श्यावक्स चावड़ा का जन्म दक्षिणी गुजरात के नवसारी करने में 18 जून 1914 को गुजराती भाष-भाषी पारसी परिवार में हुआ था। उनकी आरम्भिक शिक्षा गुजरात में ही हुई और कलाकी उच्च शिक्षा के लिये वे बम्बई चले गये।
वहाँ सर जे०जे० स्कूल आफ आर्ट से 1935 में कला का डिप्लोमा प्राप्त करने के पश्चात् वे एक वर्ष तक कला की स्वतंत्र साधना में लगे रहे। 1936 में उन्हें सर रतन टाटा चेरिटी ट्रस्ट का वजीफा मिल गया और वे यूरोप चले गये।
पहले स्लेड स्कूल लन्दन में दो वर्ष प्रो० रुडोल्फ श्वावे, ब्लादिमिर पोलुनिन आदि श्रेष्ठ कलाकारों तथा स्टेज सज्जाकारों से प्रशिक्षण प्राप्त किया और फिर एक वर्ष फ्रांस की अकादमी द ल ग्रान्दे शामिये के कलाचार्यों से उनकी कला की बारीकियों का अ ययन किया। इससे उनके रेखांकन में आश्चर्यजनक परिपक्वता और शक्ति आ गयी।
चावड़ा ने भारत लौटने पर इस शिक्षा को अपने देश की परम्पराओं के साथ समन्वित किया। इसके लिये वे गाँव-गाँव घूमे, कश्मीर से कन्या कुमारी तक, पंजाब से असम तक। साथ ही ग्यामार, मलाया, इण्डोनेशिया तथा दुबारा यूरोप की यात्रा की और ग्रामीण जीवन को निकट से समझने का प्रयत्न किया।
लोगों की आदतें, क्षेत्र के अनुसार रूप रंग के भेद, ऋतुओं तथा भौगोलिक प्रभावों के अनुसार प्रकृति के बदलते दृश्य, रीति रिवाज सबका उन्होनें बारीकी से अध्ययन किया।
बाली द्वीप के नृत्यों, कठपुलियों, जावा के मन्दिरों के शिल्प तथा नृत्य-रत प्रतिमाओं के अंग-विन्यास ने उन्हें विशेष प्रभावित किया। उन्होंने सभी स्थानों पर भारतीय कला का प्रभाव भी देखा। इस प्रकार भारत तथा इण्डोनेशिया की कला के आदर्श उनकी आत्मा के अंग बन गये ।
तीस वर्ष की आयु में सन् 1944 में उनका विवाह नृत्य कला में दक्ष पत्नी से हुआ। इससे उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। फ्रांस के प्रभाववादी चित्रकार देगा की भाँति वे भी मंच के एक कोने में खड़े होकर नृत्य की मुद्राओं को अपनी स्केच बुक की रेखाओं में बाँधने का प्रयत्न करने लगे।
1945 में चावड़ा ने अपने चित्रों की पहली एकल प्रदर्शनी बम्बई के ताजमहल होटल में की। इसके पश्चात् देश-विदेश में उनकी प्रदर्शनियों का क्रम चलता ही रहा। सर्वत्र उन्हें सम्मान और यश मिला। 1967 में उन्होंने रजत जयन्ती शो का आयोजन बम्बई में किया.
चावड़ा के आरम्भिक चित्रों में विभिन्न स्थानों के लोगों तथा प्रकृति का अंकन हुआ है। विवाह के उपरान्त वे कोमल रंगों और लयपूर्ण रेखाओं में अंकित की गयी नृत्य की मुद्राओं के प्रति विशेष आकर्षित रहे। उनके चित्रों में अब स्थानीय विशेषताओं से युक्त मुखाकृतियों के स्थान पर व्यंजनापूर्ण मुखाकृतियों का अंकन होने लगा है।
अब उनके सभी चेहरे प्रसन्न नहीं दिखाई देते। उनके रंगों के चटकीलेपन में भी अन्तरआया है। अब वे कम से कम प्रयत्न में वस्तुओं अथवा अनुभूति का सार पकड़ने का प्रयास करते हैं।
चावड़ा आधुनिक प्रवाह में बह जाने वाले कलाकार नहीं हैं वे रेखा के सौन्दर्य तथा संयोजन के सन्तुलन को भली प्रकार समझते हैं। मानववादी भावना से प्रेरित होकर वे जन-जीवन का चित्रण करते हैं किन्तु सौन्दर्य के प्रति प्रेम के कारण वे नृत्य की गति और लय की शोभा को निरन्तर अंकित करते रहते हैं।
चावड़ा ने अपनी कला के आदशों के साथ अपने स्वभाव तथा व्यक्तित्व का पूर्ण एकाकार कर लिया है। वे भागते हुए प्रत्येक पल को नृत्य की शास्त्रीय मुद्राओं के द्वारा अपने रेखांकनों और चित्रों में पकड़ने का प्रयत्न करते रहे हैं।
उनके चित्रों में भारत के ग्रामीण जीवन का उल्लास और आनन्द मुखरित होता है। उनकी कला के विषय में आर्ट न्यूज एण्ड रिव्यू पत्रिका ने लिखा है ‘एशियाई कला के संगीतमय शास्त्रीय रेखा-सौष्ठव और अद्यतन कला के तटस्थ वैज्ञानिक एवं तकनीकी दृष्टि से किये गये समन्वय का दूसरा नाम है श्यावक्स चावड़ा।”