रवीन्द्रनाथ ठाकुर (1861-41 ई०) | Rabindranath Tagore

विश्व मंच पर कवि के रूप में विख्यात रवीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म कलकत्ता के एक सम्भ्रान्त परिवार में 7 मार्च 1861 ई० को हुआ था यह परिवार पश्चिमी सभ्यता एवं विचारों, ईस्ट इण्डिया कम्पनीके ब्रिटिश उच्च अधिकारियों आदि के निरन्तर सम्पर्क में रहा था। 

कम्पनी के साथ-साथ इस परिवार की समृद्धि भी बढ़ती गयी तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पितामह प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर के समय वह उन्नति के चरम शिखर पर थी। 

द्वारकानाथ ठाकुर प्रगतिशील विचारों के थे 1784 ई० में सर विलियम जोन्स के साथ उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल की स्थापना की जिसके द्वारा आर्कियोलोजीकल सर्वे आफ इण्डिया तथा इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता का आरम्भ किया गया । 

वे समाज-सुधार के क्षेत्र में राजा राममोहनराय के समर्थक थे और कलाओं में रूचि लेते थे। रवीन्द्रनाथ के पिता देवेन्द्रनाथ आध्यात्मिक तत्ववादी थे। उनकी माता का देहान्त उनके शैशव में ही हो गया था।

रवीन्द्रनाथ के परिवार में दार्शनिक, विद्वान, कलाकार, समाज सुधारक तथा प्रतिभाशाली अनेक व्यक्ति थे। विदेशी साहित्य से भी उनका घर भरा रहता था। 

रवीन्द्रनाथ पर इन सबका प्रभाव पड़ा और वे कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार, संगीतज्ञ, अभिनेता, विचारक, दार्शनिक तथा चित्रकार आदि अनेक प्रकार का व्यक्तित्व स्वयं में विकसित कर सके। 

उन्होंने कलकत्ता की बंगाल अकादमी तथा लन्दन के यूनीवर्सिटी कालेज में शिक्षा प्राप्त की। उनका शेष समस्त जीवन परिवार तथा मित्रों के प्रभाव से ही उनके बहुमुखी विकास का द्योतक है। 

सन् 1901 में उन्होंने शान्ति निकेतन की स्थापना की। 1905 ई० में स्वदेशी आन्दोलन में व्यस्त रहे यद्यपि वे विदेशी वस्तुओं तथा विचारों के बहिष्कार के पक्षपाती नहीं थे। 1907 में इण्डियन सोसाइटी आफ ओरिएण्टल आर्ट की स्थापना में सहयोग दिया । 

1912-13 में वे इंग्लैंड गये और 1913 में उन्हें “गीतांजलि” पर नोबेल पुरस्कार मिला। इससे उनकी ख्याति विश्वभर में फैल गयी। 1915 से 1919 तक विचित्रा क्लब का संचालन किया। 

उन्होंने बंगाल शैली की आलोचना की और उसमें अनेक कमियाँ बतायीं। 1915 में ही वे जापान गये। 1919 में शान्ति निकेतन में कला भवन की स्थापना की। 

1920 में वहाँ उन्होंने एक कला प्रतियोगिता आयोजित की, उसमें भाग भी लिया और निर्णायक भी बने । इसी वर्ष उन्होंने यूरोप का विस्तृत भ्रमण किया तथा निकोलस रोरिक से भी मिले। यूरोप में आधुनिक कला के नवीन आन्दोलनों से परिचित हुए। 

1924 में जापान और चीन होते हुए अर्जेण्टाइना गये । 1926 में वे पुनः यूरोप यात्रा पर गये और प्रथम विश्व युद्ध के विरूद्ध लेख लिखे । 

यहीं मे ये चित्रकला के प्रति विशेष आकर्षित हुए। वे दिन-रात चित्र बनाने लगे और कविता आदि लिखना छोड़ दिया। 1930 ई० में उनके चित्रों की प्रथम प्रदर्शनी पेरिस में हुई । 

इसी वर्ष उनकी अन्य प्रदर्शनियाँ बिरमिंघम सिटी, लन्दन, बर्लिन, ड्रेसडेन, म्यूनिख डेनमार्क, स्विटजरलैण्ड, मास्को तथा न्यूयार्क में हुई। सभी जगह उनकी कला की प्रशंसा की गयी और आधुनिक भारत के प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय चित्रकार के रूप में ये प्रसिद्ध हो गये। |

भारत में उनके चित्रों की प्रदर्शनी 1931 में बम्बई में तथा 1932 में कलकत्ता में हुई । 

भारत तथा विदेशों में उनकी अनेक प्रदर्शनियों 1931 से 34 तक और 1938 से 39 तक की अवधि में लगी। 7 अगस्त सन् 1941 को उन्होंने पार्थिव देह को त्याग दिया ।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कला-रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने वृद्धावस्था में लगभग 1920 से ही चित्रांकन आरम्भ किया था । इसका आरम्भ भी कविताओं की काट-छाँट तथा खरोंच की आकृतियों में विचित्र काल्पनिक रूप देखने से आरम्भ हुआ । 

इन्हीं के आधार पर उनके प्रयोग आरम्भ हुए । उनके माध्यम भी विचित्र थे। कागज पर फूल घिसकर फूल का रंग भरते, हल्दी से स्वर्ण की आभा दिखाने का प्रयत्न करते आर प्रखर सूर्य की किरणें दिखाने के अभिप्राय से कागज का वह स्थान रिक्त छोड़ देते। 

उन्होंने कला के स्थापित नियमों का अनुपालन नहीं किया। उनके चित्रांकन के तन्त्र और शैली पूर्णतः व्यक्तिगत थे। लय की अनुभूति को ही वे कला का सबसे अधिक आवश्यक गुण मानते थे। 

प्रकृति तथा पशुओं के प्रति उनके संवेदन बड़े गहरे थे, उससे उनकी कुछ आकृतियों में डरावनापन आ गया है। उन्होंने जीवन के रूखे और भयानक पक्षों को भी चित्रित किया है। 

उनके समस्त चित्रों में कोणीयता अधिक है। सारे संसार में उनके चित्रों की प्रशंसा हुई पर स्वयं रवीन्द्रनाथ ने कहा कि मैं नहीं जानता कि मेरे चित्रों में क्या है।

आर्चर ने रवीन्द्रनाथ की कला की तीन विशेषताएँ मानी हैं: 

1. उनकी कला पूर्ण रूप से आधुनिक है किन्तु आधुनिकता की दृष्टि से उसमें विश्व के किसी भी देश अथवा कलाकार की अनुकृति नहीं है। 

2. भारतीय रेखाओं तथा आकृतियों का आधार लिया गया है। अतः पूर्ण रूप से भारतीय है। 

3. वह पूर्णतः मौलिक है उसमें ताजगी और शक्ति है।

जया अप्पासामी ने रवीन्द्रनाथ की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया

(1) सहजता उनकी कोई भी आकृति पूर्व-निश्चित नहीं है। –

(2) चित्रण की अपूर्णता फिनिश तथा तकनीकी परिष्कार का अभाव कहीं-कही रिक्त स्थान भी छोड़ दिया गया है।

(3) सजीवता चित्रों की आकृतियाँ ही नहीं वरन् सम्पूर्ण धरातल ही सजीव प्रतीत होता है।

(4) गम्भीर तथा चमकविहीन रंग इनमें रहस्यात्मकता भी प्रतीत होती है।

(5) सभी आकृतियों में लयात्मकता है।

(6) धरातलों तथा आकृतियों में टेक्सचर की विविधता है जिसे आधुनिक कला से पहले कभी भी प्रशंसित नहीं किया गया था।

(7) कुछ चित्रों में अंधेरे के विपरीत तेज चमक अथवा प्रकाश का प्रभाव चमकीली पृष्ठभूमियों में अंधेरी आकृतियाँ ।

(8) विषयों की अपेक्षा रचना-विधि की प्रमुखता रेखांत्मक चित्रों में पेन, पेंसिल या फ्रेयन के प्रभाव। रंगीन चित्रों में धब्बों का प्रयोग चित्रों में अन्धकार की अधिकता ।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कला का विकास कई चरणों में हुआ है। इस विकास को बालक की कलासे लेकर मानव की कला तक का विकास कहा गया है। 

स्वयं रवीन्द्रनाथ ने तो केवल यही कहा कि लोग अक्सर मुझसे मेरे चित्रों का अर्थ पूछते हैं किन्तु अपने चित्रों की भाँति में भी चुप रहता हूँ। 

इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि वृद्धावस्था में उन्होंने चित्रकार के रूप में जो जीवन व्यतीत किया वह दूसरे बचपन के समान था । 

उनकी कला का विकास इस दूसरे बचपन के बालक की कला से मनुष्य की कला तक हुआ है उनकी सम्पूर्ण कला का एक महत्वपूर्ण संदेश यह है कि मानवता स्वयं को कलाभिव्यक्ति के द्वारा मुक्त अनुभव कर सकती है और अन्तःकरण में हजारों वर्ष से छिपे मनोभावों को रूप दे सकती है। 

यदि मनुष्य बुद्धि के अहंकार को हावी न होने दे। हम दूसरे रूपों की अनुकृति न करें बल्कि आन्तरिक लय के अनुसार ही सृजन करें। 

बुद्धि के चक्कर से मुक्त रहकर बालक विचित्र रूपों और दिवा स्वप्नों का अधिक काल्पनिक आनन्द ले सकते हैं यदि कोई वयस्क भी तर्क बुद्धि की कठोरता को छोड़ दे तो इसका आनन्द ले सकता है। 

68 वर्ष की आयु में चित्रांकन करने के कारण रवीन्द्रनाथ ठाकुर में भी यह क्षमता आ गयी थी कि वे पुनः बालक के समान सहज हो जायें।

चित्रांकन आरम्भ करने वाला बालक पहले चील-विलार करता है और अलग-अलग ढंग से वक्र रेखाएँ खींचने का प्रयत्न करता है। 

टैगोर ने अपनी कविताओं के कटे हुए अंशों में स्थान-स्थान पर अपने अचेतन मन के प्रभाव में रेखाओं की खींचतान से चील विलार आकृतियाँ बनायी हैं। 

मन में कहीं तनिक-सा भी विकार होने पर उसे तुरन्त किसी रेखा में व्यक्त कर दिया, अत्यन्त संवेदनशील व्यक्ति की भाँति और प्रत्येक संवेदन को अपना सहज स्वाभाविक रूप ग्रहण करने दिया। 

इस विधि से बनायी गयी रेखाओं में ऐन्द्रिक कल्पना भी है और भावात्मक प्रभाव भी । 

बाद में बनाये गये कुछ रूपों में तो मूर्तियों जैसा गुण भी झलकने लगा है लगता है मानों वे अपनी कल्पनाओं को छू लेना चाहते थे। 

अपनी इन सभी आकृतियों में उन्होंने अंगुलियों, पेंसिल के टुकड़ों, रंगों तथा वस्तुओं को चिपकाने का माध्यम अपनाया है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की यह आकृतियों बालकों की अपेक्षा कुछ अधिक शुद्धता तथा सफाई से बनायी गयी हैं। इसे परिष्कृत बाल कला कहा जा सकता है।”

बालक द्वारा खींची जाने वाली प्रथम आड़ी-तिरछी रेखाओं का कोई अर्थ नहीं होता, केवल तनाव से मुक्ति का लक्ष्य रहता है। 

उसमें केवल एक प्रवाह रहता है, मानों अचेतन की ऊबड़-खाबड़ भूमि पर कोई धारा इधर-उधर भटकती सी बह रही हो किन्तु बालक रवीन्द्रनाथ के मन में असंख्य स्मृतियाँ संचित थीं उनका अहं इनसे पूर्णतः मुक्त होकर अरूप रेखाओं के आनन्द में उलझ कर नहीं रह सका। 

उनकी कला में उनके चेतन मन का दबाव प्रकट होने लगा। वे एक बिन्दु से दूसरे बिन्दुको जोड़कर, आवर्तित या प्रत्यावर्तित रेखाओं, वर्गों, त्रिभुजों आदि को रूप देने लगे। 

वे रूपों के अंकन की अकुशलता से छटपटा कर लयात्मक संयोजनों की ओर मुड़ गये। यहाँ तक उनकी कला में सादृश्य रूप प्रकट नहीं हुए। अरूप अरूप ही रहा।

पर वे स्याही से कुछ न कुछ रचना करते गये, कुछ ऐसी रचना जो उनकी आत्मा की आकुलता को प्रतीकात्मकता दे सके। 

लम्बी बड़ी चाँच, वर्गाकार आँख, सीधी रेखा में बना समतल शिर, जिसमें समकोणीय व्यवस्था है, नीचे बनाये गये एक बराबर के खाने आदि आकृतियों अपने लघु या वृहद् आकार, सजीवता, ओज, परिप्रेक्ष्य रहित दृष्टि-बिन्दु और अपने अंकन की युक्ति (स्कीमा) आदि के द्वारा अचेतन की गहरी परतों को उखाड़ते गये बड़ी-बड़ी आँखों और बड़े मुँह वाले बड़े-बड़े साँप, मन के अँधेरे में से कागज पर प्रकट हो गये हैं । 

उनकी स्याही कुछ ऐसे रूप अंकित करने लगी जिसमें उनके मन की चीत्कार संगति देखना चाहती थी किन्तु इच्छाएँ ऊर्ध्वमुखी लय चाहती थीं।

रवीन्द्रनाथ की आकृतियों में परिप्रेक्ष्य नहीं आया। बड़ी कठिनाई से उन्होंने पार्श्व …मुख अंकित किये। 

आकृतियाँ श्रृंखलाबद्ध या वर्तुल संयोजनों में बनायी गयीं और महत्वपूर्ण रूप को बड़ा आकार दिया गया। रेखाओं आदि से बनाये गये रूपों के ऊपरी भाग में मुखाकृति जोड़कर मानवीय रूपों का आभास दिया गया है।

कुछ समय पश्चात् रवीन्द्र की आकृतियाँ स्पष्ट मानवीय रूप लेने लगीं । इन रूपों में उनकी दमित वासनाओं की पूर्ति वाले रूप भी हैं। मानों रात में भूत-प्रेत दिखाई दे रहे हों । 

ये आकृतियाँ प्रायः लम्बी या अण्डाकृति में हैं। कुछ साड़ी पहने जैसी लगती है। चारों ओर अँधेरी गहरी नीली पृष्ठभूमि में फीके चाँद जैसी पीली आकृतियाँ – उन अतृप्तियों के अवशेष, जो उनके मन में छिपे रहे। 

इनके रंग उनकी इच्छाओं के प्रतीक हैं, रूप अतीत से जुड़े हुए हैं अतः प्रेतों के समान डरावने भी हो गये हैं।

इसके अन्तर के रूपों में व्यंजना बढ़ती गयी है। स्पष्ट रेखाओं, पुनरावृत्तियों तथा कोणों के द्वारा वे अपने आवेशों को व्यंजित करने लगे हैं। 

मूल रंगों के द्वारा उदासी, क्रोध, भय आदि की भी व्यंजना हुई है। मनमें छिपे चेहरे उभर आये हैं जो कभी उनके प्रेम जगत की कल्पना में रहे थे, या जिनके प्रति आकर्षण तो था पर जिन्हें कभी स्पर्श नहीं किया जा सका था। इनमें उनके युवा काल की स्मृतियाँ हैं।

पर ये रूप सुन्दर नहीं बने, बल्कि टेढ़े-मेढ़े और कठोर हैं। समान्तर रेखाओं के बीच कोमल आँख, काठ जैसे होंठ, शायद किसी निर्दयता के संकेत है। 

रंगों में कुछ गम्भीरता आयी है जिसने चित्रों की भयंकरता को और भी बढ़ा दिया है। फिर आयी है नाटकीयता । 

वेदना के कारण क्रन्दन करती ऊँट की आकृति, नुकीली चिबुक सहित हताश पुरुष का चेहरा जिसे उसकी दुःखी क्रुद्ध सहयोगिनी ढूँढ रही है और इसी प्रकार के अन्य चित्र इसके पश्चात् आता है अति-प्राकृत आकृतियों का क्रम । 

इस अवस्था में बनी उनकी चित्राकृतियाँ पर्याप्त विभ्रमात्मक है। रूप, रेखाएँ, कोण तथा रंग-सभी मानों खतरनाक हो गये हैं। 

पृष्ठभूमियाँ हलचलपूर्ण है उदासी तथा भय का प्रतीक काला रंग प्रधान हो गया है और नरक में डूबी आकृतियाँ मानों बाहर झांकने लगी हैं; बड़े मुख-विवर, आँखें, उरोज, कान और आकृतियों के उल्टे पाँव (यह विश्वास किया जाता है कि भूतों के पाँच उल्टे अर्थात् पंजे पीछे की ओर तथा एडी आगे की ओर) होते हैं। 

आकृतियों के रूप इतने विकृत कि उनके प्रति सम्पूर्ण आकर्षण समाप्त हो जाता है। पिशाचिनियों के शरीर विकृत, किन्तु मुख कोमल ।

इन प्रेतों के पश्चात् रवीन्द्रनाथ ठाकुर राक्षसाकृतियाँ चित्रित करने लगे । रवीन्द्रनाथ के इर्द-गिर्द बहुत समय तक गप्पी, शत्रु, मजाकिये और दुष्ट इकट्ठे रहे थे। 

इन सबने उन्हें परेशान किया था किन्तु रवीन्द्रनाथ ने उनको कोई उत्तर नहीं दिया इन राक्षस आकृतियों से उत्पन्न विषाद को कम करनेके लिए कुछ ऐसे पार्श्व चेहरे बनाने आरम्भ किये जो कथकलि अथवा सिंहली राक्षस मुखौटों से मिलते-जुलते है। 

कोमल तथा गोल रूपों की लयात्मक अनुभूति के लिये रवीन्द्रनाथ ठाकुर नारीरूपों की ओर मुड़े । 

वे रूप जिनके आकर्षण पर उन्होंने अपनी युवावस्था में कोई ध्यान नहीं देना चाहा था, या निराशा के बावजूद भी उन्हें जो प्रिय थे ये नायिकाएँ रवीन्द्रनाथ के अतीत जीवन से चुराकर इन चित्रों में लायी गयी हैं। 

इनकी मुखाकृतियाँ लिंगवत् लम्बाकार हैं। उनकी सहज दृष्टि और एकाकी चेहरे सूनापन लिये हैं तथा अपने पीछे छिपे सत्य को छिपाने का बहुत कम प्रयत्न करते हैं। 

पर शायद इन चित्रों में चेहरों के आगे एक हल्की सुगन्धित समीर का भी आभास होता है।

नारी चेहरा अनेक रूप लेकर रवीन्द्र की कलाकृतियों में बार-बार प्रकट होता है। यह रवीन्द्र की प्रेमाश्रय स्थली और अभिलाषा की प्रतिमा है इसके सुखद स्पर्श को उन्होंने रंगों के प्रभावपूर्ण संगीत के द्वारा व्यक्त करने का प्रयत्न किया है।

युवक रवीन्द्रनाथ ने स्वयं को भी चित्रित किया था। गोल चेहरे और मृदु दृष्टि वाला एक युवक जो भविष्य में झाँक रहा है। चित्र में सीपिया भूरे रंग का पतला वाश उनके स्वभाव के अनुरूप है। 

किन्तु वृद्धावस्था में चित्रों में बनायी गयी स्वप्नाकृतियों में वे दूसरी बार युवा बने हैं, चित्रों से श्रृंगारिक सुख का अनुभव करते हुए । 

अन्तिम युग में उन्होंने दृश्य चित्र, मछलियों आदि का अंकन पर्याप्त तकनीकी कुशलता से किया है। किन्तु फिर उसे छोड़कर कभी-कभी रंगों के साथ क्रीड़ा भी की है।

रवीन्द्रनाथ की कला का विश्लेषण करते हुए डब्लू०जी० आर्चर ने कहा है कि फ्रायड तथा जुंग आदि ने मनोविश्लेषण का जो सिद्धान्त प्रतिपादित किया है उसके अनुसार रवीन्द्रनाथ की चित्राकृतियाँ अचेतन से सम्बन्धित है तथा आधुनिक कला की स्वतः लेखन की विधि से बहुत मिलती-जुलती है। 

आर्चर का यह भी विचार है कि रवीन्द्रनाथ की कला पर पाल क्ली का भी प्रभाव है। पाल क्ली ने भी अनेक चित्र अचेतन के प्रभाव में स्वतः लेखन अथवा स्वतः चित्रण की विधि से अंकित किये हैं। 

दोनों ही रूप की अपेक्षा व्यंजना को प्रधान मनाते हैं। चित्र पहले बनता है, विषय का सम्बन्ध बाद में सोचा जाता है; और चित्र को शीर्षक सबसे अन्त में दिया जाता है। 

रवीन्द्रनाथ पर अतियथार्थवादियों (पिकासो तथा डाली) के अतिरिक्त मोदिल्यानी तथा मुंक का भी प्रभाव देखा जा सकता है। विष्णु दे ने एमिल नोल्दे का प्रभाव भी इंगित किया गया है पर वास्तव में रवीन्द्रनाथ ने इन सभी समसामयिक आधुनिक यूरोपीय चित्रकारों की बहुत अधिक रचनाएँ नहीं देखी थीं। 

इनकी तथा रवीन्द्रनाथ की कला में जो भी साम्य है वह केवल इसलिए है कि इन सबने लगभग एक-सी मनःस्थिति बनाकर चित्रांकन आरम्भ किया था। उन पर आदिम कला, लोक कला, बाल कला, वान गॉग, गॉगिन, एन्सर, आर्नुवो तथा नबी कला का भी प्रभाव माना जाता है। 

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