अमृता शेरगिल (1913-1941 ई०) Amrita Shergil

अमृता शेरगिल के पिता उमराव सिंह शेरगिल पंजाब में अमृतसर के निकट मजीठा तथा उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के निकट सरैया गाँव के जागीरदार थे। 

उनकी माता मारिया आन्त्वानेत हंगेरियन थीं। युवती मारिया जब भारत भ्रमण के लिए आयी हुई थीं तो पंजाब में उनकी भेंट उमरावसिंह से हुई और दोनों प्रणय सूत्र में बंध गये। 

उमरावसिंह अनेक भाषाओं के विज्ञान, तत्वज्ञानी तथा धार्मिक व्यक्ति थे। माता संगीत प्रेमी महिला थीं। इन्हीं के परिवार में अमृता का जन्म 30 जनवरी 1913 को हंगरी की राजधानी बुदापेरत में हुआ था। 

अमृता का बचपन हंगरी में ही व्यतीत हुआ और उन्हें बचपन से ही अपनी प्रतिभा के विकास का पूरा अवसर मिला। चित्रकला में भी उनकी आरम्भ से ही रुचि थी। 

जब ये साढ़े पांच वर्ष की थी, तभी रंगीन पाक से अपने आस-पास के खिलौनों के चित्र बनाना आरम्भ कर दिया था। सात वर्ष की आयु में उन्होंने हंगरी की परी कहानियों तथा बालकों की वेश-भूषा के सुन्दर चित्र बनाये थे आठ वर्ष की आयु में वे प्रथम बार भारत आय। 

तब तक प्रथम महायुद्ध समाप्त हो चुका था। उनके साथ माता-पिता के अतिरिक्त छोटी बहिन इन्दिरा भी थी। मार्ग में पेरिस में उन्होंने खूब संग्रहालय देखा जहां विश्व-विख्यात यूरोपीय कलाकारों के अनेक चित्र तथा लियोनार्दो की ‘मोनालिसा’ भी है। 

यहां होते हुए वे बम्बई उतरी और कुछ दिन बम्बई तथा दिल्ली में रहीं। इसके पश्चात् वे अपने पैतृक निवास स्थान समर हिल शिमला चली गयीं। 

वहां उनकी शिक्षा रईसी ढंग से हुई। उनके लिए बारी-बारी से कई कला शिक्षक भी नियुक्त किये गये। 

सन् 1924 में ग्यारह वर्ष की आयु में अमृता को इटली के फ्लोरेन्स नगर के कला-विद्यालय में प्रवेश दिलाया गया किन्तु वहां की शिक्षण-पद्धति अमृता के अनुकूल नहीं थी अतः वे भारत लौट आयीं और 1924 से 1927 तक घर पर ही कला का अभ्यास करती रहीं। 

इस अवधि में उन्होंने अपनी प्रतिभा का जो प्रदर्शन किया उसके कारण उनके परिवार के शुभ-चिन्तकों ने उन्हें पुनः यूरोप जाकर कला के अध्ययन का परामर्श दिया। 

1929 में वे पुनः पेरिस पहुँची। वहाँ कुछ समय तक अन्य कला शिक्षकों के सम्पर्क में रहने के उपरान्त अन्त में 1929 से 1934 तक पाँच वर्ष तक उन्होंने वहाँ के प्रसिद्ध कला-शिक्षक लूसियों साइमों के निर्देशन में “इकोल द बुआज आर्त’ में कला की शिक्षा प्राप्त की। 

1930 ई० के लगभग उन्होंने तैल चित्रण आरम्भ किया। इसी बीच तीन महीने के लिए वे हंगरी भी गयीं। पेरिस में वे प्रतिवर्ष अपने चित्रों की प्रर्दशनी भी करती रहती थीं। 

वे स्वभाव से नास्तिक थीं और यूरोपीय वातावरण का उनपर प्रबल प्रभाव था। वे परिस की बोहीमियन जिन्दगी के भी निकट सम्पर्क में आय र्थी अतः उनका जीवन बहुत उन्मुक्त था और वे बाहरी हस्तक्षेप बिल्कुल पसंद नहीं करती थीं। तीन वर्ष के पश्चात् उन्होंने सन् 1932 में ग्रांद सेलून में जो चित्र प्रदर्शित किये उनमें ‘युवा कन्याऐं’ शीर्षक चित्र की मुक्त से प्रशंसा की गयी। 

यह चित्र यद्यपि कला विद्यालय की शिक्षा स्तर का है तथापि इस कंठ पर सेजान का भी प्रभाव है किन्तु यूरोप में चित्रकला के क्षेत्र में पुरस्कार एवं यश प्राप्त करने के उपरान्त भी उन्हें ये अनुभव हुआ कि वे यूरोप में पिकासो अथवा माति जैसे कलाकारों की स्थिति प्राप्त नहीं कर सकतीं। 

उनके मन में यह धारणा बैठ गई कि उनका कार्य क्षेत्र भारत ही हो सकता है। 1934 ई० में वे अपने माता-पिता के साथ भारत लीटी और मजीठा (पंजाब) तथा सरैया (गोरखपुर, उ० प्र०) होती हुई शिमला में रहने लगीं और चित्रण में अपना अधिकाधिक समय व्यतीत करने लगीं। 

यूरोप में वे नग्न मॉडल बैठाकर चित्रण किया करती थी, उसी विधि से भारत आने घर भी उन्होंने परिवार, मित्रों तथा घरेलू नौकरानियों आदि के चित्र अंकित किये।

सन् 1935 में अमृता ने फाइन आर्ट्स सोसाइटी को अपने कुछ चित्र प्रदर्शनी के लिए भेजे। सोसाइटी ने जो चित्र लौटाये उनमें एक चित्र वह भी था जिस पर उन्हें पेरिस में पुरस्कार मिल चुका था। 

इससे अमृता को गहरी ठेस लगी और उन्होंने सोसाइटी द्वारा प्रदत्त पुरस्कार भी वापिस कर दिया। भारत में रहकर अमृता ने जो चित्र बनाये उनमें आकृतियों के सरलीकरण के साथ-साथ यहाँ के जन-साधारण की मार्मिक परिस्थितियों को भी कुशलता से चित्रित किया गया है। 

इनमें बाल-बधू, भारतीय माँ, भिक्षुक, तीन कन्याएँ तथा पर्वतीय महिलाऐं आदि प्रमुख हैं।

1936 में वे दक्षिण भारत की यात्रा पर जाते समय बम्बई में कार्ल खण्डालावाला से मिलीं। वहाँ अमृता को प्रशंसा भी मिली और उनके संग्रह में अनेक उत्तम कोटि के भारतीय लघु चित्र भी देखने को मिले। 

बम्बई के प्रिंस आफ वेल्स संग्रहालय में भी उन्होंने चित्रों का अध्ययन किया। राजस्थानी तथा बसौली शैली के चित्रों के अ ययन का उन्होंने बाद में बनाये चित्रों में उपयोग किया। 

बम्बई में उन्होंने ताजमहल होटल में अपने चित्रों की प्रदर्शनी भी की। अजन्ता तथा एलोरा उन्हें बहुत अच्छे लगे। अजन्ता के विषय में उन्होंने कहा था कि “अजन्ता ! वह तो मेरी समझ से बाहर की चीज है”। 

अमृता ने दक्षिण में कोचीन, त्रिवेन्द्रम, कन्याकुमारी, मदुरै तथा मत्तनचारी के मन्दिरों के भित्ति चित्रों, दक्षिणी भूमि, वनस्पति और वहाँ के अर्द्ध नग्न नर-नारियों को देखा और उन सबका उनकी कला में भी प्रभाव आया। 

1936 में ही अमृता ने अपने चित्रों की प्रदर्शनियाँ हैदराबाद, इलाहाबाद तथा दिल्ली में आयोजित कीं। दिल्ली प्रदर्शनी के समय उनकी भेंट जवाहरलाल नेहरू से भी हुई।

1937 में अमृता ने अपने चुने हुए तीस चित्रों की प्रदर्शनी लाहौर में की। इससे उनकी बहुत ख्याति हुई और अनेक समाचार पत्रों ने उनकी प्रशंसा की। 

इसी समय ये हडप्पा के अवशेष देखने भी गई। कुछ समय पश्चात् वे सरैया चली गयीं। 1938 में उन्होंने दिल्ली में प्रदर्शनी आयोजित की जिसमें उन्हें अपने दो आत्म-चित्रों पर पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। 

1938 में अमृता ने अपने हंगरी के रिश्ते में चचेरे भाई विक्टर एगान से विवाह किया जो एक सैनिक थे। वे एक वर्ष तक वहीं रही और छोटी-छोटी जगहों पर घूमती रहीं। 

इस समय उन्होंने सरल शैली में “हंगरी का हाट” आदि चित्रों की रचना की। इसी समय महायुद्ध की आशंका होने के कारण वे अपने पति के साथ 1939 ई० में श्रीलंका, महाबलीपुरम तथा मथुरा होते हुए शिमला लौटी। मथुरा की कला के प्रति ये बहुत आकर्षित हुई। 

मथुरा से शिमला पहुँचने के कुछ समय पश्चात् विक्टर एगान के साथ सरैया पहुँचीं। यहाँ उन्होंने भारतीय नारी की घरेलू, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक समस्याओं को समझने और चित्रित करने का प्रयत्न किया। 

इस समय के उनके चित्रों में ‘झूला’, कहानी कहने वाला, वधू, चारपाई पर विश्राम करती महिला आदि प्रमुख हैं। 1940 में अमृता को बम्बई आर्ट सोसाइटी द्वारा पुरस्कृत किया गया।

1941 में अमृता लाहौर चली आयीं जहाँ उन्होंने सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों तथा आकाशवाणी-वार्ताओं आदि में भाग लेना आरम्भ कर दिया। 

अमृता का स्वास्थ्य निरन्तर गिरता जा रहा था और 5 दिसम्बर 1941 को केवल 29 वर्ष की आयु में ही उनका निधन हो गया।

अमृता की कला- अमृता की आरम्भ से ही मानव शरीर के चित्रण में विशेष रुचि थी। जब वे बालक थीं तभी सुन्दर वेशधारी बच्चों के रेखाचित्र रंगीन चाक आदि से बनाती थीं। 

उनके आरम्भिक शिक्षकों ने उन्हें यूरोपीय पद्धति से माडल बिठाकर चित्रांकन करने को प्रेरित किया। पहले तो उन्होंने जल रंगों से कार्य किया किन्तु शीघ्र ही वे तैल माध्यम में कार्य करने लग गईं। 

किशोरावस्था में ही वे यूरोप के कलाकारों की भाँति नग्न- मानव-माडल बिठाकर चित्रांकन करने लगी थीं। इसमें उन्होंने जो तकनीकी कुशलता तथा शारीरिक सौन्दर्य के चित्रण में दक्षता प्राप्त की थी उसका प्रभाव “स्त्री की पीठ” के चित्र में देखा जाता है। 

उनके द्वारा अंकित कोयले से बनाये गये स्केचों तथा अध्ययन चित्रों में रेखाओं तथा बलों का अच्छा योग है। यूरोपीय प्रवास के समय उन पर गॉगिन, वान गॉग तथा सेजान का सबसे अधिक प्रभाव पड़ा जिससे उनकी कलाकृतियों में सरलता का समावेश हुआ। 

1936 से उन पर भारतीय लघु चित्रों के रंगों के सौन्दर्य का भी प्रभाव पड़ा जो अन्त तक दिखायी देता है। 1938 में जब वे विक्टर एगान से विवाह करने पुनः हंगरी गयीं तो ब्रूगेल द एल्डर की सरल रंग-योजनाओं से भी प्रभावित हुई और इसी प्रभाव में उन्होंने हंगरी के बाजार का दृश्य बनाया। इस समय के चित्रों में छाया और सादगी का एक विचित्र संयोग है।

दक्षिण भारत भ्रमण के पश्चात् अमृता ने दक्षिण में किये गये स्केचों के आधार पर जो चित्र बनाये उनके लिए शिमला के लोगों को माडल बनाया। 

इससे इन चित्रों में वास्तविकता का अभाव आ गया है। रंग-योजनाएँ तथा मुद्राएँ यद्यपि व्यंजक हैं तथापि मुखाकृतियाँ मार्मिक और स्वाभाविक नहीं हैं।

अमृता की कला में पूर्व और पश्चिम की शैलियों का समन्वय हुआ है। उन्होंने यूरोपकी आधुनिक आकृति-मूलक शैलियों के साथ भारतीय लघु चित्र शैलियों का समन्वय किया है। 

उनकी आकृतियों में गॉगिन के समान आदिम सरलता, सेजान के समान गढ़न का प्रभाव, भारतीय लघु चित्रों के समान वर्ण-सौन्दर्य, ब्रूगेल द एल्डर के समान सपाट छाया वाले स्थानों का चित्रण तथा अभिव्यंजनावादियों के समान रूपों और रंगों की अनुभूति है। 

उन्होंने आकृतियों को सरल बनाया और उन्हें गहरी बुझी रेखाओं से घेरा । यद्यपि उन्होंने कुछ प्राकृतिक दृश्यों, हाट तथा व्यक्ति-चित्रों का भी अंकनकिया है पर उनकी कला में भारतीय जन-जीवन के समाजिक पक्ष, विशेष रूप से नारी के जीवन का भी पर्याप्त चित्रण है। लाल रंग उनका प्रिय रंग है जिसके अनेक बलों का उन्होंने प्रयोग किया है। 

यह हंगरी के लोक-जीवन में तो व्याप्त है ही, अमृता के भोग-विलासपूर्ण जीवन का भी द्योतक है।

अमृता ने यद्यपि तैल माध्यम का प्रयोग किया है किन्तु उनके चित्र टेम्परा में अंकित भित्ति चित्रों जैसे लगते हैं ।

अमृता शेरगिल की ख्याति मुख्यतः पाँच चित्रों पर आधारित है 1. पर्वतीय पुरुष, 2. पर्वतीय स्त्रियों 3. ब्रह्मचारी, 4. वधू का श्रृंगार तथा 5. बाजार जाते हुए दक्षिण भारतीय ग्रामीण इसके साथ एक चित्र और जोड़ दिया जाता है फल बेचने वाले – (या केले बेचने वाले) ।

पर्वतीय स्त्री-पुरुषों के चित्र में लोग पास-पास खड़े अवश्य हैं पर उनमें परस्पर आत्मीयता का पूर्ण अभाव है। शायद यह उनलोगों के जीवन की वास्तविक दूरियों को प्रकट करता है। 

वधू का श्रृंगार तथा ब्रहमचारी में अजन्ताकी प्रेरणा से अंगों की लम्बाई और मुद्राएँ प्रभावित हैं। इन दोनों चित्रों में भी पुरूषों तथा स्त्रियों के समूह पृथक् ही चित्रित किये गये हैं। साथ ही फ्रेंच अकादमी का भी प्रभाव है। 

सम्भवतः एक चीनी मिल के मालिक पूँजीपति की पुत्री होने के कारण उनके दृष्टिकोण में सहानुभूति नहीं झलकती। उन्होंने भारतीय जन-जीवन के भावुकतापूर्ण चित्र ही अंकित किये जैसे मदर इण्डिया, भिखारी, स्त्री, सूरजमुखी आदि। उनके भावुकतापूर्ण मन को भारत की गरीबी सुन्दर लगती थी। 

भारतीयों की दयनीय अवस्था उनके लिये केवल एक उत्तेजना मात्र थी। उन्होंने लिखा भी है कि यदि “भारत में गरीब न होते तो मेरे लिये पेण्ट करने को कुछ भी नहीं होता।”

तकनीकी दृष्टि से यूरोपीय कला-शिक्षा पर गर्व होते हुए भी उन्हें अपना भविष्य यूरोप में न दिखाई देकर भारत में ही दिखाई देता था। 

फिर भी अपनी शैली के मौलिक विकास में उन्हें पूर्ण सफलता नहीं मिली। यदि वे जीवित रहती तो उनकी कला में भी विकास होता ।

अमृता शेरगिल ने पाश्चात्य अंकन पद्धति तथा भारतीय जीवन-दृष्टि को अपनी कला का आधार बनाया । आकृतियाँ सुनिश्चित और उच्च कोटि की रंग योजनाएँ उनके चित्रों की मुख्य विशेषताएँ हैं।

अमृता शेरगिल हमारे सामने उस समय आर्यी थी जब ठाकुर शैली की मौलिक प्रेरणा का हास हो गया था। कलाकारों का अधिकांश वर्ग अतीत में ही उलझा हुआ था और कला सम्बन्धी विचारों में एक अजीब अस्पष्टता फैली हुई थी। 

उन्होंने इस काई को काटने का यत्न किया और भारतीय कला को नया मूल्य दिया । उनके प्रयोगों ने नये चित्रकारों को नये प्रयोग करने की उमंग दी यह अमृता की ऐतिहासिक देव थी। भारत की आधुनिक चित्रकला के इतिहास में उनका नाम नींव के पत्थरों में गिना जाता है। 

अपनी कला, स्वभाव, चरित्र तथा व्यक्तित्व में अमृता निवासी कवि बायरन का भारतीय नारी-संस्करण कहा गया है।

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