यामिनी रंजन राय का जन्म सन् 1887 ई० में बाँकुड़ा जिले के बेलियातोरे नामक गाँव में हुआ था। आपके पिता एक प्रतिष्ठित और सम्पन्न जमींदार थे किन्तु यामिनी राय गाँव के सभी वर्गों के लोगों से बे रोक-टोक मिलते थे।
बाँकुड़ा जिले की संस्कृति का बंगाल में एक विशिष्ट स्थान है। भौगोलिक दृष्टि से यह बिहार की चट्टानी तथा गंगा की मैदानी भूमि की सम्मिलन स्थल है।
यहाँ से पश्चिम में संथाल, उत्तर में मल्ल तथा पूर्व में हिन्दू रहते हैं। बाँकुड़ा इन सभी का सम्मिलन स्थल है। इसमें बौद्ध, वैष्णव तथा शाक्त प्रभाव प्रमुख रहे हैं।
सर्प, नदी, शिव, शक्ति, मातृदेवियों आदि की पूजा की अनेक विधियाँ भी यहाँ प्रचलित हैं जो स्थानीय लोक विश्वासों तथा शास्त्रीय मान्यताओं का मिला-जुला रूप हैं।
इन्होंने यहाँ के निवासियों की सृजनशील कल्पना में बहुत योग दिया है। जीवन के विभिन्न पक्षों में आस्था और आशावाद यहाँ की प्रमुख विशेषता रही है।
यामिनी राय पर इन सबका आरम्भ से ही प्रभाव पड़ा। यहाँ के समाजिक ढांचे में कलाकार और शिल्पी का कार्य एक ही व्यक्ति करता है और कला को निरुपयोगी नहीं समझा जाता।
गाँव में जो विभिन्न शिल्पी थे, यामिनी बाबू उनके सम्पर्क में आते गये। आस-पास के अन्य गाँवों में भ्रमण करके उन्होंने शिल्पों का पर्याप्त ज्ञान अर्जित कर लिया।
मुख्यतः मिट्टी तथा काठ के खिलौनों तथा चित्रकारी के प्रति इनका झुकाव अधिक हो गया। जब गाँव में रास-लीला वालों की टोली आती तो बालक यामिनी उसके पीछे-पीछे घूमते ।
लोक शैली में चित्रांकन करने वाले पटुओं के प्रति उनमें अपार कुतूहल था।
खिलौने, गुड़िया, पूजा की मूर्तियाँ तथा पट चित्र बनाने वाले कुम्हार, बुनकर, बढई तथा देखा करते और उसमें प्रयुक्त अभिप्रायों तथा डिजाइनों की अनुकृति किया करते।
पटुओं के प्रति बालक यामिनी का आकर्षण बढ़ा। वे उनका काम एकटक वे इन कारीगरों से बहुत घुल-मिल गये थे।
परिवारी जनों ने इस पर कोई आपत्ति नहीं की। धीरे-धीरे इनकी चित्रकला में रुचि बढ़ती गयी। बाँकुड़ा जिले की एक प्रदर्शनी में अपने चित्र “सोसाइटी” पर पुरस्कार प्राप्त करने से इनका उत्साह बढ़ गया।
जब ये सोलह वर्ष के हुए तो इनके पिता ने इनकी रुचि देखकर सन् 1903 में विदेशी पद्धति से कला की शिक्षा देने वाले कलकत्ता के गवर्नमेन्ट स्कूल आफ आर्ट में भेज दिया।
किन्तु इस विद्यालय में अन्य शिक्षा-संस्थाओं की ही भाँति एकेडेमिक पद्धति का बोलबाला था और समकालीन आन्दोलनों से उसका कोई वास्ता न था यामिनी राय ने वहाँ पर शास्त्रीय पद्धति से अनावृताओं का अंकन तथा तेल चित्र बनाना सीखा।
वे इसमें शीघ्र ही पारंगत हो गये और अध्ययन समाप्त करने के साथ ही कलकत्ता में एक उत्तम व्यावसायिक चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध भी हो गये।
जिस समय यामिनी राय यहाँ शिक्षा प्राप्त कर रहे थे उसी अवधि में 1906 ई० में यहाँ भारतीय चित्रकला शिक्षण का विभाग भी स्थापित हुआ और अवनीन्द्रनाथ टैगोर उसके प्रभारी बने कलकत्ता कला विद्यालय छोड़ने के पश्चात् यामिनी राय को आजीविका की खोज में इलाहाबाद आना पड़ा।
इलाहाबाद तथा कुछ दिन पश्चात् कलकत्ता में उन्होंने लिथोग्राफी के छापाखानों में काम किया। फिर कुछ समय तक रंगीन ग्रीटिंग कार्ड्स बनाये।
कलकत्ता में ही उन्होंने काष्ठ मुद्रण के एक छापाखाने में कार्य किया। यहाँ कालीघाट पट-चित्र शैली की ही छपाई की एक विशिष्ट शैली विकसित हो गयी थी।
इसके पश्चात् उन्होंने यह सब छोड़कर तैल रंगों में यूरोपीय शैली के चित्र बनाना आरम्भ कर दिया।
इक्कीस वर्ष की आयु में 1908 में वे कलकत्ता में एक फैशनेबिल व्यक्ति चित्रकार के रूप में विख्यात हो गये।
वे व्यक्ति-चित्रों के साथ-साथ दृश्य चित्रों का अंकन भी करने लगे जो प्रभाववादी शैली में थे आलोचकों ने इन्हें बानगींग के दृश्य-चित्रों के समकक्ष माना है किन्तु पुरुषों को सामने बिठाकर और स्त्रियों के फोटोग्राफ द्वारा चित्र बनाते रहने पर शनः शनैः उन्हें घुटन प्रतीत होने लगी और वे अपने आप को अभिव्यक्त करने की विधियाँ ढूँढने लगे।
चित्रकारी के अतिरिक्त वे बंगाल के लोकनाट्य मंच से भी जुड़े रहे थे अतः उसकी यथार्थ लोक-भूमि ने भी उन पर प्रभाव छोड़ा था।
1921 ई० के लगभग उन्होंने अनुभव किया कि उनके लिए यूरोपीय शैली में आगे काम करना असंभव है।
उन्हें लगा कि आत्माभिव्यक्ति के लिए उस समाज की स्थापित परम्पराओं से जुडना आवश्यक है जिसके संस्कारों में वे पले हैं। इन्हीं सांस्कृतिक परम्पराओं में उन्हें अर्न्तदृष्टि तथा अनुभूति प्राप्त हो सकती है।
जिस प्रकार गोगिन, पिकासो तथा मातिरा ने आदिम कला, लोक-कला तथा पूर्वी कला-शैलियों से प्रेरणा ली थी उसी प्रकार यामिनी राय भी लोक-कला के मूल रूपों की खोज में लग गये।
उनका यह प्रयत्न केवल इच्छा या बुद्धि पर आधारित नहीं था बल्कि इसमें उन्होंने अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व झोंक दिया था।
इन प्रयोगों का महत्व उस समय नहीं समझा गया और यामिनी राय को यह समय अत्यधिक अर्थाभाव में व्यतीत करना पड़ा। अतः इस समय वे प्रायः रद्दी कागजों या आते आदि पर ही चित्रांकन करते रहे थे।
इसी अवधि में उनके युवा पुत्र की मृत्यू हो गयी; किन्तु इस आघात को सहन करते हुए भी उन्होंने प्रयत्न नहीं त्यागा।
उनकी प्रतिभा को कुछ विदेशियों ने पहचाना और 1930 ई० में “स्टेट्समैन” की ओर से एक प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इसी के साथ यामिनी राय पुनः ख्याति की ओर बढ़ने लगे।
1929 से 1936 तक वे लाहौर के मेयो स्कूल आफ आर्ट में सहायक निर्देशक रहे। उसके पश्चात् दो वर्ष तक लाहौर के ही फोरमेन क्रिश्चियन कालेज के प्रधान शिक्षक रहे।
1938 से 1947 तक लाहौर के सिटी स्कूल आफ फाइन आर्ट्स के निर्देशक के पद पर कार्य किया।
भारत विभाजन के पश्चात् वे दिल्ली चले आये जहाँ उन्होंने “शिल्पी चक्र” नामक संस्था का सूत्रपात किया। 1935 में कलकत्ता, 1946 तथा 1947 में लन्दन तथा 1953 में न्यूयार्क में उनके चित्रों की महत्वपूर्ण प्रदर्शनियाँ हुई।
उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का कलाकार माना गया। 1955 में उन्हें भारत सरकार ने “पद्मभूषण” की उपाधि प्रदान कर उनकी कला का सम्मान किया।
1967 में उन्हें डी० लिट् की मानद उपाधि प्रदान की गयी। जीवन के अन्तिम क्षणों तक निरन्तर सृजन करते हुए 24 अप्रैल 1972 को उनका देहावसान हो गया।
यामिनी राय की कला
बाल्यकाल में यामिनी राय की कला पर बाँकुड़ा जिले की लोक-शैली का प्रभाव था। कलकत्ता में उन्होंने यूरापीय यथार्थवादी पद्धति तथा तैल माध्यम में कार्य किया साथ ही अनावृताओं का रेखांकन एवं प्रभाववादी शैली में दृश्यांकन किया।
यह सभी कार्य बहुत अच्छा बन पड़ा है। व्यक्ति चित्रण में तो वे इतने कुशल थे कि कलकत्ते में वे एक उत्तम शबीहकार (Portrait-Painter) के रूप में अल्प अवधि में ही विख्यात हो गये।
इसके पश्चात् उन पर कालीघाट की पट-चित्र शैली का प्रभाव पड़ा जिसमें सपाट भूरे अथवा सलेटी धरातलों पर काजल की गहरी तथा सशक्त रेखाओं द्वारा चित्रण किया जाता है।
“स्त्रियाँ” तथा “माँ और शिशु ” उनकी इसी समय की कृतियाँ हैं। सन् 1931 के पश्चात् उन्होंने कालीघाट के पट-चित्रो की शैली को त्याग कर बंगाल की लोक-कला के अन्य क्षेत्रों, बाँकुडा तथा हुगली से प्रेरणा लेना आरम्भ किया।
इनमें शुद्ध चमकदार रंगों तथा तीखी रेखाओं का अधिक प्रयोग है। यामिनी राय ने लोक-कला की रंग योजनाओं में कुछ नये रंगों को बढ़ा कर इन्हें और भी समृद्ध कर दिया है।
इस अवधि में उन्होंने रामायण तथा कृष्ण लीला का चित्रण किया है। इन चित्रों में एक चश्म चेहरे एक ही रेखा में माथे और नाक का अंकन, लाल पृष्ठिका तथा चमकदार शुद्ध रंगों की विशेषताऐं हैं; किन्तु रामायण के चित्रों की अधिक है।
तुलना में कृष्ण लीला के चित्रों में लयात्मकता तथा आलंकारिक प्रभाव पकाई मिट्टी के फलकों (Terracotta Tiles) से प्रेरणा ली है जिसकी भावभंगिमाओं, कृष्ण लीला के चित्रों में उन्होंने विष्णुपुर और वॉशावाटी के मन्दिरों की गढ़नशीलता तथा शक्तिमत्ता का यामिनी राय पर स्पष्ट प्रभाव है।
साथ ही उन पर बंगाल में 18वीं तथा 19वीं शती में चित्रित पाण्डुलिपियों के आवरण चित्रों की शैली का भी प्रभाव है।
लोक-कला के अन्य स्रोतों के रूप में उन्होंने बंगाल की अल्पना से पट आलंकारिकता और अमूर्तन, कन्था से सम्मुख आकृति योजना एवं लोक-जीवन, और खिलौनों तथा गुडियों से चमकीली रंग योजनाओं की प्रेरणा ली है।
उड़ीसा के चित्रों की छोटे-छोटे क्षेत्रों की संयोजन-पद्धति ने भी उन्हें प्रभावित किया है। कुछ चित्रों में अमरीकी प्राचीन ‘मय’ कला का भी प्रभाव लक्षित होता है।
1937 में उन्होंने ईसा के जीवन पर चित्र बनाना आरम्भ किया। जब उनसे इस विषय में पूछा गया कि आप स्वयं ईसाई नहीं हैं, न ही आपने बाइबिल पढ़ी है और एक विदेशी विषय को आप कैसे आत्मसात् कर सकते हैं तो उन्होंने कहा कि वे ये देखना चाहते हैं कि उन्होंने जो नया तकनीक विकसित किया है वह इस प्रकार के विषय को सफलतापूर्वक अंकित कर सकता है अथवा नहीं जो उनके व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित नहीं हैं।
इसके लिए उन्हें ईसा का जीवन बहुत उपयुक्त प्रतीत हुआ। वे ईसा की मानवता वादी भावना को प्रदर्शित करने में रिनेसाँ के यथार्थवादी अथवा प्राकृतिकतावादी कलाकारों की कृतियों से संतुष्ट नहीं थे और यह दिखाना चाहते थे कि केवल अमूर्त और प्रतीक विधि से ही ईसाई मानव और देवता के एकत्व की भावना प्रकट की जा सकती है।
इसमें सन्देह नहीं कि जो आत्मीयता और कोमलता यामिनी राय के ईसा-विषयक चित्रों में है वह न तो बाइजेण्टाइन कला में है, न प्राकृतिकतावादी कला में उसका कुछ अनुभव रूसी लोक-कला की प्रतिमाओं (ICONS) में अवश्य किया जा सकता है।
1940 के उपरान्त कालीघाट के पट-चित्रों की पद्धति पर उन्होंने बिल्लियों की विभिन्न स्थितियों के चित्र बनाये हैं जो उनके तूलिका पर सशक्त अधिकार के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक स्थिति पर भी व्यंग्य भी हैं।
यामिनी राय ने धरातलीय वयन (टेक्सचर) के सम्बन्ध में भी प्रयोग किये। वे सपाट चिकना धरातल बनाने के बजाय उसे कागज की पट्टियों को चटाई की भाँति बुनकर खुरदुरा बनाने लगे।
उन्होंने कागज, गत्ता, कपड़ा तथा बर्तनों पर भी चित्रकारी की है और जल रंगों, क्रेयन तथा टेम्परा से ही अधिकांश कार्य किया है।
यामिनी राय ने न तो पश्चिमी बंगाल की थोथी अनुकृति की है और न भारत की लुप्त प्रायः परम्पराओं का निर्जीव अनुकरण ही किया है।
उनकी कला में न विदेशीपन है, न ठाकुर शैली की धूमिल नैराश्य भावना। बंगाल की लोक-कला के अनुशीलन से उन्होंने एक सर्वथा मौलिक शैली की उद्भावना की है।
आलोचकों के अनुसार उनके प्रतीकों में मौलिकता नहीं है। यह ठीक है, किन्तु यह भी मानना पड़ेगा कि लोक-जीवन में व्याप्त उनके प्रतीक चिर-नूतन हैं।
उन्होंने उन्हें नई व्यवस्था और नव-जीवन दिया है। उन्हें पुष्ट बनाया है और दी है सार्वभौमिकता, जिसके बिना ये प्रतीक बंगाल की परिधि से बाहर नहीं निकल पाते।
दूसरी आलोचना उनके विषय में यह की जाती है कि उन्होंने स्वयं को निरन्तर दुहराया है। वास्तव में यामिनी राय ने कुछ मूल तत्वों को सरलीकृत कर लिया था और उन्हीं को वे सदैव प्रयुक्त करते रहे हैं।
इसी से देखने वालों को उनमें एकरसता अथवा पुनरावृत्ति-सी होती प्रतीत होती है।
यामिनी राय को भारत का पिकासो कहा जाता है; किन्तु यह अतिशयोक्ति है।
इसमें संदेह नहीं हैं कि पिकासो की भाँति वे भी अपने शिल्प में पूर्ण दक्ष थे, किन्तु पिकासो एक सच्चे कलाकार की तरह जहाँ नयी-नयी खोजों में लगा रहा वहाँ यामिनी राय एक ही शैली के विकास में लगे रहे।
कल्पनाशील कलाकार किसी एक ही शैली में बंधकर जीवित नहीं रह सकता। यद्यपि यामिनी बाबू ने भी पश्चिमी शैली, वान गॉग की पद्धति, ठाकुर शैली एवं लोक शैली का क्रमशः अभ्यास किया था तथापि वे पिकासो की भाँति आधुनिक कला के महान अग्रदूत नहीं बन पाये।
आज की शैलियाँ लोक-कला एवं आदिम कला के धरातल पर ही परस्पर निकट आ सकती हैं, उन्होंने इसे समझ लिया था; किन्तु उनकी कला में आधुनिक जीवन की चेतना का अभाव है।
यूरोपीय कला समीक्षकों ने यामिनी राय की ईसाई धर्म विषयक कृतियों और रूसी-बाइजेंटाइन कला-कृतियों में अद्भुत तत्व-साम्य का अनुभव किया है और यह स्वीकारा है कि यामिनी बाबू की कला में निश्चय ही मौलिकता और उच्च भावभूमि है।
आकृति-चित्रण की सरलता के कारण उनकी तुलना आधुनिक चित्रकार हेनरी मातिस से भी की जाती है। यामिनी राय से प्रेरित होकर अनेक नये कलाकार लोक-शैलियों की ओर उन्मुख हुए हैं।