घनवाद | Cubism

बीसवीं शती की यूरोपीय कला में आधारभूत परिवर्तन लाने में घनवाद की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पिकासो तथा बाक इसके प्रवर्तक थे जिन्होंने कला को साहित्यिक सन्दर्भों से पूर्णतः मुक्त किया। 

यद्यपि सेजान के प्रयोगों तथा नीग्रो मूर्तिकला की प्रेरणा से यह आरंभ हुआ था तथापि 1909 से 1914 के मध्य इसका जो विकास पिकासो तथा बाक ने किया वही महत्वपूर्ण है। 

इस युग का धनवाद ‘विश्लेषणात्मक तथा समन्वयात्मक घनवाद’ (Analytical and Synthetic Cubism) कहा जाता है। किसी निश्चित बिन्दु से खिड़की अथवा छिद्र में से दिखायी देने वाली प्रकृति के अंकन की रिनेसां युग से चली आ रही मान्यता को घनवाद ने समाप्त कर दिया। 

सपाट चित्रतल को त्रिआयामी प्रभाव देने के लिये दूर जाते तथा निकट आते परस्पर काटते हुए तलों में निकटतम और दूरस्थ स्थानों के द्वारा चित्रगत विस्तार को सीमित किया गया और एक साथ कई स्थानों से दिखाई देने वाली विभिन्न स्थितियों के अनुसार वस्तु का विश्लेषण किया गया। 

इस प्रकार वस्तु के घनत्व और विस्तार में एक नया सम्बन्ध बना। इसे विश्लेषणात्मक घनवाद कहा जाता है। समन्वयात्मक घनवाद में तल एक दूसरे के ऊपर आ जाते हैं और रंग महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

आधुनिक कला में प्रभाववादी रंग योजना के समान ही रूप निर्माण को दृष्टि से धनवाद का बहुत महत्व है। घनवाद ने वस्तुओं के आयतन की परम्परागत मान्यताओं की जड़ें हिला दीं और वस्तुओं के विभिन्न पक्षों तथा अवस्थाओं को एक साथ प्रस्तुत करने का भी प्रयत्न किया। 

ऐसा करने में इन कलाकारों को आकृतियों का अंग-भंग भी करना पड़ा जिसके कारण यूरोप के धनवादी कलाकारों को “रूप के कातिल” (Assassins) भी कहा गया है।

समझे घनवाद के प्रभाव से वस्तुओं के रूप सीधी-सीधी रेखाओं से बनाये गये अत्यन्त आवश्यक ढाँचे के समान एकदम सरल हो गये और ये सरल रूप भी सुन्दर जाने लगे। 

परस्पर आच्छादित ज्यामितीय तलों, एक साथ कई कोणों मे देखे गये संयुक्त (Composite) रूपों ने यथार्थ जगत् को एक नये ढंग से प्रस्तुत किया । 

ये विशेषताएँ मिस्र की कला, गोथिक कला, राजपूत तथा मुगल लघु चित्रों में भी थीं। भारतीय मूर्तियों में भी अतिभंग मुद्रा में आकृति का मुख, स्तन एवं नितम्ब, सब एक ही दिशा में दिखाये जाते थे।

यूरोप में धनवाद एक चुनौती के रूप में था पर भारत में इसे चुनौती के रूप में नहीं लिया गया। यही कारण है कि यहाँ यह एक सामूहिक आन्दोलन के रूप में किसी पीढ़ी में नहीं दिखायी दिया। भारतीय कलाकारों को तो इसका पूर्ण विकसित एवं परिपक्व रूप उपलब्ध हो गया था जिसकी केवल कुछ विशेषताओं को इन्होंने ले लिया। 

सर्वप्रथम गगनेन्द्रनाथ ने 1920 में अपने स्याही रेखाचित्रों में इसका प्रयोग किया। अपनी स्वप्न फन्तासी को अधिकाधिक व्यंजक बनाने में उन्होंने घनवाद का प्रयोग किया। 

उनके चित्रों के श्वेत-श्याम भाग प्रकाश छाया के साथ-साथ वस्तुओं के तलों और आयामों को भी प्रस्तुत करते हैं। वे इसके साथ-साथ अन्तराल (Space) के रहस्य को भी बढ़ा देते हैं। इसके लिये गगनेन्द्रनाथ ने सीधे ढाँचों के बजाय कर्णवत् ढाँचों का प्रयोग किया है।

जार्जकीट ने घनवाद का प्रयोग पिकासो से प्रेरित होकर 1940 में किया और भारतीय मूर्तिकला के रूपों को पिकासो के रूपों के समान केवल रेखाओं द्वारा ही बनाने का प्रयत्न किया। 

बेन्द्रे ने 1950 में समन्वयात्मक घनवाद के प्रयोग से आकृतियों बनायीं। इनमें एक प्रकार का तनाव भी है जो भारतीय शास्त्रीयता और सौन्दर्य के साथ समन्वित किया गया है। रामकिंकर ने भी 1940 के लगभग दृश्य चित्रों का घनवादी रेखांकन किया।

स्वातन्त्र्योत्तर काल में भारत के अनेक कलाकार धनवाद से प्रभावित हुए। इनमें जहाँगीर साबाबाला सर्व प्रमुख हैं। वे पेरिस में आन्द्रे ल्होते से धनवाद की शिक्षा लेने गये। 

उन्होनें भारतीय दृश्यों तथा आकृतियों को विश्लेषणात्मक घनवादी पद्धति पर आधारित किया। त्रिलोक कौल ने भी यही विधि अपनायी किन्तु उनके सम्पूर्ण कार्य, विशेषतः 1960 के आसपास के कार्य से स्पष्ट है कि उन्होंने घनवाद के सरल आरम्भिक रूप का ही प्रयोग किया है। 

रामकुमार ने बनारस के दृश्य भी घनवादी अमूर्त शैली में अंकित किये हैं पर उनमें उन्होंने अपनी एक निजी शैली विकसित कर ली है। उन्होंने भी आन्द्रे ल्होते तथा लेजे से शिक्षा ली थी।

भारत के अनेक आधुनिक चित्रकार धनवाद से प्रेरणा ले रहे हैं पर यह उनकी शेली में प्रधान विशेषता अथवा मुख्य पक्ष के रूप में नहीं है। हुसेन, शान्ति दवे, के० एस० कुलकर्णी आदि ने अपने रूपों को घनवादी शैली के आधार पर विभिन्न विधियों से विकृत किया है। ज्योति भटट तथा अकबर पदमसी आदि की कला में भी धनवादी प्रभाव है।

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