ग्राफिक कलाएँ उन छापा-चित्रों (प्रिण्ट्स) से सम्बन्धित हैं जिनमें किसी ‘वस्तु’ की ‘छाप’ के द्वारा एक जैसे कई छापा-चित्र प्राप्त कर लिये जाते हैं।
प्रागैतिहासिक युग में मनुष्य ने गुफाओं में अपने हाथ के छापे अंकित किये थे। तब से छापा- चित्रों के तकनीक में उल्लेखनीय विकास हो चुका है।
आज के छापा-चित्रों का सीधा सम्बन्ध यान्त्रिक उपकरणों से है जिनकी सहायता से किसी आकृति की एक जैसी कई प्रतिकृतियाँ प्राप्त की जाती है।
मशीनी आविष्कार से पूर्व यह कार्य मुहरों एवं सिक्कों आदि से किया जाता था जिनके आरम्भिक उदाहरण सिन्धु सभ्यता के हैं। इनमें आकृति तथा लिपि, दोनों ही, अंकित दृश्य के अभिन्न अंग हैं।
भारत में धार्मिक तथा तांन्त्रिक आकृतियों, चिन्हों एवं अक्षरों आदि से युक्त प्रतीक कई विधियों से छाप कर प्रयोग में लाये जाते थे; पर इनका प्रयोग सीमित ही रहा ।
छपाई का प्रथम आविष्कार चीन में 868 ई० में “हीरक सूत्र” की सचित्र पुस्तक के रूप में माना जाता है।
आठवीं-नवीं शताब्दियों में चीन से बगदाद होता हुआ कागज का प्रयोग यूरोप एवं भारत की ओर बढ़ा जिससे आगे चलकर मुद्रण कला का अभूतपूर्व विकास हुआ।
मध्य युगीन यूरोप में काठ के ठप्पों के द्वारा पुस्तकों को “सचित्र बनाने का प्रयत्न किया गया। रिनेसाँ युग में जर्मनी आदि में छापा-कला में विशेष रूचि ली गयी।
हालैण्ड में सत्रहवीं शताब्दी में रेम्ब्रों के समय छापा कला को चित्रकला (पेण्टिंग) की बराबरी का दर्जा प्राप्त हुआ। तब तक एनग्रेविंग (उत्कीर्णन) तथा एचिंग (अम्लांकन) विधियाँ ही विकसित हुई थीं स्पेन में गोया ने ‘एक्चाटिंट” का आविष्कार किया।
आधुनिक युग में इन सभी विधियों में परिष्कार के अतिरिक्त अमरीका में रोरीग्राफी (सिल्क स्क्रीन) प्रिंटिंग का 1930-40 के मध्य विकास हुआ है।
पत्थर की शिला से छापने की विधि भी प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होती रही है। भारत में राजा भोज परमार के समय के इसके उदाहरण मिले हैं।
भारत में 1556 ई० में गोवा में पहली छपाई मशीन लगने के साथ छापा कला का विकास आरम्भ हुआ । किन्तु इसका समुचित विकास आधुनिक काल में ही हो सका है।
पिछली शताब्दी में ब्रिटिश सरकार द्वारा खोले गये कला-विद्यालयों में शिलामुद्रण, उत्कीर्णन तथा अम्लांकन की विधियों का शिक्षण प्रारम्भ हुआ। उन्नीसवीं शती के आरम्भ में पुस्तकों की माँग बढ़ जाने से इसकी उन्नति हुई।
कुछ ब्रिटिश चित्रकारों ने भी भारत में इस विधि से चित्र छापे । तत्पश्चात् मुद्रण उद्योग का भारतीयकरण हुआ और अनेक मुद्रणालय स्थापित हुए कलकत्ता आर्ट स्टुडियो, हुए।
कन्सीपारा आर्ट स्टुडियो, कनक कोहिनूर फैक्ट्री ढाका, राजा रवि वर्मा प्रेस पूना, बोल्टन फाइन आर्ट लिथो वर्क्स बम्बई, चित्रशाला प्रेस पूना, मुन्शी नवल किशोर प्रेस लखनऊ तथा चश्मेनूर प्रेस अमृतसर आदि इनमें प्रमुख थे।
इसके पशचत् कुछ अन्य व्यवसाइयों ने छापाखाने लगाये किन्तु छापाखाने द्वारा मुद्रित छापा-चित्रों की तुलना में कलाकार द्वारा प्रिंटिंग के लिये बनायी गयी विशेष मशीन से छपे चित्र भिन्न प्रकार के होते हैं।
कला विद्यालयों के छापा चित्रों का सम्बन्ध इस भिन्न प्रकार से ही था। राजा रवि वर्मा ने छापाखाने की मशीनों द्वारा अपने चित्र (ओलियोग्राफ विधि से) छपवाये थे।
कलात्मक विधि के छापा-चित्रों के पहले सफल कलाकार गगनेन्द्रनाथ ठाकुर थे जिन्होंने इसके तकनीक को मौलिकता के लिये स्वतंत्र किया ।
शान्ति निकेतन के अन्य कलाचार्यो नन्दलाल बसु तथा विनोद बिहारी मुखर्जी आदि ने भी उत्कीर्णन एवं अम्लांकन विधियों का प्रयोग किया।
इन विधियों के कलकत्ता के अन्य कलाकार थे मुकुल दे, रमेन्दनाथ चक्रवर्ती एवं मधुभूषण गुप्त, हरेनदास एवं चित्तप्रसाद आदि ।
स्वतंत्रता के पश्चात् के कलकत्ता के ग्राफिक कलाकारों में सोमनाथ होरे का अद्वितीय स्थान है जिन्होंने कलकत्ता कला महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर दिल्ली, बड़ौदा तथा शान्ति निकेतन में ग्राफिक कलाओं का प्रशिक्षण दिया और अनेक मेधावी शिष्यों (जगमोहन चोपड़ा, जयकृष्ण आदि) को नये मार्गो की ओर प्रोत्साहित किया।
आधुनिक भारतीय प्रिण्ट बनाने का वास्तविक विकास सन् 1950 के बाद ही हो पाया है।
1946 में बड़ौदा में नारायण बालाजी जोगलेकर के प्रयत्नों से प्राफिक कार्यशाला का आरम्भ हुआ जहाँ जयकृष्ण, लक्ष्मागौड़, गौरीशंकर एवं देवराज जैसे भारत के अन्य राज्यों के कलाकारों के अतिरिक्त शान्ति दवे, विनोदराय पटेल, जयन्त पारीख, नैना दलाल, मगन परमार, ज्योति भटट एवं रजनी कान्त पांचाल आदि अच्छे ग्राफिक कलाकार प्रकाश में आये हैं।
सोमनाथ होरे 1958 में दिल्ली पालीटेक्नीक में प्राध्यापक बनकर आये।
जगमोहन चौपड़ा आदि उनके शिष्यों ने 1967 में दिल्ली में एक अच्छी ग्राफिक कार्यशाला स्थापित की और ग्राफिक कलाकारों के एक दल “ग्रुप-8” का सूत्रपात किया अकबर पदमसी ने बम्बई में एक कार्यशाला स्थापित की।
1975 में ललित कला अकादमी की गढ़ी कार्यशाला दिल्ली में बनी जिसमें सेरीग्राफी (सिल्क स्क्रीन) की सुविधा भी उपलब्ध हैं। मद्रास के चोल-मण्डल और हैदराबाद में भी ग्राफिक कार्यशालाएँ बनीं।
बम्बई में वाई० के० शुक्ल 1940 से ही ग्राफिक कलाओं में कार्य कर रहे थे जिसकी शिक्षा के इटली से लेकर आये थे।
आधुनिक ग्राफिक कलाकारों की सूची बहुत बड़ी है फिर भी भारत में अपेक्षित स्तर का कार्य बहुत कम हो रहा है।
ऊपर उल्लिखित कलाकारों के अतिरिक्त वर्तमान ग्राफिक चित्रकारों में देवयानी कृष्ण, अनुपम सूद, श्यामलदत्त रे, सनत कर, प्रेमजीत सिंह, सतीशगुप्त, जरीना, सुहास राय, आर० वरदराजन बढीनारायण, मनहर मकवाना, रंगास्वामी सारंगन, गुनेन गाँगुली, जीवन अदल्जा, भूपेन्द्र कारिया, लक्ष्मण पै, गुलाम शेख, रिनी धूमल, मनजीत बाबा, रामेश्वर ब्रूटा, जगदीश स्वामीनाथन, गुलाम रसूल सन्तोष, भवेश सान्याल, अमिताभदास तथा भवानीशंकर शर्मा आदि प्रमुख हैं।
ग्राफिक प्रिण्ट अन्य प्रकार के चित्रों से सस्ता होता है अतः यह अब पर्याप्त लोकप्रिय होता जा रहा है। चित्र छापने में प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार के कारण कलाकार को हाथ से अच्छा प्रिण्ट तैयार करने में नई चुनौतियों का सामना भी करना पड़ रहा है।
ग्राफिक कलाएँ मशीनी सभ्यता की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं जिनमें कलाकार मशीन का दास न रहकर मशीन पर पूर्ण प्रभुत्व जमाये रखता है।
सभ्यताओं के विकास के साथ-साथ ग्राफिक कलाओं के उपकरणों, सामग्री तथा छापने की विधियों में भी निरन्तर विकास होता रहा है।
आज इसकी अनेक विधियों प्रचलित हैं जैसे काष्ठ अथवा धातु पर उत्कीर्णन, अम्लांकन, सिल्क स्क्रीन, शिला-मुद्रण अथवा अश्म-मुद्रण, लिनोकट आदि।