” (1987) में मांस तथा रक्त के रंगों में आधुनिक गरीबी, हिंसा तथा भ्रम टूटने की स्थिति का अंकन है। चित्र की आकृतियाँ अस्पष्ट और परस्पर उलझी हुई तथा विवरणहीन हैं फिर भी चित्र का सम्पूर्ण प्रभाव अभिभूत करने वाला है।
कुलकर्णी प्रसिद्ध ग्राफिक चित्रकार तथा मूर्तिकार भी थे। उन्होंने भारत में 40 तथा विदेशों में 30 के लगभग प्रदर्शनियाँ आयोजित की थीं।