चीन से लेकर मध्य एशिया तक और भारत में ईसा से चार हजार वर्ष पूर्व से लेकर ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व के मध्य एक सभ्यता का जन्म हुआ। इस सभ्यता की खोज का श्रेय सरजॉन मार्शल तथा डॉ० अरनेस्ट मैक के लिए प्राप्त है।
उन्होंने सन् १६२४ ई० में इस सभ्यता का संसार को ज्ञान कराया। इस विशाल क्षेत्र में लाल तथा काली पकाई मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का विशेष विकास हुआ।
ये वर्तन पशु-पक्षियों की आकृतियों, मानवाकृतियों तथा ज्यामितिक आकारों के अभिप्रायों से अलंकृत किये जाते थे पुरातत्ववेत्ताओं ने इस सभ्यता को ‘मृण्य पात्रों’ की सभ्यता के नाम से पुकारा है भारत तथा पाकिस्तान में इस प्रकार की सामग्री मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चानुदड़ों. झांगर, झूकर, कुल्ली एवं लोथल नामक स्थानों से उत्खनन के पश्चात् प्राप्त हुई है।
पुरातत्व विभाग ने सिन्धु घाटी क्षेत्र में १६२२ ई० में स्व० आर० डी० बैनर्जी की अध्यक्षता में उत्खनन कार्य आरम्भ किया और लरखना जिले में मोहनजोदड़ो तथा लाहौर और मुल्तान के बीच हड़प्पा की खुदाई में एक विकसित सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए।
पुनः इसी प्रकार की सभ्यता का ज्ञान काठियावाड़ क्षेत्र के लोथल नामक स्थान जिला अहमदाबाद के सर्गावाला ग्राम के अन्तर्गत १६५४ ई० में एस० आर० राओ की अध्यक्षता में कराये गए पुरातत्व विभागीय उत्खनन कार्य से प्राप्त हुआ है। इस प्रकार की सभ्यता के अवशेष चानुदड़ो में भी प्राप्त हुए हैं।
सिन्धु क्षेत्र की समृद्धि फारस के सम्राट अच्छेयनिद (पाँचवीं श० ई० पू०) तक बनी रही। सिकंदर महान ने भी भारत पर आक्रमण करते समय इस भाग को हरा-भरा पाया था।
यहाँ के भवन अवशेषों की ठोस तथा ऊँची आधारशिलाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि इस क्षेत्र में सिन्धु नदी की बाढ़ से क्षति होने का भय बराबर बना रहता था। राजस्थान में पीलीबंगन तथा कालीबंगन की खुदाई में भी इसी प्रकार की प्राचीन सभ्यता के प्रमाण स्वरूप अनेक पात्र मिले हैं।
भारतवर्ष में प्रागैतिहासिक कृषक जातियाँ उत्तरी बलूचिस्तान से सिन्ध तक ४,००० ई० पू० तक बस चुकी थीं। यह कृषक जातियाँ काली तथा लाल मिट्टी के वर्तन बनाती थीं।
यह वर्तन सरल ढंग के रंगीन आलेखनों से सजाये जाते थे। इन आलेखनों की चित्रकारी आदिम शैली की है। आरंभिक कृषक सभ्यता के स्थलों के उत्खनन में दार्क्टिक कलाओं के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं।
कृषक सभ्यता के चिन्ह इस विस्तीर्ण क्षेत्र में स्थान-स्थान पर प्राप्त हुए हैं। इस सभ्यता का अनेक चरणों में विकास होता गया जिसके प्रमाण अनेक भू-तलों की खुदाई में प्राप्त हुए हैं जिनका काल विभाजन निम्न प्रकार से किया जा सकता है।
इस सभ्यता का पूर्ण विकसित रूप, सिन्धु नदी के किनारे अनेक स्थलों से की गई खुदाई से प्राप्त हुआ है। इस कारण इस सभ्यता को ‘सिन्धु घाटी सभ्यता’ के नाम से पुकारा गया है।
- १. मिट्टी के बर्तनों से पूर्व की सभ्यता (जिसका काल तथा रूप अनिश्चित है ) ।
- २. कुयेटा सभ्यता – ३५०० ई० पू० से ३००० ई० पू० ।
- ३. अमरी- नुन्दरानाल सभ्यता- ३००० ई० पू० से १८०० ई० पू० । ४. झोभ सभ्यता- ४००० ई० पू० से २५०० ई० पू० ।
- ५. कुल्ली मेंही सभ्यता- २८०० ई० पू० २००० ई० पू०| ६. हड़प्पा सभ्यता – २७०० ई० पू० से २००० ई० पू० ।
- ७. हड़प्पा-मोहनजोदड़ो तथा लोथल सभ्यता २२०० ई० पू० से १८०० ई० पू० ।
- ८. शंकर तथा झांगर सभ्यता- १५०० ई० पू० ।
उपरोक्त सभ्यताओं का नाम उन स्थानों पर दिया गया है जहाँ इन सभ्यताओं के चिन्ह पाये गए हैं। इन स्थानों की खुदाई में रोचक कलात्मक सामग्री प्राप्त हुई है जिसके आधार पर इस काल की चित्रकला के विषय में अनुमान लगाया जा सकता है।
कुएटा सभ्यता की कला
सर अयुरेल स्टीन को कुएटा क्षेत्र में बज़ीरिस्तान तथा उत्तरी बलूचिस्तान की खुदाई में कुछ पकाई हुई मिट्टी के सिर प्राप्त हुए थे। १६५०-५१ ई० के मध्य पुनः अमरीकी पुरातत्व विभाग तथा पाकिस्तानी पुरातत्व विभाग का एक सामूहिक दल प्राचीन सभ्यता के अध्ययन हेतु कुटापिशीन तथा झोब लोरालाई क्षेत्र में गया।
इस दल के लिए इस सभ्यता से सम्बन्धित पर्याप्त कला सामग्री प्राप्त हुई। अब इस क्षेत्र में उन्नीस स्थलों पर खुदाई के द्वारा इस सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। सिन्धु सभ्यता से मिलती-जुलती ग्रामीण सभ्यता के सबसे पहले चिन्ह किला गुल-मोहम्मद में कुयेटा सिवी से ४०० गज पश्चिमी में प्राप्त हुए हैं।
यह मिट्टी के बर्तनों की सभ्यता से पहले के चिन्ह हैं। किवेग की खुदाई में खुरचने के औजार, सेतखली से बने प्याले तथा कन्नीनुमा आकार के छोटे यन्त्र प्राप्त हुए हैं। दमास्दात में एक निचले तल की कच्ची ईंटों से बने कमरों के अवशेष तथा कुछ मिट्टी की सिर रहित मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
यहाँ पर ऊपर के तल में ऐसी मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो झोव मूर्तियों से शैली में भिन्न हैं और इनके सिरों पर कानों तक बँधे चौड़े टायरा जैसे आभूषण बनाये गए हैं जिसमें माथे के ऊपर शंकु आकार के निकले हुए अलंकरण बनाये गए हैं। झोब में प्राप्त मूर्तियों के सिर काले रंगे हुए हैं तथा सिर पर सादा ढंग का टायरा (शृंगार पट्टी) बनायी गई है।
अमरी-नुनदरानाल सभ्यता की कला
अमरी, गाजीशाह, पिन्डी, वही, लोहरी तथा शाहसन की खुदाई में अनेक आभूषणों के खण्ड आदि प्राप्त हुए हैं।
झोब सभ्यता की कला
उत्तरी बलूचिस्तान में झोब नदी की घाटी में प्राप्त मिट्टी के बर्तन गहरे- बैंगनी लाल रंग के हैं। झोब में पकाई हुई मिट्टी की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इन मृण्य मूर्तियों के रूप में भारत की दाष्टिक कला के प्रारम्भिक उदाहरण प्राप्त होते हैं। यहाँ पर पशुओं तथा स्त्रियों की छोटी-छोटी मृण्य मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
झोव क्षेत्र के अन्तर्गत अनेक स्थानों पर प्राप्त कुबड़दार सांडों की मूर्तियाँ प्रधान हैं, परन्तु यह मूर्तियाँ संख्या में कम हैं। पीरियानो घुन्डाई के एक मूर्तिखंड में घोड़े का अग्रभाग ही प्राप्त हुआ है।
यहाँ पर प्राप्त सांडों की मूर्तियाँ कुल्ली में प्राप्त सांडों की मूर्तियों के समान हैं परन्तु इन सांडों की मूर्तियों के शारीरिक गठन में मांसलता और गठनशीलता लाने का अधिक प्रयास किया गया है।
इन मूर्तियों की रचना में परिपक्व यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया गया है। पीरियानों घुन्डाई से प्राप्त एक सिर रहित सांड की मूर्ति अग्रभाग से पूँछ तक आठ इंच लम्बी है। इसके पैर बहुत छोटे हैं परन्तु इसकी बनावट में गठनशीलता है। इस मूर्ति का स्वस्थ शारीरिक गठन पर्याप्त संतोषजनक है।
झोव घाटी से प्राप्त स्त्री मूर्तियों की रचना तकनीकी में पर्याप्त विकास दिखाई पड़ता है। इस प्रकार की मृण्य मूर्तियाँ (पकाई गई मिट्टी की मृण्य-मूर्तियाँ) अधिकांश भग्न अवस्था में प्राप्त हैं। कुछ सुरक्षित उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि इन मूर्तियों को कमर से कुछ नीचे तक ही बनाया गया था क्योंकि इनका निचला भाग सपाट कटा हुआ है।
अब तक जो मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं वह मूर्तियाँ हाथ रहित हैं। इन मूर्तियों में भद्दी गठन है परन्तु कुछ मूर्तियों के चेहरे की बनावट में सुधार दिखाई पड़ता है।
पीरियानो घुन्डाई, कायुदानी तथा युगलघुन्डाई में इस प्रकार के उदाहरण प्राप्त होते हैं। इन मूर्तियों के माथे चिकने हैं, नाक उल्लू की चोंच जैसी नीचे गोल झुकी हुई है, आँख की पुतलियों के स्थान पर गहरे छेद हैं और ठोड़ी के ऊपर मुँह को एक छेद या दरार के रूप में बनाया गया है।
इन मूर्तियों में छाती की बनावट में पूरी गोलाई है और स्तनों के अग्रभाग (चुचुक) यथार्थ ढंग से बनाये गए हैं। झोव की मूर्तियों में कुल्ली की मूर्तियों के समान सिर की पोषाकें अत्यधिक भारी हैं।
कुल्ली मेंही सभ्यता की कला
मकरान क्षेत्र में सागर के समीपस्थ स्थित भाग में भी झोब की समकालीन सभ्यता के चिन्ह प्राप्त हुए हैं। कुल्ली क्षेत्र में पशु तथा स्त्रियों की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो एक ही प्रकार की हैं।
कुल्ली के कूबड़दार सांडों की आकृतियों में आकर्षण नहीं है क्योंकि धारियों के द्वारा रंगों से चित्रित इनके शरीर के रंग फीके और धुंधले पड़ गए हैं। इन सांडों के नेत्रों तथा सींगों के निचले भाग तथा गर्दन को भी रंगीन धारियों से सजाया गया था।
पशुओं की यह रंगीन मूर्तियाँ नुनदारानाल के बर्तनों पर अंकित सांडों की आकृतियों की याद दिलाती हैं। यह मूर्तियाँ बड़ी संख्या में एक परिसर में ही कुल्ली, शाहीटीला, मेंही बांध आदि स्थानों में प्राप्त हुई हैं।
यह मूर्तियाँ एक परिसर में ही प्राप्त हुई है जिससे प्रतीत होता है कि इनको चढ़ावे के रूप में किसी पवित्र स्थान या मंदिर में एकत्र करके रखा गया था।
इस प्रकार यह मूर्तियाँ खिलौने मात्र नहीं हैं। ये मूर्तियाँ एक प्रकार की ही हैं जिससे प्रतीत होता है कि ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित सांड का ही एक रूप है जो प्राचीन काल में पूजे जाते थे ये मूर्तियाँ दो इंच से चार इंच ब तक लम्बी हैं।
इनके पैर लम्बे हैं और पीठ पर कूबड़ प्रधान हैं जिससे पशु आकृति की रचना शक्तिशाली प्रतीत होती है। सामान्यता अनेक अंगों को यथार्थ गठन प्रदान की गई है। बच्चों के खिलोनों के रूप में भी यह पशु आकृतियाँ काम में आती थीं क्योंकि मेंही बांध से प्राप्त सांड की एक प्रतिमा के चारों पैरों में तथा कूबड़ में छेद बनाये गए हैं।
इन छेदों में पकाई मिट्टी के बने पहिये किसी तीली के सहारे लगाये जाते थे, इन पहियों के | उदाहरण अनेक स्थलों पर प्राप्त हुए हैं। कूबड़ में डोरी बांधकर भी इस सांड को खींचा जाता था।
कुल्ली से स्त्रियों की कुछ मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों पर रंग के चिन्ह नहीं दिखाई पड़ते हैं। इन मूर्तियों में सरल ढंग से शारीरिक गठन तथा अंगों की रचना को केवल उंगलियों की सहायता से उभारकर दर्शाया गया है।
इन मूर्तियों के नेत्र, बाल, नाभि, छाती इत्यादि को अलग-अलग छोटी-छोटी गोलियों या बत्तियों से बनाया गया है। आभूषण तथा सिर की पोशाकें भी गोलियों या बत्तियों से इसी प्रकार बनायी गई हैं और इन मूर्तियों में कमर तक ही शरीर बनाये गए हैं। इन मूर्तियों में चेहरे खुरदरे हैं और संकरे माथे तथा नुकीली नाके हैं।
नेत्रों के स्थान पर छोटी-छोटी गोलियाँ अंदर छेदों में बिठा दी गई हैं और मुँह नहीं बनाये गए हैं। छातियाँ अधिकांश आभूषणों से ढकी बनायी गई हैं या उपयुक्त आकार की गोलियों से बनायी गई हैं और हाथ घुमावदार हैं। एक मूर्ति में एक स्त्री दो बच्चों को भुजाओं में पकड़े दर्शायी गई है।
इन मूर्तियों में बालों की सज्जा सामान्यता ऊपर बंधे जूड़े के रूप में की गई है या कभी-कभी कंधे पर लटके भारी बाल भी बनाये गए हैं और कानों में शंकुनुमा आभूषण तथा गर्दन में अंडाकार या गोल लटकनदार हार बनाये गए है या कभी-कभी मणिकाओं के चौड़े गुलूबंद बनाये गए हैं।
मोहनजोदड़ो सभ्यता की कला
मोहनजोदड़ो में समाधियों, तालाब, स्नानागार तथा दोमंजिला मकानों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यह नगर योजनाबद्ध ढंग से बसाया गया था और सीधे मार्गों के दोनों ओर गहरी नालियाँ तथा प्रकाश स्तम्भ बनाये गए थे। इस नगर की समृद्धि कृषि तथा व्यापार पर निर्भर थी।
मोहनजोदड़ो में सूती कपड़ों के टुकड़े, करघे, आभूषण जैसे- हार, अंगूठियाँ, छल्ले, पेटियाँ, कुन्डल तथा कड़े प्राप्त हुए हैं। यह आभूषण सोने, चाँदी, हाथीदाँत, हड्डी, पकाई-मिट्टी, काँसे तथा तांबे के बने हैं। यहाँ युद्ध के हथियारों में तीर-कमान, भाले, कुल्हाड़ियाँ, छुरे, हंसिये, छेनियाँ, उस्तरे आदि प्राप्त हुए हैं जो काँसे या ताँबे के बने हैं।
यहाँ पर मिट्टी को पकाकर बनायी गई मोहरें भी प्राप्त हुई हैं। जिन पर उभारकर बनायी गई भैंसें, भेड़ें, गैंडे, वृषभ, सुअर इत्यादि पशुओं की आकृतियों के साथ ही लिपि – चिन्ह भी ऑकित है ये मोहरें साधारणतया २/४ तथा १.१/४ इंच वर्गाकार हैं, परन्तु कहीं-कहीं डोलनकार (सिलेंडर आकार) की मोहरें भी प्राप्त हुई हैं।
इन पशुओं की गठन तथा रचना में यथार्थता है। इन मोहरों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि चित्रकला का इस क्षेत्र में पर्याप्त विकास हो चुका था। मोहरों के अतिरिक्त गुलदस्ते, शृंगार-मंजूषा, तश्तरियाँ, कटोरे आदि प्राप्त हुए हैं।
सिन्धु क्षेत्र में मिट्टी के बर्तन चाक पर बनाये जाते थे। इन वर्तनों को आग में पकाकर लाल एवं काले रंग से रंगा जाता था। कुछ बर्तनों पर विविध रंगों का प्रयोग किया जाता था और बर्तन ओपे भी जाते थे। इस प्रकार के बर्तन तथा मोहरें दजला, फत के क्षेत्र में लगभग १००० ई० पू० में बनायी जाने लगी थीं।
मेसोपोटामिया में ‘उर’ नगर के अवशेष तथा मोहनजोदड़ो से प्राप्त कला सामग्री इस बात की द्योतक है कि भारत का सुमेर, मिस्र, फिलिस्तीन तथा ईरान आदि से घनिष्ठ सम्बन्ध था।
मोहनजोदड़ो में पकाई-मिट्टी के रोचक खिलौने प्राप्त हुए हैं जो मानव की उन्नत कला अभिरुचि के परिचायक हैं। इन खिलौनों में झुन-झुने, सीटियाँ (पक्षी के रूप में) पुरुष तथा स्त्री आकृतियाँ, पहियों से युक्त चिड़ियाँ तथा रथ आदि प्राप्त हुए हैं।
सिन्धु सभ्यता में चित्रमय लिपि का विकास हो चुका था जिसमें ३६६ चिन्हों का प्रयोग अनुमानित है।
लोथल
लोथल सभ्यता मोहनजोदड़ो के अन्तर्गत ही आती है। पुरातत्व विभाग ने मोहनजोदड़ो से लगभग ६०० मील दक्षिण पूर्व में सूरत के समीप लोथल नामक स्थान में १६३५ ई० में उत्खनन के पश्चात प्रागैतिहासिक अवशेष प्राप्त किए।
यहाँ पर हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो जैसी ही सामग्री मिट्टी के बर्तन, खिलौने, पशुओं की मूर्तियाँ, बिल्लौरी पत्थर की बनी छुरी, मनके और ताँबे की बनी वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ पर ताँबे का बना हुआ एक हंस प्राप्त हुआ है। जिससे ताँबे की ढलाई की उन्नत कला का ज्ञान होता है।
मोहनजोदड़ो में प्राप्त मूर्तियाँ
मोहनजोदड़ो में कुछ रोचक मूर्तियाँ भी प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों में एक योगी की मूर्ति जिसके नेत्र समाधि की अवस्था में नाक के अग्रभाग की ओर ध्यानस्थ हैं तथा एक पुजारी का सिर जिसमें भारी जबड़े, चौड़े-मोटे होठ और भद्दे तश्तरीनुमा कान हैं तथा एक आदमी की बैठी हुई सिर रहित मूर्ति, कलारुचि की परिचायक है।
ये मूर्तियाँ पत्थर की बनी हैं। मोहनजोदड़ो में दो तबंगी नर्तकियों की कांस्य प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं जिनकी ऊँचाई ६ से०मी० है। इनमें से एक नर्तकी युवती की प्रतिमा में युवती के लम्बे हाथ तथा पैर अनुपात रहित हैं। यह युवती बायीं भुजा में कोहनी तक मोटे कड़े पहने है, इसका दाहिना हाथ कमर पर है और बायाँ पैर ताल देने की मुद्रा में मुड़ा हुआ है।
हड़प्पा सभ्यता की कला
हड़प्पा की खुदाई में जो तीन सहस्त्र वर्ष प्राचीन योजनाबद्ध नगर प्राप्त हुआ उसमें अनाज भंडार, स्नानागार के अवशेष तथा अन्य सामग्री भी प्राप्त हुई, वह मोहनजोदड़ो से प्राप्त सामग्री के समान ही है।
हड़प्पा में लाल पत्थर की बनी एक मनुष्य के धड़ की मूर्ति जो ३३/४ इंच ऊँची मूर्ति प्राप्त हुई है, वह कला आलोचकों के लिए आश्चर्य का विषय है।
इस मूर्ति को भली प्रकार ओपा गया था। इस मूर्ति में माँसिल पेशियों की गठन तथा यथार्थता दर्शनीय है। यह प्रतिमा राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली में सुरक्षित है और इसके निर्माण का समय २५००-२००० ई० पू० के मध्य अनुमानित है।
इसी संग्रहालय में हड़प्पा से प्राप्त एक मृण्य मूर्ति है जिसमें माँ के साथ जुड़वाँ बालकों को बनाया गया है। यह प्रतिमा अनुमानतः २५००-२००० ई० पूर्व की है। यहाँ पर एक काले रंग के पत्थर की पुरुष प्रतिमा का भी धड़ मात्र प्राप्त हुआ है जो एक है पुरुष नर्तक का है।
यह नृतक अपने दाहिने पैर के बल पर खड़ा है और उसका बायाँ पैर नृत्य की भुवा में ऊपर उठा हुआ है। इस मूर्ति को ‘नटराज’ के आदि रूप का द्योतक माना गया है। इस मूर्ति की ऊँचाई ३७/० इंच है।
हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो से केवल तीन मिट्टी की मोहरें मिली हैं जिनमें शिव का पशुओं के साथ अंकन किया गया है।” मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मोहर पर पशुपति को पशुओं के साथ बनाया गया है।
इस मोहर में सींगदार मुकुट पहने त्रिनेत्रधारी शिव एक योगी के समान सिंहासन पर बैठे हैं। उनके चारों ओर कुछ पशु हैं जिनमें हाथी और चीता दाहिनी ओर, गैंडा और भैंसा वाय ओर और सींगवाला हिरन सिंहासन के नीचे खड़ा है।
शिव को पशुओं का देवता माना गया है, अतः इस मोहर पर शिव के ‘पशुपति’ रूप की छवि का अंकन मानना संगत है।
झुंकर तथा झांगर सभ्यता की कला
झुंकर सभ्यता के अवशेष मोहनजोदड़ो से अस्सी मील दक्षिण में नवाबशाह जिले के अन्तर्गत सिन्ध में चानूदड़ों में प्राप्त हुए हैं। यहाँ पर मिट्टी की अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
इन अवशेषों का परिचय १६३२ ई० में सर्वप्रथम श्री एन० जी० मजूमदार ने पुरातत्ववेत्ताओं को कराया। इसी स्थल पर बाद में दूसरी जाति आ बसी जो भूरे रंग के मिट्टी के बर्तन बनाती थी।
इस जाति की सभ्यता को झांगर सभ्यता के नाम से पुकारा गया है। झांगर में पकायी हुई मिट्टी की अनेक रोचक मूर्तियों प्राप्त हुई हैं जिनसे प्रतीत होता है कि सिन्धु नदी की घाटी के विस्तीर्ण क्षेत्र में रहने वाले लोग एक निजी सभ्यता का विकास कर चुके थे।
चित्रकला
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोथल नगरों के अवशेष मात्र रह जाने से चित्रकला का ठीक ज्ञान नहीं हो पाता। चित्रकला का जो भी ज्ञान प्राप्त होता है वह केवल विचित्र मृत्तिकापात्रों, टिकरो या वर्तनों पर बनी चित्रकारी से ही प्राप्त होता है।
लोथल में एक खिपड़े का बना हुआ घोड़ा तथा एक कलश पर बनी हुई गौरेया तथा हिरन की चित्रित आकृतियाँ चित्रकारी के प्रचलन की द्योतक है। यहाँ पर प्राप्त एक मिट्टी के बर्तन पर साँप, मोर, बस तथा ताड़ के वृक्ष आदि की आकृतियाँ अंकित हैं।
हड़प्पा के एक मृतिकापात्र के ढकने पर एक आलेखन में दो हिरन अंकित हैं। इस आलेखन की पृष्ठभूमि काली है और लाल रंग से चित्रकारी की गई है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में प्राप्त वर्तनों पर लोक-कला की चित्रकारी के नमूने ही प्राप्त हुए हैं जिनसे चित्रकला के प्रचलन तथा यथोचित उन्नत स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है।
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, लोथल आदि स्थानों में अधिकांश ज्यामितिक अभिप्रायों में वर्गाकार खाने, परस्पर काटती रेखाओं, वृत्तों या पत्तियों, मछलियों, वृक्षों, पक्षियों (मोर तथा गौरय्या), हिरन, बकरी, गीदड़ आदि के अभिप्राय लाल या काली मिट्टी के बर्तनों पर चित्रित हैं।
मानवाकृतियों के चित्रों में मछुये या माता तथा बालक को सरल आकारों में बनाया गया है। यह चित्रकारी अधिकांश लाल या काले रंगों या सफेद रंग से की गई है।
इस क्षेत्र में मिट्टी के टिकरों पर या मोहरों पर रेखाएँ खोदकर (उत्कीर्ण करके) भी चित्र बनाये जाते थे। इस प्रकार का एक चित्र उदाहरण मोहनजोदड़ो से प्राप्त टिकरे में अंकित है।
इस टिकरे पर एक नाव का रेखाचित्र उत्कीर्ण है,। मोहनजोदड़ों) इस नाव के उत्कीर्णित चित्र का समय अनुमानतः ३००० ई० पू० है ।
यद्यपि इस क्षेत्र में चित्रकला के अल्प उदाहरण ही प्राप्त हुए हैं परन्तु यहाँ पर प्राप्त मोहरों, मूर्तियों तथा अन्य सामग्री से ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस क्षेत्र की सभ्यता में चित्रकला का विशेष स्थान था।