मिनिएचर (लघु-चित्रण) मध्यकालीन भारतीय चित्रकला का एक मनोरम सोपान है।
पहले ताडपत्रीय पोथियों और फिर कागज पर जो चित्र रचना आरम्भ हुई उसमें एक ओर वर्णाढ्यता तथा दूसरी ओर रेखा प्रवाह का अप्रतिम सौन्दर्य है भारतीय लघु-चित्रण के विकास के तीन चरण हैं पहला अपभ्रंश, दूसरा राजस्थानी और तीसरा मुगल-पहाड़ी।
यहाँ हम केवल तकनीकी दृष्टि से विचार कर रहे हैं अतः विषयवस्तु, कलाकार की भावना अथवा हिन्दू-मुस्लिम दरबारी आश्रय आदि का हमारे सम्मुख कोई प्रश्न नहीं है।
लघु चित्रण का पहला रूप अपभ्रंश शैली में अपने समस्त सौन्दर्य के साथ प्रस्फुटित हुआ था।
रंगों के बलों की दृष्टि से इसमें कोई प्रयोग नहीं किये गये केवल उपलब्ध आधारभूत रंग सामग्री- गेरु, प्योड़ी, गुलाली, सिंगरफ, काजल, नील, सुवर्ण रजत तथा सफेदा से ही प्रायः चित्र बनाये गये और सपाट रंग भरे गये।
इनकी वर्णादयता देखते ही बनती है। आकृतियों में अत्यन्त सरलीकृत विवरण तथा मुद्राएँ और सपाटेदार रेखांकन, जिसमें कलाकार का स्नायविक व्यवहार (Nervous behavior) स्वतः ही व्यंजित होता है, इस कला की अन्य महत्वपूर्ण विशेषता है।
इस कला की मिथ्या-विश्वास (Make Believe) की स्थिति आधुनिक कला के पर्याप्त निकट है।
लघु-चित्रण का दूसरा रूप राजस्थानी शैली में प्रकट हुआ । इसमें रंग-योजनाएँ कुछ अधिक विस्तृत हुई और लोक शैलियों का प्रभाव भी आया।
किन्तु अपभ्रंश शैली की तुलना में इसमें परिष्कार हुआ। फिर भी इसकी रंग-योजनाओं में पर्याप्त आकर्षण और रेखांकन में यथेष्ट सप्राणता है।
अपभ्रंश शैली की तुलना में इसकी शैली के ओज में कमी आयी है। मुगल कला के प्रभाव से इसके कई ठिकानों में अभ्यासपूर्ण बारीकी बहुत बढ़ गयी है।
चित्र-तल का ज्यामितीय विभाजन भी राजस्थानी शैली की एक प्रमुख विशेषता है।
मुगल शैली का तकनीक पर्याप्त श्रम-साध्य था। सांस रोक कर रेखांकन करना, कलाकार के मस्तिष्क पर मुगल आश्रयदाता के मानसिक दबाव के कारण कृत्रिम उपायों जैसे बारीक रेखांकन, रंगों के बहुत से बल निर्मित करना, सादृश्य, प्राकृतिक परिप्रेक्ष्य के अनुसार यथार्थतापूर्ण अंकन आदि पर पर्याप्त ध्यान दिया गया।
साथ ही आश्रयदाता की रूचि भी कला-शैली के विकास पर हावी रही।
चित्रों में इतनी सूक्ष्मता से कारीगरी की गयी है कि कभी-कभी कोरी आँख से वह दिखाई नहीं देती भाव को अत्यन्त संयत ढंग से दिखाया गया है जिससे आकृतियों की स्वतंत्रता समाप्त हो गयी है।
संक्षेप में, मुगल कला में से ओज निकल गया है, वह उत्साह निकल गया है जो आकृतियों को सप्राण रेखांकन और ओजपूर्ण चित्रण देता है।
तकनीकी दृष्टि से पहाड़ी शैली में भी यही दुर्बलता है चाहे विषय कुछ व्यापक हो गये हों, चाहे मुद्राओं और चेष्टाओं में कुछ स्वतंत्रता आ गयी हो पर हल्के रंग और बारीक सधा हुआ रेखांकन यहाँ भी मुगल शैली के समान ही है।
रंगों की दृष्टि से तो कुछ आलोचकों ने इसे रंगे हुए रेखाचित्रों (Coloured Drawings) की श्रेणी में रखा है।
आधुनिक भारतीय चित्रकला के पुनरुत्थानकालीन युग में हैवेल तथा अवनीबाबू मुगल शैली से विशेष प्रभावित हुए, यद्यपि राजपूत शैली के भी कुछ चित्र उनके पास थे चीन, जापान के सम्पर्क से कोमल रंगों और सधी हुई महीन रेखाओं की ओर ही बंगाल शैली का विकास हुआ जिसकी पर्याप्त आलोचना भी हुई जिन चित्रकारों के सामने अपने शासक की इच्छा ही सर्वोपरि थी और शासकों का आतंक उनके मन पर छाया रहता था ऐसी मुगल कला की प्रेरणा भारत के स्वतंत्रता संग्राम को क्या सन्देश दे सकती थी।
फिर भी मिनिएचर कला की कुछ तकनीकी विशेषताएँ बंगाल शैली के कई कलाकारों में महत्वपूर्ण है जैसे टेम्परा रंगों का प्रयोग, कांगज पर लघु आकार के चित्रों की रचना, चित्रांकन में आकृतियों तथा वस्तुओं के विवरणों का आवश्यकतानुसार महत्व आदि।
इन विशेषताओं का महत्व हमारी समझ में तब अधिक आता है जब हम ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित कला-विद्यालयों और यूरोपीय कलाकारों द्वारा भारत में केनवास पर तैल-चित्रण के प्रचार-प्रसार का प्रयत्न और उसकी बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखते हैं।
बंगाल शैली के कलाकारों का लघुचित्रण की ओर यह कदम मूलतः पश्चिमी कला तकनीक के विरोध स्वरूप था। बंगाल शैली के अनेक चित्रकारों में चमकदार रंग-योजना, लयात्मक रेखा तथा चित्र-तल का ज्यामितीय विभाजन मिल जाता है।
बंगाल शैली के पश्चात् यामिनी राम आदि ने लोक कलाओं से प्रेरणा ली और उनके ओज एवं सरलता को अपनी शैली में गुम्फित किया।
पश्चिम भारत के कलाकारों के सामने अपने क्षेत्र की प्राचीन कलाओं का भण्डार था यूरोप के चित्रकार अपनी शैलियों के विकास के लिए अफ्रीका तथा ताहिती आदि भूमध्य सागरीय द्वीपों के आदिवासियों की कला से प्रेरणा ले रहे थे।
पिकासो आदि प्राचीन यूनानी रोमन शास्त्रीय कला तथा अफ्रीकन नीग्रो कला का समन्वय करते हुए अपनी शैलयों का विकास कर रहे थे।
ऐसे युग में भारतीय कलाकारों ने भी अपने देश के प्राचीन स्रोतों को देखा मुगल कला की तुलना में उन्हें राजस्थानी शैली और अपभ्रंश शैली अधिक सप्राण लग और उन्होंने इन्हीं से प्रेरणा लेना आरम्भ कर दिया।
पश्चिम भारत में प्रचलित अपभ्रंश शैली को गुजराती शैली भी कहा जाता था अतः आरम्भ में कुछ चित्रकारों को “नव गजराती शैली” के चित्रकार भी कहा गया।
लघु-चित्रण के शैलीगत तत्वों, वर्णादयता. ओजपूर्ण सपाटेदार रेखांकन, चित्रतल का ज्यामितीय विभाजन तथा आवश्यकतानुसार विवरणों का बारीकी से अंकन को, “आधुनिक” अनुभूति के रूप में ग्रहण किया गया है।
अप्रभंश तथा आरम्भिक राजस्थानी शैली के समान कहीं-कहीं छाया-प्रकाश और गढ़न-शीलता को भी छोड़कर सपाट रंगों में चित्रण किया गया है।
इन विशेषताओं को भारतीय चित्रकला में प्राप्त “आधुनिक” अनुभूति के रूप में लेने से ये परम्परा के अनुकरण से मुक्त हो गयी हैं।
इस प्रकार की प्रवृत्ति के प्रमुख कलाकार है हुसन, हेब्बार, सामन्त, लक्ष्मण पै. गुलाम मुहम्मद शेख, शैल चोयल आदि, जिनकी कला में प्रायः सपाट रंग, छाया का अभाव, सशक्त रेखांकन, चमकदार वर्ण योजना तथा टेम्परा माध्यम की प्रधानता है।
कहीं-कहीं लघु चित्रों जैसी आकृति योजना तथा अलंकरण प्रवृत्ति भी मिलती है। तेल माध्यम में भी इस पद्धति से कार्य हुआ है। हुसन ने रामायण और महाभारत के चित्रों में विशेष रूप से लघु-चित्र शैली से प्रेरणा ली है मोहन सामन्त की आकृतियाँ तथा रंग सभी मिनिएचर ढंग के हैं।
रेखांकन के उपरान्त वे वाश द्वारा रंग भरते हैं। राजस्थान के चरण शर्मा, शैल चोयल और प्रभा शाह आदि ने मिनिएचर शैली की वास्तुशिल्पीय पृष्ठ भूमि को अपने चित्रों में नये संयोजनों में अंकित किया है किन्तु उनमें आधुनिक भाव नहीं है।
भूपेन खक्खर के चित्रों में स्वचालित वाहनों (मोटरों, बसों, स्कूटरों, साइकिलों), शहरी भवनों तथा बिजली के खम्भों आदि का लघुचित्रों के समान सरलीकरण तथा अंकन हुआ है; किन्तु वे आकृतियों के विवरणों के बजाय प्रभाव पर अधिक ध्यान देते हैं और केवल चित्र के विषय के अनुसार महत्वपूर्ण आकृतियों के ही आवश्यक विवरण अंकित करते हैं, समस्त विवरणों को नहीं। चित्र के केन्द्रीय भाग में अधिक प्रकाश दिखाकर वे दर्शक का ध्यान उधर ले जाते हैं। मिनिएचर कला में यह कार्य रंगों द्वारा किया जाता था।
गुलाम मोहम्मद शेख भी इसी प्रवृत्ति के एक अन्य कलाकार हैं जिनके चित्र मिनिएचर ढंग के हैं ये भी आकृतियों के सरलीकरण तथा केवल आवश्यक विवरण अंकित करने में दिलचस्पी रखते हैं।
इनके तैल माध्यम में अंकित चित्रों के भवनों में जहाँ विभिन्न रंगों द्वारा तलों को पृथक् किया गया है वहीं आकृतिगत विवरणों में रेखात्मकता का आश्रय लिया गया है।